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सूचक ग्रन्थ है । आपका स्वर्गवास वि० सं० ११३५-३७ में गुजरात कपडवंज नगर में हुआ। आज भी वहां आपके चरण विराजमान हैं । अशोकचंद्र, धर्मदेव, हरिसिंह, सर्वदेव इन सभी का परिचय श्री जिनदत्तसूरिजी के प्रसंग में स्वयं आ जाता हैं ।
देवभद्राचार्यः - आपका जन्म किस ज्ञाति में ? कब ? कहां हुआ ? आदि ऐतिहासिक परिचय सर्वथा अनुपलब्ध है, मात्र इतना ही विदित है कि, आप श्री सुमतिवाचक के शिष्य थे, और आचार्य पद पूर्व का नाम गुणचंद्र था, (महावीरचरित्र में यही नाम आता है) आप बारहवीं सदी के विद्वान् आचार्य थे, आपकी दार्शनिक प्रतिभा आपके ग्रन्थों से स्पष्ट झलकती है, आपने कई ग्रन्थों की रचना की, तथा अन्य विनिर्मित ग्रन्थों का संशोधन किया, आपकी साहित्यिक सम्पत्ति इस प्रकार है, महावीरचरित्र. पार्श्वनाथचरित्र, कथारत्न कोश, प्रमाणप्रकाश, अनन्तनाथ स्तोत्र, स्तंभनक पार्श्वनाथ स्तोत्र, वीतराग स्तवः । प्राकृत भाषा पर आपका अपूर्व प्रभुत्व था, आपकी कविता में रसमाधुर्यता है, जो अन्यत्र शायद ही मिले, धारावाहिता तो आपका प्रमुख गुण है, आप न मात्र उच्चश्रेणिके साहित्यकार ही थे पर साथ ही कुशल गच्छ सञ्चालक भी थे। यहां पर प्रश्न उपस्थित यह होता है कि वे किस गच्छके थे ? यद्यपि उन्हों ने आत्म ग्रन्थों में स्पष्ट रूपेण किसी गच्छ के होने के उल्लेख नहीं किये, पर परंपरा को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि आप खरतरगच्छ के थे, अशोकचंद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरिजी को आपने ही आचार्य पद से सुशोभित किये थे, ऐसा खरतरगच्छ पट्टावली और गण० बृहत् वृत्ति से जाना जाता। यहां पर स्मरण रखना चाहिये कि अन्य किसी गच्छ के आचार्यों से इनका सम्बंध नही मिलता । जैसलमेर स्थित पार्श्वनाथ चरित्र में “ खरयर " शब्दोल्लेख होने का सुना जाता है, परंतु मुनिश्री पुण्यविजयजी कथारत्न कोश की प्रस्तावना ( पृ०९) में लिखते हैं कि यह शब्द बादमें किसीने सम्मिलित किया है, जिसका कारण आपने
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