Book Title: Gandhar Sarddhashatakam
Author(s): Jinduttsuri
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका। गणधरसार्द्धशतकम्। ॥२०॥ SORREARCH विस्तृत और विद्वान् था, जिनचंद्रसूरि, अभयदेवसूरि, श्रीधनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचंद्रसूरि, धर्मदेवोपाध्याय, सहदेव गणि आदि, इनमें से कई तो उत्तम श्रेणिके ग्रन्थ रचयिता थे। सुरसुंदरी कहा धनेश्वरसूरि रचित उत्तम कोटि की कथा है, जो बोम्बे युनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है, प्रस्तुतः ग्रन्थ, इस ग्रन्थ के रचयिता जिनभद्ररचित सूचित करते हैं। बुद्धिसागरसूरिजी भी कम विद्वान् न थे। आपने वि० सं०१०८० में स्वाभिधान बुद्धिसागर अपरनाम पश्चग्रन्थी व्याकरण गद्य पद्यात्मक १००० श्लोक में निर्माण किया, आप ही जैनों के आद्य व्याकरणकार माने जाते हैं, वृहद्वृति से मालूम होता है कि जिनेश्वरसूरिजी का अवसान पाटन में ही हुआ था । जिनभद्रः-इनका परिचय मात्र इतना ही प्राप्त है कि वे जिनेश्वरसूरिके शिष्य थे। श्री अभयदेवसूरि:-आपका जन्म धारानगरी में वि० सं०१०७२ में हुआ था। भारत में उस समय शिक्षा और कला की अपेक्षा से धारा का स्थान बहूत ऊंचा था, आपने अल्प वय में दीक्षा ग्रहण कर सर्व शास्त्रों के अध्ययन में उत्तीर्ण हो कर १६ वर्ष की अल्प वय में आचार्य पद प्राप्त किया था । किसी कारण आपको कुष्ट रोग हो गया, निवारणार्थ स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा वि०१११९ में प्रकट कर उसे दूर किया, नवांग पर नूतन वृत्तियें निर्माण की। प्रभावक चरित्रकार का सूचन है कि शीलांकाचार्यने पूर्व वृत्तिये निर्माण की थीं, पर अभयदेवसूरिजी स्वयं अपनी टीका में इसका विरोध करते हैं। आपने बहुत टीकाएं पाटन में रह कर बनाई थीं, और चैत्यवासी द्रोणाचार्यने संशोधनादि कार्य में पूर्ण सहायता प्रदान की थी। समवायांग वृत्ति (११२० । स्थानांग (११२०), उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्रों पर विद्वत्तापूर्ण वृत्तिये निर्माण कर जैनागमाभ्यास सुकर किया, षट् स्थानक पर भाष्य, हारिभद्रीय पश्चाशक पर वृत्ति, आराधना कुलक, महावीर स्तोत्र, जयतिहूअण स्तोत्र, नव तत्त्व, भाष्यादि आपके उत्कृष्ट विद्वत्ता RECAKACCORMER For Private and Personal Use Only

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