Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

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Page 82
________________ ( 77 ) एवं खलु देवाणुप्पियाणं सुरियाभे विमाणे सिद्धाययणे असयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेह पमाण मेत्ताणं संण्णिखित्तं चिट्ठति । सभाए णं सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइरामए गोलवट्ट समुग्गए बहुओ जिणसकहाओ संणिखित्ताओ चिट्ठति ताओणं देवाणुप्पियाणं अण्णेस च बहुणं वेमाणियाणं देवाय देवीण य अच्च णिज्जाओ जाव वंद णिज्जाओणमसणिज्जाओ सक्का रिज्जाओ सम्माणणिज्जाओकल्लाणं मङ्गलं देव यं चोइथं पज्जुवासणिज्जाओ तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुण्यं करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छाकर णिज्जं तं एवं णं देवाणुप्पियाणं पुवि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामित्ताए भविस्सइ || भावार्थ - सुरियाभ देवता ने उत्पन्न होते ही विचारा कि मुझे पहिला पीछे कौनसा कार्य हित का, सुख का, कल्याण का, मोक्ष का करना है या भव 2 में साथ चलने वाला है ? तब उक्त देवता के सामानिकदेव तथा पर्षदा के देव हाथ जोड़ के कहता हुवा " स्वामी इस विमान में सिद्धायतन में 108 जिन प्रतिमा जिनेन्द्र देवों का शरीर प्रमाण याने | जघन्य 7 हाथ उत्कृष्टी 500 धनुष्य की अवगाहना ] तथा सुधर्म सभा में जिनेश्वर भगवान की डाढा है । वो आप को या अन्य कितने ही देवताओं को वदना पूजना यावत् सेवा करने योग्य है । यही पहला पीछे हितकारी, यावत् सुखकारी, कल्याणकारी, मोक्षकारी यहाँ करनी भव 2 में साथ चलने वाली है ।

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