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प्राचीन-पुस्तकोद्धार-फण्ड ग्रन्थाङ्कः २३ ॥ द्वादशपर्व व्याख्यान-भाषान्तरम् ॥
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श्रीमज्जैनाचार्यश्रीजिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजसाहेबके सदोपदेशसें-नागपुर-वास्तव्य श्रेष्ठीवर्य
श्रीसहसकरणजी-शुभकरणजी-हेमकरणजी-मरोटीके द्रव्यसहायसेप्रकाशक-श्रीजिनदत्तसूरिज्ञान-भंडार-सरत-जव्हेरी-पानाचंद-भगुभाई. मुद्रयिता-रा. रा. रामचंद्र येसू शेडगे मोहमयी कोलभाटवीथ्यां २६।२८ निर्णयसागरमुद्रणालये.
विक्रमसंवत् १९८३. सन १९२६.
मूल्यं १ रूप्यकम्।
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Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, . Kolbhat Lane, Bombay.
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Published by Javeri Panachand Bhagubhai Shri Jinadattasuri Jnan Bhandar, SURAT.
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॥ श्रीजिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फण्ड ग्रन्थाङ्क २३ ॥ उपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणगणिकृतसंस्कृतोपरि हिंदीभाषाऽन्वितं
अथ श्रीचातुर्मासिकव्याख्यानं प्रारभ्यते।
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श्लोकःस्मारं स्मारं स्फुरज्ज्ञान, धामं जैनं जगन्मतम् । कारं कारं क्रमाम्भोजे गौरवे प्रणतिं पुनः ॥ १॥ निबद्धांप्राक्तनैःप्राज्ञैर्वीक्ष्य व्याख्यानपद्धतिम् । लिख्यते लेशतोव्याख्या चातुर्मासिकपर्वणः॥२॥युग्मम्॥3 | अर्थ-देदीप्यमान ज्ञानका धाम और जिससे जगत् जाना जाता है ऐसे जैनशासन-जैन-सिद्धान्तका वारंवार स्मरण कर और गुरुके चरणकमलोंमें नमस्कार कर ॥१॥प्राचीन पण्डितोंने रचीहुई व्याख्यानपद्धतिको देखकर चातुर्मासिक पर्वका लेशमात्र व्याख्यान लिखता हूं॥२॥ यहां पर्वाधिकारमें आषाढ़ १ कार्तिक २ और फाल्गुन३चौमासोंमें हरएक चातुर्मासिक पर्व आनेसे सापेक्ष-व्यवहार-निश्चय सहित श्रीजिनशासनको जानकर एका
चा. व्या."
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चातुमासिक
॥
१
॥
न्तवादको दूर करनेके लिए आवश्यक शास्त्रमें कहा। शुद्ध मुद्रा और शुद्ध-रूपक-लक्षण चौथेभांगेके तुल्य द्रव्य-भाव-त.
व्याख्यालिङ्ग-सहित इच्छा करनेवाले स्थाद्वाद-रुची धर्मार्थी प्राणियोंको सम्यग् धर्म-कार्य करना चाहिये। यहां ४ भांगे नम्
कहे हैं सो दिखाते हैं।-१ अशुद्ध-रूपक अशुद्ध-मुद्रा, याने सिक्केमें चांदी खोटी होय और छाप भी खोटी होय, यह द पहला भांगा है, इसमें चरकपरिब्राजकादिक जानना, जिन्होंका ज्ञानादिक गुणभी अशुद्ध है, और वेषभी अशुद्ध है है। २-अशुद्ध-रूपक शुद्ध मुद्रा; इसमें पासत्था वगैरह जानना, जिसके ज्ञानादिक गुण शुद्ध नहीं है किन्तु वेष
शुद्ध है। ३-शुद्ध-रूपक अशुद्ध मुद्रा, जिन्होंका ज्ञानादिक गुण शुद्ध होय और साधुका वेश न होय, ऐसे अन्त8|र्मुहूर्त तक द्रव्यलिङ्ग को नहीं ग्रहण करनेवाला प्रत्येक बुद्धादि जानना। ४-शुद्ध-रूपक शुद्ध-मुद्रा-द्रव्यभावदालिङ्गशुद्ध ऐसे साधु जानना, जिनका ज्ञानादिक गुण शुद्ध है और वेष भी शुद्ध है। इन ४ भागोंमें चौथा भांगा।
शुद्ध होनेसे अङ्गीकार करने योग्य है। | अब श्रावकोंका प्रथम सामान्य प्रकारसे किञ्चित् कर्त्तव्य कहतेहैं-जिसका अन्त मुश्किलसे होताहै ऐसे अनन्त भवभ्रमणसे डरनेवाले और जैनमार्गका अनुसरण करनेवाले श्रद्धालु (श्रावकों) को निरंतर बहुत सावद्य ब्यापारको वर्जना चाहिये; विशेषकर फाल्गुन आदि महिनोंमें तिल वगैरह धान न रखना चाहिये, क्योंकि उसमें बहुत त्रस जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका सम्भव है । और, आम-प्रमुखका आचारका, जब जीव-संसक्त हो तव
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त्याग करना, जीव- मिश्रित महुडा - बील वगैरहके फलोंका और अरनी वगैरके फूलोंका त्याग करना चाहिए । | वर्षाकालमें चन्दलेवा वगैरह पत्र - साक, बहुतसे सूक्ष्म त्रस जीवोंसे मिश्रित होनेके कारण, नहीं खाना चाहिए । योगशास्त्रमें हेमाचार्यजीने गुर्जरादि देशों में महाजन - प्रसिद्ध कहा है कि फाल्गुनकी पौर्णमासीसे लेकर कार्त्तिक पौर्णमासी तक पत्र-साक नहीं खाना; और अत्यन्त पकाहुआ याने नरमहोगया चलित - रस ऐसे काकडी बगैरहका फल जीवाश्रय होनेसे वर्जना; और छिद्रसहित, नहीं पका हुआ फल भी, अन्दर जीवोका सद्भाव होनेसे छोडना । इस प्रकारसे और भी अज्ञातफल तथा सर्व अभक्ष्यवस्तुओंको त्यागना चाहिए । उक्तं च“अज्ञातकं फलमशोधितपत्रशाकं, पूगीफलानि सकलानि च हट्टचूर्णम् ।
मालिन्य सर्पिरपरीक्षकमानुषाणामेते भवन्ति नितरां किल मांसदोषाः ॥ १ ॥”
अर्थ- मनुष्यों को ये चीजें खानेसे निश्चय मांस-दोष लगता है । जिसका नाम कोई नहीं जाने ऐसा फल १, नहीं सोधा हुआ पत्र - शाक २, अखण्ड सोपारी वगैरह फल ३, विकताहुआ दुकानका आटा ४; नहीं परीक्षा | कियाहुआ मैलाघी ५, इन पदार्थोंको खानेसे मांसका दोष होता है ॥ १ ॥ और जो जो द्रव्य ग्रीष्मादिक कालमें शीघ्रविनाशी होय, वे भी उपयोगसहित वर्जनेयोग्य हैं । सज्जनोंको निरवद्य ही ग्रहणकरनाचाहिये ।
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चातु
मासिक
व्याख्यानम्.
अब विशेषकरके इस चौमासापर्व में श्रावकोंका कर्तव्य दिखाते हैं
“सामायिकावश्यकपौषधानि, देवार्चनस्नात्रविलेपनानि ।
ब्रह्मक्रियादानतपोमुखानि, भव्याश्चतुर्मासिकमंडनानि ॥ १॥" अर्थ-भव्यो ! ये सामायिकादिक धर्म-कृत्य चातुर्मासिकपर्वका मंडन अलङ्कारभूत हैं, ये तुम्हारे सेवनकरनेयोग्य है, ऐसा जानना । यद्यपि चौमासे तीन है, तोभी जिसको उद्देशकरके व्याख्यान किया जाय उसका नाम लेने में दोष नहीं है। यहां कोई पुरुष सामायिक करे. कोई प्रतिक्रमण करे.कोई पौषध करे. कोई देव-पूजा-स्नानविलेपनादिक करे, कोई ब्रह्मचर्य पाले, दान देवे, तप तपे, भावना भावे, यह सब यथाशक्ति करना इसमें कोई विरोध नहीं है। यहां पहले तिथियां देखनी चाहिये। वे तिथियां ३ प्रकार की होती है सो दिखाते है,-"चउद्दसट्टमुहिट्ठपुण्णमासिणित्ति" ऐसे सूत्रकृताङ्गादिकसिद्धान्तके पाठसे महीनेमें २ चतुर्दशी २ अष्टमी, २ अमावस्या और पोर्णमासी इन तिथियों में चारित्रआराधना शीलांगाचार्यादि गीतार्थों के अङ्गीकार करनेसे उद्दिष्ट शब्द करके जिनकल्याणक-तिथियो और पर्युषणा-तिथियोंका भी ग्रहण करना । दूज २, पांचम २, इग्यारस २, इन ज्ञानतिथियों में ज्ञानको आराधना और दर्शन-तिथियों में दर्शनको आराधना। इसकथनसे सम्यग्दृष्टियोंको मिथ्या
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७/त्वका परिहार कर देवपूजा, गुरुसेवा; जैनागमका सुनना, धर्मकृत्यका अनुमोदन-तीर्थयात्राका करना, जिन
कल्याणकभूमिका स्पर्शनादिककर निरन्तर सम्यक्त्व निर्मल करना चाहिये । आवश्यकनियुक्तिमें कहा है कि|"जम्मं दिक्खानाणं, तित्थयराणं महाणुभावाणं । जत्थ य किर निव्वाणं, आगाढं दंसणं होई"॥१॥ है अर्थ-जहां तीर्थंकरों ( महानुभावों ) का जन्म हुआ है और हीक्षा हुई है और केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है,
और जहां मोक्ष हुआ है वह स्थान फरसनेसे सम्यक्त्व मजबूत होता है । यह प्रसंगसे कहा है। यहां चौमासा
चारित्र तिथी होनेसे चारित्रका विशेष आराधन करना । अब पहले समायिकका खरूप कहते है, सम, रागहै। द्वेष-रहित जीवके, आय ज्ञानादिकका लाभ-प्रशमसुखरूपको, समाय कहिये । वही सामायिक है कि मनवचन कायाकी सावद्य चेष्टाका परिहारकर मुहूर्ततक सर्व वस्तुओंमें सम परिणाम रखना । उक्तं च
__निंदपसंसासु समो, समोय माणावमाणकारीसु ।
समसयणपरियणमणो; सामाइयसंगओ जीवो ॥१॥" "जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरे सुय ।तस्स सामाइयं होइ, इमं केवलिभासियं ॥२॥ अर्थ-सामायिक-सहित जीव निन्दा-प्रशंसामें सम होय, और मान अपमान करनेवाले पर भी सम परिणाम
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चातुमासिक
AISHAHANSASSARISSA
रक्खे, खजन-परजन पर भी सम भाव रक्खे ॥१॥ जो त्रस-थावर सर्वप्राणियोंपर सम परिणामवाला होय तिसको व्याख्यासामायिक होता है यह केवलीका कहा हुआ है ॥२॥ और सामायिक में रहा हुआ श्रावक गृहस्थ है तो भी नम्. साधु-तुल्य होता है। कहा भी है
"सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जह्मा ।
एएण कारणेणं बहुसो समाइयं कुज्जा ॥१॥ अर्थ-सामायिककरने से श्रावक साधुके जैसा होता है, इस कारण से बहुतवार सामायिक करना । यहाँ एक5/देशीय उपमा है, जैसे तलावसमुद्र के जैसा है, अन्यथा साधुके ५ महाव्रत होते हैं और श्रावकके पांच अणुव्रत
होते हैं साधुको २० विश्वा दया होती है और श्रावकको ११ विश्वा दया होती है इत्यादि । इसी कारण से है सामायिकमें रहे हुए श्रावकको तीर्थकर देवकी स्नात्र पूजादिकका भी अधिकार नही है, क्यों कि सामायिकरूप भावस्तवको प्राप्त होनेसे द्रव्य-स्तव करना अघटित है। और सामायिक दुर्लभ है; यथा
॥३ ॥ "सामाइयसामग्गिं, देवावि चिंतंति हिययमज्झम्मि । जइ होइ मुहुत्तमेगं, ता अह्म देवत्तणं सुलहं ॥१॥
SANSKRRAKASKAR
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__ अर्थ-सामायिक की सामग्री एक मुहूर्त मात्र भी जो हमको मिले तो हमारा देवपन सफल हो ऐसा देवता *
भी चाहते हैं-अर्थात् देशविरति या सर्वविरति सामायिक इन्द्रादिक देवता नहिं करसकते हैं, ऐसा सामायिक 8|दुर्लभ हैं। यहां सामायिक के करनेवाले श्रावक दो प्रकारके होते हैं।-ऋद्धिमान् और ऋद्धिरहित । इनमें जो||
ऋद्धिरहित होय सो साधुके पासमें १, जिनमन्दिरमें २, पोसहसालामें ३, अथवा अपने घरमें निर्विघ्न ठिकाने सामायिक करे,। ओर जो राजादिक ऋद्धिमान् होवे वह बडे आडम्बरसे साधुके पास उपाश्रयमें आकर सामायिक करे । अर्थात् विधिसे सामायिक उच्चार कर पीछे 'इरियावहि' पडिक्कम, ऐसा आवश्यक बृहदवृत्तिा| दिकमें कहा है। इस कारणसे कि ऐसे बडे लोग भी सामायिक करते हैं यह देखकर लोकमें जिनशासनकी बडी प्रभावना होती है । अब सामायिकके नाम कहते हैं, गाथा
"सामाइयं १ समइयं २, सम्मंबाओ३ समास ४ संखेवो ५।
अणवजं ६ च परिणा ७ पच्चक्खाणे ८ य ते अट्र ॥१॥ अर्थ-सामायिक नाम समभाव १, समयिक अर्थात् सम्यक् सर्वजीवोंमें दयापूर्वक प्रवृत्ति २, सम्यग बादराग द्वेष और भय परिहार कर यथावस्थित कहना ३, समास-थोडे अक्षरोंसे कर्म-नाशक तत्व-बोध ४, संक्षेप-टू
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चातु
मोसिक
व्याख्यानम्.
NUSAIGALASAMACLASSAGAR
थोडे अक्षर और महा-अर्थ ऐसी द्वादशांगी ५, अनवद्य-निष्पापआचरण ६, परिज्ञा-पापत्यागकर सर्व प्रकारसे वस्तुतत्वका ज्ञान होना ७, प्रत्याख्यान-छोडने योग्य वस्तुका त्याग, सामायिकके ये आठ नाम कहे हैं। ___ अब इन्होंका क्रमसे ८ दृष्टान्त कहते हैं। उनमें पहला दमदन्त राजरिषिका दृष्टान्त कहते हैं, जैसे__हस्तिशीर्ष नगरमें दमदन्तनामका राजा था। उसको एक दिन हस्तिनापुरके खामी पाण्डवों और कौरवोंके। साथ सीमाके निमित्त महान् विवाद हुआ। कई दिनोंके बाद दमदन्तराजा जरासंध प्रतिवासुदेवकी सेवामें जानेसे पाण्डव-कौरवोंने उसका देश भांगा। यह बात सुनकर क्रोधातुर दमदन्त राजा जल्दी बहुतसेनालेकर हस्तिनापुरपर चढकर आया । वहां दोनोंका परस्पर महा-युद्ध हुआ, परन्तु दैवयोगसे पाण्डवकौरव भग
गए । दमदन्त राजा विजय प्राप्त कर अपने नगरको आया । बादमें एक दिन दमदन्त राजा सन्ध्याके समय है पञ्चवर्णके बादलोंका स्वरूपदेखकर बैराग्य-प्राप्तहुआ-संसारको असारजानकर अर्थात् बादलके जैसा
अनित्य मानकर उसने प्रत्येकवुद्ध पणेसे दीक्षाग्रहणकी ! उसके बाद ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे अन्यदा
हस्तिनापुर आए और दरवाजेके बाहर कायोत्सर्गमें रहे । तब बगीचेको जातेहुए पाण्डवोंने मार्गमें उस है मुनिको देखा और लोगोंसे पूछा तो जाना कि ये दमदन्तराजऋषि हैं, तब जल्दी घोडोंसे उतरकर विधि-युक्त
वन्दना कर उसके दोनों प्रकारके बलकी प्रशंसा किया-यह मुनि जब राज्य करते थे तब हमको भी जीता |
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SANSARSHURAKASERECTOR
था और अब कर्मरूप बडे शत्रुओंको जीतते हैं; धन्य हे यह महापुरुष, इत्यादिकश्लाघाकरते आगेचले। थोडे ही समयके बाद वहाँ कौरव आपहुंचे। उन्हीमेंसे दुर्योधनने दमदन्त राजऋषि जान कर बहुत दुर्वचनोंसे तिरस्कार कर उनके सामने वीजोरेका फल फेंका और आगे चला गया । बाद “यथा राजा तथा प्रजा।" इस न्यायसे पीछे चलते हुए सैन्यने काष्ठपाषाणादिकके फेंकनेसे मुनिके चारोंतरफ ऊंचासा चोतरा बना दिया ।। |पीछे लौटते समय पाण्डवोंने मुनिके ठिकाने बडा चोतरा देखकर लोगोंसे पूछने पर वह सब कौरवोंका किया हुआ दुराचार जान कर जल्दी वहाँ आकर पाषाणादिक दूर कर दमदन्त राजऋषिको नमस्कार कर वे अपने ठिकाने गए । इस प्रकारसे पाण्डवोंने सत्कार किया और कौरवोंने अपमान किया तोभी उस मुनीन्द्रने दोनोंपर , समभाव धारण किया, किंचिन्मात्र भी राग द्वेष नही किया, इस प्रकार यह समभाव पर दमदन्त राजऋषिका । दृष्टान्त कहा ॥१॥ __ अब दया-पूर्वक प्रवृत्ति पर मैतार्य का दृष्टान्त कहते हैं;-मैतार्य मुनि पूर्व-भव-आचरित कर्मके प्रभावसे राज गृह नगरमें चाण्डालके कुलमें उत्पन्न हुआ। चाण्डालनीने जन्मसमय-में ही उसको मृतवत्सा रोग धरनेवाली धनदत्त सेठकी स्त्रीको गुप्त रूपसे देदिया। वह बालक सेठकै ही घरमें बड़ा हुआ । क्रमसे यौवनावस्थामें पूर्व-3 भवके मित्र देवताके साहाय्यसे ८ सेठोंकी कन्या और एक श्रेणिक राजाकी कन्याके साथ पाणिग्रहण किया।
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चातु. मासिक
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बारह वर्षके बाद देवताके वचनसे श्रीमहाबीर खामीके पास दीक्षा लेकर वे बहुत देशोंमें विहार करते हुए एकदा व्याख्याराजगृह नगरमें भिक्षाके लिये फिरे हुए सोनारके घर पर आए । वहां सोनार मुनिको देखकर भिक्षा लानेको नम् |घरके भीतर गया। पीछे से वहाँ पडे हुए श्रेणिक राजाके देवपूजाके वास्ते बनाये हुय एक सौ आठ (१०८) सोनेके जवोंको एक कौंचपक्षी आकर खा गया और दिवालपर जा बैठा । उतनेमें सोनार शुद्ध आहार लेकर मुनिके पास आया। इतनेमें सोनेके जवोको वहाँ पर न देख उस साधुको ही चोर विचार कर कहने लगा कि अहो साधु ! यहां रहे हुए जव किसने लियो सो कहो ? तब साधुने विचारा कि जो 'पक्षीने खाया' ऐसा कहुंगा तो यह सोनार मेरे बचनसे इस क्रौंचकी हत्या करेगा। ऐसा विचार कर मुनिने मौन धारणकिया तब अत्यंत
क्रोधित हुए सोनारने गीली बाधसे मुनिका मस्तक बाधं दिया और उन्हें धूपमें खडे कर दिये । उससे उनको 3 ६ इतनी बडी वेदना उत्पन्न हुई कि उनकी आंखें बाहिरनिकलआई । तो भी मुनिने तो शुद्ध भावनाका ही
आश्रय लिया । अन्तमें वे अन्तकृत् केवली हो कर मोक्ष गए । इस तरहसे प्राणान्त उपसर्गमें भी मेतार्य मुनिने जीवदया ही मनमें बिचारी, मगर और कुछ नहिं विचारा । इसीतरहसे ओरोंको भी आचरण करना |चाहिए । इस प्रकारसे यह समयिकपर मेतार्य मुनिका दृष्टान्त कहा ॥२॥
अब सत्यवादपर कालकाचार्यका दृष्टान्तकहते है, जैसे-तुर्मिणीनगरीमें कालकाचार्यका भानजा दत्त
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नामक पुरोहित, छलसे अपने राजा जितशत्रुको कारागृहमें डालकर, आप राज्य करने लगा। अन्यदा माताकी प्रेरणासे दत्त आचार्यके पास जाकर उन्मत्त भावसे और धर्मकी ईर्ष्यासे क्रोधके साथ श्रीगुरुसे बोला, यज्ञका 8 क्या फल हैं, वाद आचार्य धैर्य अवलंबन करके बोले यज्ञ हिंसारूप है और हिंसाका फल नरक है यह सत्यही कहा, तब दत्त बोला इसकी क्या प्रतीति हैं, आचार्य बोले, तें सातवें दिन कुंभीमे पकेगा ऊपरसै कुत्ता खावेगा। वाद दत्त बोला इसमें क्या प्रत्यय है, आचार्य बोले उस दिन तेरे मुखमें अकस्मात् विष्ठा पडेगी, तब हुंकारसहित दत्त बोला तें कैसे मरेगा, आचार्य बोले में समाधिसे मरूंगा और सद्गतिजाउंगा, वाद अपणे सुभटोंसे आचार्यकुं रोकके दत्त घर जाके प्रच्छन्न रहा, मतिभ्रमसे दत्त सातवें दिनको आठवा दिन मानता घोडेपर सवार होके आज आचार्यके प्राणोंकी सांति करके आईं असा विचारके चला उतने एक माली कार्याकुलसै राजमार्गमें मलोत्सर्ग करके फूलोंसे ढक दिया उसी मार्गमें दत्त आया तब घोडेके खुरसे उछलके विष्ठा मुखमें 8 पडी उसके खादसे चमत्कार पाया सातवां दिन मानता खेदातुर होके पीछा पलटा तब इसका दुराचारसे खेदातुर भया मूल मन्त्रियोंने जितसत्रु राजाकुं पिंजरेसे निकालके पाटपर बैठाय दत्तकुं छलसे पकडके राजाकुं दिया राजाने कुंभीमें डालके नीचे अग्निजलवाके ऊपरसे कुत्ता छोडके कदर्थना करवाई दत्त मरके नरक गया, आचार्यका बहुत सत्कार किया । इतने कहनेसे सत्यवादपर कालिकाचार्यका दृष्टांत कहा ॥३॥
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चातुमासिक
॥ ६ ॥
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समासपर चिलातिपुत्रका कथानक कहते है । राजग्रहनगर में धनदत्तसेठ था उसके ४ पुत्र और १ सुसमा नामकी पुत्री थी चिलातिनामका दास था एकदा दासको सुसमापुत्री के साथ दुराचार करते देखके दासकुं निकाल दिया तब चिलातिपुत्र चोरोंकी पल्लीमें जाके रहा एकदा चोरोंकी घाड लेके राजगृह आया सेटके घर में प्रवेश किया चोरोंने धन लिया चिलातिपुत्र सुसमाकन्या को लेके चला सेठ पुत्रों सहित पीछे चला सेठकों नजीक आया देखके सुसमा कन्याका मस्तक काटके एकहाथमें खड्ग दूसरे हाथमें मस्तक लेके पर्वतपर चढा सेठ यह रूप देखके खेदातुर होके पीछा पलटा चिलातिपुत्र आगे जाता हुवा काउसग्ग में रहा मुनिकों देखा और बोला रे मुण्ड धर्म कहो अन्यथा इस खगसे तेरा वि माथा काहूंगा, तब मुनि नमो अरिहंताणं कहके आकाश मार्गसे जाते हुए १ उपसम, २ विवेक, ३ संवर, यह तीन पदात्मक धर्म हे कहके गये वाद चिलातिपुत्र तीन पदोंका | अर्थ विचारा अपने में एकविपदका अर्थ नहि देखता मुनिके ठिकाने काउसग्गमें खडा रहा तीन पदका अर्थ हासिल करता रहा लोहिके गंधसे लालकीडियोंने शरीर चालणीप्राय कीया तीसरे दिन काल करके देवलोक गया | इतने कहनेकर समासपर चिलातिपुत्रका दृष्टान्त कहा ॥ ४ ॥
अब संखेप सामायकपर लौकिक चार पंडितोंका दृष्टान्तकहते हैं | वसंतपुर नगरमें जितशत्रु राजाकी एकदा शास्त्रश्रवणकी इच्छा भई ४ पंडितोंसे कहा तब पंडितोंनें ४ लाख लोक बनाके राजासे कहा तब राजा बोले
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व्याख्या म.
॥६॥
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%*ॐ
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यह तो बहुत ग्रन्थ है इतना सुणनेमें बहोत काल चाहिये इनोंका सार थोड़े में कहो, तब चारो पंडितोंने सारभूत एक श्लोक बनाके राजाको कहा| जीर्णे भोजनमात्रे यः कपिलः प्राणिनां दया । वृहस्पतिरविश्वासः पञ्चालः स्त्रीषु माईवं ॥१॥
व्याख्याः -आत्रेय नामका पंडितने कहा कि पहले का भोजनपाचनहोनेसे फिर भोजन करना यह वैद्यक शास्त्रका सारहे १, कपिल नामका विद्वान बोला कि सर्व प्राणियोकी रक्षा करना यह धर्मशास्त्रका परमार्थ है २, बृहस्पति नामका पंडित कहता है कि किसीका विश्वास करना नहीं यह नीतिशास्त्रका रहस्य हैं ३, पञ्चाल नामका विद्वान बोला कि स्त्रीयोंसे मृदुता रखनी उन्होंका अन्त लेना नहीं यह कामशास्त्रका सार है ४, ऐसे थोड़े अक्षरों करके बहुत अर्थों का कहना ऐसा द्वादशांगीरूप संक्षेप सामायिक जानना ॥५॥ | अब निष्पाप आचरण पर धर्मरुचि साधुका दृष्टान्त है,। जैसे "धर्मघोष आचार्यका शिष्य धर्मरुचिसाधु चम्पा नगरीमें आहारके लिये फिरता हुआ नागश्री अर्थात् (रोहिणी) ब्राह्मणी के घरमें प्रवेश किया उसने कुटुम्बके निमित्त मीठेके भ्रमसे बनाया कड़वे तुम्बेका साग जहरके सदृश जानके दुष्टबुद्धिसे साधुको दिया साधुने सरल स्वभावसे ग्रहणकिया, अपने ठिकाने आके गुरुको दिखाया, तब गुरुने उस आहारको देखके कहा भो महानुभाव ! यह शाक विषप्राय है इसलिये निर्वद्यस्थान जाके परठावो, तब धर्मरुचिसाधु गुरुकी आज्ञासे में
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C
चातुमासिक
नम्.
RECERESCREECCADRECAUSAKASE
निर्वद्य भूमीपर जाके जितने शाक परठाने लगा उतने तो उस साकमेंसे एक विन्दु उछलके गिरा उसके 8व्याख्यागन्धसे बहुत कीडिये इकढि भई और गन्ध लेतेही मर गई तब ऐसा बहुत कीड़ियोंका मरण देखके पापसे डरनेवाले साधुने जीवदया विचारता हुआ सर्व जीवोंके साथ क्षामणा करके वहां रहा हुआ आपहीने वह कड़वे
तुम्बेका शाक खाया, परन्तु और जीवोंकी हिंसाके भयसे परठाया नहीं बाद शीघ्र मरके सर्वार्थसिद्ध में गया, ट्रानिष्पाप आचरणपर धर्मरुचिका दृष्टान्त कहा ॥६॥ | अब पाप त्यागकरके वस्तुतत्वका ज्ञान, उसमें इलापुत्रका दृष्टान्त कहते हैं । जैसे “इलानगरमें धनदत्तसेठ है उसके इलादेवीका सेवन करनेसे इलापुत्र नामका पुत्र हुआ बह इलापुत्र एकदिन वहां आएहुए विदेशी नटवोंका नाटक देखता हुआ अतिसुन्दररूपवाली नटपुत्रीको देखके पूर्वभवके स्नेहसे उसमें अनुरक्त हुआ, बाद यह आके पितासे बोला अहो पिताजी मेरे को नटवेकी पुत्री परनावो नहितर में मरनेका शरनाकरूंगा परन्तु और कन्याको पानिग्रहण सर्वथा नहीं करूंगा। तब पिता उसका बहुत आग्रह जानके कोई प्रकारसे मना
॥ ७॥ करनेको नही समर्थ हुआ तब वो नटवेके पास जाके पुत्री मांगी। नटवेनें कहा जो हमारी कला सीखके बहुत धन कमाके हमारी जातिको पोषे तब हमारी पुत्री परणे सेठने नटका वचन सुनके इलापुत्रसे कहा तब इलापुत्र नटका वचन अङ्गीकार करके हठसे घरसे निकलके नटों में मिला ।वाद कितनेक कालमें नटोंकी सब कलामें |
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निपुण होके वेनातट नगरमें आया वहां राजाको कलादिखानेके लिये आप वांस पर चढ़के नाचता हुआ नटपुत्री वांसके पास में खड़ी भई गाती थी तब उस नटपुत्री को देखके राजा चलचित्त होके विचारने लगा कि जो यह इलापुत्र वांससे पडके मरजाय तो इस कन्याका में पाणिग्रहण करूं बाद इलापुत्र सब कला देखाय के वांससे उतरके दानलेने की इच्छासे राजाके आगे खड़ा रहा तब राजा वोले व्यग्रता करके मैने नाटक नही देखा | इसलिये और भी नाटक करो तब इलापुत्रने धनकी वांछासे और भी नाटक किया परन्तु राजा तो उसका | मरना चाहता हुआ और भी वैसाही कहा तब तीसरी वक्त वसपर चढ़के नाटक करता भया उस अवसर में एक श्रीमन्त सेटके घर में एक साधु आहारके वास्ते गया तब सर्व अलङ्कारोंसे शोभित अत्यन्त सुन्दर सरीर है जिसका ऐसी सेटकी स्त्री जल्दीसे उठके आनन्दसहित बन्दना करके मोदकोंसे थालभरके साधुकों प्रतिलाभे साधुभी अधोदृष्टिजिसकी ऐसा इत्थं इत्थं याने यहहि दान देनेका विधि है ऐसा शब्द उच्चारण करते हुए दान लेते है यह स्वरूप वांसपर चढ़े हुए इलापुत्रने देखा तब यह आप नटवीमें लगा हुआ है चित्त ऐसा उन्होंका | निर्विकार भाव देखनेसे जल्दी ही वैराग्य पाया अनित्यादिभावना भावता हुआं केवल ज्ञान प्राप्त भया देवोंने वहां महोत्सव किया । वंशही सिंहासन होगया तब वह स्वरूप देखके राजादिक भी प्रतिबोध पाए इतने कहनेकर परिज्ञापर इलापुत्रका दृष्टान्त कहा ॥ ७ ॥
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चातु मासिक
॥ ८ ॥
*%%
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अब परिहरणीय वस्तु त्यागमें तेतली पुत्रका दृष्टान्त कहते हैं। जैसे "तेतली पुरनगर में कनककेतुनामका | राजा था वह राज्यके लोभसे जातमात्र पुत्रोंका विनाश करता था अर्थात् विकलांग करे उस राजाके तेतली पुत्र नामका प्रधान था । उसके पोटिलानामकी स्त्री थी वा पहले तो प्रधानको वल्लभ थी परन्तु पीछे अप्रिय | होगई । एक दिन आहारके वास्ते उसके घरमें एक साध्वी आई मन्त्रीकी स्त्रीने नमस्कार करके भर्तारको वशी करनेका उपाय पूछा, तब साध्वी बोली कि धर्मसेवनकर इससे सर्व वांछित अर्थकी सिद्धि होवे है तब मन्त्रवी कीस्त्री संसारसे विरक्त हुई दीक्षा लेनेकी वांछासे पतिको पूछा मन्त्रवी बोला कि दीक्षा ग्रहण करो परन्तु जो तुम देवपद पावे तो मुझेभी प्रतिबोध देना उसने भी पतिका वचन अङ्गीकार किया, बाद वा पोटिला स्त्री दीक्षा लेके आयुक्षय से समाधिसे मरके देवपद प्राप्त भई । अब मंत्रवीने एक राजा का पुत्र जातमात्र ही छानालेके अपने घरमें हि रखा था वह कुमर बड़ा हुआ तब कनककेतु राजा परलोक जानेसे मंत्रीने उस कनक - ध्वज कुमरको राज्य में स्थापन किया राजाने सर्व कार्य मावीको सौंपा तब मन्त्रवी रातदिन राज्य कार्य में मन हुआ थका कभी भी धर्मकार्य नहीं करता था उस अवसर में देवभव प्राप्तभई पोटिलाने मन्त्रवीका वह स्वरूप | देखके प्रतिबोधनेके लिये राजादिक सर्वलोगोंको विरुद्ध किये तब राजसभा में गए हुए मत्रीने कहींभी आदर नहीं पाने कर अपमानपाया हुआ जल्दी घर आके अपने कुमरणकी शङ्कासे अपने हाथहीसे बहुत मरने
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व्याख्यानम्.
112 11
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COCALOCALASSOCIECAUSE
के प्रयोग किये परन्तु देवने सर्व निष्फल किये तब मंत्रवी उदास होके रहा उसको देव प्रगट होके बोला कि ६ अहो मंत्रवी ! संसारका ऐसा हि खरूप है परमार्थसे कोई भी किसीका खजन नहीं है इत्यादिक वचनोंसे है प्रतिबोध देके देव अपने ठिकाने गया मंत्रवी भी सर्व धनवगैरहका त्याग करके शीघ्र दीक्षा लेके उसी नगरके 3 उद्यानमें केवल ज्ञानपाके मोक्षगया, इतने कहनेकर प्रत्याख्यान पर तेतलीपुत्रका दृष्टान्त कहा ॥८॥
सामायिक पदका प्रथम व्याख्यान कहा६ अब आवश्यक पदका व्याख्यान कहते हैं उभय काल अवश्य जो किया जावे सो आवश्यक कहिये प्रतिक्रम-2 है णका नाम है उसका फल तो यह है कि
आवस्सएणएएण, सावओ जइवि बहुरओ होई । दुक्खाणमंतकिरियं, काहि अचिरेण कालेण ॥१॥ PL व्याख्या-श्रावक यद्यपि बहुत पापयुक्त होवे है तथापि इस पडिक्कमण करके थोड़े कालसे दुक्खोंका विनाश ६ करेगा और भी सुनो
आवस्सअ उभयकालं, ओसहमिव जे करन्ति उजुत्ता। जिणविजकहियविहिणा, अकम्मरोगाय ते हुंती ॥२॥
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चातुमासिक
॥ ९ ॥
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अर्थ - श्रावक उपयोग सहित हुआ था उभय काल प्रभात और संध्याकालमें तीर्थकर महाराजरूप वैद्यने कहा | विधि करके सम्यक् प्रकारसे औषधके जैसा आवश्यक ( प्रतिक्रमण ) करे वह कर्म रोगरहित होता है प्रतिक्रमण नियम में साजनसिंहका दृष्टान्त है । वह इस प्रकार से है "साजनसिंह सेठ दोनों वक्त प्रतिक्रमण करता था। प्रतिक्रमण नहीं करूं तो आहार नहि करूं ऐसा नियमवाला था, एक दिन पिरोजपातसाहने कोइक अपराध होनेसे कारागृह में डाला तो वहां रहा हुआभी सेठ पहरेदारों को ५० सोनइया हमेसा देके निरन्तर प्रतिक्रमण कीया अन्यदा दो रत्न की परीक्षा के विचारमें पातसाहने साजनसिंहको बुलाया तब साजनसिंहने कहा महाराज ? जगतमें दो रत्न तो ये हैं और तीसरा रत्न आप हैं ऐसा सुनके पातसाह प्रसन्न होके सेटका सत्कार करके छोड़ा तब उरेहुए आरक्षकोने सोनइये सेटको पीछे दिये तब सेठने सोनइया उन पहरेदारों को ही वापिस देके बोल अहो यह कितना धन हैं जिस कारणसे तुम्हारे सहायसे मैंने अमूल्य प्रतिक्रमण किया है" इतने कहने कर प्रतिक्रमण नियमपर दृष्टान्त कहा ॥ १ ॥
अव पोषध पदका व्याख्यान करते हैं धर्मकी पुष्टि धारण करे सो पोषध कहा जावे वह पोषध चार प्रकारका है ( १ ) आहारं पौषध ( २ ) सरीर सत्कार पौषध ( ३ ) गृह व्यापार पोषध ( ४ ) अब्रह्म पौषध याने
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व्याख्यानम्.
॥ ९॥
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आहार १ सरीर सत्कार स्नानादि २ घरका व्यापार काम करना ३ अब्रह्म कुसील सेवना ये चारोंका त्याग ४ | प्रकारका पोषध कहा जावे उसका फल यह है ।
पोसहियसुहेभावे असुहाइ खवेइ नत्थि संदेहो । छिंदेइ निरयतिरियगइ, पोसहविहि अप्पमत्तेणं ॥१॥ FI अर्थ-पौषधसहित शुभ भावमें रहा हुआ अशुभ कर्मका क्षय करे है इसमें सन्देह नही है नरकतीयंचगतिका
छेद करे है नरकतिर्यंचमें नहि जावे पोषहका विधिमें अप्रमादि भया थका १ पोषधव्रत स्थिरमें कामदेवका दृष्टान्त कहते हैं जैसे "कामदेव श्रावक पोषहमें रहा हुआ था इन्द्रने प्रशंसा कीया मिथ्यात्वी देव पिशाच हाथी २ और सर्पका ३ रूप करके बहुत प्रकारसे डराया उपसर्ग किया तो भी मन वचन कायासे बिलकुल चला नहि तब वह देव ६ प्रसन्न होके नमस्कारपूर्वक स्तुति करके अपने अपराधकी क्षमा मांगके इन्द्रकी करीहुई प्रशंसा कहके अपने ठिकाने है गया इति ॥ अब देवार्चनस्वात्रविलेपनानिइसका व्याख्यानकहतेहैं देवश्रीजिनेंद्र उणुकीप्रतिमाका वासक्षेपसै पूजना।
मात्र जलादिसे और विलेपन चंदनादिकसे करना ये ३ पदों करके सर्व पूजाका प्रकार सूचन कीया पूजाका दाफल फलसार पयन्ना सूत्रमें इस प्रकारसे कहा है
"सयं पमजणे पुन्नं, सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिायमाला, अणंतंगीयवाइयं ॥१॥
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चातु र्मासिक
॥ १० ॥
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अर्थ- शुद्ध भावसे मन वचन काया करके त्रश जीवकी रक्षा करनेके लिये प्रभूकी प्रतिमाको प्रमार्जन करे वह सो १०० उपवास जितनी निर्जरा पावे यह भावप्रधान निर्देश है । विलेपन करता हुआ १ हजार १००० उपवासका फल पावे । शुद्ध भावसे विधिसहित पुष्पकी माला चढाता हुआ १ लाख उपवासका फल होवे है । और गीत वादित्र करता हुवा प्रभुकी स्तुति करता हुआ अनंत उपवासका फल पावे है । अर्थात् भावस्तव करता हुआ पुण्याढ्य राजा अंतकृत केवली होके मोक्ष गया। यहां नागकेतु तथा धनदत्त सेठ वगेरेका दृष्टान्त | है सो जानना ॥
अब ब्रह्मक्रिया १ दान २ तप प्रमुख ३ इन ३ पदका व्याख्यान करते हैं - ब्रह्मक्रिया ब्रह्मचर्य सुदर्शन सेठ वगेरहके सदृश पालना ब्रह्मचर्य का फल यथा—
"जो देइ कणयकोडिं - अहवा कारेइ कणयजिणभुवणं ।
तस्स न तत्तिय पुन्नं - जत्तिय बंभवएधरिए ॥ १ ॥
अर्थ- जो नित्य क्रोड सोनैया दान देवे अथवा सोनेका जिनमंदिर करावे उसका उतना पुण्य न होवे जितना कि ब्रह्मचर्य के पालने से होवे है ॥ १ ॥ तथा दान अभयदान १ सुपात्रदान २ अनुकम्पादान ३ उचितदान
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व्याख्यानमू.
