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मणधर
सार्द्ध
शतकम्। ॥१९॥
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श्री जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर श्री जिनचंदसूरि शिष्य प्रसन्नचंद्रसूरि शिष्य सुमतिवाचक के शिष्य मुनि गुणचंद्र ने अपने
विभूमिका। सं. ११३९ निर्मित प्राकृत महावीर चरित्र में, निम्नोक्त उल्लेख किया है जिसके खरयर-खरतर-शब्द स्पष्ट रूप से किया है।
चोहित्थोग्य सिरिसूर जिणेसरो पैढमो। गुरुसाराओ धवलाओ खरयर साहू संतह जाया । आचार्य देवभद्रसूरिजी ने भी अपने पार्श्वनाथ चरित्र में (रचना काल सं. ११६८) खरतर शब्द का उल्लेख किया है। आयरिय जिणेसर बुद्धिसागर खरयरा गाया बि. सं. ११७० लिखित यल्ह कवि विरचित गुर्वावली में निम्नोल्लेख स्पष्ट है:
देवमूरि पहु नेमिचन्दु बहु गुणिहि पसिद्धउ । उज्जोयणुं तह बद्धमाणु खरतर वर लउ॥ उपरोक्त प्रबट्टावली में खरतर शब्द श्री वर्द्धमानसूरिजी के प्रसंग में आया है, इस से कोई खास बात में अंतर नहीं पडता, क्योंकि शास्त्रार्थ में वे भी थे। आचार्य भगवान श्रीमान् महाराजश्री जिनदत्तसूरिजी ने भी अपनी कृत्ति में खरतर शब्द का उल्लेख किया है।
"तुम्हह इहुयहु चाहिली दसिउ, हियइ बहुत्तु खरउ वीमंसिउ" इस पर बडौदा सरकार के मान्य पंडित लालचंदभाईने अपना * नोट लिखकर विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया है। उपरोक्त उदाहरण मूल ग्रन्थों के है, पर टीकाओं भी खरतर बिरुद प्राप्ति के साफ उल्लेख मिलते हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बडे महत्व के हैं, लोगों का ख्याल रहा है कि गणधरसार्द्धशतक की वृहद्वृति में खरतर
४३ पीटर्सन रिपोर्ट ३, १८८४-८६ पृ. ३.५ । ४४ जैसलमेर ज्ञानभंडार ताडपत्रीय प्रन्यांक २९६ । ४५ अपभ्रंश काव्यत्रयी G.0.S. No.XXXVII पृ. ११० । ४६ अपभ्रंश काव्यत्रयी GOSNo.XXXVII पृ. ७६
__४७ " उपर्युकामेव गाथायां " बहुत्तु खरऊ" पदं प्रयुज्य ग्रन्थ कत्रो निजाभिमतस्य विधिपथस्य " खरतर " इति गच्छ संज्ञा ध्वनिता वितळते विधि पथस्यैव तस्य कालक्रमेण प्रचलिता “ खरतर गच्छ " " इत्याभिधाऽद्यावधि विद्यते "
खरतर गच्छ" " इत्याभिधाऽयावधि विद्यते" उक्त पुस्तकस्य भूमिका पृ. ११६ ॥१९॥
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