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ki साहित्य में प्रत्युक्त छंदों में आपने पाकृत भाषा के उत्तम पद्यों की रचना की है। आप जैसे उत्कृष्ट प्राकृत कवि अत्यल्प हुए हैं। आपके ग्रन्थ
इतने गहन विषय के है. जिन पर मलयगिरि और जिनपतिसूरि जैसे प्रौढ़ विद्वानों ने वृत्तिये निर्माण कर, सरल बनायें हैं। प्रस्तुतः ग्रन्थ में आपका वर्णन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उक्तियों अलंकारों से किया गया है और आप थे भी उस वर्णन के सर्वथा योग्य ।। । मूल ग्रन्थकार परिचय:-आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी का जन्म वि० सं० ११३२ गुर्जर प्रान्तान्तर्गत धन्धका नगर में मंत्री श्री बाच्छिग की धर्मपत्नी वाहडदेव की रत्नकुक्षी से हुआ था। बाल्यकाल में इनके लक्षण बड़े ऊंचे थे, श्री जिनेश्वरसूरि शिष्य धर्मदेवोपाध्याय की आज्ञानुवर्तिनी साध्वीयें चातुर्मास रहीं। इनके लक्षण पूज्य उपाध्यायजी को सूचित किये, उपाध्यायजी ने क्रमशः पधार
मातापिता को समझाकर सं०११४२ में इन्हें दीक्षित कर सोमचंद नाम रखा और अपने बड़े बंधु सर्वदेव गणि को परिपालनार्थ, MI अध्ययनार्थ अर्पित किया। आपने अत्यन्त बाल्यावस्था में न्याय, काव्य, साहित्य, दर्शन, अलंकार, ज्योतिष स्वपर मत का पूर्ण अध्ययन
कर हरिसिंहाचार्य पास जैनागम सिद्धान्त की वाचना ग्रहण की, आपने प्रसन्नता से इनको मंत्र पुस्तिका अर्पित की। देवभद्राचार्य
आप पर बहुत प्रसन्न रहा करते थे, उन्होंने अपने पार्श्वनाथ चरित्र महावीर चरित्रादि १ काष्ठोत्कीर्ण कथा ग्रन्थ अर्पण किये, ये अभी त्यागी, फिर भी असत्यता का प्रतिपादन क्यों किया गया? मैं नहीं कह सकता इसमें क्या रहस्य है ! पुरातन और आधुनिक ग्रन्थकार एक स्वरसे कहते है कि जिनवल्लभगणि खरतरगच्छीय ही थे, उस समय दूसरे गणि होने का उल्लेख कहीं पुरातनादि साहित्य में देखनेको नहीं मिला, फिर भी सत्खता में व्यर्थ शंका करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है । समकालिन एक ही नाम के दो महापुरुष हुए हो तब तो ठीक था, यहां पर शंकाकार की सांप्रदायिक मनोवृति व्यक्त होती है, उत्तर दाता भी साफ साफ निर्णयात्मक जबाब न दे कर और प्रश्नको संदिग्ध बनाते है वे तो स्वयं संदिग्ध मालूम होते है, उनसे उत्तर की आशा ही क्या कि जा सकती है, यह शंकाकार धर्मसागरीय सम्प्रदाय के प्रभावसे प्रभावित हो तो कोई विस्मयकी बात नहीं । बडौदाके पंडित लालचंदभाई ने इस विषय निम्न नोट लिख उदारताका परिचय दिया है । “कित्वेतत् सुदीर्घदृष्ट्या चिंततेन न समीचीनं प्रतिभाति"।
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