Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

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Page 58
________________ [ 53 ] [ए. पी.] ने [अण्णउत्थिय परिग्गाहयाणि वा चेतिता वा] इन दोनों पाठों का मतलब एक ही है । परन्तु जैन सिद्धान्तों के रहस्य का अनजाण [ए. पी.] ने श्रीमान् आत्मारामजी पर भी वृथा आक्षेप किया है, प्रथम तो दोनों पाठों में | अरिहन्त | शब्द का फर्क सुन लीजे | ए. पी. ] का किया हुआ अर्थ"मतका ग्रहण कर लिया है ज्ञान ऐसे भ्रष्टाचारी साधू को वंदना नमस्कार करना नहीं । अब कह ! तेरी प्रतिमा कौन से बिल में चूहा खींच ले गये ?" | ऐसा अर्थ किसी स्थानक वासियों के माने हुवे किसी सत्र में तथा खण्डन मण्डन की पुस्तकों में नहीं है । न जाने ( ए. पी.) कौनसे चूहों के बिल से निकले? अब हम पूछते हैं कि तुम्हारा लिखा हुआ पाठ अण्णउधियपरिग्गाहयाणि वा.) का क्या . अर्थ है ? तब उनको कहना ही पड़ेगा कि. (अन्य तीर्थ ग्रहण . किया) आगे (चोतिता वा) का क्या अर्थ है ? खोटा अर्थ करेगा तो पिण ज्ञान तथा साधु दोनों में से एक कहेगा । चाहे ज्ञान, चाहे साध, परन्तु आपने तो मन की मौज से चैत्य का अथ ज्ञान और साधू दोनों कर दिये हैं । खैर ! दोनों शब्द मिलके अन्य तीर्थी ग्रहण किया ज्ञान या साधु हुआ, तो फेर अन्नउत्थियपरिग्गहियाई अरिहंतचेइयाइं वा) कहने का क्या मतलब था? वो तो पहला पाठ (अन्न उत्थियाय) में ही आ गया। जो कहेगा कि ( अरिहंता) का ज्ञान तथा सरघा से भ्रष्ट हुआ साधु को नहीं वंदे । तो हम पूछेगे कि अरिहंत शब्द तो तुम मानते नहीं फिर अरिहंत शब्द कहां से निकाला ? कदाचित कहोगे कि सम्बन्ध पर प्रक्षेष करना पड़ता है।

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