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चातुर्मासिक
॥ १७ ॥
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अर्थ- शुभआचारहे जिन्होंका ऐसे श्रावकोंको आश्रवकषायको रोकना कैसे श्रावक सामायिक जिनपूजा | तपप्रमुखकृत्य में तत्पर वहां आश्रवपांचहे प्राणातिपात १ मृषावाद २ अदत्तादान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ इन्होंको रोकना अर्थात् त्यागकरना इसकहनेकर पहले बेइंद्रियादिकत्रसजीवोंकीविराधनाश्रावकोंको | सर्वदानों में अभयदानहिश्रेष्ठ सुयगडांग में कहा
वर्जनी
दाणा सिहं अभय पहाणं
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अर्थात् दानोंमें अभयदानप्रधानकहाहे और जगह भी कहा है
| दीयते म्रियमाणस्य -कोटिजीवितमेव च । धनकोटिं न गृह्णीयात् - सर्वोजीवितमिच्छति ॥ १ ॥ अर्थ-मरतेहुवेकों क्रोडद्रव्यकोईदेवे कोई जीवितव्यदेवे तब क्रोडधन नहिलेवे किंतु सर्वजीवितव्यकीवांछाकरे १ औरभीकहाहे
| योदद्यात्कांचनं मेरुं कृत्स्नां चापि वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् नहि तुल्यमहिंसया ॥ २ ॥ अर्थ- जो मेरुपर्वतजितना सोनादेवे अथवा सर्वपृथ्वीका दानदेवे और १ मरतेहुवे जीवको बचावे तो अहिंसाकेतुल्य मेरूपर्वतजितनाधन और सर्वपृथ्वीकादान न होवे २ इसकारणसे अभयदानको प्रधान
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व्याख्यानम्.
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