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गणधर
भूमिका।
सार्द्ध
शतकम्।
महाराजा दूर्लभ बहुत चिंता में पड़े क्या करना चाहिये !, न्याय भी ऐसा होना चाहिये किसी को भी अन्याय न हो । बहुत विचार करने के बाद राजा ने निश्चित किया कि, सिवाय शास्त्रार्थ के कोई ऐसा तरिका नहीं है जिससे दोनों संतुष्ट हो सकें।
अतः शास्त्रार्थ का दिन निश्चित किया गया, दोनो पक्षों के लिये शास्त्रार्थ का उपयुक्त स्थान “ पञ्चासरा पार्श्वनाथ " चुना गया, और अध्यक्ष का भार चौलुक्यवंशीय महाराज दुर्लभ ने स्वयं ग्रहण किया।
शास्त्रार्थ के दिन चैत्यवासीयों की ओर से सूरौंचार्य प्रभृति विद्वान आये और सुविहित मुनियों की ओर से वर्द्धमानसूरिजी अपने दोनो विद्वान शिष्यों सहित सभामें पधारे। महाराजा दुर्लभ मी अपनी विद्वत् परिषद् युक्त पधार कर अध्यक्षासन ग्रहण किया। शास्त्रार्थ का मुख्य विषय था जैन मुनियों का आचार कैसा होना चाहिये ? (इस के अंतर्गत कई प्रश्न हुए) श्री जिनेश्वरसूरिजी ने प्रतिपादन किया कि, हमारे लिये तो पूर्व गणधर प्रदर्शित मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग है, एतद्विषय निर्णयार्थ राज ज्ञानभंडार से मुनिमार्गप्रदर्शक दशवैकालिक सूत्र मंगवा कर सिद्ध कर दिया कि, वर्तमान में जैसा चैत्यवासियों का आचरण है, वह वास्तविक रीत्या जैन मुनियों के आचार से अत्यन्त पतित है । राजाने सुन कहा तमे खरा को-आप सच्चे है ऐसा कह कर महाराजा दुर्लभ ने चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त कर वसति मार्ग सिद्ध करने पर श्री जिनेश्वरमूरिजी को खरतर विरुद अर्पित किया उनकी संतति खरतर गच्छ के नाम से
३७. सुराचार्य भी कम विद्वान न थे । आपने विद्वत्ता के बल पर भोज की सभा को पराजित किया था । शब्द और प्रमाण शास्त्र के आप अद्वितीय विद्वान थे । वि० सं० १०९० में आपने ऋषभदेव नेमिनाथ दो तीर्थकरों के चमत्कारिक द्विसंधान काव्य अपद्यगद्यात्मक निर्माण किया ।
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