॥ १० ॥
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ACANCERCRACCALCCACADC
|४ कीर्तिदान ५ ये ५ प्रकारका उसमें अभयदान-सुपात्रदानका मोक्षरूप फल है और ३ दानका भोगप्राप्तिरूप
फल है-यहां अभयदानपर दृष्टान्त है । जैसे राजग्रह नगरमें सभामें बैठे भए श्रेणिक राजाने पूछा कि इस वक्तमें 7 है इस नगरमें क्या वस्तु सुलभ हैं और खादिष्ट है तब क्षत्रिय बोले महाराज मांस सुलभ है और खादिष्ट है तब
अभयकुमारने विचारा कि ये लोग निर्दयी है अब दूसरी वक्त ऐसा नहीं बोले वैसाही करूं वाद रात्रिमें सर्व क्षत्रियों के घरों में अभयकुमार पृथक् २ जाके वोला अहो क्षत्रियजनों ! राजकुमारके शरीरमें महाव्याधि उत्पन्न हुई है, जो मनुष्यसंबंधी कलेजेका २ टांक माँस दिया जावे तो वह जीवे, और कोई भी उपायसे जीवे नहीं ऐसा वैद्यने कहा है इस कारणसे तुम लोग राजाकी आजीविका खाते हो सो ये कार्य तुम्हींको करना होगा। तब १ क्षत्री वोला १ हजार सोनइया लो मगर मुझे छोडो अभयकुमारने सोनइये लिये एक रात भरमें घर २४ फिरके लाखों सोनइये इकट्ठे किये । प्रभातमें राजसभामें वह धन क्षत्रियोंको दिखाया और ऐसे कहा कि अरे लोको ! तुम कहते थे कि मांस सुलभ है मगर आज तो इतने द्रव्यसे भी मनुष्यके कलेजैका दो टांक मांस नहीं मिला तब क्षत्रिय लजित हुए अभयकुमारने उनको मांस खानेका त्याग कराया इस अर्थमें श्लोक है। "स्वमांसं दुर्लभं लोके, लक्षणाऽपि न लभ्यते । अल्पमूल्येन लभ्येत, पलं परशरीरजं ॥१॥
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चातु
अर्थ-अपना मांस लोकमें दुर्लभ है. कि लाखों सोनइयोंसे भी नहीं मिले औरोंका मांस थोड़ी किंमतसे मिले व्याख्या. मासिक- अर्थात् विचारे पशुवोंका माँस सुलभ है इस प्रकारसे औरोंको भी अभयदानकी बुद्धि धारनी॥
नम्. तथा-तपदुष्टकर्मोंका विनाशकरनेवाला संपूर्णलब्धिको उत्पन्नकरनेवाला वाह्य अभ्यंतर भेदसे १२ प्रकारका है कर्मों की निर्जरा करने में प्रधान तप कारण है तप दृढ प्रहारीके जैसा भव्य प्राणीको अंगीकार करना। दि तपोमुखानि-यहां मुख शब्द आद्यर्थ होनेसे भावनादिकका ग्रहण करना वह भावना भरतचक्रीके जैसी *भावनी इतनें कहने करके ब्रह्मक्रियादिक ३ पदकी भावना कही और इस चौमासे पर्वमें धर्मार्थी प्राणियोंको
आत्मनिन्दा करनी, परनिंदा नहि करनी। यहां चितारेकी पुत्रीका दृष्टान्त है, जैसे कांचनपुरके स्वामी जित४ शत्रु राजाने एक नवीन सभा कराई और उसमें चित्र करानेके लिये मंत्रीने चितारोंको सभामें भाग बेंचके दिया। उनमें एक बुढा चितारा था। उसकी पुत्री जब भोजन लेकर आवे तब वह कायचिंता करनेको जावे .
तब पीछे रही लड़कीने एक मोर लिखा राजा जब सभा देखने आया तब उस मोरको जीता समझके पक18|ड़नेको हाथ डाला तब कनकमंजरी चितारेकी पुत्री हसके बोली, अहो तीन तो देखे मगर चौथा भी मिला-18|॥११॥
राजाने पूछा, यह क्या कहा तब वा बोली महाराज ! एक तो मैं रसोई लेके आती थी तब बाजारमें एक *आदमी घोड़ा दौडाता जाता था वहां पुण्ययोगसे में बची वह पहला मूर्ख १। दूसरे मेरे पिता जब मैं भोजन
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लेके आऊं तब जंगल जावे यह दूसरा मूर्ख २। तीसरे राजाके मंत्री भी मूर्ख है कि जिसने सभीको जगह बराबर दी। और चितारे तो पुत्रादिकपरिवारवाले हैं और मेरा पिता तो अकेला है और वृद्धभी है कोई| सहायक नहीं उनको सरीखा भाग देना यह तीजा मूर्ख है। चौथे आपही मूर्ख हो मेरे लिखेहुवे मोरको पकड़नेको हाथ डाला कि जिससे अँगुलियें दुख गई ४ । इस चातुरीसे रंजित हुवा राजाने उस कनकमंजरी साथ पाणीग्रहण किया। बाद रात्रिमें राजारतिक्रीड़ाकरके जब सोता तब पहले की संकेत कीहुई दासीने पूछा हे खामिनि ! कोई कथा कहो, तब राणी बोली एक नगरमें एक हाथका मंदिर जिसमें ४ हाथकी प्रतिमा तब दासी वोली यह कैसे बने । राणीने कहा आज तो नींदआती है वास्ते कल कहूंगी। दूसरे दिन राजा औरभी कथा सुननेको आया जब सोया तब
ही दासीने पूछा कलकी कथाका क्या परमार्थ है ? रानी बोली एक हाथकी देहरीमें चारभुजावाली कृष्ण-31 हजीकी मूर्ति थी? और कथा कहो ? तब रानी बोली एक स्त्री घड़ेमें रत्न रखके ऊपर मट्टीका खामण लगाके और है वह पानी लेने गई। पानी लेके जब आई तब दूरसे ही घडेको देखके बोल उठी कि मेरे रत्न किसने निकाललिये।
दासी बोली कि खामिनि ! घड़ा उघाड़ेसिवाय कैसे जाना ? तब कनकमंजरी बोली कि कल कहूंगी । तीसरे । दिन फिरभी राजा आके सोया और दासीने पूछा तब राणीने कहा वह घड़ा काचका था। बाद औरभी 31 दासीने कहा कथा कहो तब राणी बोली कि एक गांवमें एक ब्राह्मण रहता था। उसके ४ लड़के थे और एक
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चातु- लड़की थी। जब पुत्री वरयोग हुई तब चारो भाई सगाई करनेकों गए । चार ठिकाने संबंधकरके आए तब व्याख्या मासिकचारहि वर परननेको आए ब्राह्मणकी कन्या बोली मैं किसको परखें और ४ हि आपसमें लड़ने लगे तब उस :
नम्. ॥१२॥
कन्याने चितामें प्रवेश किया तब १ वर तो उसके साथहि जलगया १ विरक्तहोके यात्राको चला गया १ उसकी 8 हडीयो लेके गंगा को गया १ वाहिं झुपडी बनाके रहा जो विरक्त होके गया था उसको १ सिद्धि मिलगई।
| उसने आके उस कन्याको जीती करी जो साथ में जल गया था वह भी जीता हुवा गंगा गया था वह भी आगया| ४४ च्यारों विवाद करने लगे कनकमंजरी बोली किसको व्याहेगी वा कन्या, दासीने कहा आपही कहो राणी बोली
आजतो नींद आती हे कल कहूंगीराजा औरभी दुसरे दिन आया तब दासीने पूछा बाई कथा का भावार्थ तो कहो तब राणी बोली कि जिसने कन्याको जीवाई वह तो पिता और जो साथहि जला था वह उसका भाई ( साथहि पेदा होनेसे) जो गंगा गया था वह उसका पुत्र और वांहि रहा था वह उसका पति हुआ कारण की जो सेवे सो पावे। ऐसी कल्पित नवी नवी कथा कह के छ महिने तक राजाको अपने महलमें बुलाया तब राजाने बहुत मानकीया तो भी वा तो निरंतर मध्यानमें एकांत बेठके पिताके घरसंबंधी सामान्य वस्त्र पहेरके आत्मनिंदा करे हे आत्मन् ! यह राजमान अथिर हे अहंकार करना नहि तेरे पिताके घरसंबंधी तो यह रिद्धि हे इत्यादि वचनोंसे आत्मनिंदा करती थी तब छल देखती हुई शोकोंने राजासे कहा की यातो आपके ऊपर कामण करती हे तव राजा परीक्षाके
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CROREGARDSCARSAGAR
लिये १ दिन अकस्मात् आके आत्मनिंदाकरतीहुईदेखके संतुष्टमानहुवा पटरानीकरी औरोंकाअपमान किया।"
इसप्रकारसे धर्मार्थियों को आत्मनिंदाकरनी ॥ 5 और भी चौमासापर्वआराधनेकी इच्छावाले भव्यात्मावोंको इसदिनमें अपने २ अतिचारआलोवना गुरुवादिकके सामने मिच्छामिदुक्कडंदेना वहां साधुवोंके चरणसित्तरी (७०) करणसित्तरी (७०) मिलने से एकसोचालीस १४० अतिचारहोतेहे सो नाममात्रलिखतेहे व्रत ५ श्रमणधर्म १० संजम १७ वैयावच्च १० ब्रह्मगुप्ति ९ |ज्ञानादि ३ तप १२ कपायनिग्रह ४ ये ७० भेद चरणकेहें.
पिंडविशुद्धि ४ समिति ५ भावना १२ प्रतिमा १२ इंद्रियनिरोध ५ पडिलेहण २५ गुप्ति ३ अभिग्रह ४ ये ७० करणके भेदहे इनमें जो अतिचारहुवेहोय उसका मिच्छामिदुक्कडं, श्रावकोंकेतो १२४ अतिचार होतेहे सो लिखतेहे गाथा
पणसंलेहण (५) पन्नरसकम्म (१५) नाणाइअट्टपत्तेयं २४।। बारसतव (१२) विरयतिगं (३) पणसम्म (५) वयाणपत्तेयं (६०)॥१॥ व्याख्या-संलेखनाके ५ अतिचार कहतेहे, (१) यहां इसतपके प्रभावसे मनुष्यराजादिकहोऊं यह (इहलो
SASARACTERECHA
R
चा. व्या. ३
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चातुमासिक
॥१३॥
काशंसा कहिये) (२) इसअनुष्ठानसेपरलोकमें इंद्रादिकहोऊं (यह परलोकाशंसा) (३) मेने अनशनकिया|
व्याख्यालोकोंमें पूज्यहुं इससे बहुतकालतकजीयूँ तो ठीकहै ( यह जीविताशंसा) (४) अनसन कीयाहे मगर कोई
नम्. है पूजतानहिहे आधिव्याधी से पीडितहोनेसे जल्दीमरूं तो ठीकहे (यह मरनाशंसा)(५) रूप १ शब्द २ काम
कहेजावे गंध १ रस २ स्पर्श ३ भोगकहेजातेहे ये मेरे प्रशस्तहोवे ऐसीइच्छा (कामभोगाशंसा ) संलेखणाकरके
ऐसाविचारे तो अतिचारहोताहे. इन्होंमें जोकोई तीनकालसंबंधीअतिचारलगा होवे उसकामुझे मिच्छामिदुक्कडं | है होवो ऐसा संघादिसमक्षकहना ऐसे आगेभी कहना। ___ अब १५ कर्मादानके अतिचारकहतेहैं (१) आजीविकादिनिमित्त काष्ठजलाके कोयलाकरना इंटाँ चूना वगेरहपकाना और वेचना ( यह इंगालकर्म) (२) वृक्षादिकोंके पत्रपुष्पादिककाटके वेचना (वनकर्म) (३)
गाडी गाडोंके अंग नयेबनाके वेचना ( सकटकर्म) (४) गाडे बेलवगैरह भाड़ेदेना वो (भाटककर्म) (५) प्रहल कुद्दाले आदिक से जमीनखोदना पाषाणवगेरहघडना जबवगेरहधानभंजना (स्फोटककर्म (६) पहेलेसेहि।
म्लेछादिकोंको द्रव्यदेके हाथीके दांत वगेरहमंगवाके बेचना अथवा आपआकरमें जाके लेआना और वेचना ॥ १३ ॥ (दंतवाणिज्य) (७) लाख नीली मणसिलादिक सुलेहुवे धान वगेरहका वेचना ( लाक्षावाणिज्य) (८) मदिरामांस घी तेलादि रसोंका वेचना ( रसवाणिज्य) (९) जिसके खानेसे मरजाय उसको जहर कहते है।
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उसकावेचना और शस्त्रादिकको वेचना (विषवाणिज्य) (१०) द्विपदचतुस्पदादिकावेचना (केशवाणिज्य) (११) तिल सेलडी वगेरहका कोहचलवाना (यंत्रकर्म) (१२) वृषभादिकको अंगहीनकरना वृषणच्छेद करना कान६ वगेरहकाटना (निर्लान्छनकर्म ) (१३) क्षेत्रवगेरहमें अग्नि लगाना या जंगलजलादेना ( दवदानकर्म ) (१४)। है गहुवंगरेहबोहने के लिये सरोवर आदिका सुकाना (सरदहतालावसोपनियाकर्म) (१५) कुशीलिये दास दासियोंको
पोषके भाडालेके आजीविकाकरना ( असतीपोपनकर्म ) ये १५ कर्मादान के अतिचार कहे. | अब ज्ञानके ८ अतिचारकहतेहै जैसे अकालवेलामें अथवा मनाकियेहुएदिनोंमें श्रुतका अध्ययनकरना १ गुरु और ज्ञानकाउपकरण और पुस्तकादिकों के पाँवआदिकासंघटाकरके अविनयकरना २ तथा इन्होंका बहुमान 5
नहिकरना ३ उपधान योगादिविना श्रुतअध्ययनकरना ४ जिसके पासमें श्रुत अध्ययन (सूत्रपढा होवे ) है कीया उसको गुरु नहि कहना ५ देववंदन प्रतिक्रमणादिकमें अशुद्धअक्षरोंका पढना ६ वहाँहि अशुद्ध अर्थका
पढना ७ देववंदनादिक में सूत्रअर्थका अशुद्धपढना ८ ये ज्ञानके ८ अतिचारकहे, अब दर्शनके ८ अतिचारकहतेहैं| ६ जैसे देवगुरू धर्मकेविषयमें आशंकाकरना १ सर्वमतअच्छे हैं ऐसाविचारकरना २ धर्मकेफलमें संदेहकरना ३
मिथ्यादृष्टियों का महत्वदेखके उसपरतीवरागकरना ४ साध्वादिकों के गुणोंकी प्रशंसा नहि करना ५ नयेप्रतिबोधे ।
ROSSISTESSORIES
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हुवे श्रावकादिकको स्थिर नहि करना ६ साधर्मियोंका वात्सल्य नहि करना ७ सामर्थ्यरहते जिनशासनकी ६ प्रभावना नहि करना ८ ये दर्शन के ८ अतिचारकहे, अत्र चारित्र के ८ अतिचारकहते हैं ५ समिति इर्यासमितिआदिक और तीनगुप्ति मनोगुप्तिआदिक को बरावरनहिपालने में चारित्रके ८ अतिचारहोते हे तथा उपवासादिक ६ बाह्यतप प्रायश्चित्तादि ६ अभ्यंतरतपको यथोक्तनहिकरने से तपके १२ अतिचार होते हैं. मनोवीर्य १ वचनवीर्य २ कायवीर्य ३ इन्होंको देववंदन प्रतिक्रमण स्वाध्याय दानशीलांदिक में नहिफोंरनेसे वीर्यके ३ अतिचारहोते हे और सम्यक्त्व के ५ अतिचार तीर्थकरों के कहे हुवे पदार्थों पर शंकाकरना ( संका ) १ और अन्य अन्य मतों की अभिलाषा (कांक्षा) २ धर्म के फल में संदेह करना (वितिगित्सा) तथा मल मलीन वस्त्र सरीखाले साधुवों को देख के जुगुप्सा करना (वितिगित्सा) ३ मिथ्या दृष्टियों की प्रशंसा करे सो (कुलिंगी प्रशंसा ) ४ मिथ्या दृष्टियो के साथ परिचयकरना ( कुलिगिसंस्तव) ५ अब १२ व्रतों के ६० अतिचार कहतेहे. वहाँ पहेलास्थूलप्राणातिपात विरमण व्रतके ५ अतिचार जैसे (१) निर्दयपने से पसुवगेरहको लकडीसे पीटना (वध) (२) डोरी वगेरह से मजबूत बांधना (बंध) ( ३ ) ( कानवगरह काटना वृषणछेदकरना । छबिछेद ) छबिसरीरउसका छेदना ऐसीव्युत्पत्ति होनेसें ( ४ ) बेलों परजादह भारलादना ( अतीभार ) ( ५ ) बैल वगेरहको वक्तपर अन्नजलचारा नहि डालना - ( भक्त पानव्यवछेद ) स्थूलमृपावादविरमणत्रत में पंच अतिचार जैसे ( १ ) तै चोरहे जारहे इत्यादि दूसरे को
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व्याख्यानम्.
॥ १४ ॥
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AACAR
ASALCHAKAASCRECORECAUSA
विनाविचारे बोलना( सहसाभ्याख्यान) (२) एकांतमें रहेहुवेदेखके येतो राजविरुद्धविचारतेहे ऐसा कहना ( रहोभ्याख्यान,)(३) विश्वासुक स्त्री अथवा मित्रोने जोछानाकहाहे वो औरोंके आगे कहदेना (खदार मंत्रभेद )! (४) कष्टमेंपडाहुवा कोई पूछे उसकोझूठकहदेना (मृषोपदेश) (५) कूडालेखलिखना वदिकीसुदि करना सुदिकीवदिकरना (कूटलेख) अब स्थूल अदत्तादान विरमणव्रतके ५ जैसे अतिचार (१)चोरकी लाईहुवी वस्तु
लेना (स्तेनाहत ) (२) चोरोको संबलादिकदेके सहायकरना (स्तेनप्रयोग) (३) घीवगेरहमें वेसीहिवस्तुचरटू बीवगेरहमिलाना (तत्प्रतिरूपक्षेप) (४) (विरोधिराज्यमें लाभवास्ते वस्तुवेचनेकोजाना) विरुद्धगमन (५)
लोकप्रसिद्धतोलमान जादा कम करना लेनेका और देनेका और सो (कूटतुलाकूटमान) अब स्थूलमैथुनव्रतके)५अतिचार (१) विधवा वेस्या कन्यामें गमनकरना (अपरिग्रहितागमन) (२) भाडादेके थोडेदिनतकअपनीकरके उसमें गमनकरना ( ईत्वरीगमन) (३) अंगस्त्रीपुरुषचिन्ह उससेओरस्तनकक्षाउरूवगेरहअनंगमे क्रीडा करना) अनंगक्रीडा (४) अपनालडकालडकीयों के माफक औरोंका लडकालडकीयोंको परनाना (परविवाहकरना (५) कामभोगोंमे बहुतअभिलाषारखना (तीव्रानुराग) अब स्थूलपरिग्रह परिमाण व्रतके ५ अतीचार जैसे गणिम १ धरिम २ मेय ३ परिछेद्य ४ चारभेदसे चारप्रकारकाधन और साली गहुं वगेरहधान्यको सस्ता जानके सहीकरके लेवे और नियमकीमर्यादातक वहांहिरखना १ खेत घरकीवीचकीदिवालदूरकरके (१) एक
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चातु
मासिक
॥ १५॥
SASSASSASSARISSASI
करना २ पूर्णअवधीमें लेढुंगा ऐसीबुद्धिसें, सोना रूपावगेरे स्त्रीको देना ३ ओरे थालीवगेरे १० तोडाके ५ करना
व्याख्याद वगेरे ४ पहले सामान्यप्रकारसे नियमकरके पीछे गर्भसहित द्विपदचतुस्पदका ग्रहणकरना, अब छठेदिशापरिमाण नम्. नाम गुणवतके ५ अतिचार जैसे ऊर्यदिशी अधोदिशी तिर्यदिशी प्रमाण अतिक्रमण करके, और वस्तु मंगाने औरभेजनेकरके ३ अतीचार, औरदिशीकायोजन और दिशीमें मिलानेसे क्षेत्रवृद्धी ४ दिशीकापरिमाण कियाहुवा भूल जावे सो स्मृतिअंतर्धान ५, अवसातमा भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें ५ अतिचार जैसे सचित्तभक्षणकानियम-15 किया अथवा सचित्तकापरिमाणकियापुरुष दाडमआदि जो सचित्तवस्तुकोखावे १ पकाहुवाआम्रफलादि गुठली
समेतचूसना २ नहिछानाहुवा आटावगेरहकाखाना अप्पोलकहाजावे ३ पूंखवगरेह दुप्पोलकाखाना ४ जिससे ६ तृप्तिनहोवे ऐसीऔषधीखाना ५ अब (८) आठमाअनर्थदंडविरमणव्रतके ५ अतीचार जैसे. कामोद्दीपकशास्त्रका
अभ्यासकरना (कंदर्प)१ मुखनेत्रभुवे वगेरे की विकारपूर्वक भांडवत् चेष्टाकरना (कौकुच्य)२ गालीवगेरहअसंबद्ध विनाबिचारेबोलना ( मौखर्य) ३ उखल मूसल घट्टी वगरेह एकठैकरके रखना (संयुक्ताधिकरण) ४ स्नानादिकके समयमें जादा तेलमट्टीवगरेहकी सामग्रीमंगाना सरोवरादिकमे नाहना पृथिव्यादिककी विराधना
॥१५॥ करना ( भोगोपभोगातिरेक ५)
अब नवमें सामायिकव्रतके ५ अतिचार जैसे मनमें पापव्यापारविचारना (मनोदुःप्रणिधान)१ विकथा
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ROACHARACROSS
करना ( वाग्दुःप्रणिधान ) २ नहि पडिलेहे हुवेस्थान में हाथ वगरेह रखना ( कायदुःप्रणिधान ) ३ सामायिक करके मूहुर्ततक सुद्धभावमें नहिरहना ( अनवस्थान ) ४ मेने सामायककिया यानहिसो (स्मृतिविहीनता)18 ५ अब १० में देशवगासीव्रतमें ५ अतिचार जैसे दूसरेकू कहे तेरेकुं यहपदार्थलाना ऐसाकहके अभिग्रहदेशसे बाहरका वस्तुमंगाना ( आनयनप्रयोग) १ तें मेरा यहवस्तु घरवगरेहमें पहुचाना ऐसाकहके अपने पासकीवस्तु । अभिगृहीतदेशसे और ठिकानेभेजे (प्रेश्यप्रयोग) २ कोईकार्यकेवास्ते आतादेखके अपना कार्यकरानेकेलिये
शब्दकरना (शब्दानुपात) ३ उसीतरह दूसरेकुं अपनारूपदिखाके कार्यकरना (रूपानुपात) ४ अभिग्रहहै देशसेवहिर कार्यजनानेकुं कांकरावगेरहफेकना) पुद्गलक्षेप) ५ अब ११ में पोषधव्रतमें ५ अतीचार जैसे नहि है
पडिलेहेहुवे याठीकनहिपडिलेहेहुवे सिझावगैरेह का सेवना १ नहिप्रमार्जन कीया हुवा या ठीक नहि प्रमार्जाहुवा सिझादिकका सेवना २ नहिपडिलेहिहुईभूमीपर उच्चार प्रश्रवणका परठाना ३ नहि प्रमार्जीहुईभूमीपर मलादिककापरठना ४ प्रभातसमय अमुकआहारकरूंगा ऐसाविचारना ५ अब १२ में अतिथिसंविभागव्रतमें ५
अतिचार जैसे साधुको आताहुवा देखके नहिदेनेकी बुद्धिसे देनेयोग्यद्रव्यको सचित्तपररखना १ सचित्तफल8|दिकसे देनेयोग्यवस्तुकोढकना २ मोदकवगरेहअपनेहें और दूसरेका कहना ३ जो इसनिर्धननेंदिया तो क्यामें तकमहुं ऐसे अभिमानसेदेना ४ आहारलाके भोजनकरतेहुवे साधुवोंकी निमंत्रणाकरनी जैसे मेराअभिग्रहभी
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चातुमासिक
निकारकडे सर्व मिलाने मारा
॥१६॥
नहिजावे और वस्तुभी नहिलेवे ऐसे अभिप्रायसे ५ इसप्रकारसे १२ व्रतके ६० अतिचारकहे सर्व मिलानेसे व्याख्या४|१२४ अतिचारहोतेहे इन्होंमें जोकोईअतिचारलगेहोवे उन्होंका मुझे मिच्छामिदुकडंहे ऐसा संघादिसमक्ष 8 नम्. है कहना उससे सर्व इष्टार्थकीसिद्धिहुवे.
इतनेकहनेकर चौमासीव्याख्यानपूराहुवा.
अग्रेतनवर्त्तमानयोगः॥ ___ अब अट्ठाईका व्याख्यानलिखतेहें. श्लोक-शान्तीशं शान्तिकारं-नत्वा स्मृत्वा च मानसे ।
अष्टाह्निकाया व्याख्यानं-लिख्यते गद्यबंधतः॥१॥ अर्थ-शान्तिकेकरनेवाले श्रीशान्तिनाथस्वामीको नमस्कार करके और मनमेस्मरणकरके अट्ठाईका व्याख्यान गद्यबन्ध लोकभषामें लिखताहुं ॥ १ ॥ यहां पवाधिकारमें सम्पूर्णदुस्कर्मदूरकरनेवाला निर्मलधर्म ॥१६॥ ६ कार्यकियेजांयें जिसमें ऐसा इसभवमें परभवमें बहुतसुखहोवेजिससे ऐसा श्रीपषणापर्वआएथके सम्पूर्ण
देवेंद्र असुरेंद्र एकडेहोके श्रीनंदीश्वरनामके आढमेद्वीपमें धर्ममहिमाकरनेके लीये जातेहे वहां नंदीश्वरद्वीपके
ACCASCCCCCCCCCCCCES
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मध्यभागमें चारदिशामें ४ अंजनवर्णा अंजनगिरीपर्वतहै उन्होंमें एकेकके (४) चारदिशाओमें ४ वावडीयेंहे |
वावडियोंके मध्यमागमें स्वेतवर्णवाला एकेकदधिमुखनामकापर्वतहे और दोदोवावडीके अंतरमें विदिशामें दोदो| दलालवर्णवाले रतिकरपर्वतहे ऐसे एकेक अंजनगिरीके चोतर्फ ४ दधिमुखगिरी और ८ रतिकरपर्वतहे ये 5
मिलानेसे १२ भऐ और तेरवा अंजनगिरी इस प्रकारसे ४ अंजनगिरीकापरिवारमिलानेसे ५२ पर्वतभये उन्होंके अलग अलग नामकहतेहे अंजनगिरी ४ दधिमुखगिरी १६ रतिकरपर्वत ३२ ऊन्होंपर एकेक जिनभुवनहे ऐसे ५२ जिनभुवनहे उनोजिनमंदिरोंमें १२४ जिनप्रतिमाहे एकेकेमे, सबमिलानेसे चोसठसेअडतालीस (६४४८) जिनबिंबहे वेसवजिनचैत्य ४ दर्वाजोंकरकेसहितसाखतेहे प्रधानतोरणधजा पताकादिक से सोभित और अत्यं-| तसंदरहे वहां देवेंद्र देवदेवियोसे सहित प्रवर्धमानभावसे अट्ठाहिमहोत्सवकरतेहे जल चंदन पुष्प धूपादि | द्रव्योंसे जिनबिंबपूजतेहे जिनगुणगातेहे नाटिककरतेहे इसप्रकारसे ८ दिन महोत्सवकरके अपने स्थानजातेहें| इसीतरह श्रावकोंकोभी श्रीतीर्थकरमहाराजका कहाहुवा यहप!षणापर्वआनेसे धर्ममें यत्नकरना तथा इस पर्युषणापर्वमें श्रावकोका कृत्य कहतेहे यथा
आश्रवकषायरोधः, कर्तव्यःश्रावकैः शुभाऽऽचारैः । सामायिकजिनपूजातपोविधानादिकृत्यपरैः ॥ १॥
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चातुर्मासिक
॥ १७ ॥
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अर्थ- शुभआचारहे जिन्होंका ऐसे श्रावकोंको आश्रवकषायको रोकना कैसे श्रावक सामायिक जिनपूजा | तपप्रमुखकृत्य में तत्पर वहां आश्रवपांचहे प्राणातिपात १ मृषावाद २ अदत्तादान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ इन्होंको रोकना अर्थात् त्यागकरना इसकहनेकर पहले बेइंद्रियादिकत्रसजीवोंकीविराधनाश्रावकोंको | सर्वदानों में अभयदानहिश्रेष्ठ सुयगडांग में कहा
वर्जनी
दाणा सिहं अभय पहाणं
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अर्थात् दानोंमें अभयदानप्रधानकहाहे और जगह भी कहा है
| दीयते म्रियमाणस्य -कोटिजीवितमेव च । धनकोटिं न गृह्णीयात् - सर्वोजीवितमिच्छति ॥ १ ॥ अर्थ-मरतेहुवेकों क्रोडद्रव्यकोईदेवे कोई जीवितव्यदेवे तब क्रोडधन नहिलेवे किंतु सर्वजीवितव्यकीवांछाकरे १ औरभीकहाहे
| योदद्यात्कांचनं मेरुं कृत्स्नां चापि वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् नहि तुल्यमहिंसया ॥ २ ॥ अर्थ- जो मेरुपर्वतजितना सोनादेवे अथवा सर्वपृथ्वीका दानदेवे और १ मरतेहुवे जीवको बचावे तो अहिंसाकेतुल्य मेरूपर्वतजितनाधन और सर्वपृथ्वीकादान न होवे २ इसकारणसे अभयदानको प्रधान
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व्याख्यानम्.
॥ १७ ॥
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शवताणेकेवास्ते कथानककहतेहे जैसे वशंतपुरनगरमें अरिदमननामका राजा उसके ५ राणियोंथी उन्हों में 5
१ दुर्भागनीथी ४ अत्यंतवल्लभथी ( कथांतरमे ५०० राणीभीकहतेहे ) एकदा ४ राणीसहितराजा महेल के झरोखेमें बेठेहुवे अनेकप्रकारकी क्रीडाकरतेथे उसअवसरमें १ चोरको राजमार्गमें लेजारहेहे वो केसाहे कंठमें कनेरकीमालाहे लालवस्त्रपहराएहे रक्तचंदनकाविलेपनकियाहे आगे डिंडिमवादित्रवाजरहाहे | इसप्रकारसेनानाप्रकारकी विटंबनाहोतीहुई देखके राणीयोंनेपूछाकी इसने क्याअकार्यकीयाहे तब १ राजपुरुषने कहाकि इसने परद्रव्यहरनकरके राजविरुद्धकीयाहे तब उत्पन्नभईकृपाजिसको ऐसी १ रानी राजासे कहनेलगी हेखामिन् जो आपने मेरेकू पहलेवरदेनाअंगीकारकीयाथा सो इसवक्त देनाचाहिये जिससे में इसचोरका १ दिन उपकारकरूं तब राजा कथंचित् अंगीकारकीया तब उसरानीने उसचोरकुं नानादिककराके एकहजारसोनइया खरचकरके ग्रहणोंसे सुसोभितकीया बाद दूसरेदिन दूसरीरानीने राजाकी है आज्ञालेके दसहजारसोनइयाखर्चकरके उसचोरका सत्कारकीया उसके बाद तीसरेदिन तीजीरानीने लाख
सोनइयाखर्चके चोरकाउपकारकीया चोथेदिन चोथीरानीने क्रोडसोनयेखर्चके चोरकीभक्तिकरी तब पांचवेदिन पांचमी दुर्भगारानी राजाकेपास आके विनयसेंनम्रहोके दीनवचनोसे राजाको विनतीकरी 8 हेखामी ? मेंदुर्भागिनीहुं इसलीये मैंने आपकेपासकभी मागानहि इसवक्त इसचोरको जीवितदान में आपके
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चातुमासिक
॥ १८ ॥
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पास मांगती हुं तब राजाभी उसकेविनयसे रंजितहोके उसचोरको जीवितदानदेके रानीको सोंपदिया रानी उसचोरको अपनेघरलेजाके सामान्यभोजनकराके कहा मेनें तेरेकुं जीवितदानदिया और अब चोरीकरनानहिं तब यह चोर बहुतखुसीहुवा तव सोकों इसके कहनेलगी अरी तेनें तो इसका कुछमी सत्कार नहिकीया हमनेतो लाखोधनखर्चके इस का सत्कारकीयाहे उसवक्त उन्होके परस्परउपकार केविस यमें बहुतविवाद होनेसे राजाने चोरको बुलाके पूछा की तेराउपकार किसने जादाकीया चोरबोला हे महाराज ४ दिन तक मैंने मरनेकेभयसे कुछभी भोजनादिककासुख नहिमाना आज इस महारानीकेमुखसे अभय - दान सुननेसे परमसुखका अनुभवकरताहुं इसीकारणसे हेमहाराज ? आज ५ मीरानीका सबसे जादा उपकारहे ऐसासुनके राजादिकोने पांचमी रानीकी प्रशंसा करके पटरानीकरी," इसकारनसे सर्वदानोंमे अभय दानश्रेष्ठकहा इसीसे सुश्रावकों को इसपर्युषणापर्व्व में खांडना पीसना वस्त्रधोना वगेरह आरंभवर्जना तेली लोहार भडभुंजे ओर भी कठोरकर्मकरनेवालोसे वचनसे या धन खर्च के भी आरंभछोडाना सक्तिप्रमाणे कैदीमी छोडाना अमारीघोसणाकराना जिसकिसप्रकारसे जीवरक्षा करना ? दूसरेआश्रव के त्याग में मृषा वचनइसपर्व्व में नहिकहना गालीप्रमुख नहिदेना सर्वथावचनसुद्धिकरनी २ तीसरे आश्रव के त्याग में चौरीका सर्वथा त्याग - कराना द्रव्य प्राणीयोंका वाह्यप्राणरूप होनेसे उसका लेना मरनेरूपकष्टका हेतु है ३ चोथे आश्रवके त्यागमें पर्युषण
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व्याख्यानम्.
॥ १८ ॥
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हापर्व में ब्रह्मत्रतपालना सर्वथा स्त्रीसंगवर्जना परखीसेवनतो दोनो लोक में विरुद्ध होनेसे सर्वथा नहि करना ४ ६पांचवेआश्रवके त्यागमे धनधान्यादिनवप्रकारके परिग्रहकानियमकरना परिग्रहकीतृष्णा अपरिमित नहि धारनी
इच्छापरिमान करना ५ और इस पर्वृषणापर्वमें कषायरोधकरना कषाय चार (४) हे क्रोध १ मान २ माया ३|| प्रलोभ ४ इहोंका त्याग करना दशवैकालिकमें कहा भी हे
कोहो पीईपणासेइ माणो विणयनासणो । माया मित्ताणीनासेइ लोहोसबविणासणो ॥१॥ 8| अर्थ-क्रोधके उदयसे लडाई होतीहे बहुतकालकी प्रीतीका नास होता हे १ मानके उदय से विनय का नास होता हे श्रेष्ठ ध्यानमें रहे हुवे मुनिको अभिमानसे केवलज्ञान की प्राप्तीमें अंतराय हुवाहे जैसे बाहुबलि राजर्षि १२ महिनेतक काउसग्गमें खडे रहे तथापी केवलज्ञान नहि हुवा जब मानछोडा तभी केवलहुवा २ मायाके उदयमें मित्रता नहि रहेहे ३ लोभतो सबका नास करनेवालाहे ४ मायालोभके उदयमें तो बहुतदोषहोवेहे
इससे ४ कषायोंका त्याग करना इसलिये शुभ आचारहे जिन्होंका ऐसे श्रावकों को आश्रव कषायका रोध हैकरना ऐसा कहा और इस पर्व में जो कर्तव्यहे वही श्रावक विशेषणद्वारा कहतेहे, कैसे श्रावक सामायिक जिन
पूजा और तप इन्हों का करना उनमें तत्पर इसकहनेकर इस पर्वमें सुश्रावकोंको सामायककरना सामायक
CASGACASEARCACANCERCASCAR
DASGACHERECORRC
चा.व्या.४
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अढाहिका
व्या.
