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को आचार्य पदसे चौराशी गच्छों की स्थापना की, यह उल्लेख युक्ति संगत प्रतीत होता है । उद्योतनसूरि का अपर नाम दाक्षिण्याङ्कसूरि बतलाया जा रहा है जो " कुवलयमाळा कथा" के रचयिता थे, यह कथा प्राकृत भाषा का रत्न है। रचना चम्पू से मिलती जुलती है, रचना से उच्च व काव्य चमत्कृति साफ मालूम होती है, तत्कालिक प्रान्तीय लोकभाषा का अध्ययन इस के विना अपूर्ण रहेगा। रचनाकाल सं. ८३४ (श. ६९९) है । इनका १ संवत् ९३७ का लेख भी पाया जाता है। श्री वर्द्धमानसूरिः
उद्योतनसूरिजी के प्रमुख शिष्य थे। आप पूर्व कूर्चपुरी ८४ चैत्यगृह के अधिपति थे, पर शास्त्रोंका वास्तविक ज्ञान होने से चैत्यवास का सर्वथा त्यागकर सुविहित मार्ग अंगीकार कर विचरण करने लगे। आपने अर्बुदाचल पर्वतोपरि कठिन तपश्चर्याकर सूरिमंत्र की शुद्धि की, और वहां पर जैन मंदिर बनवाने को गूर्जरेश्वर भीमदेव चौलुक्य के ( वि० सं. ११७८-१९८०) दंडनायक प्रागवाट विमलमंत्री
२७. सगकाले यो लोणे, वरिसाण सएहिंसत्तहि गएहि, एग दिणेणूणेहिं रइया अबरण्ड वेलाए । .२८. (१) ॥ ॐ ॥ नवसु शतेष्वन्दानां सप्ततूं (त्रि)शदधिकश्वतीतेषु श्रीवच्छलांगलीभ्यां ज्येष्ठर्याभ्यां ।
(२) परम भक्त्या ॥ नाभेय जिनस्यैषा प्रतिमा-ऽषाडार्द्धमास निष्पन्नाश्रीम(३) तोरण कलिता मोक्षार्थ करिता ताभ्यो ॥ ज्येष्ठाय पदं प्राप्तो द्वावपि । (1) जिनधर्म वच्छलौ ख्याती उद्योतनसूरेस्तौ शिष्यौ श्रीवच्छलबलदैवौ ॥ (५) सं० ९३७ आषाढाढ़ें ॥
Jain inscription P. II P. 164
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