Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

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Page 18
________________ [ 13 ] इस पर ए० पी० जैन ने हमारे लिए अभव्य आदि शब्द कह कर इतना परिश्रम उठाया । वह श्रम यदि जिनेन्द्र देवों की भक्ति में लगाता तो महान लाभ उपार्जन करता । भीले भाई ! मापने गयवरचंद शब्द का जो अर्थ किया तथा अभबी आदि कहा तो जब मैं करीब 9 वर्ष आपके (स्थानकवासी) टोलों के अन्दर रहा था। तब तो भव्य था- प्राचारवान् था। अब मैंने अापके टोलों को छोड़कर सत्य धर्म अंगीकार कर लिया तो अभवी हो गया। आपकी प्रवृत्ति की हम क्या तारीफ करें ! आपकी गलीच गालियों का उत्तर विद्वानों के लिए इतना ही काफी है। आचारांग सूयगडांग की दो गाथा नहीं मानने में गालियों के सिवाय शास्त्र का कुछ भी प्रमाण नहीं दिया है । भद्रक जीवों को भ्रम में डालने के लिए "मूल-टीका मूल-टीका" ही की पुकार की है। ___ बन्धुरो ! इस समय में विद्यादेवी (ज्ञान) के प्रचार से विद्वानों की संख्या बढ़ी है, प्रापकी पुकार पर कोई ध्यान नहीं देगा। विद्वान लोग यह विचार अवश्य करेंगे कि चौदह पूर्व के धनी भद्रबाहु स्वामी जिन नहीं पण जिन सरीखे, उनके बचनों का नन्दिसूत्र में सूत्र सम कहा है । यह बात जैनियों को निःशंक मानना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि जब पास में दूसरा पक्ष खड़ा होता है तब पक्षपात भी खड़ा होता है । मूर्ति उत्थापक का जन्म वि० सं० 1531 में हुआ था। मेरा हो सच्चा अछत्व है । सच्चा वह मेरा होना चाहिए ।

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