MEA
पर्युषणाधिकार
NALORERAKASARO
का खरूप यहहे-'समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभभावना । आतरौद्रपरित्याग-स्तद्धि सामायिकं व्रतं ॥१॥' अर्थसर्व प्राणियोंपर समपरिणामरखना सावद्यसे निवृत्त होना शुभभावनाभावनी आर्तरौद्र ध्यानका त्यागकरने से सामायक व्रत होताहे ॥१॥ औरभी कहाहेदिवसे दिवसे लक्खं देइ सुवणस्स खंडिणं एगो । एगो पुण सामाईयं, करेइ न पहुप्पए तस्स ॥२॥ | अर्थ-रोज रोज लाखखंडीसोनेका दान देनेवाला और एक सामायक करनेवाला उनमें दानदेनेवाला सामा
यकके फलको नहिपहुंचे ॥२॥ आदिपदसे पोषधग्रहणकरना पोषहका फलतो यहहे गाथाहै पोषहि य सुहे भावे,-असुहाइंखवेइ नत्थिसंदेहो। छिंदइ निरय तिरिय गई-पोसहविहि अप्पमत्तेणं ॥१॥
अर्थ-शुभभावसे पोषहकरने से अशुभकर्मका क्षयहोताहे इसमें संदेहनहि पोपहकीविधिमें अप्रमादी होनेसे नरकतीयंचगतिका छेदकरे । अर्थात् नरक तिथंच गती में नहि जावे पोषधकी सक्ति नहि होवे तो इस पर्वमें सुश्रावको को यथासक्ति तीर्थंकरोंकी द्रव्यभावपूजाकरनी पूजा का फलयहहेसयं पमजणे पुण्णं,-सहस्संचविलेवणे । सयसाहस्सियामाला, अणंतं गीयवाइयं ॥१॥
अर्थ-तीर्थकरकी प्रतिमाको मोरपीछावगेरेहसे त्रिकरणशुद्धिसें त्रशजीवोंकी रक्षाकेवास्ते प्रमार्जनकरे सो
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उपवास का फल पावे, केसर चंदन अंबर कस्तूरी वगेरह का विलेपन करे तो हजार उपवास का फल पावे। विकखरमान सुगंध पुष्पोंकी मालाचढाने से लाखउपवास जितनी निर्जरा करे-गीत वादित्रादिभावपूजा करने से अनंत उपवास जितनाफलपावे ॥ भावप्रधाननिर्देशहे आवश्यकनियुक्तिमें द्रव्यपूजाकाफलसंसार परित्त कहाहे है
१ मन वचन कायाकी शुधीकरके पर्युषणा पर्व में स्नात्र पूजा वगेरह करना उस अवसरमें भगवान की छमस्त १ टू केवली २ सिद्धखरूप ३ ये तीन (३) अवस्था विचारनी कहाहे
हवणचणेहिं छउमत्थ-वत्थपडिहारेगेहिं केवलीय। पलियं वुस्सग्गोहिय-जिणस्स भाविज्जसिद्धत्तं ॥१॥ PI अर्थ-लात्रविलेपनादि पूजाकरतेवखत छप्रस्थअवस्था भावनकरनी जैसे मेरुसिखरपरदेवेंद्रतीर्थकरका मात्रकरहे
वो विचारना चैत्यवंदनकरते वखत छत्रचामरादिप्रातीहार्ययुक्त समवसरणमें रहे हुवे तीर्थकरकी केवलीअवस्था विचारनी काउसग्गकरती वखत सिद्धअवस्था विचारनी १॥ द्रव्यपूजाकी सामग्री यदि नहोवे तो भावपूजातो अवश्यकरनी प्रभातमें श्रीजिनमंदिरजाके शुद्धभावसे भगवानका दर्शन करना भगवानकी मुद्रा देखके भगवानका गुणस्मरणकरना भगवानके दर्शन वगेरहका फल यह हे
दर्शनात् दुरितध्वंसी-वंदनाद्वांछितप्रदः। पूजनात्पूरकः श्रीणां-जिनः साक्षात्सुरद्रुमः॥१॥
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करना भगवा श्रीजिनमंदिरावस्था विचारतीहार्ययुक्त समय जैसे मेरुसिखापरल्ल भावि
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अट्टाहिका व्या०
पर्युषणाधिकार
॥ २०॥
अर्थ-तीर्थकरका दर्शन करनेसे पापका नाश होताहे और नमस्कार यास्तुति करनेसे वांछितके देनेवालेहे पूजनेसे लक्ष्मीको पूर्ण करनेवालेहे इसवास्ते तीर्थकर साक्षात् कल्पवृक्ष हे ॥१॥ और भी तीर्थंकरके दर्शनसेहि बहोतसे भव्योंके बोधबीजकी प्राप्तिहोवेहै आर्द्रकुमरके जैसा वह वृत्तांत यह हे-जैसे इस भरतक्षेत्रमें समुद्रके किनारे |आर्द्रकनामका यवनदेसहै उसमें आर्द्रकपुरनामका नगरहे वहां आर्द्रकनामका राजाभया उसके आर्द्रका नामकी पटरानीथी उन्के आर्द्रनामका पुत्रथा वह क्रमसे योवनावस्थाको प्राप्तभया खेच्छासे मनोज्ञभोगभोगवता सुखसे रहे उसआईक राजाके श्रेणिक राजाके साथ परंपरागत परमप्रीतिथी एकदा श्रेणिकराजा बहुत भेटणा तयार करके आर्द्रक राजाके पास अपना मंत्रवी भेजा वो गंत्रवी भी कितनेहि दिनोंसे आईकनगर गया आईक राजाने बहुत आदरके साथ संभाषणकरके उसके दिये हुवे भेटणेको ग्रहण किया और पूछा मेराभाई श्रेणिक राजाके कुशलहे ! तब मंत्रवीने भी वहांके संपूर्ण कुशलका समाचार कहनेकर राजाकेमनमें परमआनंदसंपादन किया उस
अवसरमें आर्द्रकुमरने राजासे पूछा अहोपिताजी! कोण वह श्रेणिकहे जिसके साथ आपकी ऐसी प्रीती ४ावर्तेहै तब राजा बोले वह मगधदेसका राजाहै उसमगधेशश्रेणिक राजाके और मेरेकुलमें परंपरागत प्रीतीहे ऐसा पिताका वचन सुनको आर्द्रकुमर भी मंत्रवीसे बोला अहो मंत्रवी ! तुम्हारे राजाके सम्पूर्णगुणयुक्त कोई| पुत्र भी है जिसके साथ में भी मैत्री करनेकी मनसा करूं मंत्रवी बोला श्रेणिकराजाके अभयकुमारनामका
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पुत्रहे वह सर्वकलानिधान सर्ववुद्धिका समुद्र ५००मंत्रवीयोंका खामी महादयावान महादातार अत्यंत विचक्षण निर्भय धर्मका जाणनेवाला कृतज्ञहे जादा कहनेकर क्या ऐसे जगतमे कोईभी गुण नहि हे जोकी अभयकुमरमें नहि हों. इस प्रकारका मंत्रवीके मुहसे सुनके पिताकी आज्ञा लेके मंत्रबीसे बोला. मेरेकुं पूछे सिवाय देश जाना नहि और देश जाते हुवे अभयकुमारको स्नेह वृक्षाके बीजतुल्य मेरा वचन सुनना. बाद मंत्रवीभी आर्द्रकुमारका वचन सुनके |अंगिकारकरके राजाने विसर्जन कीया छडीदारके बताए हुवे स्थानपर गया-अथ अन्यदा आईकराजा प्रधान है मोती वगेरह भेटना देके अपने मंत्रवीको श्रेणिक राजाके मंत्रवीके साथ राजग्रहभेजा तब आर्द्रकुमारने भी अभय
कुमारके वास्ते मोती मूंगा वगेरह प्रधान वस्तुका भेटना मंत्रवीके साथ भेजा तब वहभी राजग्रह पहोचा श्रेणिक राजाकुं अभयकुमारको भेटना दिया और मंत्रीने अभय कुमारसे कहा कि आपके साथ आर्द्रकुमार मैत्रीकरना चाहताहै तब जिनशासनमें कुशल ऐसे अभयकुमारने विचारा कि निश्चय वह राजकुमर विराधितश्रमणपनेसे अनार्यदेसमें उत्पन्नहुवाहे परंतु वह राजपुत्र महापुरुष नियमसे आशन्नभव्यहे तिसकारणसे अभव्य दूरभव्य 8 की तो मेरे साथ मित्राईकरनेकी इच्छा नहि होतीहै इसलिये कोइ तरहसे उसको धर्ममार्गमें प्रवर्तावु वहां यह उपायहे भेटणे के छलसे ! जो वहां जिन प्रतिमाभेजें तो उनके दर्शनसे जातीस्मरणज्ञानउत्पन्नहोवे और मेरी इष्टसिद्धी होवे ऐसा उपाय विचारके छत्र चामर सिंहासनादिकसे विराजित रत्नमई श्रीरिषभदेवखामीकी प्रतिमा
HOGANISASI
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अट्ठाहिका व्या०
॥ २१ ॥
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पेटीमें धरके उन्होंके आगे सम्पूर्ण धूपादिक देवपूजाका सामान रक्खा बाद पटी बंध करके तालादेके अभयकुमारने उसपर अपनीछापलगाके कितनेक दिनके बाद श्रेणिकराजाने आर्द्रकराजाके पुरुषको प्रियआलापपूर्वक बहुत भेटना देके भेजा तव अभयकुमारने भी वा पेटी देके अमृत तुल्य वचनोंसे एसा बोला यह पेटी आर्द्रकुमरको देनी और उस मेरे भाईको ऐसा वचन कहना कि तुमको यह पेटी एकांत बेठके खोलना इसकी अंदरकी वस्तु आपहिको देखनी और कीसीको नहि दिखाना बाद अभयकुमारका वचन अंगीकार करके वह पुरुष अपने नगरजाके भेटना स्वामीको और कुमरको दिया और आर्द्रकुमारकों अभयकुमारका शंदेसा कहा बाद आर्द्रकुमार एकांत में बैठके उस पेटीको उघाडके अंधेरेमें उद्योत करनेवाली श्रीरिषभदेवखामीकी प्रतिमाको देखके विचारने लगा अहो ! क्या यह उत्तमदेहिका आभरणहे तो क्या मस्तकपर पहराजाता है या कंठमें हृदयमें या और कँहि पहराजाताहे ऐसा विचारकर उसीतरहसे कीया परंतु कहिभीठहरा नहि तव विचारकरने लगाकि मेनें पहले ऐसा कँहि देखाहे ऐसा मालुम होताहे परंतु याद नहि आता है कहाँ देखाहे इसप्रकार से अत्यंत विचार करतेहुवे आर्द्रकुमारको जातीस्मरण जनित मूर्छा उत्पन्न भई तदनंतर उत्पन्नहुवा हे जातीस्मरणजिसको ऐसा कुमर चेतनापाके आपही अपने पूर्वभवकी कथा विचारने लगा - इस भवसे ( ३ ) तीजे भवमें मगधदेस में वर्शतपुरनगर में सामजीकनामका कुटुंबी था मेरे बंधुमती नामकी स्त्री थी एकदा सुस्थित आचार्य के पास में धर्म सुना स्त्रीसहित प्रतिबोध पाया गृहस्थ
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आद्रकुमार कथा
॥ २१ ॥
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वाससे विरक्त हुआ आचार्यके पास दीक्षा लिया क्रमसे गुरुके साथ विहार करताहुवा १ पत्तनमें आया बंधुमती साधवी
भी और साधवीयोंके साथ वहाँ आई एकदिन बंधुमती साधवीको देखनेसे पूर्वावस्थाके भोगयाद आए तब उसपर है मेरा राग वधा वह वात मेनें और साधुसे कही उस साधुने प्रवर्तनीसे कहा प्रवर्तनीने बंधुमती से कहा तव बंधुमती खेदा
तुरहोके प्रवर्तनीसे बोली जो यह गीतार्थ भी मर्यादा उलंघे तो क्या गती होगी जो यह मुझे देशांतरगई सुनेगा तो भी राग नहिछोडेगा इसलीये हेभगवति में निश्चय मरन अंगीकारकरूं जीससे इसका और मेरा शीयल खंडित नहोवे ऐसा कहके बंधुमती साधवी अनशनकरके श्रुद्धभावसे प्राण त्यागकरके देवगती पायी वाद बंधुमतीकोमरी सुनके मेने विचाराकिया महानुभावा निश्चय व्रतभंगकेभयसेमरी और मेंभग्नव्रतहुं इससे मुझे भी जीनाअच्छानहि । तव मेनेभीअनशनकीया और प्राणत्यागकरके देवताहुवा वहांसे चवके में यहां धर्महीन अनार्यदेशमें उत्पन्नभयाहूं इसवक्त जो मुझे प्रतिबोधाहे वह मेराभाई औरगुरुहे कोई भाग्योदयसें अभयकुमरने मुझे
प्रतिबोधाहे परंतु अबतक में मंदभाग्यहुं की अभयकुमरको नहि देखसकुंडं इसकारणसे पिताकी आज्ञा इलेके आर्यदेशजाऊंगा जहांकी मेरा गुरु अभयकुमारहे ऐसा मणोरथ करता हुवा रिषभदेवखामीकी प्रतिमाको ६ पूजताहुवा आर्द्रकुमार रहनेलगा एकदा कुमरने राजासे वीनंतीकीवी हेपिताश्री ! में अपने मित्र अभयकुमरको ६
देखनाचाहताहुं राजाबोला हेपुत्र वहां तुमको जानेकी इच्छा नहिकरनी अपने स्वस्थान स्थितकी श्रेणिकराजाके
+SACCESSASACHCCCCESSAR
महानुभावा निश्चय प्रतायुद्धभावसे प्राण त्यागकर जाससे इसका और मेरा शारगई सुनेगा
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अद्राहिका व्या०
कथा
॥२२॥
* ASSUSTICIAS
साथ मैत्रीहे यहांका कोई वहां गया नहि ओर वहांका यहां आया नहि, तब पिताकी आज्ञासे बंधाहुवा आद्रकुमार अभयकुमरसे मिलनेकी इच्छाहे जिसको ऐसा आर्द्रकुमार मनसे रहा नहि कायासेगयानहि और आशनमें 81 बेठने में सोने में चलनेमें और कार्यमें अभयकुमारआश्रित दिशाको देखै पासमे रहनेवालोंसेभी पूछे कैसा मगधदेशहे| केसा राजाहे वहां जानेका कोणसामार्गहे. उसअवसर राजाने विचाराकी कभीने कभी यह मेरा कुमर मुझे | विना पूछेही अभयकुमरके पास जावेगा वास्ते जतनकरनाचाहिये बाद राजा (५००) पांचसै सामंतोंको एसी आज्ञाकीवी कि यह कुमर कहिं जावे तो तुमको रक्षा करनी जानेनहिं देना तब पांचसै (५००) सामंत देहकीछायाकेजैसे कुमरके पासहि हरवक्त रहनेलगे और कुमर भी अपने आत्माको बंधाहुवा जानके अभय 8 कुमरके पासजाना ऐसा चाहताहुवा निरंतर घोडा फिरानासरुकीया 4 सामंतभी घोडोंपर सवारहोके अंगरक्षाके
वास्ते साथ#हि रहे कुमर भी घोडा फिराताहुवा उन्होंसे कुछ आगेतक जाताहे और पीछा आताहे आप इसप्रकाPारसे उन्होंको विश्वास उत्पन्नकरके अन्यदा आर्द्रकुमर अपने प्रतितीवाले पुरुषोंके पास समुद्र में जहाज तैयारकराके
रत्नादिकसे भराया और जिनप्रतिमाभी उसमे रखवाई और आपघोडे खेलानेके लिये चला घोडा फिराताहुवा ॥२२॥ दूरजाके जहाजमें बेठके आर्यदेशगया बाद जहाजसे उतरके प्रतिमा अभयकुमारकों भेजके साधुकावेष ग्रहणकीया और जितने सामाईकउचरनासरुकरताहे इतनेमेंहि आकासमें देवता बोली अहो कुमर ? यद्यपितुम सात्विकहो
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तथापि इसवक्त दीक्षालेनानहि अभीतक तुमारे भोगकर्महे वो भोंगवके अवशर में दीक्षालेना क्योंकि भोग्यकर्म तीर्थकरों को भी अवश्य भोगवना होताहे इसलीये संजम ग्रहणकरके त्यागकरना अच्छानहि जैसे उस भोजन से क्या प्रयोजनहे की जो खाके वमनकीया जावे. ऐसाबहुतमना करनेपर भी उसके वचन नहिमानताहुवा संजम ग्रहण कीया वो प्रत्येकबुद्धमुनि तीक्ष्ण व्रतपालताहुवा भूमंडल में विचरताहुवा अन्यदा बसंतपुर पत्तनजाके कोई देवकुल में काउसग्ग में रहा - इधर से उसनगर में देवदत्तनामका बड़ा सेठथा उसके धनवतीनामकी स्त्रीथी वाद वह बंधुमतीका जीव देवलोकसे व्यवके अद्भुतरूपवती श्रीमतीनामकी उन्होके पुत्री हुई वाधायोंकरके पाल्यमान ऐसी क्रमसे धूलीकी क्रीड़ायोग्यवय प्राप्त भई एकदा प्रस्ताव में उसदेवकुलमें नगरकी कन्यायों सहित श्रीमती कन्या | भी पतिवरणक्रीड़ा करने को आई तब सब कन्या भर्तारको वरो ऐसा बोलीं तब कोई कन्याने किसको वरा २ ऐसे सब कन्यायोने अपनी २ इच्छासे वर अंगीकार किया तब श्रीमती बोली हे सखियो मैंने तो यह पूज्य वरा है । उस वक्त में साधु वृतं साधुवृतं ऐसी देवताने वाणी करी और गर्जारवकरतीभई वाही देवी वहां रत्नवरसाया अर्थात दीक्षा लेने के | समय जिसदेवीने मना कियाथा उसीदेवीने यहां रत्नोंका वरसात किया तब श्रीमती गाजनेसे डरी भई उसमुनिके पगो में पड़ी । वह साधु क्षणमात्ररहके विचारताभया यहां रहते मेरेको अनुकूल उपसर्गभया इसकारण से यहां नहीं रहना ऐसा विचाकर मुनि अन्यत्र गया तब अस्वामिक धनका मालिक राजा होवे है ऐसा निश्चयक
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कथा
अट्ठाहिका रके रत्नलेनेको राजा वहां आये राजपुरुषोंने उस द्रव्यके ठिकाने बहुत सर्प देखे देवता बोली यह द्रव्य इस कन्याका आद्रकुमार - व्या०
है वर खीकारकरनेमें मैंने दियाहै ऐसा सुनके राजा उदासहोके अपने ठिकाने गये ॥ उसके अनन्तर वह सब
धनश्रीमतीकन्याका पिता देवदत्त सेठने लिया वाद कितने कालसे श्रीमतीके पाणिग्रहणके वास्ते बहुत वर आये ॥ २३ ॥
६ वह खरूप पिताने पुत्रीसे कहा ॥ तब श्रीमती बोली हे पिताजी जो महर्षि मैंने वराथा वोही मेरा भर्तारहै उसके है वरनेमें देवताने जो द्रव्य दिया वह द्रव्य लेतेहुये आपने भी वह मानाही है इसलिये उसमुनि केवास्ते मेरी कल्पनाकरके औरको देनी योग्य नहींहै ॥ कहा भी है
सकृजल्पंति राजानः, सकृज्जल्पंति साधवः ॥
सकृत्कन्या प्रदीयंते, त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ॥१॥ है अर्थः-राजा लोग एकही जबान बोलतेहैं साधु भी एकही जवान बोलतेहैं । कन्या भी एकहीवक्त दीजातीहै ।
ये तीन एकही वक्त होतेहैं, यह सुनके सेठ बोले वह मुनि तो भ्रमरके जैसा एक ठिकाने नहीं रहेहै कैसे मिले और यहा आवेगा या नही आवेगा आयाहुआभी कैसे जानाजावे क्या उसका पहचानहै तब श्रीमतीबोली| हेतात मैंने उसदिन गाजनेके भयसे मुनि के चर्णमें लगीभई पहचान देखाहै इसलिये अब ऐसाकरो यहां जो जो है। मुनिआवे उनका निरंतर मैं दर्शनकरूं तब सेठबोले इसनगरमें जो कोई साधु आवे उन्होंकोतें अपने हाथसे
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SASARDARRORS RESS
भिक्षादे जिससे सबोंका दर्शनहोवेगा उसके बाद श्रीमती भी निरंतर उसीतरह किया मुनिका लक्षणदेखनेकी इच्छावाली मुनियोंके चर्णो में वन्दनाकरे बाद वारहवें वर्ष में वह महामुनिः दिशाभूलगया वसंतपुरपत्तनमे आया। उस मुनिका लक्षण देखनेसे श्रीमतीने पहिचाना तब श्रीमती उस ऋषिसेवोली हेनाथ उसदेवकुलमें मैंनेजो | वराथा वह मेरा वर तुमही हों मेरे भाग्यसेही यहां आयेहोमैं मुग्धाहूं मेरेको छोड़कर कहां जाओगा जब तुम चले गयेथे उसदिनसे लेके मेरे महादुःखसे इतना समयगया इसलिये प्रसन्न होके मेरेको अंगीकारकरो ॥ ऐसेरहते भी जो मेरेको नहीं पाणिग्रहणकरो तो मैं अग्निमें प्रवेशकरके तुमको स्त्री हत्याका पाप देउंगी ॥ तब औरभी उसका पिता प्रमुख महाजनोने विवाहके वास्ते प्रार्थना करी तब उससाधुने व्रतारंभके समय देवीने मनाकिया । था वह वचनका स्मरण किया वाद भोग्यकर्मकाउदय वही एक कर्जा उसको छुड़ानेके वास्ते श्रीमतीको पाणिग्रहण-18/ करी वाद श्रीमतीके साथ बहुतकालतक भोगभोगवता उसके क्रमसे पुत्रहुआ वह क्रमसे बड़ाहोताहुआ राजसुक-1 सदृशबोलनेलगा तव आर्द्रकुमार हर्षितभया श्रीमतीसे बोला अब तेरे पुत्रका सहायहो मैं दीक्षालेउं तब बुद्धिनिधि । श्रीमती पुत्रको अवसर बतलानेकेलिये सूत कातने वैठी तब सूत काततीहुई अपनी माताको देखकर बालक बोला हे अंब वह पामर लोगके योग्य क्या कर्म आरंभ किया श्रीमती बोली हे पुत्र तेरा पिता तुझको और मुझको छोड़कर दीक्षालेगा, तेरापिता जानेसे पतिहीन मेरेको इसचर्खेकाही शरणाहैं तब बालक बालकपनेसे मनमनाक्षरोंसे बोला मैं
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अवाहिका व्या०
C
A-
॥२४॥
बांधके रक्खूगा मेरा पिता कैसे जावेगा ऐसे कहके सूतके तंतुओसे अंदर सोताहुबा पिताका पग बांधा मुखसे ऐसा आद्रकुमार बोला हे मातः धीरी होवो मैंने ऐसा बांधा है कि कभी नहीं जा सकेगा आर्द्रकुमारभी उसबालककावचनसमूह- कथा सुनकर पुत्रके स्नेहसे ऐसा बोला हे पुत्र जितने तंतुओंसे मेरपेग बांधे हैं उतने वर्ष औरभी घरमें रहूंगा वादगिनके बंधन तोड़े बारह बंधन भये बारह वर्षतक घरमें रहे ॥ बाद प्रतिज्ञा पूर्ण भयोके अनन्तर आर्द्रकुमार वैराग्यसे पूर्ण मन जिसका रात्रिके पश्चिम प्रहरमें ऐसा विचारता भया मैंने पूर्वभवमें मनसेही व्रतभंगकिया उससे मैं अनार्यपना पायाहूं इसभवमें व्रतलेके छोडदिया अब क्यागति मेरी होगी। अवी भी दीक्षा लेके तपसे आत्माको शुद्धकरूं ऐसा विचारके प्रभातमें श्रीमती और अपने पुत्रको बुलाके उन्होंकी आज्ञालेके साधुका वेष अंगीकार ६ कर घरसे निकला बाद राजग्रहनगर जाता हुआ बीचमें चोरीसे आजीवकाकर्ताहुआ पांचसै अपने सामन्तोको है देखा उन्होंने पहचानके भक्तिसे बन्दनाकिया आर्द्रकुमार मुनिने उन्होसे कहा तुमने महापापकाकारण
यह वृत्ति क्या अंगीकारकरी उन्होंने कहा हे प्रभो हमको ठगके जब तुम चले आये तबसे लजासे राजाको मुख नहीं दिखाया तुम्हारी गवेषणमें लगेहुये पृथ्वीपर परिभ्रमण करते हुये चोरीकी वृत्तिसे निर्वाहकर्तेहैं तब
॥ २४ ॥ टू मुनिबोले तुमने अयुक्तवृत्तिअंगीकारकरी कोई पुण्ययोगसे यह मनुष्यभवपाके वर्ग अपवर्गका देनेवाला धर्मही
सेवना और हिंसा असत्य, चौरी, अब्रह्म, परिग्रहका त्यागकरना हेभद्रो तुम खामीके भक्तहो मैं पहलेकेजैसा है
ACCRERAKASAX
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चा. व्या. ५
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| तुम्हारा खामी हुं, इसलिये मेराही मार्गअंगीकारकरो । तब वह लोगबोले पहले आप हमारे खामीहीथे अबतो गुरुहो जिसकारणसे आपने हमको धर्मबताया अब हमारेपर दीक्षा देकर अनुग्रहकरो तब मुनिनेः दीक्षादिया | उन्होके साथ श्रीमहावीरस्वामीकों वंदनाकरनेको राजग्रह नगर के सामने चले मार्ग में जाते हुवे गोशाला सामने | मिला विवाद करने लगा भूचर खेचर हजारों इकट्ठे हुये, कौतुकदेखनेको, बाद गोशाला बोला तुम्हारा तप वगैर| हका कष्ट व्यर्थही है जिसकारण से शुभाशुभ फलका कारण नियतिही है तब मुनिः बोले पौरुषः भीकारणमानो | जो सर्वत्र नियतिही कारण माने तो वांछितसिद्धिकेलिये सर्वक्रियावृथा होवे | वही दिखाते हैं हे नियतिवादिन् | सर्वदा अपने ठिकानेही क्यों नहि रहता है भोजनादि अवसर में भोजनादिकके वास्ते कैसे उद्यम करता है ऐसे स्वार्थसिद्धिः | के अर्थः नियति जैसा पौरुषः भी ठीक है अर्थः सिद्धिः में नियतिसें भी पौरुष अधिक होता है | जैसे आकाशसे पानी वरसता है परन्तु जमीन खोदनेसे भी निकलता है इसकारणसे नियति बलवान है परन्तु नियति से पौरुष अत्यन्त बलवान है | इसप्रकारसे उसमुनिःने गोशालेको निरुत्तर किया तब जय जय शब्दकरते हुये विद्याधर वगैरहःने उसमहामुनिःकी प्रशंसा करी बाद आर्द्रकुमारः ऋषिः हस्तितापसाश्रम के समीपमें आये | उस आश्रम में रहेहुये तापस एक | बड़े हाथीको मारकर उसका मांस खातेहुये बहुतदिन व्यतीत करें उन्होंका यह कहना है एकहीहाथीको मारना ठीक है जिसकारण एक जीवको मारनेसे बहुतका निर्वाहहोवे है | मृगः तित्तरः मत्स्यः वगैरहः और धान्यसे बहु
॥
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अट्ठाहिका
व्या०
कथा
॥२५॥
SASAROSHASTROLOROSESS
तसा जीवोंसे वैसा निर्वाहनहीं हुवेहै । इसलिये धान्यादिखाना युक्तनहींहै बहुतपापहोनेसे ॥ तव उन आद्रकुमार मिथ्याधर्मनिष्ठ तापसोंने मारनेके लिये एक बड़ा हाथीको बांधाहै ॥ जहां सांकलोंसे बंधा हुआ वह हाथी था उसमार्गसे दयाके निधान वह मुनिः गये तब हाथी पांचसै मुनिसहित बहुत लोग नमस्कारकरेहै जिनोंको ऐसे उनमुनिको देखके वह लघुकर्महोनेसे विचारता भया में भी इनमुनिःको नमस्कारकरूं जो बंधानहीं होतो |मैं तो बंधाहुआहूं क्याकरूं ॥ ऐसे विचारतेहुए हाथीकी सांकलां उसमहामुनिःके दर्शनमे जल्दीटूटगई ॥ ६ बाद वह हाथी बंधनरहितहुआ उसमहामुनिःको नमस्कार करनेको जल्दी आया ॥ तवलोक मुनिःको मारा
मारा ऐसा कहते हुए भाग गये ॥ मुनिःतो वाहीं खड़े रहे ॥ हाथी भी कुंभस्थलको नमाके मुनिःको नमस्कार किया ॥ सूड प्रसारणकरके मुनिःके चौँको स्पर्शके परमसुखप्राप्तहुआ बाद वह हाथी उठके भक्तिःसे मुनिःको | देखताहुआ व्याकुलतारहित भयाऐसा अटवीमें प्रवेशकरगया तब अतिअद्भुत मुनिःका प्रभावदेखके बहुत है क्रोधकरके तापस आर्द्रकुमार के पासमें आये ॥ तब आर्द्रकुमरमुनिःने उनतापसोंको प्रतिबोधे बाद तापस
वहांसे भेजे हुये भी महावीरस्वामीके समवशरणमें जाके दीक्षालिया बाद सेणिकराजा भी हाथीका छूटना और ताप-P॥२५॥ सोंका प्रतिवोध सुनके अभयकुमारःसहित आया ॥ महामुनिको भक्तिसे वंदनाकर्ताहुआ, राजाको धर्मलाभरूप 3 आशीर्वाद दिया ॥ बाद शुद्ध भूतलपर बैठाहुआ मुनिको राजाने पूछा हे भगवन् हाथीकी सांकलों टूटी इससे |
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| मेरेकों बहुत आश्चर्य हुआ ॥ मुनिः वोले हेमहाराज हाथीकी साकला इंटनी मुशकिलनहीं है किं तु कथा सूतका तंतू टूटना मेरेको मुशकिल मालूम होवे है तब राजाने पूछा हेखामिन् यह कैसा तब मुनिःने सब अपना वृत्तांत कहा ॥ बाद आर्द्रकुमारः मुनिः अभयकुमारः से बोले || हे अभय ? तैं मेरा निष्कारणउपकारी धर्मभाईहुआ || हे | मित्र ? तैने भेजी तीर्थकर की प्रतिमा देखनेसे मैंने जातिस्मरणपाया और जैनधर्म में अनुरक्तभया । ऐसे उपाय बिना मेरेको जैनधर्मकी प्राप्ति कहांथी अनार्यरूपमहाकीचडमें फसाहुआ तैंने मेरा उद्धार किया तेरे प्रसाद|सेही मेरे चारित्रकी प्राप्तिः हुई ॥ तव श्रेणिकराजा अभयकुमारः वगैरहः सबलोग मुनिःको वंदना करके संतुष्टमान | ऐसे अपने ठिकाने गये ॥ तब मुनिः राजगृहनगर के समीप में समवसरे श्रीमहावीरस्वामीको नमस्कार करके और | भगवान के चर्णकमलकी सेवाकरके अपना जन्म सफलकरके क्रमसे आयुः सम्पूर्णकरके मोक्षगये ॥ इतने कहनेकर | श्रीजिनदर्शन महात्मपर आर्द्रकुमारका दृष्टान्त कहा | और भि पर्यूषणापर्व में जो कर्तव्य है वह कहते हैं ॥ तपोविधानादि यथाशक्ति तपमें यत्न करना ॥ उपवास, वेला, तेला, वगैरहः तपकरना ॥ तपकर्तेको जो कोई स्नेहके वससे मना - करे तथापि तपलोपबुद्धिः नहींधारणी श्रीभरतचक्रवर्तीका पुत्रः सूर्ययशाराजाके जैसा, उसका कथानकः यह है ॥ | अयोध्यानगरी में सूर्ययशानामका राजाथा वह तीन खंडका खामी, नीतिवान अखंड आज्ञा जिसकी दुष्टवैरियोंको अपने | वशकिया जिसने ऐसा इन्द्रकादिया मुकुटमस्तकपर धारण किया उस मुकुटकेही प्रभावसे उसराजाकी देवसेवा करतेथे ॥
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अट्टाहिका उस राजाके राधावेधकेपणसे प्राप्तभई कनकविद्याधरकी पुत्रीजैश्रीनामकी पटरानी थी और भी उसराजाको बहुतसी सूर्ययशाव्या० रानियोंथी ॥ सूर्ययशाराजा चारपर्वी अष्टमी, चतुर्दशी विशेषकरके उपवासवगैरहः पचखान पौषधादिक तपकरके राजा कथा
|आरधता भया ॥ जीवितके आदर जैसा पर्वादर इसराजाकेमनमें अत्यन्त वल्लभ है ॥ उससे यहराजा जीवतव्य
सेभी पर्वकी रक्षा जादाकरेहै ।उसके अनन्तर एकदा प्रस्तावमें सौधर्म इन्द्र सुधर्मासभामें बैठाहुआ ज्ञानसे सूर्ययशा | राजाका पर्वाराधनमें निश्चयजानकर चमत्कारः पायाहुआ मस्तक धूनता भया । तब उर्वशीदेवी जगत्को वश-| करनेकी शक्तिधारनेवाली अकस्मात् देवेन्द्रका शिरकम्पदेखकर बोली कि हे खामिन् इसवक्तमें आश्चर्यजनक नाटक वगैरहः-कोई कारण नहीं दीखताहै तो कारणविना स्वामीने प्रसन्नहोके मस्तकका धूनना कैसाकिया ॥
अर्थात् किसकारणसे यह शिरःकम्पहुआ। तब देवेन्द्रः बोला इसवक्त मैंने ज्ञानदृष्टिसे भरतक्षेत्रमें श्रीऋषभःदेवखाहै मीका पौत्र भरतचक्रवर्तीका पुत्रः अयोध्याका खामी श्रीसूर्ययशानामका राजा सात्विकों में शिरोमणि देखा ॥ वह
राजा अष्टमी, चतुर्दशीपर्वके तपमे बहुतप्रयत्न करनेवाला है।देवभीनहीं चलासकते ॥जो सूर्य पूर्वदिशाको छोडकर पश्चिमदिशामें ऊगे और मेरुपर्वत वायु से कांपे अथवा समुद्रः मर्यादाछोडे कल्पवृक्षः निष्फलहोवे तथापि यह है
राजा कण्ठगतप्राणः होवेतोभी तीर्थकरकी आज्ञाके जैसा अपनानिश्चयछोडेनहीं बाद उर्वशीदेवी इन्द्रःका प्रवचन सुनके कुछमनमें विचारके उत्तरदिया ॥ हेमहाराज युक्तायुक्तके जाननेवाले आपहो ॥ मनुष्योंमे ऐसा
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RotorORTOR
निश्चय क्या प्रशंसतेहो जो सातधातुओंसे निष्पन्न हुआ शरीर अन्नसे जीनाजिसका वह देवोंकरके अचाल्य ऐसा कौन
माने मेरे गानरसके पूरकरके किन्होंका विवेक प्रमुख गुणनहीं नष्टहोवे अपितुहोवेही ॥ वहांजाके सूर्ययशाराजाको टू मैं जल्दी व्रतसे भ्रष्टकरूंगी ॥ ऐसी प्रतिज्ञाकरके रंभासहित उर्वशीहाथमें वीणाधारती वर्गसे पृथ्वीपर उतरती
भई।बाद अयोध्यानगरीके नजदीक उद्यानमें श्रीऋषभदेवः खामीके मंदिरमें मोहोत्पादक अतिअद्भुत रूपबनाके गाना कर्ती भई ॥ उनके गानेसे मोहितहुआ पक्षी, मृगः, सादिक आके चित्रलिखितके जैसे अथवा पाषाणघटित
जैसे निश्चलनेत्ररहतेभये ॥ इधरसे श्रीसूर्ययशाराजा घोड़ाफिराके पीछे आताहुआ मार्गमें उन्होंकी अत्यन्तमधुरहै गानेकी धुनी सुनताभया तब घोड़ा, हाथी, प्यादल, पगमात्रभी चलनेको समर्थनहींहुआ ॥ यह खरूपदेखके राजा | | मंत्रीसे आदरसहितवोला अहो मंत्री संसारमें गानजैसा सुखदाई कोईनहीं दीसेहै । जिसकेवशसे यह पशुभी मोहित हुयेहैं ॥ नादसे देव, दानव, राजा, स्त्रीवगैरेह सवप्रायः वसहोवेहै । इसलिये अपनेभी श्रीऋषभदेवःस्वामीको नमस्कारकरनेको उसमंदिरमेंजावें वहां गयेभये यह गानेकाखादभी पावेंगे॥ऐसा विचारके उसगानसे मोहितहुआ राजा मंत्रीसहितः जिनमंदिरमें गया ॥ वहां हाथों में वीणाधारती गीतध्वनिकर्ती श्रीकामदेवकी स्त्रीजैसी दिव्यसौंदर्यवाली ऐसी दोकुमारिका देखके ॥ स्नेहकेचक्षुडाले ऐसे कामबाणोंसे हृदयमें वींधाहुआ राजा विचारताहुआ ॥ इन्होंका यह अद्भुतरूप किसपुण्यवान्के भोगकेवास्ते होगा ॥ तब राजा वारंवार उन्होको देखताहुआ श्रीयुगादीशके
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अट्टाहिकाचरणोंमें नमस्कारकरके मंदिरसे निकला बाहिरके प्रदेशमें बैठा उन्होंका कुल वगैरहः जाननेको मंत्रीसे आज्ञादिया सूर्ययशाव्या० मंत्रीभी राजाकी आज्ञासे उन्होंके पासमें जाके अमृतकेजैसीमीठीवानीसे वुलाके इसप्रकारसे बोला हे कन्यके तुम राजा कथा
है कौनहो कौनतुम्हारा पतिः है यहां किसवास्ते आगमन हुआहै यहसर्ववृतान्तकहो बाद मंत्रीका वचनसुनके ॥२७॥
उन्होमें एकबोली हम मणिचूडविद्याधरःराजाकी पुत्रीहैं बाल्यअवस्थासेही कलाहीमें आदरवतीहुई क्रमसे यौव8/नअवस्था प्राप्तभई हमको देखके हमारापिता वरकी चिंता करनेलगा हम अपने शरीरकापतिःको नही प्राप्तहोती. भई ठिकाने ठिकाने तीर्थकरोंके चैत्योंको नमस्कारकर्तीहुई अपनाजन्मसफलकरेहैं ॥ वारंवार मनुष्यभव कहांहै यह अयोध्याभी तीर्थभूमि है इससे यहां श्रीभरतचक्रवर्तीका करायाहुआ मंदिरमें श्रीयुगादिदेवको नम|स्कारकरनेको हमारा आगमनभया ॥ ऐसे कहति भईको मंत्री कहताहुआ इस सूर्ययशाराजाके साथ तुम्हारा ।
संबंधश्रेष्ठःहै जिसकारणसे यह राजा श्रीऋषभदेवःखामीका पौत्रः है ॥ और भरतचक्रवर्तीका पुत्रः है सर्वःकलाहै संपूर्ण, सौम्य, सद्गुणी, बलवान् है इसलिये निश्चय श्रीऋषभदेवखामी तुम्हारे ऊपरसंतुष्टमानहुयेहैं जिस
कारणसे सूर्ययशावरकी अकस्मात् प्राप्तिहुई। मंत्रीने ऐसे कहा तब वह कन्या बोली हम खाधीनपतिःको छोड़कर ॥२७॥
अन्यपतिका आश्रय नहीं करें तब अमात्यः राजाकीआज्ञासे उन्होंसे बोला तुम्हारा वचन अन्यथा कर्ताहुआ है राजाको मैं मनाकरूंगा ॥ मंत्रीने ऐसा कहनेपर उसीवक्त श्रीयुगादिदेव के मंदिरके सामने उन्होंका पाणिग्रह
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राजाकीआज्ञासे उन्हावह कन्या बोली हम साधाष्टमानहुयेहैं जिस-3
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सुन हमारे पिताका कहा
णोत्सवहुआ॥ बाद उन्होकेसाथ प्रीतिरससे खींचाहुआ हृदय जिसका ऐसा सूर्ययशाराजा संसारमें उन्होंकेसाथ | भोगहीको सारमानताभया रातदिनउन्होंके साथ नानाप्रकारके भोग भोगवताहुआ और काम भूलगया ऐसा सुखसे कालगमावे बाद एकदा संध्यासमयमें उन स्त्रियोंकेसाथ सूर्ययशा राजागवाक्षमें गया तब अहोलोको कल्लअष्टमी पर्व होनेवालाहै इससे उसके आराधनेमें आदरसहितः होना ॥ ऐसा पटह उद्घोषणः उन कपटस्त्रियोंने सुनके अवसर जानके रंभा नहींजानतीहोवे वैसी राजासे आदरसहित पटह वाजनेका कारण पूछा तव राजा बोले हे रंभे सुन हमारे पिताका कहाहुआ चतुर्दशी, अष्टमी, पर्वहै ॥ और अमावास्या, पौर्णमासी दोअट्ठाइ, तीन चौमासा, और पयूषणा वार्षिक पर्वहै । यह औरभी ज्ञानआराधनकेलिये पंचमीवगैरहः पर्वकहेहैं इन पर्वदिनों में कियाहुआ धर्म वर्ग:मोक्षसुखकादेनेवालाहोवेहै । इसलिये च्यारपवों में सवघरकाव्यापार छोड़कर धर्मकार्य ४ करना और स्नान, स्त्रीसंग, लड़ाई द्यूतक्रीड़ा, दूसरेका हास्य करना, मात्सय, क्रोधादिःकपाय प्रमादादिकुछभी
नहींकरना प्यारोंपरभी ममता नहींकरना ॥ परमेष्ठीनमस्कारस्मरणादिःशुभध्यानवान् होना॥ सामायिक, आवश्यक पौषध, वेला, तेला वगैरहः तप करना तीर्थकरकी पूजा करना इसप्रकारसे यह पर्वः आराधताहुआ प्राणी पुण्य 3 उपार्जन करे ॥ वाद क्रमसे कर्मक्षयकरके मोक्षजावे ॥ इसकारणसे हेस्त्री सप्तमीऔरत्रयोदशीको लोगोंके 3
जाननेकेलिये यह पटोहोद्घोषणमेरी आज्ञासे होताहै ॥ वाद उर्वशी यह राजाकावचनसुनके राजाके निश्चयसे
॥ यह औरभी ज्ञानआराधयारपयोंमें सवघरकाव्यापार प्रमादादिकुछभी ।
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करना पासवगैरहः तप करना तीर्थकरकी Fan इसकारणसे हेवी सप्तम
राजा निश्चयसे |
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अट्टाहिका
चमत्कारः पाईभई मायावचनप्रपंचकरके बोली हेनाथ यह मनुष्यःभव यह रूप और यह राज्य सब तपः| सूर्ययशाव्या० क्लेशादिकःसे कैसे विडंबितकरोहो ॥ इच्छा माफक सुखभोगवते रहो। वारंवार मनुष्याभव कहां मिलताहै ॥ राज्य-राजा कथा
है प्रधानभोग कहांहै ॥ उसके अनन्तर कानों में तपाया हुआ कथीरके तुल्य उसका वचन सुनके राजा बोला अरे ॥२८॥
अरे धर्मकी निंदा करनेसे मलीन खभाववाली अधमा यह तेरी वाणी थोडी भी विद्याधरके कुलाचार योग्यनहीं है। तेरी सब चातुरीको धिक्कार होवो ॥ तेरा रूप और तेरी वय उसको भी धिक्कारहोवो जिसकरके तैं जिनपूजादिशो-2 भनधर्मकृत्यकी निंदाकरेहै और मनुष्यत्व, सद्रूप निरोगता, राज्यादिकतपसे मिलेहै । वह तप कौन कृतज्ञनहीं करे जोनहीं आराधे वह कृतघ्नही होवे ॥ अरे धर्म आराधनसे शरीरकी विडंबना नहींहोवे ॥ किंतु धर्मविना
केवल विषयोंकरके विडंबनाही है इस कारणसे यथेच्छ धर्म करना वारंवार मनुष्यभव कहां है व्रतकोधारनेवाले हमृगसिंहादि पशुभी अष्टमी औरपाक्षिकके दिन अहार नहीं लेवेहै तो मैं कैसेलेऊ उन्होंके जानपनेको * धिक्कार होवो जो सर्वधर्मका कारणपर्वाराधननहींकर्तेहैं ॥ श्रीऋषभदेवःखामीने कहा यह उत्तमपर्वहै । वह मैं कंठगत प्राण होऊ तथापि तपविना पर्व वृथा नहीं करूं हे स्त्रि मेराराज्य जावो प्राण नष्टहोजावो परंतु
