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बिरुद का कोई उल्लेख नहीं है, परंतु अभी हमने इस प्रति का पूर्ण रुप से अध्ययन किया, तब विदित हुआ कि, इस कृति में खरतर शब्द दो बार आया है, एक ग्रन्थादि भाग में और दूसरा बिरुद वाची, ये उल्लेख इस प्रकार है- “तत्र प्रवचनप्रभावनापासादोत्तुंगशिखरखरतर मरुत्तरंगरंग चारु चामीकरोहद दंडनिर्धौ पूतप्रबलकलकलाविद्राणरणत्किङ्किणी काण पट पटायमान धवलध्वजपटायमानः " ।
बिरुदवाचीः–“ कि बहुनेत्थं वादं कृत्वा विपक्षान्निर्वित्य राजामात्यश्रेष्ठिसार्थवाहप्रभृतिपुरप्रधानपुरुषैः सह भट्ट घट्टेषु वसतिमार्ग | प्रकाशन यशः पताकाय मान काव्यबन्धान् दूर्जनजनकर्णशूलान् साटोयं पठत्सुसत्सु प्रतिष्ठावसतौ प्राप्त खरतरविरुदा भगवन्तः श्रीजि - नेश्वरसूरयः एवं गूर्जरत्रा देशे श्रीजिनेश्वरसूरिणा प्रथमं चक्रे वक्त मूर्द्धसु पादमारोप्य वसति स्थापनेति " " वृहत् वृत्ति " उपरोक्त सभी खरतर बिरुद प्राप्ति विषयक पुरातन उद्धरण दिये हुए है, और भी अनेक ऐसे महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो इस पर नूतन प्रकाश डालते हैं, इन उल्लेखों को देखकर पाठक विचारेंगे किं चौदहवीं शती पूर्व कोई उल्लेख नहीं मिलता जिसके गच्छ के पूर्व खरतर शब्द हो" कथन कहां तक युक्तिसंगत है ?, इसकी पुष्टि में और भी प्रमाण दिये जा सकते हैं । खरतर बिरुद प्राप्ति से श्रीजिनेश्वरसूरिजी की यशःपताका सारे देशमें फहराने लगी, आजतक कोई ऐसा विद्वान् नहीं हुआ जिसने चैत्यवासियों के सामने शास्त्रार्थ कर अपना मत प्रतिपादन कर उन्हें परास्त किये हों, क्यों कि वे लोग भी कम विद्वान न थे, पर चारित्रिक सम्पत्ति से वे सर्वथा विमुख थे। जिनेश्वरसूरिजीने हरिभद्रजीके- अष्टक पर वृत्ति - ( वि० सं० १०८०) पञ्चलिंगी प्रकरण - वीर चरित्र-निर्वाण लीलावंती कथा(सं० १०९५)-कथा कोश - ( आशापल्ली सं० २०८२ - ९५ बीच ) - प्रमाणलक्षण सवृत्ति-पट् स्थानक आदि अनेक ग्रन्थ निर्माण कर बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है, आपका मुनि समाज पर जो उपकार है उसे हम कदापि नहीं भूल सकते। आपका शिष्यपरिवार
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