Book Title: Dwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Author(s): Jinduttsuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 170
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit दीवा०संयमका लाभ संयममें समाधिः इक्षुरस अहारपूर्वक होनेसे श्रेयांसने निरुपम सुख पाया इस कारणसे सुपात्र अक्षयतृयाख्या०६दान महाप्रशंसनीय है ॥ तीयाका व्याख्यानं. ॥८४॥ रिसहेससमंपत्तं, निरवज्ज इस्खुरससमंदाणं। सेयांससमोभावो, हविज जई मग्गियं हजा॥४॥ ६ अर्थः-श्रीऋषभदेवखामीके जैसे पात्र निरवद्य इक्षुरसके जैसादान श्रेयांसके जैसा भाव यह तीन चित्त, वित्त, पात्र यह जो मिले तो मुखमार्गित मिले याने इनतीनोंका सम्बन्ध पुण्यके उदयसे होवेहै यहां कोई पूछताहै कि तीनलोकके पूज्य भगवान्को बारहमहीनोंतक कैसे अहार नहीं मिला आचार्य उत्तर कहते हैं पूर्वकृत कर्मके उदयसे अन्तराय हुआ सो कहते हैं कोई पूर्वभवमें ऋषभदेवखामीका जीव मनुष्य था मार्गमे चला जाताथा धान के खलेमें वृषभ धानखातेथे तष वृपभका मालिकवृपभोंको पीटता था वह देखके वोलाअरे मूर्ख वृपभोंके मुख में छींकी क्यों नहीं बांधताहै तब टू वृषभकाखामी बोला मैं छींकी बांधनानहीं जानता हु तब उस पथिकने छींकी बनाके वृपभोंके वांधी वृषभोंने ३६० निश्वास डाला उससमय अन्तरायकर्म बन्धा वही कर्म भगवान्के भवमें उदय आया इसकारणसे बारह महीनोंतक ॥८४॥ आहार नहीं मिला उस कर्मका क्षयोपसम होनेसे श्रेयांसने भगवान्को आहारदिया श्रेयांसने उस दानके फलसे छ मुक्तिका सुख पाया उसी दिनसे साधुओंको शुद्ध अहार देनेका विधि सब लोगोंने जाना बाद भगवान् ऋषभदेव है SANGACASSASSAMACCORDCRE For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180