el॥२८॥ पर्वतपसे मैं भ्रष्टहोऊं नहीं ॥ ऐसा क्रोधातुर राजाका वचन सुनकर उर्वशी मोह माया कर्तीभई और बोली है हे खामिन् आपके कायक्लेश मत होवो । मैंने तो प्रेमरससे यह वचन कहा इसलिये क्रोधका अवसरनहींहै पहले
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तोहम पिताके वचनसे विमुख भई खच्छन्दचारी राजाको नहीं वरा इसवक्त में पूर्वकर्मके परिपाकसे तुमको भर्तारः | किया है | इससे हमारे संसारका सुख और ब्रह्मचर्यः सब अकस्मातगया ॥ जो स्वाधीन पुरुष स्त्रीका योगहोवे तब संसारिकसुख होय है नहींतो रातदिनकायोगजैसा विडंबनाही होयहै ॥ हे खामिन् पहले श्रीऋषभदेवः स्वामीके आगे तुमने तो मेरा वचनकरना अंगीकारही कियाथा मैं कोई वक्त तुलापरीक्षाकेअर्थ तुमारेपास कुछ मागती परंतु आपतो हाहा इति खेदे थोडे काय के वास्ते क्रोध वश होगये ॥ हे नाथ मै शील और सुखसे ( दोनोसे) भ्रष्टभई इसलिये मेरेको अग्निःकी चितामें ही प्रवेशकरनाकल्याणकारी है | ऐसा उर्वशीकावचनसुनके उन्होंमें मग्नमन जिसका ऐसा राजा अपने वचनोंको याद कर्ताहुआ बोला ॥ हेप्रिये ! श्रीऋषभदेवः खामीने जो कहा और भरतचक्रवर्तीपिताने जो किया उसपर्वका नाश उन्होंका पुत्र होके मैं कैसा करूं हे हरिणा क्षि १ । मेरी सब पृथ्वी, भंडार और हाथी, घोड़ा वगेरेहः सब तैं ग्रहणकर ॥ परंतु जिससे सुखहोवे है ऐसा धर्मका नहीं करना वह अकृत्य मेरे पास मत कराव अर्थात् धर्म नहीं छोडूंगा । बाद उर्वशी भी थोडी हसके कोमल वाणी से बोली || हे राजन् ? आप जैसें का सत्य वचनही सदाचार है जिसकारणेसे जिसपापीने अपने अंगीकार किये हुबेका विघातकिया वह अपवित्र कहाजावे ॥ उसके भार से पृथ्वी भी तकलीफपावेहे ॥ हे नाथ ? जो तुमसे इतनाही कार्य नहीं सिद्धः होवे तो राज्यादिकः देना कैसे सिद्धहोगा | तुझारे वास्ते मैंने पिता विद्याधर
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अवाहिका राजाका ऐश्वर्य छोड़दिया इससे राज्यादिकःका क्या करूं अब हे खामिन् जो पर्वभंग नहीं करो हो ॥ तो सूर्ययशा. व्या० तू मेरे आगे श्रीयुगादिदेवका मंदिरगिरवाओ ऐसा उर्वशीका वचन सुनतेही राजा वजाहतके जैसा मूळप्राप्तहोके दराजा कथा
चैतन्य नष्ट हो गयाहो ऐसा पृथ्वीपर गिरा उसीवक्त मंत्रीके आज्ञासे आकुलऐसे परिवारके लोगोने शीतलजलादि छांट॥२९॥
नेसे हवावगैरहः करनेसे राजाको सावचेतकिया वाद सूर्ययशाराजा अपने सामने बैठी भई उर्वशीको देखके ६ कुपित हो के बोला हे अधमे यह तेरा आचार वचन करके मेरे सामने अपना अधमकुलपना वतावेहै जिसकार-18 है णसे आहारके जैसा उद्गार होवे है तैं विद्याधरकी पुत्री नहीं है किंतु चांडाल की पुत्री मालूम होवे है। मैंने
मणिके भ्रमसे काचका टुकडा ग्रहणकिया ॥ जो देव तीनलोककाखामी तीनलोककरके बंदित ऐसे परमे||श्वरका मंदिर कोई गिरासके है ऐसा कभी होसकेहै ॥ किंतुकभी नहीं होवे ॥ इससे हे स्त्री मैं अपने वचनोसे बंधाहु-
आहूं अनृणीहोना चाहता हूं। इसलिये धर्मका लोपविना और मांग" पर्व लोप, चैत्यका विनाश, मैं सर्वथा नहीं करूं ॥ ऐसा राजाका वचन सुनके उर्वशी भी थोडी हसके और राजासे बोली ॥ हे नाथ और मांग और मांग ऐसा आपका वचन दूर जाओ ॥ जो यह तुम नहीं करो हो तब अपने पुत्रकामस्तककाटके जल्दी मेरेको ॥२९॥ देओ॥ बाद राजा विचारके कहते भये हे सुलोचने मेरा पुत्र मेरेसे उत्पन्नभयाहै।इसलिये मेरामस्तक तेरे हाथमें है ॥ पुत्रका मस्तक देना क्याबड़ीवातहै मैं अपनामस्तकदेऊं ॥ ऐसा कहके राजा हाथमे खड्ग लेके
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जितने अपना मस्तक काटनेके लिये उद्यमवान् हुआ ॥ उतने उर्वशीने खगकी धाराबांधी परन्तु राजाका सत्व नहीं |बांधसकी ॥ बाद राजा खगकी धारा बन्ध होनेसे उदासभया ऐसा कण्ठनालकी विडंबनाकरनेवाला नया 3 दानया खा लेता हुआ परंतु यह राजा थोड़ाभी सत्वसे नहीं चला वाद उनदोनो स्त्रियोंने अपनारूप प्रगटकरके अत्यन्तआदरसे जय जय शब्द कहतीहुई ॥ और इसप्रकारसे बोली ॥
जय त्वं ऋषभस्वामिकुलसागरचन्द्रमाः ॥ जय सत्ववतां धुर्यः जय चक्रीशनंदनः॥१॥ FI अर्थः॥ श्रीऋषभदेवःखामीका कुलरूपसमुद्र के उल्लासकरनेमे चन्द्रमाःसदृश और सत्ववालोंमे प्रधान ऐसा हे |
प्रभो जयवंता होवो ॥ हे चक्रीशनंदनः जयवंता वर्तो ॥ अहो इति आश्चर्ये आपका धैर्य आश्चर्य कारीहै। तुलारा
मनकानिश्चयबहुतही दृढहै । जिसने अपने विनाशमे भी अपनेव्रतका त्याग नहींकिया ॥ हे महाराज देवेन्द्रः द अपनीसभामें देवोंके आगे आपके अतुलसत्वकी विशेष प्रशंसा करी॥ हम नहीं मानतीभई खर्गसे आई आपकों|8 निश्चयसे चलाना प्रारंभ किया ॥ परंतु आपको कोई भी चलाने को समर्थनहींहै हेजगत्प्रभु कुलावतंसकः? हे वीर|
आपहीसे यह पृथ्वी रत्नगर्भा ऐसा सत्य नाम धारतीहै । इसप्रकारसे राजाकी स्तुतिकरतीथी उतने वहां देवेन्द्रः । ४ आया ॥ जय जय शब्द उच्चारण कर्ताहुआ पुष्पोंकी वृष्टि करी ॥ तब प्रतिज्ञासे भ्रष्टभई उर्वशीको इन्द्रने उपहा-18
ससहित देखी। तब इन्द्रःके आगे राजा का गुण कहतीहुई ॥ इन्द्रःभी सूर्ययशा राजाको प्रधान मुकुट कुंडल,
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अहिका व्या०
॥ ३० ॥
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अंगद, हार देके उर्वशी और रंभाके साथ स्वर्गगया ॥ सूर्ययशाराजाभी सत्यप्रतिज्ञावाला हर्षितभया ऐसा | नीतिसे पृथ्वी पालता भया ॥ बाद सूर्ययशा राजा भरतचक्रवर्तीके जैसा पृथ्वीको जिनमंदिरोसें शोभितकरता हुआ ॥ तीर्थयात्राकरके जन्म पवित्रकरताहुआ || श्रीयुगादिदेव के चर्णसदृश निरंतर चतुर्दशी, अष्टमी पर्वका आराधनकरता हुआ || और व्रतधारी श्रावकोंको अपनेघरमें नित्यभोजनकरताहुआ ॥ पहले भरतचक्रवर्तीने कांकिणी रत्नकी तीन रेखा करके श्रावकोंको अंकित किये थे । सूर्ययशा राजाने तो सोनेकी | उपवीत करके शोभित किये | उस राजाके प्रधान आचारवाले बहुत कुमर थे | जैसे श्री ऋषभदेवः खामीसे इक्ष्वाकु -- | वंश हुआ। वैसा सूर्यवशा राजासे सूर्य वंशकी उत्पत्ति भई । उसकी सोशाखा हैं । उसी तरह श्रीबाहुबलीका पुत्रः सोम| यशाराजासे चन्द्रवंश भया । उसकी मी सौशाखा निकलीं। सूर्ययशा राजा एकदा प्रस्ताव में पिता के जैसा आरीसा भवनमें | अपना रूप देखताभया ॥ संसारको असार विचारता भया । केवल ज्ञानपाके बहुत भव्यो को प्रति बोधके मोक्षगया इतने कहनेकर अपने नियम दृढपालने में सूर्ययशा राजाकी कथाकही ॥ भव्यप्राणियों को पर्युषणा, अट्ठाई पर्वमे इसी प्रकारसे धर्म कार्य करके पर्व आराधना जिससे इस भव में परभवमें सर्व वांछितकीसिद्धिः होवे ॥ अग्रेतनवर्तमानयोगः ॥
इति पर्यूषणा अट्ठाईका व्याख्यान सम्पूर्ण भया ॥
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सूर्ययशा
राजा कथा
11 30 11
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चा. व्या. ६
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अथ दीपमालिकाव्याख्यान लिखते हैं ॥
श्रीवामेयं जिनं नत्वा, स्तम्भनकपुरसंस्थितम् । दीपालीकायाः व्याख्यानं, लिख्यते लोकभाषया ॥१॥ श्रीस्तम्भना पार्श्वनाथस्वामीको नमस्कार करके दिवालीका व्याख्यान लोकभाषासे लिखता हूं ॥
इस जम्बूद्वीपका भरतक्षेत्रका मध्यखंड में मालवनामका देश है | उसमें अलकापुरीके तुल्य उज्जैनीनाम| की नगरीहोतीभई | उस नगरीमें सूर्य के जैसा तेजखी राजगुणसहित ॥ संप्रति नामका राजा होताभया । वाद एकदा प्रस्ताव में उज्जैनी नगरीमें छत्तीसगुणों करके विराजमान आर्यसुस्थित ( सुहस्ति ) सूरिनामके आचार्य ग्रामानुग्राम विचरते ऐसे जीवितखामी श्रीमहावीरखामीकी प्रतिमाके दर्शन केलिये आये ॥ रथयात्राका उत्सव में | आचार्य साथमेंथे संप्रति राजाने देखा ॥ जातिःस्मरण पाया ॥ बाद राजा आचार्य के पासमें आके बहुतभक्तिपूर्वक श्रीगुरूको नमस्कार करके हाथजोडके आचार्य से बोला ॥ हे महाराज मेरेको जानो हो ऐसा पूंछनेसे गुरुवोले हेराजन् तुमको कौन नहींजाने || बाद राजा और बोला । हे ज्ञानसमुद्र ज्ञानदृष्टिसे आप मुझे पहचानते हैं या नहीं ॥ तव आचार्य उपयोग देके वोलेकि हे नरेन्द्र तैं पूर्वभव में संवेगवान हमारा शिष्य था ॥ उत्तमदीक्षा के | प्रभावसे राजा भया है | यह सम्पदा पाई है | ऐसा गुरूकावचनसुनके आचार्यपर बहुतप्रीतिः जिसकी
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दीपमालिका व्या०
॥ ३१ ॥
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| ऐसा राजा बोला हे प्रभो मैं दरिद्री एकबुभुक्षितने यह राज्य पाया | वह सर्व आपका प्रसाद है | अन्यथा मेरे - को राज्य कहां था । इसलिये यह राज्य आपलेओ || जिससे मैं अनृणीहोऊं ॥ ऐसा राजाका वचनसुनके | आचार्य बोले | कि हेनिर्मलबुद्धे राजेन्द्र हमारे राज्यकी वांछा नहीं है । हम तो शरीर में भी निस्पृह हैं | राज्यसे हमारे क्या प्रयोजन है | परन्तु यहराज्य तुमने पुण्यसेपाया है । इससे हेनराधीश सुकृतकरनेमें उद्यम || करना ॥ निर्मलसम्यक्त्वपालना श्रीतीर्थंकरकी निरंतरपूजा करनी || और सुसाधु निग्रन्थ पांचसमिति तीनगुप्ती गुप्तसत्तरहप्रकारका संयम पालनेवाला बयालीसदोषरहित आहारलेनेवाले भव्यजीवोंका उपकार करनेवाले ऐसे मुनि राजोंकी सेवा करनी ॥ दानादि चार प्रकारके धर्म आराधनेमें उद्यम करो | यह धर्म विशेषकरके पर्वमें आराधना ॥ जो नित्य परिपूर्णनहीं आराधाजावे ता ॥ मनुष्यभवका सार धर्मसेवनही है | ऐसा गुरूका वचन सुनके राजा बोला ॥ कि हे प्रभो जैनशासनमे संवत्सरी वगैरहः ॥ समस्त पर्व प्रसिद्ध है । उन पत्रका | महिमा श्रावक बहुत माने हैं | परन्तु दिवालीपर्व लौकिक और लोकोत्तर मानते हैं ॥ सो कहां प्रवर्तमान | हुआ | इस पर्व में प्रधानवस्त्रभूपणवगैरहः मनुष्यादि पहरते हैं वृषभादिपशुओं को शृङ्गारते हैं ॥ घर वगैरहः का | संस्कार करते हैं । उसका क्या कारण है । ऐसा राजाने पूछा ॥ बाद गुरू बोले । हे राजन् इस पर्वका खरूप तैं एकाग्रचित्तहोके सुन ॥ श्रीमहावीरखामी प्राणतनाम दशमा देवलोकका पुष्पोत्तरनामकविमानसे व्यव
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आर्यसुहस्तिसूरि संप्रतिरा
जाको क० वीरचरित्र
॥ ३१ ॥
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के आषाढशुदिछठके (६ ) दिन माहणकुण्डग्रामनगरमें ऋषभदत्तब्राह्मणकी देवानंदाभार्याकी कुक्षिमें उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रके साथ चन्द्रका योग आनेसे उत्पन्न भये ॥ तब देवानंदाब्राह्मणीने चौदै (१४) स्वप्ना देखा। सो कहते है । सिंह १ हाथी २ वृषभः ३ लक्ष्मी ४ पुष्पमाला २-५ चन्द्र ६ सूर्यः ७ ध्वज ८ पूर्णकलशः ९/ पद्मसरोवर १० क्षीरसुमुद्रः ११ देव विमानः १२ रत्नराशिः १३ निर्धूमअग्निः १४ यह १४ खन्ना क्रमसे देखा वाद आश्विनवदि त्रयोदशी (तेरस ) को इन्द्रकीआज्ञासे हरणेगमेषीदेवने क्षत्रियकुण्डग्रामनगरमें सिद्धार्थ राजाकी त्रिसिलारानीके कुक्षिमें मध्यरात्रिके समय संक्रमणकिया ॥ वाद चैत्रशुदि तेरसको आधीरात्रिके समय वीरप्रभुका जन्मभया ॥ उससमयमें ५६ दिशिकुमारियोंका आसनकम्पितभया ॥ अवधिज्ञानसे प्रभुका
जन्म जानके अत्यन्तहर्षितभई । आके जन्मकार्य सूतिकर्मादि करे ॥ वाद ६४ देवेन्द्रोंका आसन कांपा ॥ तब ४.६४ इन्द्र अवधिज्ञानसे प्रभुका जन्म जानके बहुतआनन्द पाये और अपने अपने विमानमें बैठके ६३ इन्द्र मेरुदशिखरपर आये सौधर्म इन्द्रः प्रभुके जन्मस्थान आके प्रदक्षिणा देके तीर्थकर तीर्थकरकी माताको नमस्कार करके |
माताको अवखामिनी निद्रादेके प्रभुको लेके मेरुपर्वतपर गया ॥ ६४ इन्द्रोंने स्नात्रमहोत्सवकिया बाद माताके पासमें रखके निद्रा दूरकर अपने ठिकाने गये, जिसदिनसे प्रभु गर्भ में आया उस दिनसे राजा धन, धान्य वर्ण रत्नादिकसे वृद्धिप्राप्त भये ॥ वाद गुणनिष्पन्नसर्वखजनोंके सामने माता पिताने बारवें दिनमें
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दीपमालि- वर्धमानकुमार नाम किया और देवोंने अनंत सत्वधर्मादिगुणदेखके महावीर ऐसा नाम दिया ॥ वाद बड़ेभये,ITI आर्यसहका व्या०।
वाद भोग समर्थ जानके मातापिताने बहुत हर्षके साथ यशोमती नामकी राजकन्या परणाई ॥ प्रभुका सुपार्थ | |स्तिसूरि
नामका काका नंदीवर्धन नामका बड़ा भाई सुदर्शना नामकी बहन और यशोमती नामकी स्त्री और प्रियदर्श-16 संप्रतिरा॥३२॥
ना नामकी पुत्री होती भई ॥ श्रीमहावीरखामी २८ वर्ष घरमें रहे ॥ भगवान् पहले गर्भहीमें अभिग्रह किया था|जाको क० मातापिता जीते भये दीक्षा नहीं लेऊंगा ॥ मातापिता देवलोक जानेसे अभिग्रह पूर्ण भया जानके प्रभु दीक्षा-15 लेनेको उद्यमवान् हुये ॥ तब नंदिवर्धन राजाके आग्रहसे और भी २ वर्ष घरमें रहे। वहां संवत्सरी दान दिया। वाद लोकान्तिक देव आके जानते भी भगवान्को दीक्षाकाअवसरजनाया ॥ अहो खामी धर्मतीर्थ प्रवर्तायो । ऐसा देवोंका वचन सुनके प्रभु २ उपवास करके चंद्रप्रभानामकी पालकीमें बैठके देवमनुष्योंके परिवारसहित क्षत्रियकुंडनगरसे निकलके ज्ञातवनसण्ड उद्यानमें आके पालकीसे उतरके मिगसरवदी १० के पिछले प्रहरमें 8 एकाकी एक देवदुष्य वस्त्रसहित दीक्षा लिया। उस समय चौथा मनपर्यवज्ञान उत्पन्नहुआ बाद दीक्षालेके प्रभु अन्यत्र विहार करगये ॥ दीक्षाके दिनसे दूसरे दिन कोल्लाक नाम ग्राममें बहुलब्राह्मणके घरमें परमान्नसे | ॥३२॥ दपारणा किया ॥ वहां पांच दिव्य प्रगट भये ॥ साढा बारहकरोड सोनय्योंका वर्षाद देवोनें किया ॥ अनंतर क्रमसे 8
विहारकरतेभये ॥ वीरप्रभुको ग्वालिया, सूलपाणियक्ष चण्डकोशिकसर्प संगमदेव कटपूतना, व्यंतरी वगै
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रहने बहुत उपसर्ग किया तथापि प्रभु ध्यानसे नहींचले ॥ मेरुके जैसे निष्कम्प रहे॥ श्रीवीरप्रभुके चौमासी, छमासी, दोमासी वगैरह तपकर्तेभयेको पक्ष अधिक साढे १२ बारह वर्ष गये ॥ उससमयमें जम्भिका ग्रामके पास, ऋजुवालुका नदीके किनारे श्यामाक कुटुम्बीके खेतके पासमें सालवृक्षके नीचे गोदोहासन रहेहुये दो उपवाससहित वैशाखशुदि दशमीके दिन पिछले प्रहरमें शुक्लध्यानध्यातेभये ऐसे श्रीमहावीरस्वामीको ४ घातीकर्मका |क्षय होनेसे केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ ॥ वाद ग्यारसके दिन पावापुरी नगरीके बाहर महशेनवनमें चार दनिकायके देव इकट्ठे होके समवसरनकिया ॥ इन्द्रभूत्वादिग्यारहगणधर स्थापे ॥ तीर्थप्रवर्तमान हुआ ॥ भगवान्
महावीरस्वामीके चौदह हजारसाधूभये ॥ चन्दनवालाप्रमुख छत्तीस हजार साधवियां भई शंखशतकादि एक लाख (१०००००) ५९ हजार श्रावक भये सुलसारेवतीप्रमुख तीन लाख ( ३०००००) १८ हजार श्राविका
भई ॥ अव प्रभुके चौमासोंकी संख्या कहते हैं दीक्षाके अनन्तर पहलीचौमासी अस्तिग्राम शूलपाणीयक्षके है मंदिरमें किया ॥ ३ तिन चौमासी चंपानगरीमें करी ॥ विशालानगरी और वाणीयग्राम नगरमें बारह (१२)
चौमासी करी ॥ राजग्रह नगरमें नालन्दक पाडेमें चौदह (१४) चौमासी रहे । मिथिलानगरीमे छै (६) ६ चौमासी भगवान् करी ॥ भद्रिकानगरीमें दो (२) चौमासी आलम्बिकानगरीमें एक (१) चौमासी अनार्य
देशमें एक (१) चौमासी सावत्थीनगरीमें एक (१) चौमासी पावापुरीनगरीमें हस्तिपाल राजाकी सभामें
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दीपमालि- अंतिम चौमासी रहे ॥ श्रीवीरप्रभु अपने आयुःका अंत जानके भव्य लोगोके उपकारके वास्ते १६ प्रहरतक देशना पुन्यपालका व्या०
दिया उस अवसरमें पुण्यपालराजा प्रभुको वांदनेके वास्ते आया ॥ श्रीवीरप्रभुको वंदना करके हाथ जोडके के स्वप्नका ॥३३॥
अथे प्रश्न किया ॥ हे प्रभो आजरात्रिमें मैने आठ (८) स्वप्ना देखा सो आपके सामने कहूं ॥ जीर्णशालामें रहा। हुआ हाथी देखा १ बंदरचपलताकरताहुआदेखा २ क्षीरवृक्ष कांटोसे व्याप्तदेखा ३ कागलादेखा ४ मराहुआ सिंह भय करताहुआ देखा ५ अपवित्रभूमिमें (उकरडा) कमलऊगाहुआदेखा ६ खारीजमीनमें बीजवाते है हुये देखा ७ सोनेका कलश म्लानदेखा ८ राजाने खप्नोंका फल पूछा तब प्रभु बोले हेराजन् इन खप्नोंका फल |
एकाग्रचित्तसे सुनो ॥ पांचवे आरेमें दुःख, दरिद्र, रोग, शोक, भयादिकसे व्याप्त गृहस्थाश्रम जीर्णशालासदृश होगा। जिसमें गृहस्थरूप हाथी रक्त होके रहेगा ॥ और दुःखको सुखकरकेमानेगा। परन्तु उत्तम सुखदेनेवाली वृतशाला नहीं अंगीकारकरेगा ॥ यह पहले खनेका फल १ और पांचवे आरेमें बन्दरके जैसे चपलखभाववाले अल्पसत्वजीव ज्ञानक्रियामें आदर नहीं करेगे ॥ और साधुओंकाभी शिथिलाचार होगा। और जो दृढव्रत धारणेवाले धर्मकार्य में शिक्षा देवेंगे उन्होंका हास्य करेगा ॥ जैसे ग्रामीणलोग नगरके लोगोंका हास्य 81 करे है वैसा करेगा यह दूसरे खनेका फल ॥२ तथा ज्ञानक्रियामें भक्तिमन्त, जैनधर्मकी उन्नतिकरनेवाले सात क्षेत्रमें धन खर्चनेवाले गुणवन्तसाधुओंके भक्त ऐसे क्षीरवृक्षके सदृश श्रावकोंको वेषधारी, अहंकारी गुण
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AMSUGARCAME
वान् साधुके द्वेषी सुसाधुओंकी पूजाको नहीं सहतेहुए ऐसे वेषधारी कंटकतुल्यरोकेगा ३ तीसरे खनेका ६ फल ॥ जैसे खच्छजलभरीभई वावडीको देखके काकप्रीति नहींकरहै ऐसे ज्ञानक्रियायुक्त साधुओंको |
अपने गच्छमें देखकेभी साधु प्रीति नहीं करेंगे ॥ परन्तु जिस गच्छमें शिथिलाचारवाले साधु हैं वहां जावेंगे। अपनेको पंडित मानते हुए ऐसे ४ यह चौथेखनेका फल ॥ जातिस्मरणवगैरहरहित मृतसिंहतुल्य जिनशासनका पराभव नहीं होगा परन्तु परदर्शनी भय करेंगे ॥ ५ यह पांचवेखनेका फल ॥ जलाशयमें कमलकी उत्पत्तियुक्त है अपवित्रभूमिमें नहीं उत्पन्नहोवेहै ॥ इसीतरहसे धर्मकी उत्पत्तिभी उत्तम कुलमें युक्त है। अधमकुलमे युक्तनहीं। परन्तु धर्मकीउत्पत्ति कालप्रभावसे उत्तमकुलमें कमहोगा अधमकुलमें धर्म कार्य करनेवाले विशेष होंगे ६ छटे खनेका फल जैसे कोई मंदबुद्धि खेतीकरनेवाला धानको खारी जमीनमें
वावे वैसा मूर्खपुरुष पात्रअपात्रको नहीं देखके पात्रकी बुद्धिसे कुपात्रको दान देगा यह ७ सातवें खानेका है फल ॥ अब आठवे खप्नेका फल कहते हैं सोनेके कलशसरीखा ज्ञानादिगुणयुक्त साधु थोडे होयंगे उन्होंकी ।
पूजा प्रभावना विशेष नहीं होगा परन्तु जो बाह्य आडंबरवाले ज्ञानक्रियारहित साध्वाभासोंको लोग पूजेंगे। गीतार्थ साधुभी हीनाचारियों के साथ मिलके चलेंगें ॥ जैसे बहुत गैहले लोगोंको देखके सजनलोग उन्होंमें मिला| हुआ जानते भी अपने जीवतव्यकी रक्षाके वास्ते गहला भया वैसा, वह कथा कहते हैं पृथ्वीपुरनगरमें पूर्ण
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पुन्यपालके स्वामका अर्थ
दीपमालि. भद्र नामका राजाथा उसके महाबुद्धिनिधान विचक्षण सर्वकार्यमें कुशल सुवुद्धिनामकामंत्रीथा ॥ एकदा का व्या. हप्रस्तावमें राजसभामें लोकदेवनामका नैमित्तिया आया ॥ तब मंत्रीने पूछा हेनैमित्तकचूडामणेः! आगामि
* कालका शुभाशुभ कहो ॥ तब नैमित्तियेने अपना निमित्तशास्त्र देखके कहा हे मंत्रीश्वर ! आजके दिनसे एक
महीनेके बाद मेघवृष्टि होगी ॥ उसका जल जो पीवेगा वह मनुष्य गहलाहोजायगा ॥ उसके बाद कितनेदिन
जानेसे शुभ वृष्टि होगी ॥ वह जल पीनेसे सब अच्छे होजायंगे ॥ ऐसा नैमित्तियेका वचन सुनके राजा और है मंत्रीने नगरमें उद्घोपणा कराई ॥ सब लोगोंको पानीका संग्रह करना ॥ एक महीनेके बाद वर्मात होगा उसका
पानी पीना नहीं ॥ बादमें सब लोगोंने राजवचन सुनके पानीका संग्रह किया ॥ वाद नैमित्तियेके कथनानुसार ४ वर्षा हुई ॥ तब सब लोगोंने वर्षाका पानी पिया नहीं। कितने दिन गयोंके बाद पानी पूर्वसंग्रहीत खुटनेसे राजा है और मंत्रीको छोड़के सब सामन्तादिकने नई वर्षाका पानी पिया ॥ उससे सब शहरके लोग गहले हो गये। सब
लोग इकट्ठे होके नग्न हो गये नांचे हसे और कुचेष्टाकरे ॥ राजा मंत्रीविना सबलोग वैसा करताहुआ और राजा मंत्रीको वैसी चेष्टा करताहुआ नहीं देखके विचारने लगे राजा मंत्री गहले होगये हैं। अब अपना काम | कौन करेगा इसलिये राजा मंत्रीको उठाकर दूसरा राजा मंत्री करना ॥ ऐसा गहला लोगोंका विचार जानके मंत्रीने राजासे कहा ये लोग अपनेको उठादेंगे और दूसरा राजा मंत्री करेंगे, गहले लोग हैं क्या विश्वास है प्राणोंसे
SAMROCCURRECASALUSARESS
|३४ ॥
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AIGARSAIRAA
रहितभी करदें ॥ तब राजा मंत्रीसे बोले कोई उपाय करो जिससे अपनी रक्षा हो तब विचारके मंत्रीने कहा हे महाराज और कोई उपाय नहीं है अपने जानके गहले होजावें तब राज्य रहेगा और कोई उपाय नहीं है। तब राजा मंत्री अपनी रक्षाके वास्ते जानके गहले होके उन लोगोंमें जा मिले ॥ कितने दिनके बाद सुवृष्टिभई तब नवीन जलके पीनेसे सब लोग स्वस्त भया । इसी प्रकारसे दुषमकालमें क्रियावान गीतार्थ साधुभी अपना निर्वाह करनेके लिये शिथिलाचार्योंके साथमिलके रहेंगे तब उनके समयकानिर्वाह होंगा ऐसा आठवे खप्नेका
फल सुनके पुण्यपाल राजा ग्रहस्थाश्रमसे विरक्त होके श्रीवर्धमानखामीके पास दीक्षा लेके चारित्रपालके मोक्ष | है गया ॥ वहां कईक श्रीभद्रबाहुखामीने कहे हुए स्वप्नोंका व्याख्यान करे है ॥ सूत्र ॥ PI तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिपुरे नाम नयरे होत्था जहाणं चंपा तहाभणियवा तत्थणं पाडलि
पुरे नयरे पाडलनाम वणसंडे होत्था, तत्थणं पाडलिपुरे चन्दगुत्ते नाम राया होत्था तेणं कालेणं तेणं समएणं चन्दगुत्त नाम राया समणोवासगो अभिगयजीवाजीवो जाव अट्रिमिजा पवयण रागरत्तो अह अण्णया कयावि पक्खियपोसहम्मि पडिजागरमाणस्स सुइ पत्तेसु ओहीरमाणे ओहीरमाणे ॥ सोलस सुविणादिट्ठा पासित्ता, चिंता समुप्पन्ना अह कमेणदिवायरउट्ठिये पोसहं
N HORAS
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दीपमालि
का व्या०
॥ ३५ ॥
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पारेइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं संभूयविजयसीस्से भद्रबाहुनामगणहरे जुगप्पहाणे गामाशुगामं विहरमाणे पञ्चसयसमण परिवारिया पाडलिपुरे पाडलिवणसंडे समोसारिए, राया आगओ ॥ जहा कोणिए पंच विहेणं अभिगमेणं वन्दणेणं सोलससुमिणाणं अत्थं पुच्छइ भय! अरणी धम्मचिन्ताएवट्टमाणस्स पच्छिमे समये सोलससुमिणा दिट्ठा - तत्थ पढमे सुमि ॥ कप्परुक्खस्स साहा भग्गा १, बीए अकालेसूरो अत्थमिओ २ तइए चंदो सयच्छिदी भूओ ३ चउत्थे भूया नचंति ४, पंचमे दुबालसफणो कण्हसप्पो दिट्ठो ५, छट्टे आगयंविमापडियं-दिट्ठे ६ सत्तमे असुइठाणे कमलंसंजायं ७ अट्टमे खज्जोओ उज्जोयं करेइ ८, नवमे महासरोवरं सुकं दक्षिणादिसाओ थोवजलं लभन्ति ९ दसमे सुनहो सुवण्णपत्ते पायसं भक्खेइ १० इकारसमे हत्थिआरूढो बन्चरो दिट्ठो ११ दुवालसमे सायरमज्जायं मुंचइ १२ तेरसमे महारहे वच्छात्तादिट्ठा १३ चउदसमे महग्घरयणं तेअहीणंदिट्टं १४ पनरसमे रायकुमारो बसहारूठो दिट्ठो १५ सोलसमे गय कलहजुयला जुज्जन्ता दिट्ठा १६ एएणं सुमिणाणुसारेण सासणे किं
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चंद्रगुप्तके दुखमोका
अर्थ
॥ ३५ ॥
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A5%255
किं भविस्सइ ! इइ चन्द्र गुत्तस्स रायस्स वयणं सुच्चा भद्दबाहुगणहरो युगप्पहाणो भवोदहि तारगो चन्दगुत्तस्स संघसमक्खं भणइ चन्दगुत्ता सुमिणानुसारेण अत्थं कहेमि तंजहा
अर्थः-उसकाल उससमयमें पाडलिपुरनामका नगरथा ॥ उसका वर्णन चंपाके सदृश जानना ॥ उस पाड-15 लिपुरनगरमें पाडलनामका बगीचा होताभया और चन्द्रगुप्तनामका राजाथा ॥ श्रावकपना पालताथा ॥
साधुओंकी सेवा करनेवाला जीवाजीवादिपदार्थों का जाननेवाला यावत हाडहाड़के अंदरकी मीजीप्रवचनके ६ रागसे रंगीभई ऐसा, अन्यदा प्रस्तावमें पक्षीके दिन पोशह किया रात्रिमें सोता भया सोलह (१६) खन्ना देखा|
और जगा विचार उत्पन्न हुआ कि खप्नोंका क्या फलहोगा बादमें सूर्योदयहुआ ॥ पोसहपारा इसकाल इस समयमें श्रीसंभूतविजयआचार्यके पदमें विराजमान श्रीभद्रबाहुखामी गणधर युगप्रधान पांचसै (५००) साधुओंके परिवारसहित ग्रामानुग्राम विहार करतेहुये पाडलिपुर नाम नगरका पाडलवनसण्डउद्यानमें समोसरे । चन्दगुप्त राजा कौणिकाजाके जैसा ऋद्धिका विस्तारकरके बांदनेको आया पांचप्रकारकाअभिगमन साचवके मन, वचन, कायाका, एकत्वकरके आचार्यको वन्दना किया ॥ और शुद्धपृथ्वीपर बैठा आचार्यने देशना दिया सुनके बहुत हर्षित हुआ और सोलह (१६) खप्नोंका अर्थ पूछा हे भगवन् आजरात्रिमें धर्मका विचार करता हुआ मैं सोता पश्चिमरात्रिमें सोलह ( १६ ) खनादेखा पहेलेखनमें कल्पवृक्षकीशाखा टूटी ॥१ दूसरे
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दीपमालिखप्नमें अकालमें सूर्य अस्तहोगया ॥ २ तीसरेखनमें चन्द्रमामें सौ (१००) छिद्र देखे ३ चौथेखनमें भूत चंद्रगुप्तके का व्या०६नांचते भये देखे ४ पांचमें स्वप्नेमें बारह (१२) फणवाला सर्पदेखा ५ छटे स्वप्नमें विमानआके गिरगया ६ दुस्वप्नोका
है सातवें स्वप्नमें अपवित्रस्थानमें कमल ऊगा ॥ ७ आठवें स्वप्नमें खद्योत प्रकाश करे ९ नवें स्वप्नेमें बड़ासरोवर । अर्थ
सूखा हुआ उसके दक्षिण दिशामें थोड़ा पानी ९ दशवें स्वप्नमें कुत्ता सोनेके थालमें खीर खाता हुआदेखा १०॥ ग्यारहवे स्वप्नमें हाथीपर बेठा हुआ वानरा देखा ११ बारहवें स्वप्नेमें समुद्रमर्यादाछोडता हुआ देखा १२॥ | तेरहवें स्वमें रथबड़ाहै छोटे बैलजोतेहुए है १३ चौदहवें स्वप्नमें बहुतकीमतका रत्न कमतेजवालादेखा ॥ १४ पन्नरहवें स्वप्नेमें राजकुमर वृषभ परचढाहुआ देखा १५ सौलहवें स्वप्नेमें हाथीके बच्चे परस्पर युद्ध करतेहुए 2 देखे ॥ १६ हे भगवन् इन स्वप्नोंका क्या फल होगा ऐसा चन्द्रगुप्त राजाकाबचनसुनके भद्रबाहुस्वामी गण-18 धर, चन्द्रगुप्त राजाको, संघसमक्ष स्वप्नोंका फल कहा ॥ हे चन्द्रगुप्त स्वप्नोंके अनुसारसे अर्थकहताहूं सोलह (१६) स्वप्नोमें पहला स्वप्न कल्पवृक्षकी शाखा ढूंटीभई देखी उसका फल दुःषम कालमें राजा कोई दीक्षा | लेवेगा नहीं ॥१ दूसरे स्वप्नमें सूर्य अकालमें अस्त हुआ देखा उसका फल केवलज्ञान विच्छेद होगया ॥२ तीसरे र स्वप्नमें चन्द्रमें सौछिद्र देखा ॥ उससे धर्ममें अनेक मार्ग हो जायगा ॥३ चौथे स्वप्नमें भूत नांचते हुए देखे उससे है कुबुद्धिलोग भूतके जैसे नांचेंगे ४ ॥ पांचवे स्वप्नेमें बारह (१२) फणका सर्प देखा ॥ इससे बारह (१२)
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वर्षका दुर्मिक्षः पड़ेगा ॥ ५ पूर्वश्रुतः वगैरहः विच्छेद होजायगा भिक्षुकः चैत्यद्रव्यके धारनेवाले शिथिलाचारी बहुतसे होवेंगे । और जो साधुधर्मपालनेवाले दक्षिण पश्चिम दिशामें रहेंगें ॥ ५ छटेखप्नमें विमानगिराहुआ देखा उससे जंघाचारण, विद्याचारणसाधु भरतऐरवत क्षेत्रमें नहींआवेगा॥ ६ सातवें खप्नमें कचरेमें कमलउगाहुआ देखा उससे धर्मचारवर्णो में वैश्यवर्णमें बहुतकरके रहेगा सूत्रः रुचिः जीव अल्पहोवेगें ॥ ७ आठवें खप्नमें खजवा (आग्गिया) उद्योतकरताहुआ देखा उससे जिनधर्मका उदय, पूजा, सत्कारविशेष नहीं होगा और कुदर्शनियोंकी पूजाहोगी ॥९ नवमे खप्नमें सूखा सरोवरदेखा उससे जहांजहां जिनकल्याणकहै वहांवहां धर्मकी हानिहोगी ॥x प्रायः जैनियोंका कुल वहां नहींहोगा ॥९ दशवें खप्नमें सोनेके थालमें कुत्ता खीरखाता हुआ देखा उससे उत्तम कुलकी लक्ष्मी मध्यम और नीचकुलमें जावेगी। नीच जातिवाले धनवान होवेंगे॥ उत्तम नीचोकी सेवाकरेंगें। १० ग्यारहवें खप्नमें हाथीपर बैठाहुआ वानरादेखा उससे दुर्जन सुखीहोवेंगे राज्यकरेंगे इक्ष्वाकुवंशीय सूर्य चंद्र वंशीय राजाओंकी हानि होगी ॥११ बारहवें स्वप्नमें समुद्र मर्यादा छोडताहुआ देखा ॥ उससे राजा अन्याय करेंगे । क्षत्रिय वगैरहः मर्यादामें नहींरहेंगे॥१२ तेरहवें स्वप्नमेंबड़ेरथमें छोटेवछड़ें जोते हुए देखे उससे वृद्ध अवस्थामें भी चारित्रनहींलेंगे ॥ वत्स तुल्य छोटी उमरवाले साधु होवेगें। वैराग्यभावसे चारित्रग्रहण करेंगे वहभी प्रमादीहोंगे। १३ चौदहवें खप्नमें बहुतकीमतकारतन तेजहीनदेखा उससे भरत,ऐवतक्षेत्र में साधु असमाधीकरनेवाले कलह करनेवाले
बा.व्या. ७
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दीवा०
%95
व्याख्या
॥ ३७॥
4
उपद्रव करनेवाले होवेंगे॥थोड़े साधु होयेंगे बहुतसे वेषधारी होवेंगे॥१४ पन्द्रहवें खप्नमें राजकुमारः वृषभःपर बैठा- पंचम ४ हुआ देखा उससे क्षत्रिय मिथ्यात्ववासित होवेंगे खधर्मका त्यागकरेंगे ॥ १५ सोलवें खप्नमें हाथीके बच्चे युद्ध करते | आरेका दाहुए देखे उससे साधु अल्पस्नेहवाले कितनेक परस्परईर्षा करनेवाले, कलहकरनेवाले होवेंगे गुरूकी सेवाकरनेवाले स्वरूप
थोडे होवेंगे॥ १६ इसप्रकारसे खप्नोंकाअर्थसुनके चन्द्रगुप्तराजा धर्मध्यानकरताहुआ अंतमें अनशनकरके वर्गगया ॥ इतने कहनेकर सोलहखप्नोंका विचारकहा ऐसाप्रभुःका वचनसुनके गौतमस्वामी आश्चर्य युक्तहुए ऐसे प्रभुको वन्दनाकरके भाविखरूपपूछा ।। अहो खामिन् हे लोकालोकप्रकाशक पांचवें छटे आरेकाखरूप कृपाकरके कहो । प्रभुकहतेभये हे गौतम सावधानहोके सुनो मेरे निर्वाणसे तीन (३) वर्ष साढेआठमहीना जानेसे चौथा आरा उतरेगा और पांचवां आरा लगेगा बाद मेरे निर्वाणसे बारह (१२) वर्ष जानेसे ते मोक्षजावेगा। बाद मेरे निर्वाणसे (२०) वीसवर्ष जानेसे सुधर्माकानिर्वाणहोगा ॥ और मेरे निर्वाणसे चौंसट (६४) वर्ष जानेसे है जम्बुःखामी मोक्षजावेगा॥ तब (१०) दस वस्तुका विच्छेदहोगा आहारकशरीर १ मनपर्यवज्ञान २ पुलाकलब्धि
३ परमावधिज्ञान ४ क्षपक श्रेणी ५ उपशमश्रेणी ६ केवलज्ञान ७ परिहारविशुद्धिःसूक्ष्मसंपराय यथाख्यातचारित्र ६८ सिद्धिगतिः ९ जिनकल्पीपना १० ये दशवस्तु जम्बुखामीके निर्वाणसे विच्छेदहोगा।बाद दुःपम कालके प्रभा-13 ६ वसे चौदह (१४) पूर्वधारी जम्बूस्खामीका प्रतिबोधाहुआ श्रीप्रभवखामी पट्टधरहोगा ॥ उन्होंके पट्टमें चौदह
जम्बुःखामी मानक्षपकश्रेणी ५० ये दशवस्तु जम्बुला श्रीप्रभवसामी
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| (१४) पूर्वधारी दशवैकालिकसूत्रकर्ता मनकपिता श्रीसय्यम्भवसूरि होगा | उन्होके पट्टमें चतुर्दश (१४ ) पूर्वधारी यशोभद्रसूरि होगा । उन्हों के संभूतिविजय १ भद्रबाहु २ नामके दो शिष्य चतुर्दशपूर्वधरहोगा ॥ बाद मेरे निर्वाणसे एकसौसत्तर (१७० ) वर्षजानेसे अनेकशास्त्रका करनेवाला भद्रबाहुस्वर्गजावेगा ॥ बाद मेरे निर्वाणसे दो सैपन्द्रह ( २१५ ) वर्ष जानेसे चौदह पूर्वधारी संभूत्विजयकाशिष्य श्रीथूलभद्र देवलोकजावेगा ॥ तब पहलासंघयन वज्रऋषभनाराच नामका विच्छेदहोगा | और सूत्रसे चार (४) पूर्व ए ऊपरका यानी ग्यारहवां (११) बारहवा ( १२ ) तेरहवां (१३) चौदहवां ( १४ ) ये चारपूर्व महाप्राणायामध्यानविच्छेद होगा ॥ मेरे निर्वाण से (२२२) उज्जैनीनगरी में संप्रतिनामकाराजा होगा वह राजा आर्यसुहस्तिसूरिः के उपदेश से जातिः स्मरण| ज्ञान पायके जैनधर्म अंगीकारकरेगा अपने भुजाकेबलसे तीनखंडकाखामी होगा ॥ दानी, न्यायी, धर्मकाजाननेवाला, पराक्रमी होगा और जिनमन्दिरोंकरके पृथ्वीशोभितकरेगा | और वह राजा अनार्यदेशमें लोगोंके उपकारकेलिये ॥ | सम्यक्त्वधारी जीवाजीवादिनवतत्व के जाननेवाले ऐसे लोगों को भेजके अनार्योंको धर्मका उपदेशकरावेगा ॥ बाद गीतार्थसाधुओं को म्लेच्छोंके देशों में विहारकरावेगा । इसप्रकार से धर्मकी सर्व देशो में प्रवृत्तिः करावेगा । ऐसा दृढ धर्मी संप्रति राजा अनुक्रमसे धर्म आराधके स्वर्ग जावेगा | बाद मेरे निर्वाणसे चारसैसत्तर ( ४७० ) वर्ष जाने से | उज्जैनी में विक्रमादित्यराजा होगा ॥ श्रीसिद्धसेनदिवाकरका उपदेश सुनके सम्यक्त्व धारण करेगा ॥ जिनशासनकी
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पंचम
15 आरेका
स्वरूप
