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धर्मानुसार है। ये लोग अभक्ष्य भक्षण अपेय पान कदापि किसी अवस्था में नहीं करते । हो सकता है सम्पति द्वारा प्रचारित जैन धर्मके वे ही जैन अवशेष हों, इस विषय पर हम विस्तृत अध्ययन कर रहे हैं । इस्वी पूर्व २३५ में सुहस्तिसूरि का स्वर्गवास हुआ।
आप ही अपने बृहत्गुरु बन्धु के समय में गच्छाधिपति थे। इस समय बहुत सी ऐतिहासिक घटनाएं घटी. जिनका संबंध जैन MI धर्म से है पर उन्हें व्यक्त करने का यह स्थान नहीं। आर्य समुद्र मंगु सुधर्माः
नंदी गुर्वावली से विदित होता है कि आर्य मंगु आर्य समुद्र के शिष्य थे। इनका उल्लेख विविध तीर्थकल्प में मिलता हैं"। इन तीनों का विस्तृित परिचय अन्यत्र अनुपलब्ध है। बृहत् वृत्तिकार ने "एतेसां त्रयाणामपि चरित्रं विशिष्टं वापि न दृष्ट" साफ लिखा है। भद्रगुप्तः
इनके विस्तृित परिचय के लिये बृहदृवृत्तिकार मौन है, आपने बज्रस्वामी को ११ अंग की वाचना उज्जयिनी में दी थी। "संभवतः इ० स०७ में इनका देहान्त हुआ।
१३. तौ हि यक्षार्थया बाल्यादपि मात्रेव पालिती, इत्यार्योपपदी जाती, महागिरिसुइस्तिनौ ॥ पर्व १०, लो० ३७ । १४. इत्थ अज्ज मंगु सुभसागरपारगो इहिरसमायगारबेहिं जक्सवत्तमुवागम्म, जीहापसारणेण साहूणं अप्पमायकरणथं पडिबोहमकासी ।
वि० ती० क० पृ. १९ । १५. ततो वनस्वामीना दशपुरात् उज्जयिन्यां गत्वा गुर्वाजजया श्रीभद्रगुप्ताचार्यसमीपे दशपूर्वाणि अधितानि ॥ कल्पसूत्रकल्पलता पृ० २२६ ।
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