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गणधर- सार्द्धशतकम्।
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गच्छ व्यामोह बतलाया है। हम यहां पर आदरणीय मुनिजी से इतना ही कहना उचित समझते हैं कि, उपरोक्त शब्द आपने स्वयं देखे
भूमिका। या किसी के कथन से आपने लिखा है। यदि सत्य में शब्द परिवर्तित किया होता तो मुनिजी को पूरे पत्र का फोटू देना था जिसकी लिपि पर से भी अनुमान लगाया जा सकता कि मूलकी लिपिमें और प्रक्षिप्त शब्द की लिपि कितना परिवर्तन है। हम नहीं समझ सकते कि ऐसा क्यों किया होगा, देवभद्रसूरि किसी और गच्छ के होते तब तो ऐसा करना भी ठीक था, पर वे तो खरतर गच्छ के ही थे, जैसा कि उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है। यहां खरयर शब्द जोडने की बात ही उपस्थित नहीं होती। मुनिजी और भी आगे सूचित करते हैं कि "जैसलमेरमां एवी घणी प्राचीन प्रतियों छे, जेमांनी प्रशस्ति अने पुष्पिकाओना पाठोने गच्छ व्यामोहने आधीन थई बगाडीने ते ते ठेकाणे “ खरतर" शब्द लखी नांखवामां आव्यो छे, जे घणुंज अनुचित कार्य छे" हम यहां मान्यवर मुनिजी से यही कहेंगे कि वे जिन ग्रन्थों में शब्द परिवर्तित किये गये हैं। उनकी सचित्र प्रतिकृति उपस्थित करें या सूचि पेश करें, हम आपके बहूत आभारी होंगे। देवभद्रसूरिजी के समय में लेखन कार्य में काष्ठका भी प्रयोग होता था, आप के " पार्श्वनाथ महावीर चरित्रादि" ग्रन्थ काष्ठ पर खुदवा कर श्री जिनदत्तसूरिजी को अर्पित किये थे । पुरातन भारतीय साहित्य में ऐसे बहुत से उल्लेख मिलते है, जिन से विदित होता है कि, प्राचीन समय लेखन कार्य में काष्ठ का प्रयोग होता था, "ललित विस्तर" (अ०१० पृ.१८१-८५ इंग्लीश आवृत्ति) “कटाहक" जातक इसके प्रमाण स्वरूप है, स्वयं गौतम बुद्धने अक्षरारंभ करते समय चंदन के काष्ठका उपयोग किया था, १० मी शताब्दी में गुजरात प्रान्त में भी काष्ठको विशेष उच्चत्व प्राप्त था, सोमनाथ का सुप्रसिद्ध मंदिर पूर्व काष्ठ का ही बना था, पर परमार्हत् कुमारपालने जीर्णोद्धार कर पाषाण का बनवाया, जैसलमेर में २ काष्ठपट्टिकाएं ऐसी है जिन पर जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरिजी के सुंदर
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