दीवा० उन्नति करेगा उसके सत्वसेसिद्ध अग्निवेतालादि अनेक देव सहायभूतहोंगे सोनेका पोरसा वगेरेहःसिद्धहोगा ॥ व्याख्या०/६ धैर्यादिगुणसहितविक्रमादित्यकी ठिकानेठिकाने देव और मनुष्यप्रशंसाकरेंगे और विक्रमादित्यराजा सब लोगोंको
दानसन्मानादिक करके अनृणीकरेगा ॥ और अपने नामका संवत्सरप्रवर्तावेगा॥ महावलवान् , प्रजापालकः, परदुःख३८॥
निवारकः परस्त्रीमहोदर ऐसा विक्रमादित्यराजा होगा ॥ बाद मेरे निर्वाणसे पांचसेचौरासी (५८४) वर्ष जानेसे
वज्रखामी अन्तिमदश (१०) पूर्वधारी होगा ॥ दशमा पूर्वआधाविच्छेदहोगा ॥ निर्वाणसे ६०९ वर्ष जानेसे 8 हैरहवीरपुरनगरमें दिगम्बरमत उत्पन्नहोगा॥ बाद छैसे सोलह ६१६ वर्ष जानेसे पुष्पमित्रआचार्यके साथ नवमा पूर्व विच्छेदहोगा ॥ छैसै वीस (६२०) वर्ष जानेसे आचार्यादिक प्रामादिकमें रहेगा ॥ विक्रमादित्यसे एकसे पैतीस (१३५) वर्ष जानेसे साखीराजा ॥ शालिवाहनहोगा ॥ विक्रमसे पांचसै पचासी (५८५) वर्ष जानेसे अनेकग्रंथकर्ता, महाप्रभावक हरिभद्रसूरि होगा ॥ मेरे निर्वाणसे ९१३ नौसै तेरहवें वर्ष में कालिकाचार्य भादवासुदीपंचमीसे चतुर्थीको मेरीआज्ञासे पर्युषणापर्वकरेगा ॥ और जिसको इन्द्र आके वन्दना करेगा श्रीसीमन्धरःखामी प्रशंसाकरेगा ॥ मेरेनिर्वाणसे बारहसैसित्तर (१२७०) वर्ष जानेसे वप्पभट्टसूरि होगा ॥ सर्वविद्याविशारद उन्होंके
उपदेशसे गोपपर्वतपर आमराजा जिनालयकरावेगा ॥ साढ़ेतीनकरोड़खर्णमुद्राकी प्रतिमा स्थापेगा ॥ मेरेनिर्वामाणसे तेरहसैवर्ष ( १३००) वर्ष जानेसे बहुत मतभेदहोगा। बहुत मोहके कारणसे विषमकालके प्रभावसे अनेक
SAKARA
॥३८॥
MATL
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गच्छ भेदहोगा ॥ कईकअहंकारी होंगे कईक धर्मक्रियामें शिथिलचैत्यवासीहोवेंगे ॥ सुविहित अनुष्ठान करनेवाले 18 साधु थोड़े रहेंगे गच्छवासी साधु परस्पर क्लेश करेंगे ॥ और इसअवसरपणीमें दश (१०) अच्छेराभया सो|8|
कहते है श्रीमहावीरखामीके समवसरणमें गोशालेने उपसर्ग किया १ गर्भापहार २ स्त्रीतीर्थकर (३) भगवान् महावीरखामीकी प्रथम देशना खालीगई ४ श्रीकृष्णवासुदेवअमरकंकागया ५ चंद्रसूर्यमूलविमानमें बैठके आये ६ हरिवंशकुलकी उत्पत्तिभई ७ चमरेन्द्रका उत्पातः ८ एकसमयमें उत्कृष्टिः अवगाहनावाला १०८ मोक्ष गया ॥९ असं६ यतिकी पूजा १० ये दश (१०) वस्तुअनंतकालजानेसे होवेहै । इसलिये दुःषमकालमें दशमआश्चर्यकी प्रवृत्तिः
जादाहोगी ॥ और बहुत लोग क्रोधी, मानी, मायी लोभी, कामी होगा ॥ मर्यादाछोड़ेगा ॥ धर्मबुद्धिका नाश होगा॥ लोकवक और मूर्ख होवेंगे जैसे जैसे काल हीनआवेगा वैसा वैसा लोगोंकीधर्मसे बुद्धी हीन होवेगी । ६ लोग परोपकार और धर्मरहित होंगे ॥ बड़ेनगर ग्रामसदृशहोवेंगे ग्रामश्मसानः सदृश भयंकर होवेगा॥ राजा र है प्रजापालने में यमराजाके सरीखा होवेगा ॥ और हे गौतम धनवान् व्यापारी उत्तम कुलके प्रायः निर्धन होवेंगे ॥ नीचकुलके व्यापारी प्रायः धनवान् होवेंगे ॥ और देवतादर्शन नहींदेवेंगे मनुष्योंको जातिःस्मरणज्ञानादि प्रायः नहीं होवेंगे ॥ मनुष्य लजा मर्यादारहित होवेंगे ॥ पृथ्वीपरदुष्ट जीव बहुत होवेंगे ॥ और लोग परस्परविघ्न देखके ४ संतोषपावेंगे ॥ लोगोंका पापकरनेमें चार जैसा हाथ होगा और धर्मकरनेमें प्रमादी होवेंगे ॥ अपने कार्यकेलिये
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दीवा० खुशामदकरेंगे कार्य हुएके बाद शत्रु बनजावेंगे ॥ और हे गौतम ॥ लोग औरोंको तकलीफकरनेमें तत्पर होवेंगे ॥ पंचम व्याख्या और पंचमकालसम्बन्धी जीव महानिर्दयी दीर्घरोषवाले भद्रकजीवोंको ठगेगा॥ धर्म मूर्तिमन्त थोड़ा होगा। पाप
आरेका करनेवाले बहुत होवेंगे अत्यन्तलोभीमिथ्यात्वी, अभिमानी, अनाचारी, अन्यायी बहुत लोग होवेंगे ॥ और हे
स्वरूप ॥३९॥
गौतम कुलबहुआं कुलमर्यादारहित वेश्यासदृशहोंगी ॥ राजा प्रजापर बहुतदंडकरेगा ॥ पृथ्वीपर तिमिङ्गलन्याय ठहोगा चौर के कुल चौर होवेहै । परन्तु राजाभी चौरसदृश होवेंगे ॥ लोगोंका धन लेके दरिद्रीकरेंगे ॥ और हे||१||
गौतम पंचमकालमें लोगोंको अग्निसे बहुत उपद्रव होगा गाय वगैरहःजीवोंका बहुत वध होगा। जिनमंदिर पड़ेंगे है और दुःख, दारिद्र, उपद्रव जनमारीप्रमुखसे पृथ्वी शून्यवत् होजायगी देशभंग होगा लोग प्रेत सदशहोवेंगे।
राजा लोभी होगा। लोग अविवेकी, मूर्ख, कलाहीन होवेंगे॥ दातार दरिद्री होंगे कृपण धनवान होंगे पापी बहुत होंगे ६धर्मी कम होंगे धर्मियोंका आयुःथोडा होगा पापियोंका आयुःजादा होगा ॥ राजा लोग हीन बलि होगे नीच
कुलके बलवान राजा होवेंगे उत्तम कुलवाले नीचकुलवालोंकी सेवा करेंगे सजन मनुष्य दुःखी होंगे दुर्जन मनुष्य सुखी होंगे इसप्रकारसे हे गौतम पांचवे कालका खरूप जानो ॥ और लोकमेंभी कलियुगखरूप इसप्रकारसे कहाहै 3
द्वापर युगमें राजा युधिष्ठिरभया एकदिनवनमें गया ॥ वहां बड़ीगऊछोटीगऊका स्तनपानकरतीभई देखी ॥ ब्राह्म- ॥३९॥ दाणसे पूछा यह आश्चर्यहै ॥ तब ब्राह्मण बोला हे महाराज कलियुगमें हीनसत्वमनुष्य धन बिना दुःखीहोवेंगे
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मातापिताधनवानको कन्यादेके धनलेके अपनानिर्वाह करेंगे यह सुनके आगेचले ॥ देखते हैं तीन सरोवरपंक्तिसेहैं उन्होंमें पहले सरोवरकाजल उछलके तीसरे सरोवरमें गिरताहुआ देखा ॥ ब्राह्मणसे पूछा । ब्राह्मण बोला महाराज आगामिकालमें जैसे पहलेसरोवरका जल दूसरेको छोड़कर तीसरे पड़ता है वैसा लोगअपने सम्बिधियोंको छोड़कर दूसरे लोगोंसे प्रीती करेंगे ॥ राजा आगे चले देखते हैं जलसे भीजीभई वालुकाका लोगरस्सा बनाते हैं परन्तु नहींबनता है टूट जाता है । यह खरूपनालणसे पूछा ॥ ब्राह्मण बोला हे राजन् कृषीकार लोग बहुतकष्टसे कलि-13|| युगी धन उपार्जनकरेंगे। वहधन चोर अग्निःराजा वगैरह केभयसे लोगोके अन्यत्रजानेसेभी चला जायगा ॥ राजा |आगे चले कुएकेकोठेसे पानी नालीमें होकर कुएमें गिरताहुआ देखा आश्चर्यपाके राजाने पूछा ब्राह्मण बोला है। महाराज कृषी व्यापारादिक महाक्लेशसे लोग धनकमावेगा सो राजा ले लेगा ॥ सतयुगमें राजा अपना धन देकर प्रजाको पुत्र जैसा पालताथा कलियुगमें राजा प्रजाके पाससे धन लेगा यह विपरीतहोगा राजा आगेचले वनमें एक बडापेका वृक्षदेखा उसके पास एक कांटोंवाला वृक्ष है उसकोबहुत लोग सुगंधचंदन वगैरहःसे पूजते हैं। और सुगंधपुष्प सहित शाखा प्रशाखासे शोभमान चंपेके वृक्षको कोई नहीं पूजता है यह आश्चर्यदेखके ब्राह्म-2 णसे पूछा ॥ ब्राह्मण बोला हे नरेन्द्र लोग कलियुगमें गुणवंत उत्तम आचारवाले पुरवोंको छोड़कर पापीदुर्जननींच 5 लोंगोंकी पूजा करेंगे ॥ ऐसा सुनकर राजा आगेचले एक बड़ीशिलावालाग्रसे बंधीभई आकाशमें लटकतीभई देखी
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दीवा० व्याख्या ०
॥ ४० ॥
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राजाने पूछा ब्राह्मण बोला हे लोकनाथ कलियुग में पापरूप शिला धर्मरूप वालाग्र से टिरतीभई रहेगी ॥ जब धर्मरूप बाल टूटेगा तब समकालमनुष्य संसारसमुद्र में डूबेंगे राजा आगेचले फलकेवास्ते वृक्षकोपीड़ाकरते हुए लोग देखे || ब्राह्मणसेपूछा ब्राह्मण वोला कलियुगमें पिता पुत्रः फलकेवास्ते वृक्षसरीखा कष्टसहेगा || राजा आगे चले एक सोने के कड़ाह में मांसपचताभयादेखा ॥ ब्राह्मणसे पूछा ब्राह्मण वोला अपनाहितकरनेवाला कुटुम्बको लोग | छोड़ेगा और लोगों केसाथ मैत्री करेंगे उत्तम लोगोंका परिचयनहीकरेंगे नीचका परिचय करेंगे | राजा आगेचले लोग सर्पको पूजते हैं गरुड़को नहीं पूजते ॥ ब्राह्मणसे पूछा ॥ ब्राह्मण बोला दयारहित अधर्मी लोग सर्पतुल्य उन्हों का बहुत लोग आदर सत्कार करेंगे || गरुड़के सदृश गुणवान उत्तमधर्मज्ञपुरुषोंकी निंदा करेगें ॥ राजा आगेचले ॥ एक गाड़ीके हाथी जोड़े हुएदेखे और एक गाड़ीके गधेजोड़े हुए देखे || उन्होंमें हाथी परस्पर नहीं मिलते हुए चलें और गधे परस्पर मिलते हुए चलें ऐसा देख के ब्राह्मणसे पूछा ब्राह्मणबोला कलियुग में उत्तमकुलके लोगपरस्पर विरोध ओर ईर्षा करेंगे | और नीच कुलके लोग नीतिः से चलनेवाले परस्पर स्नेहयुक्त होवेंगे ॥ प्रायः नीच कुल में उत्पन्न भये राजा होवेंगे ॥ हाथीके सरीके उत्तमकुलमें उत्पन्न हुए दासहोवेंगे अन्यदा पांचपांडव वनवासमें रहेथे ॥ तब युधिष्ठिरराजा चारभाइयों को रात्रिः के चारप्रहर में पहरेपररक्खा | पहले पहर में भीम जागता है चारभाई सोते हैं । तब कलि| रूप पिशाच आके बोला भो भीम म तेरेभाइयों को मारूंगा तब भीमक्रोधातुरहोकर कलिपिशाचको मारनेको
॥
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पंचम
आरेका
स्वरूप
॥ ४० ॥
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| दौड़ा कलिकेसाथ युद्धकरनेलगा कलिने भीमको लीलासे जीतलिया | दूसरे प्रहरमें कलिपिशाचने उसी तरह अर्जुनःकोजीता ॥ तीसरे पहरसे नकुलको जीता || चौथे प्रहरमें सहदेवभी जीतागया || बाद चारो भाई पराजयपाके | सोगयै ॥ बाद युधिष्ठिरजागे तब कलिः पिशाच आके बोला हे राजन् तुम्हारे सामने चारों भाइयों को मारूंगा । ऐसा प्रेतका बचन सुनके युधिष्ठिराजाने बिल्कुलकोध किया नहीं और पीछा उत्तरभी नदिया सर्व कल्याणकी करनेवाली | सर्वप्राणियों से प्रीतिः उत्पन्न करनेवाली सर्व धर्म में प्रधानऐसी क्षमाकरके रहा | तब कलिपिशाचभी शांतभया । राजाकी मुट्ठी में आया बाद सबभाईउठे रात्रिकावृतान्तकहा तब राजानेमुट्ठी उघाड़के अपने बसभ्या पिशाचको | दिखाया | राजा बोले क्षमाके प्रभावसे यह मेरे वस हुआ है तुमने क्रोध किया इससे हारे ऐसे एकसे आठ (१०८) दृष्टांत लौकिकपुराणादिकमें कलियुग के वर्णन में कहे हैं । पुन हे गौतम पांचवे आरके मनुष्योमें प्रायः लज्जा नहींहोगी निष्कलंक कुलवाले थोड़े होवेंगे ॥ सम्यक वस्तुवोंकी पृथ्वीपरहानिः होगी || छोटेलड़के और | जवानोंका मरण जादाहोगा ॥ मातापिताका बड़ा आयुष्य होगा ॥ त्राह्मण शस्त्र धारनेवाले वेदपाठ षट्कर्मव|र्जित्वहुतसे होगे ॥ खधर्मनिष्ठ थोडे होंगे पुत्र मातापिताका विनय नहीं करेंगे दुःखदेवेंगे बहुआं सासुओं का विनय नहीं - | करेंगी ॥ सासु कार्य कहनेपर वह रोषकरके सर्पिणिके जैसी प्रत्युत्तर वचनरूप डंक देवेगी ॥ सासु कालरात्रिः तुल्य बहूकी निंदा करेगी | जैसे लोगोंको कालरात्रिः दुर्दध्यहो ये है वैसा सासुःभी बहुओं को ताडनतर्जनकरती दुर्लध्य
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॥४१॥
दीवा० होगी ॥ अपूज्य लोग पूजा पायेंगे ॥ और सत्कारके योग्यगुणवान् लोगसत्कार नहीं पायेंगे ॥ शिष्यगुरुओंका विनय-|| पंचम
नहींकरेंगे ॥ गुरूभी शिष्योंकों हितशिक्षादिउपदेश नहींदेवेंगे ॥ और मंत्र तंत्र औषधिः, ज्ञान, रत्न, विद्या, धन, आरेका है आयुः, फल, पुष्प, रस, रूप, सौभाग्य, संपदा, संधैन बलवीर्य, यश, कीर्तिः, गुण शोभा वगैरहः पदार्थोंकी पांचवे स्वरूप
आरेमें हानिहोगी ॥ ज्ञानादिधर्महीन होगा वस्तुओंका प्रमाण वगैरहः लोग विपरीतकरेंगे ॥ लोग धर्ममें मूर्ख हो जायंगे ॥ देवोंमें देवत्व सतियोंमें सतित्व ज्ञानियोमें वैराग्य प्रायःअल्पहोगा॥ तपस्वी वांच्छासहित तप करेंगे सत्य,
शौच, तप, क्षमादि धमाकी हानि होगी॥ पृथ्वीपर फलवगैरहः कम होवेगे और भगवान् कहते हैं हे गोतम मेरेनिP णसे पंद्रहसैपचास ( १५५०) वर्ष जानेसे गुर्जर देशमें अणहिलपाटननगरमें चैत्यवासियोंका मतका निराकरण४ करनेवाले श्रीवर्दमानसूरिः और उन्होंके शिष्य जिनेश्वरसूरिः सुविहितमार्गके प्रवर्तावनेवालेहोवेगे ॥ खरतरऐसा : F(विरुद ) पावेंगे। उन्होंके शिष्य श्रीअभयदेवसूरिः स्तम्भनकतीर्थके प्रगटकरनेवाले नवांगवृतिकार होंगे। हैउन्होंके पौत्रः श्रीजिनदत्तसूरिः दादाकरके प्रसिद्धहोवेंगे ॥ बहुत श्रावकका कुलप्रतिबोधेगे ॥ मेरे निर्वाणसे .
(१६६९) वर्षजानेसे श्रीकुमारपालराजा होगा चौलुक्यकुलमें चंदःसमान महास्त्रवान् अखंड जिनाज्ञाका धार- ॥४१॥ हनेवाला पराक्रमी, दान; कीर्तिः, गुणयुक्त, न्याय, विवेक, धैर्यसहितः सत्त्वगुणसे अद्वितीय होगा ॥ उत्तरदिशिमें |
यवन देशतक पूर्वदिशिमें गंगा पर्यंत दक्षिण पश्चिममें समुद्रपर्यंत देशोंको साधेगा ग्यारहसै (११००) हाथी दश
***CASAS
REGA
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हजार ( १०००० ) रथ ग्यारह ॥ ( ११००००० ) लाख घोड़ा ( १८००००० ) अठारहलाखप्यादा इतनीसेना | होगी कुमारपाल राजा एकदा प्रस्ताव में वज्रशाखा में देवचन्द्रसूरिः केशिष्य श्री हेमचन्द्रसूरिः को नमस्कारकरेगें ॥ और धर्मोपदेशसुनकर सम्यक्त्वसहित श्रावक के बारह ( १२ ) व्रत अंगीकार करेगा || देवगुरुको नमस्कार किये | विना भोजननहीं करेगा ॥ दृढव्रतके पालनेवाला पृथिवीको जिनप्रासादोंसे मंडित करेगा || एकदा प्रस्तावमें श्रीहे - |माचार्य के मुख से तीर्थों के अधिकार में श्रीजीवितस्वामी की मूर्तिः का सम्बन्ध सुनके अपने पुरुषों को भेजके वह प्रतिमा| मंगवावेगा ॥ पट्टन में जिनमंदिरमें स्थापेगा | प्रतिमाकी पूजा के वास्ते उदाई राजाने जो ग्रामादिकदिये थे, उतनाही ग्राम कुमारपालराजा देवेगा || निरंतरविशेषपूजाकरेगा ॥ सदासंतोषी, चौमासे में अखंड ब्रह्मचर्यपालनेवाला अटा| रहदेशमें अमारीपटह वजवावेगा | उसके राज्य में कोई जूंलीखभी नहीं मारसकेगा वर्षाकालमें इसकी सेना कहाभी नहींजावेगी जीवरक्षा में बहुतही विचक्षण होवेगा ॥ पंचमकाल में कुमारपाल जैसा कोई धर्मी राजा नहीं होवेगा और | गौतम पांचवें आरे में कलहकरनेवाले भववृद्धिकरनेवाले असमाधिके स्थान अनिर्वेद करनेवाले ऐसे साधुनामके धारनेवाले पांचभरत, पांचऐरवत क्षेत्रमें होंगे और मंत्रतंत्रयंत्रादिकमें नित्यउद्यम करेगा || आगमका अर्थ जानने वाले थोडेहोंगे || सिद्धांतका अभ्यास कोई बिरला करेगा | ज्योतिष, वैद्यक वगैरहपढ़ेंगे || उपकर्ण वस्त्रपात्रादिक उपकर्णके लिये वर्षाकालमेंअप्रीतिकरेंगे || राजा प्रजाकेपासमें जबरदस्ती दंड लेगा | वैसा साधु श्रावकके पास में
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दीवा०
5940-26
पंचम आरेका स्वरूप
जबरदस्तीसे उपकर्णलेंगे ॥ बहुतसे मुंड होवेंगे ॥ थोड़े साधु होवेंगे ॥ और हे गौतम पांचवें आरेमें म्लेच्छराजा व्याख्या० बलवानहोवेंगे ॥ उत्तमराजा हीन बलहोवेंगे ॥ और हे गौतम म्लेच्छकुलमें पाटलिपुरनगरमें कलंकी राजा होगा। ॥४२॥
पाटलिपुरनगरका रुद्रपुर और चतुर्मुखपुरनाम स्थापेगा प्रसंगसे कलंकी राजाका खरूपकहतेहैं ॥ यशनामका चांडाल यशोदानामकीस्त्रीकी कुक्षिमें उत्पन्न होगा १३ महीना गर्भावासमेंरहके चैत्रसुदी अष्टमीकी रात्रिमें मकर - लग्नके छठे अंशमें चन्द्रनामयोगआनेसे अश्लेसानक्षत्रके पहलेपादमें मंगलवारके दिन कलंकीका जन्म होगा ॥ क्रमसे 3 |३ हाथका शरीर पीलेकेश और पीलेनेत्र होंगे ॥ तीक्षणखर महाविद्यावान् दीर्घहृदय धर्मबुद्धिरहितः ज्ञानादि गुण-11 भारहित होगा लौकिक कलामें बहुतही कुशल होगा ॥ उसकेपांचवेंवमें उदरव्यथाहोगी ॥ सातवेंवर्पमें अग्नि पीड़ा
होगी ॥ ग्यारहवर्षमेधनप्राप्तिः ॥ अठारहवेंवर्ष में कार्तिकसुदी १ शनिवारको खाति नक्षत्र तुलका चन्द्रमाःवन्दननामका दिनसिद्धियोग बवकर्ण रावणमुहूर्तमें राज्याभिषेक होगा॥ आनन्दनामका घोड़ा दुर्भाषक नाम भाला मृगाङ्क नामकामुकुट दैत्यसूदननामका खड्गहोगा उस कलंकीराजाके ॥ कटिप्रदेशमें चन्द्रसूर्यका लाञ्छन होगा और कलंकी. राजा (१९) उन्नीसवेंवर्ष में अपने भुजबलसे आधेभरतका राज्य करेगा ॥ इक्कीसवें (२१) वर्षमें आबुराजाकी पुत्री पर्णेगा॥ औरभी बहुतसी रानियां होंगी उन्होंके साथ भोगभोगायता चार पुत्र होगा ॥ दत्त १ विजय २ मुंज ३ अपराजित ४ कलंकीराजाकीपाटलिपुरमें राजधानी होगी और कलंकीराजा विक्रमादित्यका संवत्सरउठाकर प्रजाको
1-MECASC-CGLCALCCACOCA
॥४२॥
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SAMAKASCARSAMACHAR
बहुतसा धनदेकर और सबको अनृणीकरके अपने नामका संवत्सर प्रवर्तावेगा पाटलिपुरका कलंकीपुर ऐसा दूसरा नाम करेगा दत्त नामको पहले पुत्रकी राजग्रह नगरमें राजधानी होगी ॥ उसनगरका दत्त पुरनाम होगा ॥ विजय कुंवरकी अणहलपत्तनमें राजधानीहोगी उसका दूसरानाम विजयपुरहोगा ॥ मुंजकी उजैनीमें राजधानी-18 होगी अपराजितकी और देशमें राजधानी होगी। कलंकीके राज्यमें म्लेच्छ और क्षत्रियोंके रुधिरसे पृथ्वी स्नान करेगी कलंकी राजाके ९९ लाख सोनेका भंडारहोगा ॥ चौदहहजार (१४०००) हाथी होगा ॥ सतासी लाख १४ हजार पांचसै घोड़ा (८७१४५००) ५ करोड (५०००००००) प्यादा दासादिककी तों बहुतसंख्या होगी॥ नभखेलनामका त्रिशूल पाषाणमई घोड़ा चढ़नेके वास्ते होगा ॥ कलंकी कितने वक्त बाद दुष्टाध्यवसायवाला अत्यन्त कसाई होगा ॥ जब कलंकी राज्यकरेगा तब मथुरामें कृष्णवलभद्रका मंदिर गिरेगा ॥ बहुतउपद्रव, दुर्भिक्ष, रोगोंसे मनुष्य पीडा पावेगा पांच स्तूभीमें बहुत धन है ऐसा लोगोंके मुखसे सुनकर आनंद राजाकी बनाई भई सोने मई पांच स्तूभिका कलंकीराजा खुदावेगा सब धन निकालेगा उसमें गायके रूपवाली लवणादेवीकी मूर्तिः पाषाणमई प्रगट होगी उसमूर्तिकोः राजा वगैरहः सबलोग इकट्ठे होके नगरकेचौहट्टेमें स्थायेंगे॥ कोई अवसर साधु गोचरीकेवास्ते बजारमें जावेंगे तब साधुओंको देखके देवताके प्रभावसे वह मूर्तिःसींगोंसे मारनेको उद्यमवान होवेगी तब गीतार्थसाधु इकटेहोके विचारकरेंगे। यहां जलका उपद्रव बहुत होगा। ऐसा जानके सुविहित क्रियाके
ENRSCIENCERCRABAR
चा. व्या.८
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दीवा० व्याख्या०
॥ ४३ ॥
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धारनेवाले साधु सवविहार करेंगे | और जो आहार पानीके लोलुपी गीतार्थका वचन नहीं अंगीकार करेंगे अविवेकी ऐसे वांही रहेंगे ॥ बाद सत्तरह (१७) दिनतक वर्षात् होगा ॥ बहुतवर्षात् होनेसें कलंकीराजाका नगर जलसे | आच्छादित होजायगा || गंगाका जल नगरकेजलकेसाथ इकट्ठा होजायगा ॥ कलंकीनगरसे भागके कहीं ऊंचेस्थल में | जाकेरहेगा | जलका उपद्रव शांतहोनेसे नवीन नगर बसावेगा ॥ जलके प्रवाहसे नन्दराजाकी बनाई भई नव सोनेकी | डुंगरी प्रगटहोगी | उन्होंको देखके बहुत लोभी होगा ॥ पहले जो मनुष्य कर नहीं देते थे उन्हों के पास कर लेगा और | करदेनेवाले उन्होंपर बहुतकर लगावेगा ॥ बहुत प्रकारका नवीन कर करेगा ॥ धनवानोंपर झूठा कलंक देकर उन्होंसे धनलेगा अनेक प्रकारका छलकरके लोगोंका धन हरण करेगा । तब सब लोग निर्धन होजावेंगे ॥ चांदी सोना वगैरहः सब धन नष्टहोजायगा । तब चर्ममई दाम चलेंगे ॥ वैश्य, पाषंडी, सर्व दर्शनियोंके पासकर लेगा । कलंकी के राज्यमें लोगों के घरोंमें धातुमय पात्र नहींरहेगा । तब वृक्षों के पत्तों में लोग भोजन करेंगे ॥ और कलंकी राजा मार्ग में जाते हुए साधुओंको देखके लोभी भया ऐसा भिक्षाका छट्टां भाग मांगेगा | तब सब साधु इकट्ठेहोके | | शासनदेवताका आराधनके लिये काउसग्ग करेंगे | तब शासनदेवी प्रगट होके साधुओं के भिक्षाके छट्ठा भाग मागते हुए राजाको निवारण करेंगी । राजा वेषधारियों का वेष छुड़ादेगा ऐसा महादुष्ट होगा | और कितने काल गए बाद भिक्षाका छट्टाभाग और मागेगा । तब धनके वास्ते आचार्यादि सब साधुओं को इकट्ठा करके वाडेमें रोकेगा ॥ तब
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पंचम
आरेका
स्वरूप
॥ ४३ ॥
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सविनआचार्यःप्रमुख संघसहित शासनदेवता आराधनार्थ काउसग्ग करेगा संघके काउसग्गसे शासनदेवता I आवेगी॥ युक्तिःसे राजाको उपदेश देवेगी तथापि नहीं मानेगा ॥ उस समय इन्द्रका आसन चलेगा । तब इन्द्र वृद्धःब्राह्मणका रूप करके जहां कलंकी राजा सिंहासनपर बैठा है वहां आवेगा। बाद कलंकीराजाको कहेगा अहो राजेन्द्र इन निरअपराधी साधुओंको क्योंरोका है ॥ इन्होंने तुम्हारा क्या अपराध किया है ॥ तब राजा कहेगा अहो ब्राह्मणः सब दर्शनीय मेरेको कर देवे है परन्तु यह जैनीभिक्षुः भिक्षाका छट्ठा भाग नही देवे है। ४ इससे मैंने इन्होंको रोका है। तब इन्द्रः कहेगा ये साधुः हैं ये भिक्षाभोजी हैं इन्होंसे छट्ठा भाग लेनेसे तुम्हारे क्या
वृद्धि होगी ॥ इससे इन्होंके पास तुमको भाग नहींमिलेगा ॥ इन्होंके पास कुछ नहींहै ॥ इन्होंका यह व्यवहार नहीं है भिक्षामें भाग देवै और तुम भिक्षाका भाग मांगते हो तुमको लाज नहींआती ॥ इनसाधुओंको छोड़दो।। अन्यथा तुमको बड़ा कष्ट होगा ॥ ऐसा इन्द्रःका बचन सुनके भी नहींछोडेगा ॥ तब भादवा सुदीअष्टमीको ज्येष्ठा 3 नक्षत्र में इन्द्रःक्रोध करके चपेटेके प्रहारसे कलंकीको मारेगा॥ कलंकी८६ वर्षका सर्व आयुः पालके नरक जावेगाबाद है कलंकीके पुत्रः दत्तको धर्मोपदेश देके इन्द्रराज्यमें स्थापेगा॥देवगुरू संघको नमस्कार करावेगा॥ इन्द्र अपने ठिकाने में
जावेगा। बाद दत्तराजा पिताके पापका फलजानके धर्म करनेमें तत्पर होगा ॥ तीर्थंकरोंकी पूजा नित्य करेगा ॥ सद्गुरूकी सेवा करेगा । जिनमंदिरोंसे पृथिवी शोभित करेगा। शत्रुजयतीर्थकी संघसहित यात्रा करके सत्तरहवां
Antonio
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दीवा०
पंचम आरेका स्वरूप
॥४४॥
GEOGACASSACRECOR
उद्धार करावेगा यहां कलंकीके अधिकारमें शत्रुजयमहात्म्य त्रिषष्टिशलाका चरित्रवगैरह, शास्त्रों में संवत् विपई कितनेक विकल्प हैं सो बहुश्रुत जाने ॥ महानिशीथसूत्रमें श्रीप्रभसूरियुगप्रधानके वक्तसें कलंकी 8
राजा होगा ऐसा कहा है इस वचनसे भगवान्के निर्वाणसे दशहजार पांचसै त्रानवे (१०५९३) वर्षमें आठवें ६ उदयमें संभव है ॥ ग्रंथान्तरमें प्रातिपदाचार्यः लिखा है ॥ इति ॥ अब पांचवें आरेमें चतुर्विधसंघ साधुः, साध्वी
श्रावकः श्राविकाकी संख्या कहे हैं ॥ ग्यारह लाख सोलह हजार (१११६०००) इतना राजा पांचवे आरेमें 5 जिनमतके भक्त होवेंगे ॥ एक करोड जिनशासनके प्रभावक मत्री होवेंगे ॥ और पांचवे आरेमें श्रीसुधर्माखामी प्रमुख दो हजार चार (२००४) युग प्रधानपदके धारक महोपकारी आचार्यहोगे। उन्होमें सुधर्मा खामी जम्बू खामी उसी भवमें मोक्ष जावेंगे और (२००२) आचार्य एकावतारी होवेंगे ॥ और युगप्रधानसदृश आचार्य प्राणियोंके मोहअन्धकार दूरकरने में सूर्यसदृश ग्यारह लाख ग्यारह हजार सोलह (११११०१६) औरभी आचार्यः चारित्रके पालनेवाले होवेंगे ॥ तेतीसलाख ४ हजार चारसे उन्नीस (३३०४४१९) इतने मध्यमगुण है धारि आचार्याः होंगे और पांचवे आरेमें पचपनकरोड पचपनलाख पचपनहजार पांचसै पचीस (५५५५५५५२५)1 इतने अधमाचार्यः होंगे ॥ पचपनलाखकरोड पचपनहजारकरोड चवालीसकरोड इतने उपाध्यायवाचना-5 चायःहोंगे और सत्तरहलाखकरोड और नवहजारकरोड इकसौइक्कीसकरोड एकलाख साठहजार इतने साधु
CAGAR
॥४४ ॥
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होयेंगे ॥ और पांचवें आरेमें दशकरोडाकरोड वारहसैकरोड वानवेकरोड बत्तीसलाख निन्नानवे हजार एकसौ
इतनी साध्वियां होंगी ॥ और सोलहलाख तीनहजारकरोड तीनसत्तरकरोड चौरासीलाख इतने श्रावक है होंगे और पैंतीसलाखकरोड बानवहेजारकरोड पांचसैवतीसकरोड इतनी श्रावका होंगी ॥ पांचवेंआरेमें
संघका प्रमाण कहा ॥ यहां कितनेक आचार्य ऐसा कहते हैं ॥ पांचभरत पांचएरवत क्षेत्रके संघका यह प्रमाण है ॥ कितने आचार्य कहते हैं पांच भरतके संघका यह प्रमाण है ॥ कोई आचार्य कहते हैं एकभरतके 2 संघका प्रमाण है ॥ तत्वज्ञानी गम्य है ॥ और पांचवें आरेके अंतमें दुप्पसहसूरि आचार्य होवेंगे ॥ खर्गसे च्यवके आवेंगे बारह वर्षतक घर में रहेंगे ॥ चार वर्ष सामान्यसाधु पदमें रहेंगे और चारवर्ष आचार्यःपदमें रहके वीस(२०) वर्षका आयुःपालके अनशनकरके सौधर्मदेवलोकमें देव होंगे। कैसे दुप्रसहसूरि दशवैकालिक १ जीतकल्प २ आवश्यक ३ अनुयोगद्वार ४ नन्दी ५ सूत्रोंके धारनेवाले इन्द्रादिकोंने नमस्कार किया जिन्होंको दो दो उपवासकरके | पारना करनेवाले अंतमें तीन उपवासकरके वर्ग जावेंगे ॥ स्वर्गमें एक सागरोपमका आयुभोगवके भरतक्षेत्रमें जन्मपाके दीक्षालेके केवलज्ञानपाके मोक्ष जावेंगे॥ वीस हजारनौसै वर्ष तीन महीनां पांचदिन पांचपहर एक घडी दो पल इकतालीस अक्षर इतने कालपर्यन्त धर्मरहेगा॥और निन्नानवे वर्ष आठ महीना चौवीस दिन दोपहर पांच घडी सत्तावन पल उन्नीस अक्षर इतने कालमें जिनधर्म थोडारहेगा॥ पांचवें आरेके अंतके दिन श्रुत, १ सूरिः, २]
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दीवा० व्याख्या०
॥ ४५ ॥
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संघ, ३ धर्म ४ पूर्वान्ह में विच्छेद होगा || विमलवाहनराजा सुमुखमंत्रीराज्यनीतिधर्म मध्यान्हमें विच्छेद | होगा | अग्निः संध्यासमय विच्छेद होगा || पांचवे आरेके अंत में दुप्रसहसूरि फल्गुश्री साध्वी नागिलश्रावकः सत्य | श्रीश्राविका ये चतुर्विध संघ होगा || पांचवे आरेमें धर्म प्रवर्तेगा | इसकहने कर पांचवें आरेमें धर्म नहीं है। ऐसा जो कहेगा उसको संघसे बहिर करना । इस प्रकार से इक्कीसहजार वर्षप्रमाणे पांचवां आरा होगा ॥ बाद इतनेही | प्रमाणका छट्टाआरा होगा । उसका किंचित्स्वरूप कहते हैं ॥ धर्मतत्वका नाश होजायगा । हाहाकार होगा लोग पशुके जैसा पितापुत्रीकी व्यवस्थारहित होगा | बहुत धूली सहित अतिकठोर अनिष्ट हवा चलेगा ।। दिशाओं में धूम हो जायगा ॥ चन्द्रमासें बहुतशीत पडेगा ॥ सूर्य बहुत तपेगा || अत्यन्त शीतोष्ण से व्याप्तलोग दुःखपावेंगे ॥ भष्म १ | पाषाण २ अनिका कणा ३ खार ४ विष ५ मल ६ बीजली ७ इन्होंके सात मेघवर्षेगा ॥ एकएक मेघकी सातसात | दिनतक वर्षा होगी | जिससे कास, खास १ शूल, कोढ़ १ जलोदर, ज्वर माथेका दुःखना इत्यादि मनुष्यों के महारोग होगा | अङ्गारसदृशपृथ्वी होगी ॥ नदी, पर्वत गर्ता वगैरह जलसे बरोबर होवेंगे ॥ तिर्यञ्च जलचारी थलचारी दुःख से रहेंगे ॥ क्षेत्रवन, आराम, लता, वृक्ष, घास क्षयहोजायगा ॥ वैताढ्य पर्वत ऋषभकूट, गंगासिंधुनदीको छोडके सर्व नष्ट होवेंगे ॥ भरतकीभूमि बहुत धूलिः जिसमें अंगारभूत भस्मभूत होगी । एक हाथके शरीरवाले कठोर अंग दुष्टवर्ण कठोरवचन रोग से पीडित क्रोधी चीपडी नासिका निर्लज्ज वस्त्ररहित मनुष्य और स्त्रियां होवेंगे ॥ मनुष्योंका
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पंचम षष्ठ आरेका स्वरूप
॥ ४५ ॥
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वीस वर्षका उत्कृष्ट आयुः स्त्रियोंका सोलहवर्षका उत्कृष्ट आयुः छ वर्षकी स्त्री गर्भ धारेगी दुःखसे प्रसव होगा ॥ बहुत पुत्र पुत्री जन्मेगा ॥ रथका दोचक्रोंके प्रमाणके बराबर गंगासिंधुनदी बहेगि ॥ थोडा पानी बहुत मच्छकच्छवगैरहः और वैताढ्य पर्वत में नदियोंके दोनों किनारे बहुत्तर विल हैं उन्होंमें मनुष्य रहेंगे एकएक नदी के किनारे नौ नौ विल हैं । उन्होंमें तिर्यञ्च मनुष्योंका बीज मात्र रहेगा | मांसाहारी, निर्दय निर्विवेकी छट्ठे आरेमें प्रायः दुर्गतियाने | नरक तिर्यञ्च गतिःपानेवाले मनुष्य होवेंगे ॥ विलवासी मनुष्य दिन में बहुत ताप पड़ने से रात्रि में बहुत शीत पडने से नहीं। | निकल सकेंगे । संध्यासमय नदीमें आके मत्स्यादिकको लेके स्थल में रक्खेंगे दिन के ताप रात्रिकेः शीतसे पके हुए मत्स्या| दिकको लेजाकर खावेंगे ॥ उसकालमें पुष्प, फल, अन्न दहीवगैरह : कुछ नहींरहेगा | सेज आसन वगैरहः भी नहीं | रहेगा । ऐसा पांचभरत पांचऐरवत दश क्षेत्रोंमे दुःषम दुःषमकाल होगा | आगे छट्ठे आरेके सरीखा उत्सर्पणीका | पहला आरा होगा । इक्कीस हजारवर्ष प्रमाणका पहला आरा जानेसे इक्कीस हजारवर्ष प्रमाणका दूसरा आरा होगा तब | पुष्करावर्त मेघ वर्षेगा ॥ सात दिनतक उससे पृथ्वीका ताप नष्टहोगा । दूसरा क्षीरोदनामका मेघ वर्षेगा उससे पृथ्वी धान्यनिष्पतिके योग्य होगी । तीसरे घृतोदकमेघ के वर्षनेसे पृथ्वी सचिक्कण होगी | चौथा शुद्धोदक मेघवर्षनेसे धान्यादिककी निष्पत्ति होगी । पांचवा रसोदकमेघवर्षनेसे पृथ्वी में रसोत्पत्तिहोगी । यह पांच मेघ सात सातदिन वर्षेगे | ऐसे पैंतीस दिनतकमेघ वर्षेगा । तब वृक्षः, औषधि, लता, धान्य वगैरह आपहीसे उगेंगे भरतकी
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दीवा० व्याख्या०
भा०
॥४६॥
पृथ्वी बहुतही सुंदर होगी।बिलवासी मनुष्य बिलोंसे निकलेंगे।पुष्पफलाहिसहित वृक्षादि देखकर ऐसाकहेंगे मांस दूसरे तीनहीं खाना ॥ धान्यपुष्प फल वगैरेहः खाना ऐसा परस्पर कहके धान्यादि खावेंगे ॥ जैसा जैसा कालआयेगा सरे आ० वैसा वैसा रूप संघण आयुष्य बढ़ेगा। सुखकारी वायुःचलेगा॥ऋतु सर्व सुखदाईहोंगी॥ तिर्यश्च मनुष्य रोगरहित होंगे॥ दूसरे आरेमें मध्य खंड में सात कुलगर होवेंगे ॥ विमलवाहन १ सुदाम २ संगम ३ सुपार्थ ४ दत्त ५ सुमुख ६ समुचि ७ ये सात कुलगरों में पहले कुलगर विमल वाहन जातिःस्मरणपूर्वक राज्यके वास्ते गाम नगर वगैरह बसावेगा ॥ और भी हाथी घोड़ा वगैरह का संग्रह करेगा ॥ शिल्प, व्यवहार, लिपि गणतादिक लोगोंको सिखावेगा अग्नि उत्पन्न होगा विमलवाहन राजा लोंगोंको रसोईवगैरहःबनानेका उपदेशकरेगा ॥ दही दूध, घी वगैरहःका सब व्यवहार होगा ॥ असिमसिःकसिःसे लोग आजीवका करेंगे॥यह व्यवहार दूसरे आरेमें होगा। पांचवें आरके सरीखा दूसरा आरा जानना ॥ परन्तु पांचवें आरेमें उतरता काल होवे है दूसरे आरेमें चढ़ता 8 काल होवे है इतनाही विशेष है ॥वाद तीसरा आरा लगेगा। उसका नयासी पखवाडा जानेसे शत द्वारपुरनगरमें समुचि राजाकी भद्रानामकीमहारानीके चौदह स्वप्न सूचित श्रेणिकराजाका जीव पहला तीर्थकरपद्मनाभनामका पुत्र
W॥४६॥ होगा जन्ममहोत्सववगैरहः महावीरखामीके सरीखा जानना ॥ कैसे पद्मनाभ तीर्थकर सातहाथका शरीर सोनेके जैसावर्ण सिंहका लान्छन वहतर वर्षका आयुऐसे पहले तीर्थकर होवेंगे बाद पहलेके सहित तीर्थकरप्रातिलो
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लिखते हैं श्रेणिकरार कौणिक राजाका कार्तिकका जीवजीव
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म्यसे तेईसतीर्थकर तीसरे आरेमें होंगे ॥ और चौवीसमां तीर्थंकर भद्रंकर नामका चौथे आरेमें होगा। अब भावी चोवीस तीर्थंकरों का नाम लिखते हैं श्रेणिकराजाका जीव पद्मनाभखामी पहला तीर्थकर १ श्रीमहावीरस्वामीका काका सुपार्श्वका जीव शूरदेव नामका दूसरा जिनेश्वर२ कौंणिक राजाका पुत्र उदाईका जीव सुपार्थ ३ पोट्टिलअणगारका जीव चौथा खयंप्रभ ४ दृढ़ायु श्रावकःका जीव पांचवां सर्वानुभूतिः ५ कार्तिकका जीव छट्टा देवश्रुत ६शंख श्रावकका जीव उदय नामका सातवां तीर्थकर ७ आनन्दका जीव आठवा पेढाल ८ सुनन्दका जीव नवमापोट्टिल ९ शतककाजीव शतकीर्तिनामका दशवांतीर्थकर १० देवकी रानीका जीव ग्यारहवां सुव्रतनामका तीर्थकर ॥ कृष्णवासुदेवका जीव अमम नामका बारहवां तीर्थकर १२ सत्यकीविद्याधरका जीव निष्कपायनामका तेरहवां तीर्थकर १३ बलभद्रःका ६ जीवनिष्पुलाकचौदहवां तीर्थकर १४ रोहिणीका जीवनिर्मम पन्द्रहवां तीर्थकर १५ सुलसाका जीव चित्रगुप्तनामका है सोलहवां जिनेश्वर१६रेवतीश्राविकाका जीवसमाधि नामका सतरहवां तीर्थकर॥१७॥ सद्दालकाजीव अठारहवां सम्वर ल तीर्थकर ॥ १८ द्विपायनका जीव उन्नीसवां यशोधरतीर्थकर ॥ १९ कषायका जीव (कृष्णनामका कोई ) वीसवां 8 विजयतीर्थकर ॥२० नारदका जीव मल्लीनामकाइक्कीसवां तीर्थंकर२१अंबडका जीव वाईसवां देवतीर्थकर२२अम्बड , श्रावकःका जीव अनंतवीर्यनामका तेईसवां तीर्थकर २३ खातिःका जीव चौवीसवां भद्रंकर नामका तीर्थकर होगा। २४यह आगामिकालमें चौवीस तीर्थंकरोंका आयुः, कल्याणक, अंतर, लाञ्छन, वर्ण वगैरहः पश्चानुपूर्वीसे होगा।
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दीवा० व्याख्या
॥४७॥
वर्तमानचौवीसीके जैसा श्रीमहावीरस्वामीके जैसेपहले तीर्थंकर ॥ पार्श्वनामखामीके जैसे दूसरे तीर्थकर यावत: तीसरे आ.
