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गणघर
साई
शतकम् ।
॥ १० ॥
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भद्रबाहुस्वामी का स्थान जैन इतिहास में अत्यन्त पूज्यनीय व महोच्च माना जाता हैं, भारतीय राजनैतिक इतिहास में भी ये अनुपेक्षणीय नही । आप का सम्पर्क चन्द्रगुप्त मौर्य से बतलाया जाता है, जिस पर आगे विचार किया जायगा ।
आपका जन्म प्रतिष्ठानपुर (पैठण) ब्राह्मण जाति प्राचीन गोत्र में हुआ था। कहा जाता है कि इनका बराहमिहिर नामक कनिष्ठ बंधु भी था, इन दोनों ने उपरोक्त यशोभद्रसूरिजी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। लघु बंधु का स्वाभाव अत्युग्र था । अतः आचार्य पद उनको न दे कर भद्रबाहुस्वामी को प्रदान किया, इससे उनका क्रोध यहां तक बढ़ा कि उसने जैन धर्म का त्याग कर राज्याश्रय लिया, क्रमशः मृत्यु पाकर जैन संघ पर विविध उपद्रव करने लगा, जिनकी उपशांति के लिये भद्रबाहुस्वामी ने उपसर्गहर स्तोत्र की रचना कर श्रावकों को दिया, जिसके पठन मात्र से उपद्रव शांत हो गया ।
आपने अध्यात्मविद्या में ( प्राणायाम में ) महान् उन्नति की थी, तदर्थ आपने नैपाल देश को उपयुक्त चुना था। वहां पर जब ध्यान में मन थे तब भी आपने अपना अमूल्य समय देकर गुरु बंधु शिष्य श्री स्थूलिभद्रादि ५०० मुनियों को वांचना दी थी।
आप १४ पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली थे, चंद्रगुप्त मौर्य सम्राटने भद्रबाहु के पास जैनमुनि दीक्षा अंगीकार करने के विषय में कुछ उल्लेख दिग० जैन साहित्य में दृष्टिगोचर होते है। इन में कितनी सत्यता है निम्न प्रमाणों से स्पष्ट हो जायगा
इस में कोई शक नहीं कि चंद्रगुप्त जैन धर्मानुयायी था, परंतु इसने जैन दीक्षा अंगीकार कर श्रवणबेल्गुला में अनशन स्वर्गवास प्राप्त किया, यह प्रश्न अत्यन्त विचारणीय है, दिगं० प्रन्थो में ऐतद्विषयक विसंवाद पाया जाता है ।
भद्रबाहु को आचार्यपद इस्वी० पूर्व ३९४-९५ तक माना आता है, जब मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त का शासनकाल इस्वी
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