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भूमिका।
सार्द्ध
गणधर-पदा कहां है पता नहीं, इनका उल्लेख भी कहीं नहीं मिलता सिवाय वृहदवृत्ति के। उपर आप देख चुके हैं कि जिनवल्लभसूरिजी के स्वर्गवास
से जैन संघको भारी क्षति पहुंची, उनके पद को सुशोभित कर सके और उनकी क्षतिका अनुभव न हो, ऐसे योग्य पुरुष की प्रतीक्षा शतकम्।।
की जाने लगी। देवभद्राचार्य को आप इस उत्तरदायित्व पूर्ण पद योग्य मालूम हुए और वि० सं०११६८ वैशाख वदि ६ को चित्तौड़
नगरी में विधि चैत्य महावीरस्वामी के मंदिर में श्री संघ के सम्मुख आपको आचार्य पद से विभूषित कर जिनदत्तसूरि नाम बोधित किये। ॥२३॥
आपने अजयमेरु-अजमेर के अर्णोराज को त्रिभुवनगिरि के कुमारपालादि ४ राजाओं को प्रतिबोध दिया और उक्त नगरों में एकाधिक प्रतिष्ठाएं करवाई। बागड़ देश में आपने व्याघ्रपुरीय चैत्यवासी जयदेवाचार्य को प्रतिबोध दे सुविहित मार्ग अंगीकार कराया। जिनरक्षित, शीलभद्र, स्थिरचंदादि आपके शिष्य एवं श्रीमती जिनमतिपूर्ण श्री प्रमुख शिष्याएं थीं, इनको भी आपने वाचनाचार्य महत्तरादि पदों से विभूषित किये । आप बड़े चमत्कारी युगपुरुष थे, ६४ योगिनी बावन वीरादि देव देवीयें आज्ञा में थे । यह सर्व आपके उत्कृष्ट चरित्र का ही सुप्रभाव था । आज भी आपका भक्त शायद ही कष्ट में हो। आपने अपने जीवन में सबसे बड़ा अत्यन्त प्रशंसनीय यह कार्य किया कि १३००००० एक लक्ष तीस सहस्त्र राजपूतों को जैन धर्मानुयायी बना जैन धर्म व ओसवाल जाति में अभूतपूर्व वृद्धि की।
जैन समाज में आज तक कोई आचार्य ऐसे नहीं हुए जिनने एक साथ इतनी महान वृद्धि की हो। कहा जाता है कि रत्नप्रभसूरिजीने वीर निर्वाण ७० में ओसिया में ओसवाल जाति की स्थापना की, पर इसकी पुष्टि के लिये ऐतिहासिक ग्रन्थस्थ या शिलालेख एक भीप्रमाण नहीं है, मात्र किन्वदन्त्यात्मक पट्टावलीयों के आधारपर ही मुनि श्री ज्ञानसुंदरजीने इसघटना को इतना भारी महत्व देखा है जैसे की कोई बड़ी ऐतिहासिक घटना हो, यद्यपि आजतक कई लोग इसी बात को सत्य मानते आ रहे थे, परंतु अनेक दृष्टियों से विचारने से इसकी
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