ऋषभदेवखामीके जैसे चौवीसमे तीर्थकर होंगे अब भाविचक्रवर्ती कहते हैं। दीर्घदंतः१ गूढदन्तः २ शुद्धदन्तः ३ भावा * श्रीचन्द्रः४, श्रीभूतिः ५, श्रीसोमः ६ पद्मः ७ महापद्मः ८ कुसुमः ९, विमलः १०, विमलवाहनः ११, रिष्टः इत्य
चक्रवर्ती परनामा भरतो द्वादशः १२॥ अब वासुदेवोंका नाम कहते हैं ॥ नन्दी १ नन्दमित्रः २ सुन्दरबाहुः ३, महाबाहुः
प्रमुखनाम ६|४, अतिबलः ५ महाबलः ६ बलः ७ द्विपृष्टः ८ त्रिपृष्टः ९॥अब बलदेवके नाम कहते हैं॥जयः १, विजयः, २ भद्र है ३ सुप्रभः ४, सुदर्शनः ५, नन्दः ६, नन्दनः, ७ भीमः ८, संकर्षणः९॥ अब प्रतिवासुदेवके नाम कहते हैं। तिलकः
१ लोहजंघः २ वज्रजंघः ३, केशरी ४ बलिः ५ प्रह्लादः ६ अपराजितः७ भीमः ८ सुग्रीवः९॥ यह त्रेसठ शलाका ६ पुरुषोंमें इकसह पुरुषः तीसरे आरेमें होवेंगे॥ एक तीर्थंकर चौवीसवां १ चक्रीवर्ती बारहवां यह दोपुरुष चौथे आरेमें 8 है होवेंगे। इन दोनोंका चौरासीपूर्वलाखवर्षका आयुःहोगा बाद कल्पवृक्षोंकी उत्पत्ति होगी। मनुष्य युगलधर्मी होजाजायंगे॥पीछेके चौवीसवें तीर्थकर आगेकेपहिलेतीर्थकरइनदोनोंके अठारहकरोडाकरोड सागरका अंतरहोगा॥छ (६)|
आरा युगलियाका जावेगा ॥ उत्सर्पिणी अपसर्पिणी काल इकट्ठा करनेसे २० क्रोडाक्रोड सागरका कालचक्र होवेहै। ला॥४७॥ ऐसे कालचक्रअनन्तगये और इसभरतक्षेत्रमें अनंत जावेंगे। इसप्रकारसे श्रीमहावीरखामी गौतमखामीको भविप्यत कालका सरूप कहके उसदिनकी रात्रिःको अपनानिर्वाणजानके गौतमखामीका मेरेपर जादा स्नेह है इसीसे
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केवलज्ञान नहीं होवे है इसवास्तै गौतमस्वामीको भगवानने और ग्राम में देवशर्मा ब्राह्मणको प्रतिवोधनेके लिये | भेजा । अब प्रभुका परिवार कहे है अपने हाथसे दीक्षा दिये भये चौदहहजार ( १४००० ) साधुः छतीस हजार साध्वी एकलाख उनसटहजार श्रावक ( १५९००० ) तीन लाख अठारह हजार श्राविका ( ३१८००० ) तीनसैचौदह चौदह पूर्वधारी तेरहसै अवधिज्ञानी सातसै वैक्रीयलब्धिधारी मुनिः सातसै ( ७०० ) केवलज्ञानी पांचसै ( ५०० ) विपुलमतिः ॥ चारसे ( ४०० ) वादी आठसे (८००) अनुत्तर विमानगामी इसप्रकार से समस्त साधुः साध्वी सहित श्रीमहावीरखामी दो उपवाससहित भगवान् तीस ३० वर्ष ग्रहस्थाश्रम में रहे साढेबारह वर्ष और एक पक्ष छद्मस्थ अवस्थामें रहे || कुछ कमतीस वर्ष केवलपर्याय में रहे सब आयुः बहुतर वर्षका पालके कार्तिक वदी अमावसकी रात्रिके चौथे पहर में खातिनक्षत्र में दूसरे चंदसंवत्सर में प्रीतिवर्धनमास नंदिवर्धनपक्ष उपशम दिन देवानंदा रात्रिः सर्वार्थसिद्धः मुहूर्त नागकरण में पद्मासन बैठे हुए चौथे आरेका ३ वर्ष साढेआठ महीना बाकी रहने से इससमय में इन्द्रासन कांपा | अवधिज्ञानसे इन्द्रःप्रभुका निर्वाण कल्याणका समय जानके आया ॥ आंसू डालता हुआ हाथ जोडके बोला ॥
गर्भे जन्मनि दीक्षायां, केवले च तव प्रभो ! । हस्तोत्तरं क्षणेऽधुना तद्गन्ता भस्मको ग्रहः ॥ १ ॥ अर्थ :- हे प्रभो आपके च्यवन १ गर्भापहार २ जन्म ३ दीक्षा ४ केवल ५ इन पांच कल्यणकों में उत्तरा फाल्गु
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दीवा० व्याख्या
निर्वाणस्वरूप
॥४८॥
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नी नक्षत्र था इस वक्तमें भस्म ग्रह आपकी जन्म राशिःपर आया है इस कारणसे हे स्वामिन् हे करुणानिधान एक क्षण मात्र आयु बढ़ावो कारण आपकी जन्म राशिःपर भस्म ग्रह आया है वह दो हजार (२०००) वर्ष रहेगा इससे जिनशासनकी पूजा प्रभावना कम होजायगी इस लिये दोघड़ी आयुष बढाओ॥ आपका दृष्टिपात होनेसे भस्म ग्रहका तेज निष्फल होजायगा तब भगवान् बोले हे इन्द्रः यह कभी भया नही होवे नहीं होगा| नहीं ॥ आयुःकी वृद्धिः कोईकरसके नहीं ॥ भावि पदार्थका नाश नहीं है भस्म ग्रहके उतरनेसे देवता भी दर्शन देवगा ॥ विद्यावन्त भी आपसे प्रभाव दिखायेगा जातिः स्मरणादिक भी होगा बाद उन्नीस हजार ( १९०००) वर्ष धर्मप्रवर्तेगा ॥ दुःखमाकालपर्यंत ऐसा कहके भगवान् अपना निर्वाणसमीप जानके पचपन (५५) पुण्यफल विपाक अध्ययन पचपन (५५) पाप फल विपाक अध्ययनकहके छत्तीस (३६) प्रश्न विना उत्तर कहके (उत्तराध्ययन) प्रधान नामका अध्ययन मरुदेवाखामिनीका अध्ययन कहताहुआ भगवान् शैलेशी करण किया ॥ उस वक्तमें स्वामीका निर्वाण समीप जानके सब सुरेन्द्र असुरेन्द्र परिवारसहित आये ॥ प्रभु पांचलघुअक्षर उच्चारण प्रमितकाल अयोगी चौदहवां गुणठाना स्पर्शके शुक्लध्यान ध्याते भये एरण्डफलवत् ऊर्ध्वगतिः करके मोक्षगये ॥ उस समयमें अनुद्धरि, कुन्थुवा जीवोंकी राशि उत्पन्न भई तब साधुओंने विचार किया कि आजसे संयमपालना मुश्किल होगा ऐसा जानके अनशन किया ॥ उसदिन नवमलकी नवलेच्छकी जातिवाले काशी कोशल देशके
SACCIENCE
॥४८॥
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चा. घ्या. ९
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अठारह (१८) गणराजाने अमावस के दिन उपवास करके पौषधत्रत अंगीकार किया था । उस रात्रिः में भावउद्यो |तकरनेवाले तीर्थकर मोक्षगये जानके अपने घरोंसे रत्नमंगवाके द्रव्य उद्योतकिया पौषधपारा जिस रात्रि में तीर्थंकर | मोक्षगये उसरात्रि में देवोंके जाने आनेसे वडा उद्योत हुवा | उस अवसरमें देवोंके मुखसे श्रीमहावीर स्वामीका निर्वाणगमन सुनके श्रीगौतमखामी मनमें विचार किया कि अहो भगवानने जानतेभये मेरेको दूरकिया भगवान्ने जाना मेरेपास केवलज्ञान मांगेगा | बालकके जैसा कदाग्रह करेगा || परन्तु हे स्वामिन् मैं ऐसे आपको नहीं | जानेथे ॥ केवलज्ञान देते तो आपके क्या न्यून होजाता | आपका मैं सेवक था | आपने लोक व्यवहारभी नहींपाला | अब मेरा संशय कौन दूरकरेगा | मैं किसको प्रश्न करूंगा ॥ हेगौतम हेगौतम ऐसा मुझे कौन कहेगा ॥ ऐसे वक्त अपने जो होवें उन्हों को दूरसे बुलाए जाते हैं । आपने मेरेको दूर भेज दिया । हे प्रभो मेरेको केवलज्ञानकी तृष्णा नहींथी | केवल आपके दर्शनहीकी तृष्णा थी | अब आपका दर्शनदूर होगया । ऐसा विलाप कर्ता हुआ गौतमखामीने विचार किया || हेजीव तें मोहकेवशसे गहला हुआ है | भगवान् वीतराग है तैं सरागी है ॥ वीतरागके साथ सेह क्या काम आवे || एक पक्षकी प्रीतिः कैसे बने । द्वादशाङ्गीका जाननेवाला होते भी हैं। मोहके वशपड़ा है जगतमें कोई किसीका नही है सब जीव अपनेअपने कर्मों के फलभोगवते हैं ॥ इत्यादिविचारकर्ते भये गौतमखामीने क्षपक श्रेणी करके केवलज्ञान पाया । जिस रात्रिमें प्रभु मोक्षगये उस रात्रिमें भाव उद्योत जानेसे
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दीवा० लोगोंने अपने २ घरों में रत्नके दीपकोंसें दीवालीकरी ॥ तबसे लोकमें कार्तिक महीने में दिवालीपर्व वर्तमानहुआत
निवाणव्याख्या० पहले श्रावणमहीने में दिवालीपर्व था जिसरात्रिमें वीरप्रभु मोक्षगये तब सब संघ उद्वेगपाया ॥ संघका मुखकमल
स्वरूप दम्लान होगया ॥ बाद गौतमखामीको केवलज्ञान उत्पन्न होनेसे समस्त संघको आनंद हुआ॥ चौसट इन्द्रः प्रभुका निर्वाण महोत्सव करके प्रभुके शरीरका संस्कार किया। तब इन्द्रादिकदेव दाढ़ावगैरहः लेवे॥ कईकदेव दांतवगैरहः
को लेवे ॥ कईक भस्मग्रहणकरे असंख्यातादेवोने वहांकी भस्मी धूलिः वगैरहः लेनेसे वहां एक सरोवर होगया ॥ दइन्द्रने वहां प्रभुःका चरण स्थापित किया ॥ बाद प्रातःकालमें गौतमखामीके केवलज्ञानका उत्सवकरके सबदेव इ-15
कटे होकर नन्दीश्वरद्वीपमें अट्ठाई महोत्सवःकरके अपने अपने ठिकाने गए ॥ दूसरे दिन सुदर्शनाभगनी शोकदूरकरानेकेलिये नंदिवर्धनराजाको अपनेघर भोजनकराया ॥ तबसे लोकमें भाईबीजपर्वभया ॥ पहले लोगोंने रत्नमई दीपककीएथे बाद सोनेमई रूपमई क्रमसे पांचवेंआरेके प्रभावसे मट्टीमई दीपककरते हैं । ऐसा आर्यसुहस्तिसूरिने संप्रतिराजासे कहा हेराजन् यह दिवालीपर्व सब पर्यों में उत्तम कहाहै । लौकिक और लोकोत्तर यह पर्व माना जावे है। जैसे वृक्षोंमें कल्पवृक्ष देवोमें इन्द्र राजाओमें चक्रवर्ती नक्षत्रोंमें चन्द्रमाः तेजखिओमें सूर्य सर्वधातुओंमें|
॥४९॥ सुवर्ण काष्ठमें चन्दन बनोंमे नन्दनवन प्रधानहै वैसा सब पों में दिवालीपर्व श्रेष्ठ है ॥ दिवाली के दिन श्रीवीरप्रभु मोक्षगयेहैं ॥ और गौतमखामीको केवलज्ञान उत्पन्नभया है । इस कारणसे हे महाराज यह दिवालीपर्व सर्वसिद्धिके देने
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वालाहो ॥ ऐसा सुनके संप्रतिराजा आचार्यःको वन्दना करके अपने घरगया ॥ यावजीवपर्वआराधके सद्गति गया ॥ इसीतरहभव्योंको इस पर्वका आराधन करना ॥ छठ्ठपौषधसहित करना महावीरखामीका गुण स्मरण करना ॥ दिवालीकी रात्रिमें जागरन करना ॥ दिवालीके प्रभात स्थापनाचार्यःकी पूजाकरना गौतमखामीका एकासना करना ॥ इत्यादिपर्व आराधनकरतेभये भव्य जिनाज्ञाके आराधक होवेहै ॥
इति दिवालीव्याख्यानसम्पूर्ण ॥
अथ ज्ञानपंचमी व्याख्यान लिखते हैं। श्रीमत्पार्श्वजिनाधीशं, सुराऽसुरनमस्कृतम् । प्रणम्य परया भक्त्या सर्वाभीष्टार्थसाधकम् ॥ १॥ कार्तिक शुक्लपञ्चम्या, माहात्म्यं वर्ण्यते मया ।भव्यानामुपकाराय यथोक्तं पूर्वसूरिभिः॥२॥
अर्थः-देवदानव जिन्होको नमस्कार करते हैं और सर्ववांछितके साधनेवाले ऐसे श्रीपार्श्वनाथखामीको उत्कृष्ट भक्तिःसे नमस्कार करके भव्योंके उपकारकेलिये जैसा पूर्वाचायोंने कहाहै ॥ कार्तिकसुदीपंचमीका माहात्म्य उसीतरह मैं कहताहूं ॥ जगतमें ज्ञान उत्कृष्टहै ॥ सर्वप्रयोजनोंका साधनेवाला अनिष्ट वस्तु के विस्तारका निवारक ज्ञान कहाहै ॥ ज्ञानसे मुक्तिः पावेहैं । और देवलोकका सुख तो सुलभ है । इसलिये ज्ञान कल्पवृक्षके सदृश है ।
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ज्ञानपंचमी व्याख्यान.
भव्य पंचमीके आराधनसे ज्ञान पावेहे ॥ निश्चय इसकारणसे प्रमादको छोडकर विधिःसे पंचमीका आराधन करना ॥ दीवा०
गुणमंजरी और वरदत्तकुंवरने जैसेभावसे पंचमीका आराधन किया ॥ सो यहां उन्होंका दृष्टान्त कहते हैं । व्याख्या
| श्रीजम्बूद्वीपके दक्षिणार्धभरतक्षेत्रमें पद्मपुरनामका नगरथा। उसमें प्रसिद्ध कीर्तिः जिसकी ऐसा अजितसेननामका ॥५०॥1
राजा होता भया ॥ यशोमतिनामकी पटरानी उन्होंके रूप लावण्यसे शोभित वरदत्तनामका पुत्र हुआ ॥ कुंवरजब
आठवर्षका भया तब राजाने पंडितकेपास पढानेकेलियेरक्खा ॥ परन्तु कुंवरको अक्षरमात्रभी नहीं आवे ॥ अध्यादूपकका उद्यम निष्फलहुआ ॥जब अक्षर मात्रभी नहींआवे तो शास्त्रकी कथा तो दूर रही ॥ क्रमसे यौवनपाया तब
पूर्वकर्मके उदयसे कोढ़ भया ॥ सुख नहीं पावे ॥ राजारानीवगैरह दुःखीहुए ॥ बहुत उपाव किया परन्तु कोईगुण नहींहुआ ॥ और उसीनगरमें सातकरोड सोनइयोंका स्वामी जिनधर्ममेरक्तः प्रसिद्धः सिंहदास नामका सेठरहे ॥ उसके घरमें कपूरके जैसा निर्मल सुगंधितगुण जिसका ऐसी कर्पूरतिलका नामकी स्त्री उन्होंके गुणमंजरीनामकी पुत्री जन्मसेही रोगसे पीडित और वचनसे मूकायाने मूंगी बहुत औषध किया परन्तु रोगकी शांति भई नहीं ॥ यौवनअवस्थामें काई पर्णे नहीं ॥ सोलहवर्षकी भई ॥ उसको देखके मातापिता वगैरहः सब वजनदुःखी भये ॥ उस नगरके उद्यानमें एकदा चारज्ञानके धारणेवाले विजयसेनसूरि आचार्यआये ॥ तब सब नगरके लोग कुंवरसहितराजा और कुटुम्बसहित सिंहदाससेठ वन्दना करनेको आए ॥ राजा वगैरहः आचार्यको वन्दना नमस्कारकरके यथायोग्यस्थान बैठे आचार्यने धर्मदेशना प्रारंभकरी ॥
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AACANCRECRUARCORRECEM
ज्ञानस्याराधने यत्नोऽध्ययनश्रवणादिभिः। भव्यैर्विधेयः सततं निर्वाणपदमिच्छुभिः ॥ १॥ अर्थः-भव्योको अध्ययन श्रवणादि करके ज्ञानके आराधनमें निरंतर यत्न करना निर्वाणपदकी इच्छा करनेवाले ऐसे ॥१॥ मनसेभी जो ज्ञानकी विराधनाकरे वह मनुष्य विवेकवर्जित शून्यमन होवे ॥ और जो दुर्बुद्धि वचनसेज्ञानकी विराधना करे वह जन्मान्तरमें मुखरोगी मूकपना निःसंशय पावे ॥ जो कायासे यत्नवर्जित आशातना करे वह जन्मान्तरमें दुष्टकोढ वगैरहः रोगोंसे पीडितहोवे ॥ मनवचनकायाके योगसे जो मूर्ख ज्ञानकी विराधना करेहै ।
करावेहै । उन्होंके पुत्रः कलत्रमित्रधनधान्यादिकका विनाशहोवेहै ॥ आधिव्याधिका संभव होवेहै ॥ इससे अहो-2 है भव्यो ज्ञानकी आराधनाकरना विराधना करना नहीं ॥ इत्यादिदेशना सुनके सिंहदाससेठ आचार्यको वंदना करके
बोला ॥ हे भगवन् किस कर्मसे मेरी पुत्रीके शरीरमें जन्मसे रोगभया ॥ गुरु बोले हेमहाभाग कर्मोंसे क्यानहीं संभवेहै 8 अपितु सर्वसंभवहै । इसका पूर्वभव सुनो ॥ धातकीखंडके भरतक्षेत्रमें खेटकनामका नगरथा वहां जिनदेवनामकासेठ और उसके सुंदरीनामकी स्त्री थी। उन्होंके पांच पुत्र हुए आशवाल १ तेजपाल २ गुणपाल ३ धर्मपाल है ४ धनसार ५ चार पुत्रीभई लीलावती १ शिलावती २ रंगावती ३ मंगावती ४ एकदा जिनदेवसेठने पांचोंपुत्रोंको ४
पंडितकेसमीपमें विद्याकला ग्रहणके वास्ते रक्खा ॥ ३लड़का चापल्यकरें कीड़ाकरें ॥ अध्ययन करें नहीं पंडित
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दीवा० व्याख्या०
॥ ५१ ॥
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जब उन्हों की ताडना करे तब रोतेहुए घरआकर माता से आपना दुःख कहें ॥ तब माता बोली पढ़ने से क्याप्रयोजनहै | कहा भी है |
पटनाऽपि मर्तव्यं शठेनाऽपि तथैवच । उभयोर्मरणं दृष्ट्वा कण्ठशोषं करोति कः ! ॥ १ ॥ अर्थः- पढ़े जिसकोभी मरना है नहींपढे जिसकोभी मरना है दोनोंका मरणदेखके कौन कण्ठशोष करे | | दोहा - अणभणियां घोडे चढे भणियां मांगे भीख । भूलचूक भणना नहीं यही गुरूकी सीख ॥
पंडितको ओलंभादिया ईर्षासे पुस्तकपाटी वगैरह को जलादिया । और पुत्रोंसे कहा पढनेको जानानहीं ॥ | सेठ वह विचार जानके स्त्री से बोला हे भद्रे मूर्खपुत्रों को कन्या कौन देवेगा और वै व्योपार कैसे करेंगे। इस कारण कहा है।
माता वै पिता शत्रुर्वालो येन न पाठितः । न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥ १ ॥ विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । खदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥ २ ॥ अर्थः- जिन्होंने अपने पुत्रको नहीं पढाया है उस पुत्रकी माता वैरनी है ॥ पिता शत्रु है वह मुर्खपुत्र पंडितोंकी सभा में नहींशोभे है | जैसे हंसों की सभा में बक नहींशोहै ॥ १ ॥ और विद्वान् और राजा कभी भी नहीं सहश होते हैं ॥ कारण राजा अपने देशमें माना जाता है | परदेशमें कोई जाने नहीं विद्वान् खदेशपरदेश में सत्कार
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ज्ञानपंचमी व्याख्यान.
॥ ५१ ॥
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CRECENGACASSARKARMA
पातेहै ॥२॥ ऐसा सेठका वचनसुनके सुंदरी बोली॥ आप क्यों नहीं पढ़ातेहैं ॥ पुत्र पिताके आधीन होते है ॥ पुत्री माताके अनुगामिनी होवेहै ॥ ऐसा कहके सेठको चुपका करदिया सेठ मौनधारके रहा ॥ बाद पांचो लड़के बडे हुए ॥ यौवनअवस्था पाई॥ परन्तु कन्या कोई देवे नहीं जिसके पास कन्यामांगे वह ऐसा सुनावे मूर्ख निर्धन है दूरस्थ ॥ इत्यादि ॥ अहो सेठ तुमने क्यानहीं सुनाहै मूर्ख १ निर्धनः २ दूररहा हुआ ३ कन्यासे तीनगुणा अधिक वर्षवाला ४ शूरवीर ५ विरक्तः ६ इन्होंको कन्या देनानहीं ॥ ऐसा सुनके सेठ स्त्रीसे बोला हे प्रिये तैने पुत्रों को मूर्खही रख दिये इससे कोई कन्या नहींदेताहै ॥ तब सुंदरी बोली इसमें मेरा दोपनहीं तुह्माराही दोष है । सेठ-४ बोले अरे पापिनी सन्मुख बोलतीहै ॥ स्त्रीबोली तेरा पिता पापी जिसनें तेरको सिखाया नहीं कहाहै ॥
आः! किं सुंदरि ! सुन्दरं न कुरुषे ! किं नो करोषि स्वयं ! आः! पापे! प्रतिजल्पसि प्रतिपदं! पापस्त्वदीयः पिता । धिक् त्वां क्रोधमुखीमलीकमुखरां त्वत्तोऽपि कः कोपनो ॥
दम्पत्योरिति नित्यदन्तकलहक्लेशातयोः किं सुखम् ? ॥१॥ अर्थ:-हे सुंदरि खेदकी बातहै यह तें अच्छा नहीं करतीहै ॥ तव सुंदरी बोली तें आप क्यों नहीं करताहै। सेठ
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दीवा०
व्याख्या०
॥ ५२ ॥
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बोला अरेपापिनी हरवक्त सामने बोलती है ॥ सुंदरी बोली पापी तेरा बाप || सेठ बोले धिक्कार हो तेरेको क्रोधमुखी झूठ बोलनेवाली वाचाल || सुंदरी बोली तेरेसे जादा कौन क्रोधी है | स्त्री भर्तार के ऐसा निरंतर कलह होवे तो क्या सुखहोवे | ऐसा वचनसुनके जिनदेव सेठ नाराज होके पत्थरका प्रहार किया मर्मस्थान में लगा तब सुंदरीमरके तेरी| पुत्री भई | इसने ज्ञानकी आशासना पूर्वभव में करी इससे रोगोत्पत्ति भई ॥ कहाभी है ॥
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ॥ १ ॥
अर्थः-किएहुए कर्मोंका सैकडो करोड कल्पजाने सभी क्षय नहीं है | किया हुआ शुभ अशुभ कर्म अवश्यही भोगना होवे है | ऐसा गुरूका वचनसुनके गुणमंजरीको जातिस्मरणज्ञान हुआ || पूर्वभवजानके बोली अहो गुरुका वचन सत्य है || बाद सेठने गुरूसे पूछा हे भगवन इसकारोग कैसेजावेगा गुरु बोले हेथेष्ठिन् ज्ञानके आराधनसे सब सुख होवे है || दुःखका नाश होवैहै ॥ ज्ञानका आराधन इस प्रकार से हो वे है | विधिसे शुक्ल पंचमीको उपवास करके पट्टे पर पुस्तकस्थापके आगे स्वस्तिक करे ॥ पांचबत्तीका दीपक करे || पांचफल और पांचवर्णका धान्य चढ़ावे ॥ पांच वर्ष पांच महीनों तक यह तपकरे ॥ मन वचनकायाकी शुद्धिकरके पंचमी आराधना ॥ जो महीनेमहीने में करनेको नहीं समर्थ होवे तब कार्तिकशुक्ल पंचमी यावज्जीव आराधे अच्छीतरह आराधा हुआ पंचमीका तप सर्वसुख देवेहै ॥ | ऐसा गुरूका वचन सुनके सिंहदाससेठ बोला हे भगवन् मेरी पुत्रीकी महीने महीने में तपकरनेकी शक्ति नहीं है ॥
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ज्ञानपंचमी व्याख्यान.
॥ ५२ ॥
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| इससे कार्तिक शुक्ल पंचमीका विधिः कृपा करके कहो ॥ आचार्य बोले कार्तिकसुदी पंचमी के दिन पुस्तक पट्टेपर स्थापके सुगन्ध पुष्पोंसे पूजके आगे धूप रक्खे ॥ पांचवर्णके धान्यका पांच या इक्कावन स्वस्तिककरे ॥ पांचरंगके पक्वान्न और पांचफल चढ़ावे ॥ ज्ञान पूजाकरे यथाशक्ति द्रव्य चढ़ावे ॥ बाद गुरुकेपास जाकर विधिपूर्वक वंदना करके पञ्चक्खानकरे | उसदिन उत्तर सन्मुखबैटके ॐ ह्रीं नमोनाणस्स इसपदका दोहजार (२०००) गुणनाकरे ॥ जो पंचमी के दिन पौषधकरे तो पुस्तकपूजा वगैरहः विधिपारनेके दिन करना ॥ तपपूर्ण होनेसे यथाशक्ति उज्जवना करना ऐसा आचार्यः का वचन सुनके गुणमंजरीने पंचमीका तप अंगीकार किया । इस अवसरमें राजाने प्रश्नकिया ॥ हे भगवन् मेरे वरदत्त पुत्रके कोढ़रोग कैसे उत्पन्न हुआ अक्षरमात्र भी पढ़नहीं सके है इसका क्या कारण है ॥ | गुरू बोले कुंवरका पूर्वभव सुनो जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र में श्री पुरनामका नगर था वहाँ वसुनामका सेठ रहता था उसके वसुसार, वसुदेवनामके दोपुत्र थे । वे एकदा क्रीड़ा करनेकेलिये वनमेंगये | उसवनमें मुनिसुन्दर नामके आचा र्य देखे और वन्दना किया | गुरूने धर्मदेशना दिया सो कहते हैं ।
यत्प्रातः संस्कृतं धान्यं मध्यान्हे तद् विनश्यति ॥ तदीयरसनिष्पन्ने काये का नाम सारता ॥ १ ॥ अर्थः- जो प्रातः काल में संस्कार कियाहुआ धान्य मध्यान्हमें बिगड़ जाता है उष्णरसवति में जो खाद है । सो ठंडा होनेपर नहीं रहता है | उस धान्यके रससे निष्पन्न हुआ शरीरमें क्या सारपना है । इत्यादिदेशना सुनके पितासे पूछके
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दीवा. 13/दोनों भाईयोंने वैराग्यसे दीक्षालिया ॥ छोटा वसुदेवचारित्र पालताहुआ सब सिद्धान्तका सार अध्ययन किया ॥ज्ञानपंचमी व्याख्या गुरूने वसुदेवको आचार्यःपद दिया ॥ वसुदेवाचार्यः पांचवें साधुओंको वाचनादेवे ॥ एकदा वसुदेव आचार्य के व्याख्यान.
है शरीरमें रोग भया संधारेपर सोते हुएथे एकः साधु आके सूत्रका अर्थ पृछा गुरूने अर्थ कहा वह साधु गया है ॥५३॥
उतने दूसरा साधु आया उसकोभी अर्थकहा ॥ ऐसे बहुत साधुआके पृछ पूछकेगये ॥ तव आचार्यको निद्रा ६ आतीथी किसीसाधुने पूछा हे भगवन् इसके आगेका पदकहो इसका अर्थभी कृपाकरके कहना ऐसा सुनके 8 *आचार्यने मनमें विचार किया अहो मेरा बड़ा भाई कृतपुण्य है मूर्ख होनसे कोईनहीं पूछताहै ॥ अपनी इच्छामाफक
भोजन करताहै सोताहै ॥ इसीसे मूर्खपने में बहुतगुणहै ॥ कहाभीहै ॥ मूर्खत्वं हि सखे! ममापि रुचितं तस्मिन् यदष्टौ गुणा,निश्चिन्तो बहुभोजनोऽत्रपमना नक्तं दिवाशायकः। कार्याकार्यऽविचारणान्धबधिरो मानापमाने समः, प्रायेणाऽऽमयवर्जितो दृढवपुर्मूर्खः सुखं जीवति ॥१॥ ___ अर्थ:-हे सखे मूर्खपना मेरेकोभी रुचाहै ॥ इसमें आठ गुणहै ॥ मूर्ख निश्चन्त रहताहै १ बहुत भोजन करताहै
॥५३॥ २ रातदिनमें बहुत सोताहै ॥ ३ कार्याऽकार्य विचारने में अन्धा और बहिरेके जैसाह ४ मान अपमानमें सरीखा रहताहै ५ प्रायः रोगरहित होताहै ६ जिसको लजा नहीहोतीहै ७ शरीर मजबूत होताहै ॥ ८ ऐसा मूर्ख सुखसे
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जीताहै ॥ १॥ आचार्यने ऐसा कुविकल्पसे विचारा कि किसीको पदमात्रभी नहीं कहूंगा नहींपढ़ाउंगा पढाहुआनहीं यादकरूंगा ॥ बाद आचार्यःका शरीर जादा रोगाकान्तहुआ बारह दिनका मौन करके उस पापको नहीं आलोयके आर्त ध्यानसे मरके हे राजन् यह तुम्हारापुत्र हुआ। पूर्वोपार्जित कर्मसे अत्यन्तमूर्ख और कोढ वगैरहः । रोगोंसे पीड़ित शरीर हुआ । ऐसा गुरूका वचनसुनके वरदत्तकुमरको जातिःस्मरणजनित मू भई अपना पूर्वभवदेखके क्षणान्तरमें सावचेतभया ॥ और गुरूसे बोला हेभगवन् आपके वचन सत्य हैं तव राजाने आचार्य से कहा हेभगवन् यह रोग किसप्रकारसे मिटेगा ॥ गुरू बोले हेमहाराज कार्तिकसुदीपंचमी आराधनी पूर्वोक्त सबविधि कहा ॥ कुमरने पंचमीका तप अंगीकार किया ॥ और लोकोनेभी पंचमीका तपखीकार किया ॥ बाद गुरूको नमस्कार करके सबलोग अपनेठिकाने गये ॥ अनन्तर सम्यक् तपकरते हुए वरदत्तकुमरके सवरोग शान्त होगये ॥ खयंवर आईहुई राजालोगोंकी १हजारकन्यापाणिग्रहणकरी सब कलासीखी अजितसेनराजा वरदत्तकुमरको राज्यदेके गुरूके पासमें चारित्रग्रहणकिया ॥ वरदत्तराजा राजपालताहुआ वर्षवर्षमेंबड़ीशक्तिभक्तिःसे पंचमीका आराधनकरताहुआ ॥ अखंडआज्ञा जिसकी ऐसा राज्यपालके भुक्तभोगीहोके अपने पुत्रको राज्य देके दीक्षालिया। इधरसे गुणमंजरीके तपके प्रभावसे रोग सवगया ॥ अद्भुत्रूपहुआ जिनचन्द्रव्यवहारीको पर्णाई ॥ हतलेवा 8 छुड़ानेके वक्त पिताने बहुतधनदिया ॥ बहुत कालतक सांसारिकसुख भोगवके यावज्जीव पंचमीका तपकरके अंतमें
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दीवा० चारित्रग्रहणकिया ॥ बाद वरदत्तराजऋषिः और गुणमंजरीसाध्वी चारित्रपालके कालकरके वैजयन्तविमानमें ज्ञानपंचमी व्याख्या०पददेव भये ॥ वहांसे च्यवके वरदत्तका जीव महाविदेहक्षेत्रमें पुंडरीकनी नगरीमें अमरसेनराजा गुणवतीरानीके पुत्र व्याख्यान.
हुआ ॥ शुभदिनमें सूरसेन नामकिया॥ क्रमसे यौवन अवस्थापाया सौ (१००) कन्याओंका पाणिग्रहण किया। ॥५४॥
पिताने राज्यदिया शूरसेनराजा हुआ नीतिःसे राज्य पालता हुआ॥ एकदा श्रीसीमन्धरस्वामी बिहार करतेहुए वहाँ दू समवसरे तीर्थंकरका आगमन सुनके शूरसेनराजा बांदनेको आया ॥ भगवान्ने धर्मदेशना प्रारंभ करी ॥ सौभाग्य 3 है पंचमीके तपका फल कहा बाद राजाने पूछा हेभगवन् किसने यह तपकिया और फलपाया तब भगवान्ने वर
दत्त राजा और गुणमंजरीका दृष्टांत कहा ये सुनके जातिःस्मरण पाया पूर्वभव देखा पंचमीका तप ग्रहण किया ॥ दशहजार (१००००) वर्ष राज्यपालके तीर्थकरके पास दीक्षालेके १ हजार वर्षतक (१०००) चारित्र है पालके केवलज्ञान पाके मोक्षगया ॥ गुणमंजरीका जीव सुखभोगवके देवलोकसे च्यवके रमणीक नामके विजयशु
भानगरी अमरसिंह राजाकी अमरवतीरानीकी कुक्षिमें पुत्र उत्पन्नहुआ समयमें जन्महुआ पिताने सुग्रीवनाम दिया है क्रमसे यौवनअवस्था पाई बहुतसीकन्याओंका पाणिग्रहणकिया। वीसवें वर्ष में पिताने राज्यदिया और दीक्षा लीया ॥ ५४॥ सुग्रीवराजा बहुतवर्षतक राज्यपालके गुरूके पास दीक्षालेके ॥ एकलाखपूर्ववर्ष चारित्र पालके केवलज्ञानपायके मोक्षगया ॥ पंचमीके आराधनसे अधिक सौभाग्य मनुष्योंके होवेहै । इस कारणसे पंचमीका सौभाग्यपंचमी ऐसा
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लोकमें नाम प्रसिद्धहुआ ॥ ऐसा जानके अहो भन्यो भवभयको दूरकरनेकेलिये पंचमीके आराधनकरने में उद्यम
करना ॥ इतने कहनेका कार्तिक शुक्लपंचमीके माहात्म्यमें वरदत्तगुणमंजरीका कथानक कहा ॥ इति ज्ञानपंचमी द ब्याख्यान सम्पूर्ण ॥
अब कार्तिक पूर्णिमाका व्याख्यान लिखतेहैं ॥ 2 श्रीसिद्धाचल तीर्थेशं, नत्वा श्रीऋषभं प्रभुम् । कार्तिकपूर्णिमायाश्च, व्याख्यानं वक्ष्यते मया॥१॥
सिद्धोविजायर चक्कीनमिविनमिमुनि पुंडरीओमुणीदो।बालीपजुन्न संबोभरहसुकमुनि सेलगोपंथगोय।। हरामोकोडीपंच द्रविड नरवई नारओ पण्डुपुत्ता।मुत्ताएवं अणेगे विमलगिरिमहं तित्थमेयं नमामि ॥२॥ | श्रीसिद्धाचल तीर्थकेखामी श्रीऋषभदेवप्रभुको नमस्कार करके कार्तिकपौर्णिमाका व्याख्यान कहताहूं ॥१॥
अहो भन्यो पापरूपकर्मका हरनेवाला श्रीविमलाचलतीर्थको मन वचन कायाकरके नमस्कारकरताहूं ॥ कैसाहै है ४/विमलाचलतीर्थ कि जिसतीर्थपर विद्याधरचक्री नमिबिनमिराजा पुण्डरीकगणधर, वालीऋषिः प्रद्युम्नः,
साम्बकुमारऋषिः भरतराजा शुकमुनिः सैलकराजर्षिः पंथकमुनिः रामचंद्र द्राविड वारिखिल्ल दशकरोड मुनियोंके 5 बाबा साथ, नवनारद, पांडव वगैरहः बहत मुनि अनशनकरके आठकर्मरूप शत्रुओंका विनाशकरके मोक्षगये ॥ ऐसा सिद्ध
SRIGANGACASSACRORE
HOCARAMETERब-कर
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दीचा. व्याख्या
॥ ५५॥
पूर्वलाखा क्रमसे भरतवाज्यपाल
शैलातीर्थको नमस्कारहो ॥ और जिसतीर्थमें कार्तिकपौर्णिमाके दिन यात्राकरे सो बहुतफलपावे ॥ शत्रुजयगिरिके ही
कार्तिक सामनेजाकर चैत्यवंदनकरनेमें बहुतधर्मवृद्धि होवेहै ॥ और कार्तिकपौर्णिमाके दिन सिद्धाचलके ऊपर दशकरोड़ पौर्णिमा
मुनियोंकेसाथ द्राविड वारिखिल मोक्षगये हैं उन्होंका दृष्टांत कहतेहैं । इस जम्बूद्वीपमें दक्षिणभरतार्धके मध्यखंडमें व्याख्यान. * इक्ष्वाकुभूमिमें इस अवसर्पिणीमें तिजे आरेके अंतमें सातवां कुलगर नाभिनामका हुआमरूदेवानामकी स्त्री थी उन स्त्रीके ४
उदर कन्दरामें श्रीऋषभदेव पहलातीर्थकर उत्पन्नहुआ वह छै पूर्वलाखवर्ष कुमरपदमें रहे बाद इन्द्रने सुनन्दा सुमंगलाट दादो कन्या पाणिग्रहणकराई। स्वामीने संसारका व्यवहार प्रवाया ॥ क्रमसे भरतबाहूबलिः प्रमुख सो (१००) के पुत्र दो पुत्रीभयी जब २० लाख पूर्व गया तब खामी राजाभये ॥ ६३ पूर्वलाखवर्ष राज्य पालके दीक्षाका अवसर
जानके भरतकों अयोध्याका राज्य देकर बाहुबलिको तक्षशिलाका का राज्य दिया ऐसे क्रमसे पुत्रों के नामका देश वसाके सौ पुत्रको राज्यदिया । उन्होमें एक द्रविड़नामका पुत्र था उसको द्रविणदेश और कंचनपुर नगर वसाके
icom५५॥ ते दिया स्वामीने दीक्षालिया ॥ क्रमसे कर्मक्षय होनेसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। भगवान् करोड़ों देवोंके परिवारसहित
साधुसाध्विओंके समुदायसहित देशोंमें विहारकरके धर्मवृद्धिकरी ॥ और द्रविडराजाभी पिताका दियाहुआ राज्यभोगवता हुआ ॥ अपनी स्त्रियोंकेसाथ विषयसुख भोगवते क्रमसे दोपुत्र हुए ॥ बड़ा पुत्र द्राविड छोटा वारिखिल्ल क्रमसे भोगसमर्थ जानके दोनोंपुत्रोंको पाणिग्रहण कराया ॥ पुत्रोंकेभी पुत्रभये वहभी चन्द्रकलाके जैसा
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वृद्धिःप्राप्तभये इस प्रकारसे द्रविडराजा अपना राज्य सुखसे पालताथा उस अवसरमें भरतराजाने अपनीआज्ञा म-18 नानेकेलिये अट्ठानवेभाइयोको दूत भेजे द्रविडराजाने दूतके मुखसे भरतका चक्रवर्तीपदका खरूपजानके इसीतरहसे है सबभाई इकट्ठे होकर अपने अपने पुत्रको राज्य दिया । तब द्रविडराजानेभी अपने बड़ेपुत्र द्राविडको राज्य दिया । छोटे वारिखिल्लको १ लाख गांव अलगदिया आप संसारकी वासनाको छोड़कर और भाइयोंकेसाथ ऋषभदेव खामीके पास दीक्षा लिया॥ तपकरताहुआ केवलज्ञानपाया और द्राविड़राजापिताका दियाहुआराज्यपालताहुआरहा वारिखिल्लभी पिताके दिएहुए गांवोंकी रक्षाकरे ॥ कितने वर्षगए उस अवसरमें द्राविडराजाके मन में ऐसा विचारहुआ। मेरे पिताने दीक्षाके समयमें लाखग्राम दिया सो अच्छानहीं किया। मेरा राज्य कम होगया परन्तु मैं इसके । पाससे लाखगांव जबरदस्तीसें लेउंगा ऐसा विचारके अपनी सेना इकट्ठीकरके युद्धकेवास्ते चला ॥ तब वारिखिल्लभी
भाईके आनेका वृतान्तसुनके अपना सैन्यलेके सामनेचला ॥ अपनेदेशकी सीमारोकी परस्पर दोनोंका महायुद्ध है हुआ॥ और बहुत हाथी घोड़ा मनुष्य मारेगए लोहूकी नदीवही ॥ सात महीनोंतक संग्रामहुआ १० करोड़ मनुष्य
मारेगए । वर्षाऋतु आई संग्रामबन्द होगया द्राविडराजा वनमें क्रीडाकरनेके वास्ते गया ॥ वह वन अनेकआमाकदली, नीम, कदम्बादि गुल्मलतापत्र, पुष्प, फल वगैरहा वन समूद्धिःसे शोभमान और सरोवरझरनोंसे शोभित वनदेखता हुआ जाताहै। उतने उसीवनके मध्यभागमें तापसगणसे शोभित कुलपतिकोदेखा ॥राजा घोड़ेसे उतरके
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तह सो कहते हैं हमामी राज्यपाकर वह तुम्हारी ऊर्ध्वगति राज्यके जो सात
दीवा०
योग्यस्थान देखके बैठा । उस अवसरमें कुलपतिने राजाको धर्मोपदेश दिया उसमें संसारकी असारता बताई ॥ और कार्तिक व्याख्या०/कहा तें अपने छोटेभाईके साथ राज्यकेवास्ते संग्राम करताहै यह क्या युक्त है कारण राज्यके जो सात अंग और पौर्णिमा
राज्यचिन्ह ये अधोगतिः जाना कहतेहैं ॥ छत्र यह सूचना करताहै तुम्हारी ऊर्ध्वगति बंध होगई चमर यह कहते दिव्याख्यान. ॥५६॥
1 हैं कि जैसे हम ऊपर जाकर नीचे आतेहैं ऐसे तुमभी राज्यपाकर बहुत ऊपर आयेहो जो सुकृत नहीं करोगे तो नीचे-12 | जानाहोगा ॥ हाथी कान चलातेहैं सो कहतेहैं हमारे कानके जैसी राज्यलक्ष्मी चंचल है ॥ घोड़ा अपनीपूंछ चलाता|5|| हुआ कहताहै कि राज्यलक्ष्मी चंचल है ॥ ऐसी राज्यलक्ष्मीके वास्ते अपने भाईकेसाथ संग्राम करना अनुचित है। | ऐसा सुनके द्राविण बोला भरतबाहुवलिनेभी राज्यके वास्ते परस्पर बारहवर्ष संग्राम कियाहै । तब कुलपति बोला तुम अपने पूर्वजोंकी निंदा करतेहो ॥ भरतने बाहुबलि के साथ राज्यके वास्ते संग्राम नहींकिया किंतु चक्ररल आयुधशालामें प्रवेश नहींकरताथा ॥ इसवास्ते संग्राम किया । तें तो राज्यके लोभसे संग्रामकरताहै । मैंने श्रीऋषभ देवखामीके साथमें दीक्षा लीथी। स्वामी तो बारह महीनोंतक मौनमें रहे और आहारनहींमिला तथापि विचरते रहे ॥ हम लोगोंसे निराहार नहींरहागया तब वनमेकन्दमूलका अहार करते तप करतें वनमें रहते हैं इस लिये| भरतबाहुबलिःका दृष्टांत यहां देना नहीं ॥ और राज्यके वास्ते भाईकेसाथ संग्राम करना नहीं ॥ राज्यलक्ष्मी कैसी है सो कहतेहैं ॥
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गयकन्नचञ्चलाए अपरिचत्ताए रायलच्छीए । जीवासकम्मकलिमल भरियभरातो पडन्ति अहे ॥१॥ अर्थः-हाथीके कान जैसी चंचल राज्यलक्ष्मीका नहीं त्याग करनेसे जीव कर्मरूपकादेके भारसे भारीहुआ नरकमेंजावेहै इत्यादि धर्मोपदेश सुनके संसारको असार जानके क्रोधको छोड़के ऐसा विचारताभया॥ अहो मेरे जीवतव्यको धिक्कार हों एकही मेरेभाई है उसके साथ मैंने युद्धः किया ॥ यह अनिष्ट किया थोड़े जीनेकेवास्ते वैर कियाजावेहै। राज्यके लोभसे अपने भाईयोंसे संग्रामकरें। यह सब अकार्य है । ऐसाविचारके द्राविड तापसाश्रमसे उठके अपने 1 भाईके पासगया ॥ वारिखिल्लभी बड़ेभाईको आताहुआ सुनके सामने जाके पगोंमें पड़ा । तब द्राविड़राजा अश्रुपूर्णनेत्रस्नेहसे आर्द्रहृदय ऐसा वारिखिल्लको उठाकरऐसे बोला हेभाई मेरा राज्य तैले मैं तापसीदीक्षा लूंगा ॥ तब वारिखिल्लबोला जब तुम दीक्षालेओं तो मेरेराज्यसे क्या प्रयोजनहै मैंभी दीक्षालेउंगा बाद अपने पुत्रकों राज्य देकर द्राविड़ वारिखिल्लने दशकरोड़ क्षत्रियोंके परिवारसे तपोवनमें जाके कुलपतिःके पास तापसीदीक्षा लिया॥ आतापना सूर्यके सामने करे ॥ कन्दमूलादिकका आहार करता भोजपत्रका वस्त्रपहरता तपकरनेसे दुर्बलशरीर हुआ ॥ ऐसे करते बहुतकाल गया उस अवसरमें कईकसाधुः तीर्थयात्राके लिये जातेहुए उस वनमें आये ॥ द्राविड वारिखिल्लने मुनियोंको देखके बहुत आदरसे नमस्कार किया ॥ साधुभी गमनागमन आलोयके भूमिप्रमार्जके वृक्षके नीचेबैठे ॥ द्राविड वारिखिल्ल वगैरहः तापस सामनेबैठे ॥ उतने एक हंस बीमार मूर्छितहोके पड़ा
SAUSASSASSASSASSHOSES
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दीवा०
व्याख्या०
॥ ५७ ॥
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जब वह सावचेतहुआ मुनियोंने उसका अल्पआयुः जानके नवकार सुनाया और बिमलाचलका महिमाकहा | उस हंसने मुनिः के वचनधारे उसके प्रभावसे वह हंस मरके पहले देवलोक में देवभया || थोड़ी वक्त के बाद मुनियों के पास आके नमस्कार करके आगेबैठा | उस अवसरमें देवकी ऋद्धि और रूप देखके द्राविड वारिखिलने मुनियोंसे पूछा हे भगवन् यह अत्यन्तरूप कान्तिः के धारनेवाला कौनदेव है । तब मुनि बोले यह हंसकाजीव नमस्कार सुनने से तीर्थराजशत्रुंजयका महिमाघारने से देवभया इसवक्त शत्रुंजयकी यात्राकरके यहां आया है | ऐसा सुनके तापसोंने पूछा हे खामिन् विमलाचलतीर्थ कहां है और कैसा है उसकामाहात्म्य हमारेऊपरकृपाकरके सुनावो ॥ तब मुनिवोलेकि जम्बूद्वीप के दक्षिणार्ध भरतमें सोरठदेशका मंडन १०८ नाम है जिसका ऐसा शत्रुंजयनामका महातीर्थ है और शत्रुंजय १ पुंडरीकर २ सिद्धक्षेत्र ३ विमलाचल ४ सुरगिरिः ५ ॥ महागिरिः ६ श्रीवृंद ७ इन्द्रप्रकाश ८ महातीर्थ ९ इत्यादि इक्कीसनामइसके प्रसिद्ध हैं । यह पर्वतनाम निक्षेपसे शाखता है ॥ अनंतकालकी अपेक्षासे सिद्धशैलपर अनंतेमुनि मोक्षगये हैं | अतीत उत्सर्पिणीकालमें सम्प्रतिनाम चौबीसवां तीर्थकरों के प्रथम गणधर कदम्बनामके करोड़ मुनियों के साथ मुक्तिगये | वर्तमानकालमें पहलातीर्थकरका प्रथमगणधर पुंडरीकनाम के चैत्री पौर्णमासी केदिन पाँच करोड मुनियों के साथ शत्रुंजयपर शिवपुरीको गए । इससे पुंडरीकगिरि ऐसा नाम कहाजावे || फाल्गुनसुदी दशमीको दोदोकरोड़ मुनियोंके परिवारसे नमि विनमि विद्याधर राजर्षिः सिद्धाचलपर मोक्षगए | और नमिः
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कार्तिक पौर्णिमा व्याख्यान.
॥ ५७ ॥
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SANSKRROROSSA
विनमिः राजाकी चौसटपुत्री चैत्रवदी चतुर्दशीके दिन अनशन करके सद्गतिगई। इस कारणसे मोक्षमंदिर चढने में सोपानसदृश यह तीर्थ है ॥ और पापरूपमैल धोने में पानीके सदृश जानना ॥ इसलिये विमलगिरि ऐसा इसका, नाम है ॥ और पापशत्रुको जीतनेमें महासुभटके जैसा जानना ॥ और जिसने मनुष्यभव पाके शत्रुजय जाके आदीश्वरकी भक्तिःपूर्वक द्रव्यभावपूजा नहींकिया उसने मनुष्यभवपशूके जैसा हारदिया॥जो तीर्थयात्राका उत्साह अपने हृदयमें धारके श्रीशत्रुजयजाके यात्राकरे उसका जीवित सफलहोजाय ॥थोड़े कालमें शिवसुख पावे ॥ ऐसे गुरुमुखसे सिद्धगिरिःका महिमा सुनके सिद्धाचलकीयात्रावास्ते दशकरोड़मुनिसहित द्राविड वारिखिल्ल वल्कल चीवर धारतेभए ॥ तापस अपने गुरूकीआज्ञा लेकर शत्रुजयतरफ चले ॥ मुनीभी अन्यत्र विहारकरगये॥ द्राविड़, वारिखिल क्रमसे चलतेहुए परिवारसहित शत्रुजय पहुंचे ॥ भावसे साधुधर्म अंगीकारकरके चारमहीनोंका उप-द वासकरके शजयपर चौमासा रहे ॥ तपकरतेभये संयमसे आत्माको भावनकरते शुभध्यानयोगसे कर्मराशिको । दूरकरके चतुर्मासिके अंतदिनमें अर्थात् कार्तिकपौर्णमासीके दिन शुक्लध्यान ध्यातेभये क्षपकश्रेणीकरके घनघाती चारकोका क्षयकर केवलज्ञान केवलदर्शन पाके सर्व लोकालोकको जानते भये अयोगी चौदहवां गुणठानास्पर्शके अधातीकर्मका क्षयकरके द्राविड वारिखिल्ल राजर्षि दशकरोड़ मुनियोंके साथ मोक्षगये ॥ अचल अक्षय शिव निरुपद्रवपद पाया इस कारणसे कार्तिक पूर्णिमा अतीव उत्तम पर्व हे ॥ इसलिये कार्तिकपौर्णमासीके दिन श्रीश
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दीवा० व्याख्या
॥५८॥
@जयकी यात्रा करनेसे बहुतलाभ होवेहै । सौसागरप्रमाणे नरकयोग्य कर्मका नाश होवेहै ॥ ब्राह्मण स्त्री, मौन एकाबालक, ऋषिः इन्होंकी हत्याके पापसे छूटेहै । इसलिये कार्तिकी उपवास करके यात्रा करना परम श्रेयहै ॥
दशीका कदाचित् यात्रानहीं करसकेतो बड़े आडंबरसे शत्रुजयकेसामने श्रीयुगादि देवकीप्रतिमा रथमें स्थापके रथयात्राकरे॥ व्याख्यान, मात्रपूजा महोत्सवादि करनेकर चैत्यवंदन खमासमण वगैरहः विधिः करनेसे बहुतकर्मकी निर्जरा होवेहै ॥ बहुत पुण्यवृद्धिः होवेहै । इस कारणसे कार्तिक पूर्णिमाके दिन पूजा, प्रभावना, पौषधादि करनेकर दिन सफल करना॥5 पर्व आराधन करनेसे प्राणी कल्याण पावेहै । इतने कहनेकर कार्तिकपूर्णमासीका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब मौन एकादशीका व्याख्यान लिखते हैं। अरस्य प्रव्रज्या नमिजिनपतेर्ज्ञानमतुलं, तथा मल्लेर्जन्मव्रतमपमलं केवलमलम् ।
वलौकादश्यां सहसि लसदुद्दाम महसि, क्षितौ कल्याणानां क्षिपतु विपदः पञ्चकमदः ॥१॥ अर्थः-अठारहवां अरनाथतीर्थकर ने दीक्षालिया ॥ इक्कीसवां नमिनाथखामीको केवलज्ञानउत्पन्न हुआ अनुपम और उगणीसमा मलिनाथखामीका जन्म मलरहितदीक्षा निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न भया कैसा केवलज्ञान
॥५०॥ सर्वद्रव्यगुणपर्याय जानने में समर्थ ॥ तेजवान मगसरसदी ग्यारसको पांच कल्याणक हुआ ॥ सो विपदाको दूरकरो
॥ कल्याण पर्णिमा रिहः विधि,
SARAMERASACSCGARCASE
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॥ १ ॥ जैसे इस भरतक्षेत्र में पांच कल्याणक हुए || वेसैहीपांचभरतक्षेत्र में पांच ऐरवत क्षेत्रमें यह दश क्षेत्रके मिलानेसे पच्चास (५०) कल्याणक भया । इस प्रकारसे अतीत वर्तमान अनागत कालकी अपेक्षा डेढ़सौ कल्याणक भया इस मगसरसुदि ग्यारसको उपवास करनेसे डेढ़ से उपवासका फल होता है | इस दिनमें उपवासकरके मौनधारके अठपहरीपोपहकरके रहना भणना गुणना वगैरहः स्वाध्यायकरना और कुछ बोलना नहीं ॥ पारने उत्तरपारनेके दिन एकाशना करना || पारनेके दिन मंदिरजाके तीर्थकरके आगे फलचढ़ा के भावसे जिनपूजा करना ॥ बाद में गुरूके पासजाके बंदनाकरके ज्ञानपूजा करके साधुओंको पड़ि लाभके पारना करना । इस प्रकारसे ग्यारह वर्ष (११) महीनापर्यंत व्रतकरना ॥ बारहवें वर्ष में तप पूरण होनेसे पौषधपारके गुरूको वंदनाकर तीर्थकरके आगे ग्यारह पक्कान्न ग्यारह फल ग्यारह प्रकारका धान्य औरभी सुंदर वस्तु ग्यारह ग्यारह चढ़ाना || जघन्यवी ग्यारह | श्रावकाका वात्सल्यकरना || संघपूजा, ग्यारह पुस्तकोंका लिखाना इस प्रकारसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र उपयोगी - इग्यारह इग्यारह उपकरण करके उद्यापन करना ॥ उज्जवना करनेसे तपप्रमाणफलदायक होये है ॥ जैसें मंदिरबनाके कलश, दण्ड ध्वजा चढ़ानेसे मंदिर सम्पूर्ण कहाजावे है | वैसे उज्जवना करनेसे तप सम्पूर्ण होवे है | यहां कथानक कहते हैं || एकदा प्रस्तावमें श्रीनेमिनाथस्वामी ग्रामानुग्राम विचरतेभये आकाशगत छत्रचामरोंकर के | शोभित सोनेके कमलपर चलतेहुए भगवान् द्वारिकानगरीके बाहिर रेवताचल उद्यान में समवसरे ॥ नगरके
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दीवा० व्याख्या
॥ ५९॥
लोग बांदनेको आए ॥ श्रीकृष्णवासुदेवः बड़ीऋद्धिःसे बांदनेको आए तीनप्रदक्षिणादेके वंदनानमस्कार है। मौन एकाकरके बोले ॥ हे खामिन् एकवर्षके तीनसैसाठ दिन होतेहे ॥ उसमें कृपाकरके एकदिन ऐसा बताओ कि उसको दशीका आराधके दान, शील, तप, व्रत शक्तिहीनभी मैंहूं सो मेरा निस्तार होवे ॥ तब भगवान् बोले हे वासुदेव जब व्याख्यान. ऐसा है तो तुम मगसरसुदी ग्यासको आराधो ॥ कहाहै ॥ अपि मिथ्यादृशां मान्या, सा मौनैकादशीतिथिः । मार्गशीर्षाख्यमासस्य शुक्लपक्षे प्रकीर्तिता ॥१॥ तत्र पुण्यकृतं स्वल्पमपि प्रौढफलं भवेत् । तस्मादाराधनीया सा विशेषेण विशारदैः ॥ २॥ सर्वेभ्योऽपि च पर्वेभ्यः, पर्वपर्युषणाह्वयम् । दिनेभ्योऽप्यखिलेभ्योयं, तथा मुख्योऽस्ति वासरः॥३॥
श्रमणैः श्रमणीभिश्च, श्रावकैः श्रावकादिभिः । धर्मकर्म विधातव्यमस्मिन् दिने विशेषतः ॥ ४॥ PI अर्थः-मगसरसुदी एकादशीपर्व सबोंके मान्यहै ॥ वह मौनएकादशी कहीजावेहै ॥१॥ उसमें थोड़ाभी| |सुकृत कियाहुआ बहुत फलदाई होताहै इससे विशेषकरके विचक्षणोंको मौनएकादशीका आराधन करना ॥२॥ जैसे सर्व पर्वो में पर्युषणापर्व विशेष कहाजावेहै। वैसा सर्वदिनों में यह मौन इग्यारसका दिन विशेष है ॥३॥साधुः, साध्वी श्रावकः श्राविकाको इस दिन विशेषतः धर्मकार्य करना ॥४॥ ऐसा सुनके श्रीकृष्ण बोले हे प्रभो पहले
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या बहुत धन जिसन्द्रवतीनामको पतन है। वहाँप करके कहो।
4MROCEROSCORRECTOG
किसीनेभी एकादशीका व्रत किया है। और उसके कैसी फलप्राप्ति भई सो कृपा करके कहो॥खामी बोले धातकी खंड द्वीपमें इसुकारपर्वतसे पश्चिमदिशातरफ विजयनामका पत्तन है ॥ वहां पृथ्वीपालनामका राजा हुआ उसके औदार्य चातुरी शीलादिगुणको धारणेवाली चन्द्रवतीनामकी रानी होती भई ॥ उस नगरमें व्यवहारियोंमें शिरो-13 मणि बहुत व्यापारसे कमायाहै बहुत धन जिसने उभयकालप्रतिक्रमण करनेवाला सत्पुत्रयुक्त जिनभक्तिःका करने वाला शूरनामका सेठ होताभया ॥ एकदा वृद्धअवस्थामें गुरूको भक्तिःसे नमस्कारकरके पूछा हे भगवन् ऐसा धर्म कहो जिसको थोड़ाकरनेसेभी कर्मक्षय होवे ॥ गुरूने मौनएकादशीका ब्रतकरना कहा ॥ बाद सेठने घरआके ग्यारहवर्ष ग्यारहमहीनों तपकिया ॥ ब्रतकी समाप्तिमें सेठने विधिःपूर्वक उजमणाकिया ॥ बाद उजमणेसें पन्द्रह दिन अकस्मात् पेटमेशूल होनेसे मरके ग्यारहवें आरणदेवलोक में इकीससागरोपमकाआयुःऐसा देव हुआ॥ देवलोकका सुख भागवके वहाँसै च्यवके शौर्यपूर नगरमें समृद्धिदत्तव्यवहारीके घरमें प्रीतिमती स्त्रीकीकुक्षिमें पुत्र उत्पन्नहुआ। जब जन्मभया तब नाला गाड़नेकेवास्ते जमीन खोदी उसमें निधान निकला ॥ बहुतहर्षहुआ वधाईकरी ॥ दशदिनतक सेठने बहुत द्रव्य खर्चके जन्मोत्सव किया ॥ अशुचिःकर्म निवर्तहोनेसे बारहवें दिन जाति-15 वालाको भोजन कराके सेठबोले जब यहबालक पेटमेंथा तब माताकी व्रतकरनेकी इच्छाभईथी इससे इस बालकका नाम गुणनिष्पल सुव्रत ऐसा हो ऐसा कहके मातापिताने सुव्रत ऐसा नाम दिया । और मंगलादिकके जैसा निरर्थकनहीं ॥ कहाहै ॥
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दीवा० व्याख्या०
॥ ६० ॥
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भौमं मंगलं वृष्टिनामकरणे, भद्रा कणानां क्षये ॥ वृद्धिः शीतलता च दुष्टपिटके, राजा रजः पर्वणि॥ | मिष्टत्वं लवणे विषे मधुरता, दग्धे गृहे शीतलं ॥ पात्रत्वं च पणाङ्गनासुगदितं, नाम्नां परं नार्थकम् ॥१॥ अर्थः- भौमनाम ग्रहको मंगल कहते हैं । सो नामसे मंगल है | ऐसाही वृष्टिनाम करणको भद्रा कहते हैं अन्नके क्षयमें वृद्धिः कहते हैं । दुष्टपिटकको शीतल कहते हैं | होली पर्व में राजा बनता है । लवणको मीठा कहते हैं ॥ विषको मधुर कहते हैं । घरबलने में शीतलकहते हैं । वेश्याओं को पात्र कहते हैं ॥ इत्यादिक नामसे कहेजाते हैं उन्हों में अर्थ नहीं है | ऐसा बालकका नाम नहीं दिया किन्तु गुणनिष्पन्नः सुत्रतकुमर ऐसा नाम दिया । वह पुत्र पांचधाओंकरके पालागया ऐसा आठ वर्षका हुआ देखके पिताने विचार किया ||
रूपलावण्यसंयुक्ता, नरा जात्यादिसंभवाः । विद्याहीना न राजन्ते ततोमं पाठयाम्यहम् ||१|| अर्थः- रूपलावण्यादिसंयुक्त प्रधान जात्यादिक में उत्पन्नभये मनुष्य विद्याहीन होवे सो नहीं शोभते हैं | इसलिये | पुत्रको मैं पढ़ाऊं ॥ १ ॥ ऐसा विचारके महोत्सवकरके मातापिताने उपाध्याय के समीप बहत्तर कलाका अभ्यास करनेको रखका ॥ अनायास से सर्वकला थोड़े कालमें पढ़ी छप्रकारका आवश्यकसूत्रादिक श्रावकका आचारभी पढ़ा || यौवन अवस्था पाई ॥ उसके पिताने श्रीकान्ता ९ पद्मा २ लक्ष्मी ३ गंगा ४ पद्मलता ५ तारा ६ रमा ७ पद्मिनी ८ गौरी ९ गांगेया १० रतिः ११ वह महर्द्धिक व्यापारियोंकी कन्याका पाणिग्रहण कराया ॥ रूप
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मौन एका
दशीका
व्याख्यान.
॥ ६० ॥
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COCK
लावण्यवाली उन स्त्रियोंके साथ भोगभोगवता दोगुन्दकदेवोंके जैसा सुखसे रहता भया ॥ तदनन्तर सेठ पुत्रको घर भोलाके दीक्षा लेके चारित्रपालके अंतमें अनशनकरके वर्गगया। वाद घरका खामी सुव्रतसेठने पूर्वभवमे एकादशीका आराधनकरनेसे इग्यारह करोड सोनइयोंका खामी दाता भोक्ता भया ॥राजाने सोनेका शिरपेच मस्तकपर बंधवाकर नगर सेठ किया ॥राजमान्य, सत्यवादी सर्वत्र प्रसिद्ध अतिप्रतापी, सजन; सर्व व्यापारियोंमें प्रधान, सर्वव्यापारियों में रत्नके जैसा काल गमावे॥ वाद कालान्तरमें इग्यारहस्त्रियोंके इग्यारह पुत्र हुए ॥ उन्होंका बहुत परिवार हुआ ॥ अन्यदिनमें उद्यानमें धर्मघोषआचार्य, परिवारसहित आए ॥राजा वगैरहः
और सुव्रतसेठ बांदनेको गए ॥ आचार्यने धर्मदेशना प्रारंभकरी तपकामहिमा कहा ॥ 18| यद् दूरं यद् दुराराध्यं, यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ॥१॥5 है अर्थः जो दूर होवे मुश्किलसे किया जावे जो दूररहाहुआ हो वह सर्व तपसेसाध्य है तप अत्यन्तशक्तिमान्है तप६
दुरतिक्रमहै ॥१॥ वहां पंचमीकातपकरनेसे पांच ज्ञानकीप्राप्तिहोवेहै ॥ अष्टमीका तपकरनेसे आठ कर्मका है
क्षयहोवे है ॥ एकादशीका तपकरनेसे इग्यारहअंग सुखसे जानाजावेहै ॥ चतुर्दशीका तपकरनेसे चौदहपूर्वकाहै बोध होवे है ॥ पौर्णमासीका तपकरनेसे सम्पूर्णआगम जाना जावे है ॥ ऐसा सुनके सुव्रतसेठको मूर्छा प्राप्त
हुई ॥ जातिःस्मरण ज्ञानसे पूर्वभवमें मौनएकादशीका तपकिया जानके चेतना पाई ॥ वाद गुरूके पासमें याव
CALCARGADCASALAMA
SACCAKACAKKAKACIRCRA
पा. व्या. 11
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दीवा० व्याख्या
॥६१॥
RELEASESAMELESEARCH
जीव मौनएकादशीका तपग्रहणकिया ॥ गुरूने कहाकि इग्यारह अंगोका आराधन करना ॥ तपअच्छीतरह ट मौन एकाकरना पूर्वभवमेंएकादशीका तप उजमने सहित किया था इससे इसभवमें प्रवर्धमानसम्पदा पाई ॥ इग्यारह- दशीका करोड़ सोनइय्योंका खामी हुआ ॥ लोकमें निर्मलयश, प्रभुत्व, अधिकारित्व, नगर सेठपना राज्य मानपनापाया॥ व्याख्यान. इसीकारणसे इसभवमेंभी तपमें उद्यम करना ॥ ऐसा कहके धर्मलाभआशीर्वाददेके गुरूने अन्यत्र विहार किया ॥ सेठ सुखसे कुटुम्बसहित इग्यारसकेदिन आठप्रहरका आहारादि त्यागरूपपौषध करे ॥ लोकमें भी मौन ६ एकादशीपर्वकीप्रसिद्धिः भई ।जिसकारणसे बड़ेलोग जिसकोमाने उसकोसबमानतेहैं । जैसे लोकमें कहतेहै महा-8 देवने मस्तकमें धारणकिया जिससे द्वितीयाकेदिन एक कलामात्रभी चन्द्र लोग पूजतेहैं । क्योंकि
महाजनो येन गतः सः पन्थाः ऐसे अनेक लोग मौन एकादशीका तप करने लगे ॥ एकदा कुटुम्बसहित सेठने मौन एकादशीके दिन आठपहरकापौषधकिया ॥ पौषधकरनेवाले सवों ने रात्रिमें काउसग्गकिया। चोरोंने यहवात जानीथी मौनएकादशीकेदिन सुव्रतसेठ नहीं बोलताहै ॥ कोईवस्तु लेजाय तौभी मना नहीं करताहै। इससे चौरोंने घरमें प्रवेशकियादीपक करके चौर देखते हैं तो सोनइयोंके ढिगले पड़े हैं ॥ जितनेगठरिये बांधतेहैं उतने शासतदेवीने सबचौरोंको स्तम्भितकिया । इसीसे शासनदेवी पूजीजायहै। काउसग्ग किया जावेहै बाद प्रातःकालमें स्तंभितभये शस्त्रसहित
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परद्रव्य हरनेमें उद्यत ऐसे चौरोंको देखके लोग इकटे भये ॥ कोटवाल घरको घेरकररहे कुटुम्बसहित सुव्रतसेठ स्थापनाचार्यके समीपमें पौषधपारके उपाश्रयजाके गुरूको नमस्कारकर धर्मसुनके अपने घरआया वहां चौरोंको देखके चौरोंको राजा न मारे ऐसीबुद्धिःसे सेठने मौनकिया॥ तव कोटवालवगैरहः राजपुरुषोंको शासनदेवीने स्तम्भितकिया ॥ मध्यान्हमें राजा आए ॥ सेठने बहुत भेटना राजाके नज़रकिया ॥ नमस्कारकिया राजाने पूछा यहक्याहै तुमने चौरोंको कैसे मनानहींकिये सेठ बोला हे प्रभो मैं पौषधमें था ॥ सब वृतान्तकहा धर्मकाखरूप सुनाके राजाको संतोषितकिया ॥ राजा बोले वर मांग सेठ बोले चौरोंको अभयमिले ॥राजाने | सेठका वचन स्वीकारकिया तब शासनदेवीने कोटवाल और चौरोंको छोड़ा ॥ बाद सेठने पारना किया ॥
औरभी एकदा प्रस्तावमें शहरमें अग्निःलगा ॥ नगरके लोग इधर उधर भाग गए ॥ सेठने पौषध किया था। अपने व्रतकी रक्षाके लिये कहींभी गयानहीं ॥ नगर सब जलगया जला हुआ जङ्गल होवे वैसा हो गया । परन्तु-सुव्रत सेठका घर और दुकान वगैरह जिनमंदिरउपाश्रय ये नहीं जले ॥ प्रभातमें समुद्रमें द्वीपके जैसा सेठका घर दुकान वगैरहः देखके सब नगरके लोग सुव्रतसेठकी प्रशंसा करते भए ॥ यथा
सत्वेन धार्यते पृथ्वी, सत्वेन तपते रविः । सत्वेन वायवो वान्ति, सर्व सत्वे प्रतिष्ठितम् ॥१॥ अहो धर्मस्य माहात्म्यमस्याहो दृढ़ता व्रते। पालयेद् व्रतमेवं यो, द्वेधाऽप्यस्य शिवं भवेत् ॥ २॥
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व्याख्या
दीवा० 18|यतः-धर्माजन्मकुले शरीरपटुता, सौभाग्यमायुर्वलं ॥ धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशो, विद्यार्थसंपत्तयः ॥[मान एकाकांताराच्च महाभयाच्च सततं, धर्मः परित्रायते॥धर्मःसम्यगुपासितोहि भवति, वर्गाऽपवर्गप्रदः॥३॥
दशीका ___ अर्थ । सत्वसे पृथ्वीधारण होतीहै सत्वसे सूर्य तपताहै। सत्वसे वायुः चलता है। सब सत्वमें प्रतिष्ठित॥१॥ व्याख्यान. धर्मकामाहात्म्य आश्चर्यकारीहै अहो धर्ममें (सुत्रत ) सेठकी कैसी दृढ़ताहै ॥ यह व्रत पालताहै ॥ इसके यहां और परलोकमें कल्याणहै ॥ यहां तो घर नहीं जला और पहले चौर चोरी नहीं करसकेथे ॥ परलोकमें खर्ग अपवर्गकी प्राप्ति होगी ॥२॥ धर्म से अच्छे कुलमें जन्म शरीर निरोग होना सौभाग्यपाना बडाआयुः बल पातेहैं ॥ धर्मसेही निर्मलयश होताहै ॥ विद्या और अर्थकी प्राप्तिः होवेहै । जङ्गलमें सिंह व्याघ्रादिकका अभय इससे धर्मरक्षाकरे ॥ धर्म अच्छी तरहसे किया हुआ खर्गके सुख और मोक्षके सुखदेनेवालाहै ॥३॥ बाद एक्कादशी व्रत पूरन होनेसे सेठने उद्यापनकिया ॥ मोती, रत्न, दक्षिणावर्तशंख और मूंगा, सोना, चांदीवगैरहके 5 तीर्थकरों के भूषण और भाजनकरवाए ॥ तांबे पीतल वगैरहः के पूजाके उपकर्ण करवाए ॥बहुत प्रकारके धान्य, द्र
॥६२॥ टपक्कान, नारियल, दाख, आम वगैरहफल सोने रूपके द्रव्य औरभी अशोक चंपा गुलाब वगैरहके पुष्प Pऔर रेशमी वगैरहः वस्त्र इत्यादिक अनेक वस्तु इग्यारह इग्यारह तीर्थकरके आगे चढ़ाई ॥इग्यारह अंगलिखाए॥
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SCACIDCORECASEARCHECK
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इग्यारह पुस्तक, पूठा, पटरी, ठवनी वगैरहः ज्ञानके योग्यउपकरण चढाए । इसीतरह चारित्रके उपकरण चढ़ाए ॥ | ऐसे विस्तारसे उद्यापनकरके संघपूजा साधर्मी वात्सल्य वगैरह, सात खेबोंमें धनखर्चके आपना मनुष्यजन्म | सफलकिया ॥ एकदा वृद्धअवस्था में सेठ रात्रिमें विचारताभया । मैंने जन्मपर्यन्त श्रावकधर्मपालाहै ॥ मौन एकादशीका तप उद्यापन सहितकिया है | यह संसार असार है || पहले या पीछे अवश्यपरभव जाना है | इस वास्ते इसवक्त में सद्गुरुके योगसे दीक्षालेऊं ॥ तो ठीक होवे ऐसा विचारकरते प्रभातहोगया | उद्यानमें तरणतारण समर्थ चारज्ञानके धारनेवाले गुण सुंदरसूरीआए | उन्होंको वंदना करनेको सबलोगगए ॥ अपना पुत्र और स्त्रियोंके सहित सेठभीगए | जितनेवन्दन करके सबलोग बैठे तब गुरूने देशना प्रारंभकरी ॥ जो भव्य केवलीका कहाहुआ अहिंसालक्षण सत्तरह प्रकारसंयम विनयमूल, क्षमा प्रधान महात्रतरूपसाधुधर्म| पालने से शीघ्र कर्म क्षयः करके मोक्ष जावे है | और जो बारह व्रतात्मक श्रावक धर्मपाले वह परंपरासे मोक्षका | कारण है || थोड़ेकालसेही सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला साधुधर्म शीघ्रमोक्षजानेकेवास्ते सेवना ॥ कहाहै ॥ चारित्ररत्नान्न परं हि रलं, चारित्रवित्तान्न परं हि वित्तम् ।
चारित्रलाभान्न परो हि लाभश्चारित्रयोगान्न परोहि योगः ॥ १ ॥
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दीवा० व्याख्या
दीक्षा गृहीतादिनमेकमेव, येनोग्रचित्तेन शिवं स याति ।
मौन एकान तत् कदाचित्तदवश्यमेव वैमानिकः स्यात् त्रिदशप्रधानः॥२॥
दशीका
व्याख्यान. अर्थः चारित्ररत्नसे दूसरा विशेष रत्न नहींहै चारित्रधनसे कोई धन जादा नहीं है चारित्रलाभसे उत्कृष्ट कोई लाभ नहींहै चारित्रयोगसे उत्कृष्ट कोई योग नहींहै ॥ १॥ प्रवर्धमान परिणामसे दीक्षाग्रहणकरके एक दिन जो चारित्रपाले तो मोक्षजावे ॥ कदाचित् मोक्ष नहींजावे तौभी वैमानिक देव तो अवश्यहीहोवे । इत्यादि है देशना सुनके सुव्रतसेठ बोला हे तारक मैं संसार कांतारसे उद्विग्नभयाहूं इसवास्ते पुत्रको घर सम्भल्हाके आपके-* |पास दीक्षालेउंगा ॥ ऐसा सुनके गुरु बोले हे महानुभाव जैसा सुखहोय वैसा करो ॥ परंतु धर्मकार्यमें देरीकरना। नहीं ॥ बाद सेठ आचार्यको नमस्कारकरके अपनेघरजाके कुटुम्बको भोजनकराके ॥ अपने खजन और पुत्रोंसे | दीक्षाकी आज्ञालेके इग्यारहस्त्रियोंकेसाथ महोत्सव करके दीक्षालिया ॥ विशेषतपकरताहुआ सुव्रतमुनि ग्रहण
आसेवनशिक्षाग्रहण करके साधुधर्ममें विचरा ॥ इग्यारहस्त्रियों विशेष तपकरके शरीरको दुर्बलकर एक मही-10॥६३ ॥ |नेका अनशनकरके केवलज्ञान पायके मोक्षगई सुव्रतमुनिः साधुधर्म पालताहुआ सुखसे विचरे ॥ कहाहै
जयं चरे जयं चिट्रे, जयमासे जयं सए । जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न वंधई ॥१॥
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- अर्थः ॥ जयनासे चलना जयनासे खड़ारहना जयनासे बैठना ॥ जयनासे सोना जयनासे भोजन करताहुआ और बोलता हुआ पापकर्म नहीं बांधे ॥१॥ इसप्रकारसे पवित्रचारित्रपाले ॥ तथा विशेषसे छद्र अटमादि तपकिया उसकी संख्या लिखतेहैं ॥
जनिते द्वेशते षष्ठे, अष्टमानां शतं तथा । चतुष्टयं चतुर्मास्या, एकं पाण्मासिकं तपः॥१॥ __ स मौनैकादशीतिथ्यास्तपस्तपन् विशेषतः। पाठको द्वादशाङ्गीनां शुद्धां दीक्षामपालयत् ॥ २॥ ___ अर्थः-दोसौ छट्टयाने वेला, एकसौ अट्ठम याने तेला, चार चौमासीतप एक छमासी तप इतना विशेष तपकिया ॥१॥ सुव्रतमुनिः विशेषसे मौनएकादशीका तपकरताहुआ द्वादशाङ्गीका अध्ययन किया ॥ शुद्धदीक्षा 8 पालताभया ॥२॥ एकदा मौन एकादशीकेदिन सुव्रतसाधुः मौनसहित तपकिया है ॥ उसकी परीक्षाकवास्ते कोई मिथ्यादृष्टिदेव कोई साधुःके कानों में बहुत वेदना उत्पन्नकरी बहुत इलाजकिया तथापि शान्ति भई नहीं तब उस देवने साधुओंके आगे कहा इस साधुकी वेदना सुव्रतमुनिःकी औषधसे मिटेगी ॥ जो यह सुव्रतमुनिः खस्थानसे बाहिर जाके औषध लाकेइलाज करेगा ॥ ऐसा सुनके वह साधुः सुव्रतमुनिःके पासमें आके उपचारकेवास्ते कहा ॥ सुव्रतमुनि मौनी एकादशीको अपने ठिकानेसे बाहिर नहीं जावे ॥ बाद देवके प्रभावसे है पीड़ित साधुःने सुव्रतसाधुके मस्तकमें प्रहारदिया॥ बहुत वेदना उत्पन्नभई परन्तु मुनिःने सही और विचारने लगा।
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॥ ६४ ॥
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अरहन्तोभगवन्तोये, साधवो गणधारिणः । इन्द्राश्चन्द्रा दिनेन्द्राश्च, नागेन्द्रा व्यन्तरेन्द्रकाः ॥ १ ॥ सचक्रवर्तिनोवासु, देवा प्रतिनारायणाः । बलदेवा नराधीशा, मानवा अपरेऽपि च ॥ २ ॥ कर्मणा पापिनानेन, ते सर्वेऽपि विडम्बिताः । कियन्मात्रो वराकोऽहं पुरस्तात् तस्य कर्मणः ॥३॥ अरे जीव ! सहस्वत्वमुदितं कर्म तेऽस्ति यत् । तद् भोगेन विना नैव, प्रक्षीयेत कदाचन ॥ ४ ॥ लद्धं अलद्धपुत्रं जिणवयणसुभासिअं अमयभूयं । गहिरं सग्गइमग्गो नाहं मरणाउ वीहेमि ॥ ५ ॥ तपस्तीत्रघरट्टोऽयं, क्षमामर्कटिकान्वितः । धृतिहस्तो मनःकीलः कर्म धान्यानि चूर्णयेत् ॥ ६ ॥
॥
अर्थः- अर्हन्तः भगवन्तः गणधर, साधुः, इन्द्रः, चन्द्रः, सूर्यः, नागेन्द्रः व्यन्तरेन्द्र ॥ १ ॥ चक्रवर्ती, वासुदेवः, प्रतिवासुदेवः, बलदेवः, राजा, मनुष्यः, और भी प्राणियोंकी ॥ २ ॥ इसपापी कर्मने सर्वोकी विडंबना करी | है | मैं तो उस कर्मके आगे किसगिनती में हूं ॥ ३ ॥ अरे जीव तेरे कर्मउदयमें आया है तैंसहनकर || कर्म भोगवेसिवाय कभी क्षय नहींहोवे ॥ ४ ॥ पहलेनहीं पाया ऐसा जिनवचनसुभाषित अमृतके जैसापाया है ॥ सद्गतिःका मार्ग ग्रहण करनेसे अब मैं मरनेसे नहीं डरता हूं ॥ ५ ॥ तपरूप तीव्रघटी क्षमा रूप मर्कटिका सहित ॥ | धैर्यरूपहत्था मनकीला ऐसी घडीसे कर्मरूप धान पीसा जाता है ॥ ६ ॥ ऐसा विचार करता हुआ सुव्रत मुनिः
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मौन एका
दशीका
व्याख्यान.
॥ ६४ ॥
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SC-ALIGALA
क्षोभातुर भया नहीं देवनेजानके विशेष उपसर्गकिया ॥ मुनिः शुभ अध्यवसायसे क्षपक श्रेणीचढके केवल ज्ञान पाया ॥ भव्योंकों प्रतिबोधके सुव्रतमुनिः मोक्षगया ॥ इसप्रकारसे श्रीनेमिनाथ स्वामीके मुखसे सुनके श्रीकृष्ण है वासुदेवः प्रमुख मौन एकादशीके तपकरनेमें आदरवानहुए ॥ तवसे मौन एकादशीके तपकी बड़ी प्रसिद्धिः
भई ॥ ऐसा सुनके श्रावकोंको भी मौन एकादशीका व्रत करने में विशेष प्रयत्न करना ॥ इतने कहनेकर मौन है एकादशीका व्याख्यान सम्पूर्ण भया ॥
अब पौषदशमीकी कथा कहते हैं प्रणम्य पार्श्वनाथांघ्रिपङ्कजं सर्वसौख्यदम् । समस्तमङ्गलश्रेणिलतापल्लवताम्बुदम् ॥१॥ भव्यजीवप्रबोधार्थ, जन्तूनां च सुखाप्तये। पौषकृष्णदशम्याश्च, माहात्म्यं कथ्यतेऽधुना ॥२॥
अर्थः-सर्व सुखके करनेवाले समस्त मंगलश्रेणी रूपलताको प्रफुल्लित करने में मेघके जैसे ऐसे श्रीपार्श्वनाथखामीके चरणकमलोंको नमस्कार करके ॥ १॥ भव्यजीवोंको बोधकेवास्ते और प्राणियोंकों सुखकी प्राप्ति के लिये पौषवदीदशमीका माहात्म्य किंचित् कहता हूं ॥२॥ इसजम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें अङ्गदेशमें चंपानामकी नगरीहै उसके बाहिर ईशानकोणमें पूर्णभद्रनामचैत्यव नसण्डसहितहै वहां श्रीमहावीरखामी चर्मतीर्थकर समवसरे
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दीवा० भगवान्को बांदनेके लिये और उपदेश सुननेको राजा वगेरेह, लोग आए ॥ भगवान्को तीन प्रदक्षिणा देके | पौषव्याख्या05/ वन्दना नमस्कारकरके यथा योग्यस्थानबैठे ॥ तब खामीने संसार समुद्र में डूबते हुए प्राणियोंका उद्धार करने-13 दशमीका दवाली ॥ देशना प्रारंभकरी ॥
व्याख्यान, जीवदया विरमिजइ, इंद्रियवग्गो दमिजइ सयावि।सच्चं चेववदिजइ,धम्मस्स रहस्स मिणमेव ॥१॥
अर्थः-भगवान् कहते हैं अहो भन्यो जीवदयामें रमण करना निरंतर इन्द्रियवर्गको दमना और सत्यही बोलना है 8/धर्मका यह रहस्य है इत्यादि देशनासुनके कितनेक लोग भद्रकभये ॥ कितने लोगोंने श्रावकधर्म अंगीकार टू किया ॥ कितनेक साधु भये तब गौतमखामी श्रीमहावीरखामीको वन्दना करके प्रश्न किया ॥ हेखामिन् पौषटू
दशमीपर्वका माहात्म्य कृपा करके कहो ॥ तब भगवान् बोले हेगौतम पौषदशमीको श्रीपार्श्वनाथस्वामीका है जन्मकल्याणकहै ॥ इसदिन दोनोंसन्ध्यामें प्रतिक्रमण करना ॥ देववन्दनकरना ब्रह्मचर्यः पालना जिनमंदिरमें| |अष्ट प्रकारी पूजा सत्तरह प्रकारकी पूजा स्नात्र महोत्सव वगैरहः बडे आडंबरसे करके गुरूकेपास जाके बन्दना ॥६५॥ ६ करना ॥ और उपदेश सुनना बाद घरजाके साधुओंको पडिलाभके एकाशना करना ॥ नौमी और एकादशी-18 है कोभी एकाशनाकरना ॥ भूमिःपर शयन करना ऐसे दशवर्ष करनेसे तप सम्पूर्ण होवे है ॥ और दशमीके दिन है
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श्रीपार्श्वनाथ अर्हते नमः इसपदका दो हजार (२०००) जाप करना ॥ बारह लोगसका काउसग्ग बारह प्रदक्षिणा बारहखमासमन । वगैरहः मनवचनकायाकी शुद्धिःसे आराधन करनेवाला इसभवमें धन धान्य पुत्र कलत्रादि सुखपावे है | परलोकमें देवादि ऋद्धिः भोगवके परंपरासे निर्वाण जावे है ॥ ऐसा भगवान्ने कहा तब श्रीगौतमखामी बोले| हे प्रभो पहलेकिसने यहपर्व आराधन किया है ॥ सो अनुग्रहकरके कहिये ॥ भगवान् बोले हे गौतम तेइसवां तीर्थकर श्रीपार्थनाथ खामीके और मेरे अंतरमें शूरदत्त नामका सेठ भया उसने यह पर्व आराधा सो कहते हैं। ६ जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रमें सुरिन्द्रपुर नामका नगर है वहां नरसिंह नामका राजा भया ॥ राजाके चतुर, गुणवती 8
शील अलंकारसहित गुणसुंदरी नामकी पटरानी थी। उसनगरमें शूरदत्त नामका सेठ रहताथा ॥ उसके शील अलं-16 कारधारनेवाली पतिव्रतादि गुणयुक्त शीलवती नामकी स्त्रीथी॥ यद्यपि कुबेरके जैसा महा धनाढ्य यशस्वी सेठथा परन्तु मिथ्यात्ववासित कपिलमतावलंवि त्रिदंडियोंका भक्त शेवधर्मको आराधनमें तत्पर जैन धर्मको नहीं जाने ॥ कहा है।
न देवं नाऽदेवं न शुभगुरुमेवं न कुगुरुं ॥ न धर्म नाऽधर्म न गुणपरिणद्धं न विगुणम् ॥ | न कृत्यं नाकृत्यं न हितमहितं नापि निपुणं ॥ विलोकन्ते लोका जिनवचनचक्षुर्विरहिताः॥१॥
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दीवा० अर्थः-जिनवचन चक्षुम्सेरहित लोग देव और कुदेवको नहीं देखते हैं ॥ सुगुरु कुगुरुको नहीं जानते हैं धर्म पौषव्याख्या० और अधर्मको नहीं जानते हैं ॥ गुण और अगुणको नहीं जानते हैं ॥ कृत्य अकृत्य हित अहितको नहीं जानते ४ दशमीका
हैं अर्थात् जिनवचनसे ही यह बोध होता है । वह सेठ कभी जिनवचन नहीं सुने है ॥ मिथ्यात्व रूप राहुसे ग्रसितचन्द्र जैसा ॥ जीव शरीरको एकमाने परन्तु वह सेठ राज्यमान्य था नगरसेठथा ॥ ऐसे कितना काल गया बाद अढ़ाई से (२५०) जहाज गणिम, धरिम, मेय, परिच्छेद्य यह चारप्रकारके क्रियानोंसे भरके रत्नद्वीप भेजा।
बहा जाके सेठके पुरुषोंने वहमाल वेचके नये क्रियानोंसे जहाज भरके पीछे चले ॥ मध्यसमुद्र में जब आये है तब कर्मोदयसे तोफान हुआ ॥ उल्कापात और प्रचण्डपवनके वेगसे वह जहाज कालकूट द्वीपमें गए ॥ स्वस्था
नमें नहीं आए ॥ और सेठके घरमें इग्यारह करोड़ धननिधानगतथा वहां सर्पविच्छ्र और कोयला होगया ॥ ५०० गाड़ा भरके मालका दिसावरसे आताथा वह भीलोने लूट लिया ॥ बाद सेठ निर्धन हो गया नगरसेठका पदगया ॥ महा दरिद्री होगया ॥ लोग जो सत्कार करते थे वहभी गया ॥ कहाहै ॥
धनमर्जय काकुत्स्थ ? धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नैव पश्यामि, निर्धनस्य शवस्य च ॥१॥ हे रामचन्द्र धन उपार्जन करो धनमूल यह जगत् है निर्धन और मरे हुएमें अंतर नहीं देखता हूं ॥१॥
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दहा-बाप कहे मेरे पूत सपूता बेन कहे मेरा भइया ॥
* घरजोरूभी लेत बलैयां सोइ बडो जांकी गांठ रुपैया ॥१॥ बाद सेठ निर्धन होनेसे दुःखसे काल गमाता हुआ॥ कितने दिनोंके वाद उस नगरके उद्यानमें श्रीदेवेन्द्रसरि समवसरे वनपालकने राजाको वधाई दिया राजा वन पालकको बहुत द्रव्य देके खुशीकिया ॥ वाद राजा और है ४ानगरके लोगसुरेन्द्रसेठ वगैरह, बांदनेके वास्ते गए ॥ आचार्य के पास आके वंदना करके यथायोग्य स्थानबैठे॥2 आचार्यने देशना प्रारंभ करी ॥ अहो भन्यो संसारमें धर्म पदार्थही सारहै कल्याणकारकहै ॥ कहाहै ॥
धर्मतः सकलमङ्गलावलिधर्मतः सकलसौख्यसंपदः ॥
धर्मतः स्फुरति निर्मलं यशो, धर्म एव तदहो विधीयताम् ॥१॥ विवेकः परमो धर्मो, विवेकः परमं तपः॥ विवेकः परमं ज्ञानं, विवेको मुक्तिसाधनम् ॥२॥ भक्ष्याऽभक्ष्यविचारः स्याद् गम्यागम्यविभेदकृत्॥ मार्गाऽमार्गपरिज्ञानं गुणाऽगुणविचारणा॥३॥ निद्राऽऽहारो रतं भीतिः, पशूनां च नृणांसमम्।विवेकाऽन्तर मत्रास्ति, तं विना पशवःस्मृताः॥४॥ एक उत्पद्यते जन्तुर्यात्यकश्च भवान्तरम् । एको दुःखी सुखी चैकस्तथैकः सिद्धिसौख्यभाकू॥५॥
LOCACAUSERECTORICA
चा. व्या. १२
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दीवा० व्याख्या०
॥ ६७ ॥
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॥
अर्थः ॥ धर्म से सम्पूर्ण मंगलकी श्रेणी होवे है || धर्मसे सम्पूर्णसुख सम्पदा और निर्मल यश पावे है इस वास्ते धर्मकरो ॥ १ ॥ विवेक उत्कृष्ट धर्म है विवेक परम तपहै विवेक उत्कृष्ट ज्ञान है विवेक मुक्तिःका साधन है ॥ २ ॥ | भक्ष अभक्षकाविचार गम्य अगम्यका भेद और मार्ग अमार्गका ज्ञान गुण औगुणका विचार ये सब विवेकसे होवे ॥ ३ ॥ निद्रा, आहार, मैथुन, भय पशू और मनुष्यों के समान है विवेककाहीं अंतर मनुष्यों में है | विवेक के | विना मनुष्य पशुके सदृश कहेजावें हैं ॥ ४ ॥ एक उत्पन्न होता है | एक जन्मान्तरजाता है एक दुःखी है एक सुखी है एक संसारही में परिभ्रमणकरता है | एक मोक्षका सुखपाता है ॥ ५ ॥ इत्यादि देशना सुनके परपदा के लोग अपने अपने ठिकाने गए | तब शूरसेठने पूछा हे भगवान् जीवका क्या लक्षण है तब आचार्य बोले हे। श्रेष्ठिन् ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्त तप, वीर्य, उपयोगवान जो है वहजीव कहाजावे ॥ यतः
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ॥ वीरियं उवयोगो य, एयं जीवस्तलक्खणम् ॥ १ ॥ चेतनालक्षणश्चात्मा, सामान्येन बुधैः स्मृतः ॥ संसारात्मा तथा जीवः, परमात्मा द्विधा मतः ॥२॥ संसारात्मा सदादुःखी जन्ममरणशोकभाक् ॥ चतुरशीतिलक्षासु, योनिषु भ्राम्यते सदा ॥ ३ ॥ नसा जातिर्न सा योनिर्न तत् क्षेत्रं न तत् कुलम् ॥ यत्र कर्मवशादात्मानोत्पन्नोऽयमनेकधा ॥ ४ ॥
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पौष
दशमीका व्याख्यान.
॥ ६७ ॥
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एगया देवलोएसु, नरपसु वि एगया । एगया असुरं कायं जहा कम्मेहिं गच्छइ ॥ ५ ॥ एगया खत्तिओ होइ, तओ चण्डाल वुक्कसो॥ तओ कीड पयंगोय, तओ कुन्थु पिपीलिया ॥ ६ ॥ सुभगो दुर्भगः श्रीमान् रूपवान् रूपवर्जितः ॥ स एव सेवकः स्वामी नरो नारी नपुंसकः ॥७॥ संसारीकर्मबन्धाद्, नटवत् परिभ्राम्यति । अनन्तकालपर्यन्तं, जीवः संसारवर्त्मनि ॥ ८ ॥ भव्यजीवे दयादानं धर्मकल्पतरूपमम् । दानशीलतपोभावं, शाखा मुक्तिसुखं फलम् ॥ ९ ॥ धर्मादेव कुले जन्म, धर्मादि विपुलं यशः ॥ धर्माद् धनं सुखं रूपं, धर्मः स्वर्गापवर्गदः ॥ १० ॥
अर्थः ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र तप तैसे वीर्य और उपयोग यह जीवका लक्षण है ॥ १ ॥ पंडितोंने सामान्य प्रका| रसे चेतना लक्षण आत्माका कहा है || एक संसारात्मा और परमात्मा दो प्रकारका आत्मा जानो ॥२॥ संसारी आत्मा निरंतर दुःखी जन्ममरण शोकभाक है ॥ ८४ चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करेहै ॥ ३ ॥ वैसी कोई जातिनहीं वैसी कोई योनिः नहीं वैसा कोई क्षेत्रनहीं वैसा कोई कुलनहीं जहां कर्मके वशसे संसारी | आत्मा अनेक वक्त जन्म मरण नहीं किया है । अपितु किया है ॥ ४ ॥ कोई वक्त देवलोक में उत्पन्न होता है कभी नर्क में जाता है कभी असुर योनिः पाता है जैसे कर्म करै वैसा गत्यन्तरमें जावे ॥ ५ ॥ कभी क्षत्रिय होवे
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दीवा० 18वाद जन्मांतरमें चांडाल वुक्कस होवे बाद कीड़ा पतंगिया कुंथुआ और कीड़ी होवे ॥६॥ शुभग, दुर्भग, पौषव्याख्या श्रीमान् , निर्धन, रूपवान. कुरूप वोही सेवक होवे कभीखामी होवे कभी मनुष्य कभीस्त्री कभीनपुंसक होवे ॥७॥
दशमीका संसारीजीव कर्मसम्बन्धसे नटके जैसा संसारमें अनंतकालतक परिभ्रमण अर्थात् नाटक करताहै ॥ ८॥ दया, व्याख्यान. ॥६८॥
दानधर्मरूप कल्पवृक्षकी दानशील तपभाव चारशाखाहै भव्यजीवको मोक्षके सुखरूप फल प्राप्त होवेहै ॥९॥ धर्मसेही सुकुलमें जन्म होताहै धर्मसे विपुलयश होताहै धर्मसे धनसुखरूप होवेहै ॥धर्म खर्गअपवर्गका देनेवालाहै१०
दोहा-धर्म करत संसारसुख धर्म करत निर्वाण ।
धर्मपन्थ साधनविना, नरतिर्यंचसमान ॥ १॥ सुपुरुष तीन पदार्थ साधेहै, धर्मविशेषजानी आराधेहै ॥
धर्म प्रधानकहे सबकोई, अर्थ काम धर्महितहोई ॥२॥ इत्यादि धर्मकथा सुनके सेठ जीव अजीवादि नवपदार्थ युक्तः सम्यक्त्वरत्नपाया ॥ और प्रश्नकिया हे भगवन्
॥६८॥ ऐसा कोई तपकहो जिसके करनेसे मेरा निधान नष्ट होगया सो प्रगटहोवे ॥ आचार्यबोले हे भद्र धर्मसेवनेसे सर्व इष्टसिद्धिः होवेह पौषवदीदशमीका व्रतकरना उसदिनभी पार्श्वनाथखामीका जन्मकल्याणक भयाहै ॥ नवमी,
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दशमी, एकादशी तीनदिन एकाशनाकरना ॥ जमीनपरसोना ब्रह्मचर्य पालना | दोटंक प्रतिक्रमणा देववंदन जिनमंदिरमें त्रात्रादि महोत्सव करना ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ अर्हते नमः इस पदको दोहजार ( २००० ) वक्त गुणना || पारनेके दिन खामीवच्छ करना ऐसे दशवर्षतक विधि से यह तपकरना ऐसे आराधन करनेसे इसलोकमें धनधान्य सौभाग्य आदिक और परलोक में स्वर्गसुख और क्रमसे मोक्षसुख पाये है | ऐसा सुनके हर्षके | प्रकर्षसे विकसित हुआ है नेत्र जिसका ऐसा सेठ जैनधर्म अंगीकारकरके गुरुको वंदनाकरके अपने घर गया ॥ आचार्य अन्यत्र विहार करगए | सेठने दशमीका तपकरना प्रारंभ किया || दशमहीने जानेसे कालकूटद्वीपसे | जहाज आए नौकरके मुख से सुनके सेठने नहीं माना तब सेटकी स्त्री शीलवतीने कहा हे स्वामिन् यह सत्यही जानो । असत्य नहीं है इसकारणसे आज अपने घरमें निधान प्रगटहोगा । तब सत्यसमझना । ऐसा कहके निधान देखा निधान प्रगटहुआ तबसेट अपनी स्त्रीसे बोला हे प्रिये जैनधर्मके प्रभावसे जहाजोंकी बधाई आई इग्यारह करोड़ सोनइय्योंका निधान प्रकट हुआ ॥ श्रीपार्श्वनाथस्वामी के प्रसादसे और गुरुके उपदेश से मैं श्रीमान भया ॥ बाद जैनधर्मकी वासना से सुखसे कालगमाते ॥ नगरसेठ पदवी पीछे पाई ॥ सेठ के दशपुत्रभये राजा सत्कार | करके अपने पास में रक्खा | एकदा प्रस्ताव में देवेन्द्रसूरिः बिहार करतेभये वहां समवसरे ॥ सेठ बांदनेकोगए ॥ औरभी नगरके लोग बांदनेको गए वंदना करके यथास्थान बैठे गुरूने देशनादिया देशना के अंत में सेठने प्रश्न किया है
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दीवा० व्याख्या
पौष
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खामिन् दशमीके उद्यापन में क्या करना ॥ गुरू बोले हे श्रेष्ठिन् दशपुस्तक लिखाना दशपूठा पटरी दशवीटाङ्गना दशठवनी दशथापनाचार्य दशनौकरवाली दशचन्द्रवा दशजिनमंदिर दशजिनप्रतिमा कलशप्याला दीपक, आरती | दशमीका वगैरह दशदश पूजाके उपकरणकरना ॥ ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रके दशदश उपकरणकरना ॥ दशदिनका उत्सव व्याख्यान. खामीवच्छल, संघपूजाकरके शासनकी प्रभावना करनी॥ ऐसे गुरुके बचनसुनके सेठ उजवना किया ॥ मणिरत्नके है जिनबिंबकराए पीछे कितने दिनोंकेबाद वैराग्यवासितचित्तजिसका ऐसा सेठ सुंदरनामका बड़े पुत्रकों घरका । भारदेके सबकों बुलाके बोले कि हे पुत्रो तुम दशमीकेदिन श्रीपार्श्वनाथखामीकी सत्तरह प्रकारकी पूजाकरके टू व्याख्यान सुनके घरआके साधुओंको पडिलाभके एकाशना करके चौविहारका पचखानकरना पारनेकेदिन स्वामी-| वच्छलकरना ॥ इस विधि से दशमीका आराधन करनेसे हम सुखीभएहैं तुमकोभी ऐसाही करना जिससे सुखी होवोगे ॥ ऐसी पुत्रोंको शिक्षादेके गुरूके पासमें जाके वंदना करके ऐसाबोला हे भगवन् मेरे ऊपर कृपाकरके चारित्रदेवो ॥ जिससे वर्ग अपवर्गका सुखपाऊं ॥ तब गुरूबोले जैसा सुख होवे वैसा करो ऐसा सुनके चारित्र ग्रहणकिया ॥ नानाप्रकारका षष्ठ अष्टमादि तप करताहुआ बारहवर्षके बाद पन्द्रह दिनका अनशन करके समा-12॥ ६९ ॥ |धिःसे मरणपाके दशवे देवलोकमें बीससागरोपमका आयु, ऐसा देवहुआ ॥ अनुक्रमसे देवसुख भोगवके प्राणतः |देवलोकसे च्यवके इसी जम्बूद्वीपके महाविदेहक्षेत्रमें पुष्कलावती विजय मंगलावतीनगरीमें सिंहसेनराजाकी
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* गुणसुंदरीराणीके कुक्षिःरूपसरोवरमें हंसके जैसा उत्पन्न होगा जैसेनकुमारनाम होगा ॥ वहां संसारिक सुखभो
गवके पीछे चारित्रग्रहण करेगा ॥ इग्यारह अंग बारहउपाङ्गपढ़ेगा ॥ एकाकी विहारकरता हुआ एकदा काउस्स
ग्गमें खड़ारहेगा ॥ वहां उसवनका अधिष्ठाता मिथ्यात्ववासितदेवः साधुको नकुल, विच्छू, सर्प, हाथी, सिंह, है ब्यान, पिशाच, राक्षस, खेचर बेतालप्रमुख इक्कीसउपसर्गकरेगा ॥ मुनिः तो शमदमगुणकरके शुक्लध्यानसे चार
घातीकर्मोका क्षयकरके केवलज्ञान पावेगा ॥ शीलवती चारित्रलेके पालके देवलोकगई ॥ महाविदेह क्षेत्रमें मोक्ष जावेगी । जैसेनकेवली बहुतभव्योंको प्रतिबोधके मोक्ष जावेंगे ॥ इसप्रकारसे श्रीवर्धमानखामीने 3 श्रीगौतमखामीसे पौषदशमीका खरूप कहा ॥ वह सुनके श्रीगौतमखामीने भगवान्को नमस्कार किया ॥ तपसंयमसे आत्मा भावन करते भए रहे ॥ अहो भन्यो पौषदशमीका माहात्म्य सुनके यह व्रत अवश्य करना ॥ जिससे सुख संपदा होवे ॥ यह चरित्र सुननेसे यह व्रत करनेसे इसभवमें धनधान्यादिसमृद्धिः-पावे ॥ परभवमें खर्ग अपवर्गका सुख प्राणीपावे है ॥ इतने कहने कर पौष दशमीका व्याख्यान सम्पूर्ण हुआ।
अथ मेरुत्रयोदशीका व्याख्यान लिखतेहै ॥ श्रीयुगादिजिनं नत्वा, ध्यात्वा श्रीगुरुभारतिम् । मेस्त्रयोदशीव्याख्या, लिख्यते लोकभाषया ॥१॥
A%A%A9A%ACHERSARKARANA
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दीवा० व्याख्या०
॥ ७० ॥ ७
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अर्थः-श्रीयुगादिदेवको नमस्कार करके गुरूकी वाणीका ध्यान करके मेरुत्रयोदशीका व्याख्यान लोकभाषासे कहता हूं | यहां पर्वाधिकार में आठ महां प्रतिहार्य विराजित जगद्गुरू श्रीवर्धमानस्वामीने श्रीगौतमादिकके आगे जैसे माघवदि त्रयोदशीका माहात्म्य कहा || वैसा परंपरा से आया हुआ हमभी मेरुत्रयोदशीका अधिकार कहते हैं || श्री ऋषभदेवखामी और अजितनाथखामी के अंतरमे पचास लाख करोड़ सागरोपमगए उसके मध्य में | अयोध्यानगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्रीय अनंतवीर्य राजा भया ॥ बहुत हाथी घोड़ा रथ प्यादल सेनाका स्वामी उसराजाके पांचसै रानियां थी उन्होंमें पदमनी नामकी पटरानीथी धनंजयनामका चारबुद्धिका निधान महामंत्रीथा सुखसे राज्य पालतां एकदा प्रस्तावमें मनमें महाचिंता उत्पन्नभई कि मेरे एकभी पुत्रनहीं है इसराज्यका कौन खामी होगा । पुत्रविना घर शून्य प्रायहै ॥ कहाभी है ॥
अपुत्रस्य गृहं शून्यं
इत्यादि ॥ तब राजा अनेक उपाय किया परंतु पुत्रोत्पत्ति नहीं भई ॥ उस अवसर में एक कौंकण नामका साधु अहारके लिये राजाके घरमें आया तब राजा रानी उठके विधिःसे वंदना करके शुद्धआहारसे पड़िलाभ के हाथ जोड़के मुनिको पूछा हे खामिन् हमारे पुत्र नहीं है सो होयगा या नहीं ॥ मुनि बोले ज्योतिष निमित्तादिक
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मेरुत्रयोदशीका
व्याख्यान.
1100 11
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4-
CA
मुनिनहीं कहेहै तब राजारानी वारंवार प्रार्थना करी तब मुनि मनमें दया लाकर बोले हे राजन् तुमारे पुत्र होनेवाला है परंतु पांगुला होगा ऐसा कहके मुनि गये तव राजा रानीने विचारा हमारे पंगुभी पुत्रतो होगा। क्रमसे रानी गर्भवती भई पूर्ण कालमें पांगुला पुत्र जन्मा राजा पुत्रजन्मकी वधाई सुनके हर्षितहुआ । महोत्सव कराया ॥ बारहवें दिन सब कुटुम्बको भोजन कराके कुमरका पिंगलराय ऐसा नामकिया बाद कुम-*
रको अंते उरमें रक्खा बाहर प्रगट नहीं किया जब लोंगोनें पूच्छा तब उसप्रकारसे बोले कुमरका रूप अतिअद्भु-15 दूतहै दृष्टिदोप न हो जाय इस लिये बाहर नहीं निकालते हैं ॥ तब सबनगरमें ऐसी प्रसिद्धिभई कि पिंगल |
राजकुमरके सदृश पृथ्वीपर और कोई रूपसौंदर्यवान् नहींहै वाद क्रमसे कुंवर बड़ा हुआ इसअवसरमें अयो-है। ध्यासे सवास योजनदूर मलयनामका देश है ॥ वहां ब्रह्मपुरनामका नगर है वहां इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्रीय शतरथ नामका राजा उसके इन्दुमती नामकी पटरानी उन्होंके गुणसुंदरी नामकी पुत्रीहुई ॥ अतिशय रूपलावण्य सौभाग्यादि गुणयुक्त होतीहुई । उसराजाके पुत्रनहींथा एकही पुत्री थी ॥ इस कारणसे माता पिताके | अत्यन्त वल्लभथी ॥ बाद पुत्रीको वर योग्यजानके उसके योग्य नहीं वर मिलने से राजा उसके विवाहकी चिंतामें 2 आतुर हुआ ॥ उस अवसरमें उसनगरके रहनेवाले व्योपारी बहुतप्रकारके क्रयाणोंसे गाडाभरके देशान्तर जानेको तय्यार भये तब उन्होंसे राजाने कहा ॥ देशान्तर फिरतेहुए तुमको गुणसुंदरी योग्य वरकी प्राप्ति होवे ।
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ल
दीवा०तो विवाह सम्बन्ध करना ऐसा राजाका वचन सुनके अंगीकारकरके वह चले क्रमसे बहुत नगरोंको देखते हुए मेस्त्रयोव्याख्या अयोध्यानगरी गए वहां सब क्रयाना वेचा बहुत लाभ भया । वहांके क्रयाने खरीदे जब रवानेहोनेकी तयारी | दशीका
भई तब अपने राजाका वचन याद आया नगरवासी लोगोंके मुखसे कुमरका अद्भुतरूप सुनके राजाके पासमें व्याख्यान. ॥७१॥
जाके कुमरके साथ गुणसुंदरीका विवाह सम्बन्ध किया ॥ राजाभी मासूल वगैरहः छोड़के बहुत आदर किया। वादमे व्यापारी हर्षित होके अपने देशतरफ चले ॥ क्रमसे अपने नगर जाके राजाके आगे सब वृत्तान्त कहा ॥ राजाभी कुमरका अद्भुत् सौभाग्यादि गुण सुनके संतोष पाया वाद जब कन्या वरयोग्य भई तब कुमरको बुलानेके वास्ते राजानें अपने पुरुषोंको भेजे वह अयोध्या जाके अनंतवीर्य राजासे बोले हे महाराज विवाहके वास्ते कुमरको । जल्दी भेजो ॥ राजा सुनके चित्तमें उद्वेग पाया वाद जल्दी उठके राजाने एकान्तमें जाके रानी और प्रधानके 8 आगे इसप्रकारसे कहा अब क्या करना पुत्र तो पांगला है ॥ इसका विवाह कैसा होगा पंगुको अपनी कन्या कौन देगा तब प्रधानमंत्रीने किंचित विचारके उन सेवकोंकों बुलाके इसप्रकारसे बोला इसवक्तमें यहां कुंवर नहीं है ॥ मामेके घरमेंहै मामेका घर तो यहांसे दोसै योजन मोहनीपतनमेंहै इसलिये इसवक्तमें लन नहीं होवे । |पीछे जाना जायगा यह सुनके सेवक बोले हे स्वामिन् मार्ग दूर है इसकारणसे लग्नका निश्चय कर देओ ॥ और आपभी लग्नपर जल्दी आना थह सेवकोंका वचन सुनके सोलहमहीनोंके बाद लग्न होगा ऐसा निश्चयकिया ॥
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| बाद लग्नलेके सेवक मलयदेश गए । अनंतवीर्य राजा चिंतातुर होके बोले अब यहां क्या उपाय करना सोलह महीना तो जल्दी चला जायगा तब राजारानी मंत्रीने बहुत विचार किया परंतु कोई उपाय नहीं मिला इस | अवसर में नगरी के उद्यानमें पांचसे साधूसहित चारग्यानधारी गांगिल नामके साधू आए वनपालकने भक्तिः किया नगरमें जाके अनंतवीर्यराजासे बधाई दिया || राजा वनपालकके मुखसे साधुओं का आगमन सुनके वनपालकको संतोषके हाथी घोड़ा वगैरहः ऋद्धिःसहित वंदना करनेको आए । क्रमसे मुनियों के पास जाके विधिः से वंदना करके आगे बैठे परषदा मिली गुरु उपदेश देते भए वह इसप्रकार से |
जीव दायाइ रमिजइ, इन्दियवग्गो दमिज्जइ सयावि । सच्चं चैव वदिजइ, धम्मस्स रहस्तं इणं चैव ॥ १ ॥ | जयणाउ धम्म जणणी जवणा धम्मस्स पालणी चेव । तह बुड्डिकरी जयणा, एगंत सुहा यहा जयणा ॥२॥ आरंभे नत्थि दया, महिला संगेण नासए बंभं । संकाए सम्मतं, पवज्जा अत्थ गहणेण ॥ ३ ॥ जेवम्भचरे भट्टा, पाए पाडंति बम्भयारीणं । ते हुंति टुंटमुंटा, वोही पुण दुलहा तेसिं ॥ ४ ॥
अर्थः- जीवदायामें रमण करना निरंतर इन्द्रियवर्गको दमना सत्यही बोलना यह धर्मका रहस्य है ॥ १ ॥ जीवकी दया धर्मकी माता है दया धर्मकी पालनेवाली है तैसे धर्मकी वृद्धिः करनेवाली दया है एकान्तसुख प्राप्तकरने
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दीवा०वाली दया है ॥ २॥ जीव हिंसामें दया नहीं है ॥ स्त्रीके संगसे ब्रह्मचर्यःका नाश होवेहै शंका करनेसे सम्यक्त्वका मेरुत्रयोव्याख्या०६
18नाश होयेहै और धनग्रहणसे चारित्रका नाश होवेहै ॥३॥ जे ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट ब्रह्मचारीके पास नमस्कार करावे 8| दशीका
है वह टूटा मूंगा होवे है और बोधी जिनधर्मकी प्राप्तिः जन्मान्तरत दुर्लभ होवेहे ॥४॥ तथा धर्मका मूल दया व्याख्यान, ॥७२॥18
है पापका मूल हिंसाहै ॥ एक हिंसा करे और करावे और करमेको भला जाने ये तीनों सदृश पापका भजनेवाला होवेहै और जो हिंसा करता हुआ मनमें त्रास नहीं पाये उसके हृदयमें दया नहींहै जो जीव निर्दयभया बहुत एकेन्द्रिय जीवोंका विनाश करे वह परभवमें वातपित्तादिरोगी होवे जो वेइन्द्रियजीवोंकी हिंसाकरे वह परभवमें मुखरोगी, मूक दुर्गन्धनिश्वासवाला होवे जो तेइन्द्रियोंकी हिंसा करनेवाला होवै उसके नासिकामें रोग होवे ॥ जो चौरिन्द्रिय जीवोंकी हिंसा करनेवाला हो वह आंधा काणा नेत्ररोगी होवे ॥ जो पंचेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा करनेवाला होवे वह परभवमें बहरा होवे और जो एकइन्द्रियसे लेके पंचेन्द्रियजीवोंकी हिंसा करे उसकी जन्मान्तरमें पांचों इन्द्रियां रोगसहित होवे तिस कारणसे अहो भव्यो हिंसा असत्य चौरी मैथुन परिग्रहादिकका सर्वथा त्याग करना इत्यादि धर्मोपदेश सुनके राजा गुरूसे पूछताभया हेखामिन् मेरा पुत्र किस ॥ ७२ ॥ कर्मसे पांगुला भया तब गांगिलमुनिः बोले इसका पूर्वभव सुन इस जम्बूद्वीपके ऐरवतक्षेत्रमें अचलपुरनामका नगरमें महेन्द्रध्वज नामका राजा उमया नामकी पटरानी उन्होंके सामंतसिंहनामका पुत्रभया वह कुमर
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चा. व्या. १३
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| पाठशाला में पठने के वास्ते जाता भया जुवारियों के साथसे जुआ सीखा क्रमसे सात व्यसन सेवनेमें ततपर भया राजाने बहुत मना किया तब भी सातव्यसनको नहीं छोड़ा तब अयोग्य जानके देशसे वाहिर निकालुदिया तो भी व्यसनको नहीं छोड़ा देशाटन करता हुआ सुरपुरनगर में आया वहां चंपकसेठने सुंदर आकार देखके उत्तम पुरुष यह है । सुकुमार है इससे और कार्य नहीं होगा ऐसा जानके इससेविशेष कार्य नहीं होगा ऐसा विचारके अपने घरके पासमें जिनमंदिरकी रक्षा के वास्ते सामंतसिंहको अपने घरमें रख्खा बाद वह दुष्टात्मा तीर्थकरके आगे चढ़ाएहुए चावल सुपारी वगैरह छानालेके जुआ रमनेको गया कितने दिनों के बाद सेठने वह जानके उससे कहाहे भद्र जो पुरुष देव द्रव्यादिक खावे वह अनंतकाल संसार में परिभ्रमण करे इसकारण से अब यह कार्य नहीं करना ऐसा बहुत वक्त उपदेश दिया तो भी वह दुष्ट मित्थात्व अज्ञानादितीत्रकर्मके उदयसे नही निवृत्त हुआ ॥ एकदा प्रभुःका छत्रादिआभरण लेके अनाचार सेवता भया तब सेठने वह खरूप जानके घरसे वाहिर निकालदिया बाद जंगल में फिरता भया मृगया करता भया बहुत जीवोंको मारकर पेटभरे ॥ अथ उसी वनमें तापसोंका आश्रम है | वहां बहुतसे तापस तप करते हैं मृग भी वहां आकर बैठते हैं एकदा एक गर्भवती मृगी आश्रम में आतीथी सामन्तसिंहने उसका चारों पग वाणसे काट दिया मृगी गिरगई तापसोने देखी धर्म सुनाया मृगी मरकर सद्गतिगई बादतापस सामन्तसिंह से बोले जैसे तैंने हमारी मृगीका पग काटा वैसा तैं भी परभव में पांगुला होगा । ऐसा शाप देके
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दीवा० व्याख्या०
॥ ७३ ॥
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अपने आश्रम गए सामन्तसिंह भी तापसोंको क्रोधी देखके डरा वहांसे भागके चलागया पापकर्मके योगसे सामने सिंह मिला शीघ्र सिंहने मारा वह मरकर नरक गया नरकसे निकलकर असंख्यात तिर्यञ्च नरकादिकके भवकरके अकामनिर्जरासे वहुतकर्मोंको खपाके महाविदेहक्षेत्र में कुसमपुरनगर में विशालकीर्तिराजाके घरमें | शिवानामदासीका पुत्रहुआ उसने वज्रनाम दिया क्रमसे यौवन पाया राजाकी सेवा करता भया परन्तु पूर्वकृत कर्मके उदयसे उसके शरीर में गलितकुष्ट रोग उत्पन्न हुआ || हाथ पग गलके पड़ा पांगुला होगया ॥ बाद मरण | समय में शिवदासीने नौकार सुनाया समाधिः से मरके व्यन्तर देव भया वहांसे च्यवके जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र सोहाग - पुरनगर में शूरदास सेठ के घर में वसंततिलकाभार्याके स्वयंप्रभनामका पुत्र भया वह गुणवान् विवेकवान् परन्तु पगों में व्रणरोग युक्तही उत्पन्न हुआ इसलिये चलनेको असमर्थथा क्रमसे आठवर्षका भया एकपुत्र होनेसे माता पिता उसके दुःखसे दुःखी भया उससमय में श्री शत्रुंजयतीर्थ की यात्रा करनेको संग गया तब वह सुनके सेठभी पुत्रसहितसंघके साथ चला क्रमसेसिद्धक्षेत्र में संघ पहुंचा विधिसे पर्वतपर चढकर श्रीऋषभदेवखामीकी यात्रा किया शूरदाससेठ भी स्त्रीसहित पुत्र लेकर तीर्थके ऊपर जाकर सूर्यकुंडके जलसे पुत्रको स्नानकराया परंतु वह जल देवता अधिष्ठित है स्वयंप्रभके वह कर्म हालमें नहीं क्षय हुआ है इसकारण से सूर्यकुण्डका जल पगों को नहीं स्पर्शे वह देख के | लोगों को आश्चर्य भया तब संघके लोगोंने मुनीश्वर से पूछा हे खामिन् यहाँ क्या कारण है मुनि बोले इसने बहुत भवसे
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मेरुत्रयोदशीका
व्याख्यान.
| ॥ ७३ ॥
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पहले देवद्रव्य खायाथा | एक मृगीका चारपग काटाथा वह कर्मबहुतक्षय होगया थोड़ासा बाकी है इसकार - णसे तीर्थजलनही फर्शता है तीव्रकर्मको भोगनेसिवाय क्षयनहींहै ऐसा मुनिःका वचन सुनके माता पिता पुत्रवैराग्य प्राप्त भया बाद श्री ऋषभदेवखामी के चरणों मे नमस्कारकरके ॥ घरआके धर्म करने में उद्यमवान भये इसप्र कारसे सोलह हजार वर्ष कुष्ट प्रणादिपीड़ा भोगवके उस कर्मको आलोयके काल करके पहले देवलोक में देव हुआ वहांसे व्यवके हे राजन् अनंतवीर्य यह तुम्हारा पुत्र भया पिंगलराय इसका नाम है इसप्रकारसे गांगिलमुनिः कुम|रका पूर्वभव कहके वोले ॥
मद्यपानाद् यथा जीवो, न जानाति हिताहिते । धर्माऽधर्मो न जानाति, तथा मिथ्यात्वमोहितः॥१॥ मिथ्यात्वेनालीढचित्ता नितान्तं, तत्वातत्वं जानते नैव जीवाः ।
किं जात्यन्धाः कुत्रचिद्वस्तुजाते, रम्यारम्यव्यक्तिमासादयेयुः ॥ २ ॥ |अभव्याश्रितमिथ्यात्वेऽनाद्यनन्तास्थितिर्भवेद् । सा भव्याश्रितमिथ्यात्वेऽनादि सान्ता पुनर्मता ॥ ३ ॥ अर्थ, जैसे मदिरापान करने से जीव हिताहित नही जानता है वैसे मिथ्यात्व से मोहित प्राणी धर्माऽधर्म नहीं जानताहै ॥ १ ॥ मिथ्यात्व से व्याप्त है अत्यन्तचित्त जिन्होंका ऐसे जीव तत्वातत्वको नहीं जानते हैं दृष्टान्त कहते है
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दीवा० व्याख्या०
॥ ७४ ॥
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| जन्मान्ध पुरुष कोई वस्तुका रम्य अरम्यपना क्या जानसकता है किंतु नहीं जानसकता ॥ २॥ मिथ्यात्व अभव्याश्रितमिध्यात्वकी अनादिअनंत स्थिति होवेहे और भव्याश्रितमिध्यात्वमें अनादिसान्तस्थितिः होवेहे ॥ ३ ॥ हे राजन् ऐसे मिथ्यात्व के उदयसे जीव कर्मबांधते हैं तुम्हारे पुत्रने भी इसीप्रकारसे पापकर्म उपार्जन किया है उससे पांगुला भया यह मुनिःका वचन सुनके राजा बोले हे भगवन् यह कुकर्म किस धर्मके अनुष्ठानसे नष्ट होवे तब मुनिः बोले हेराजन् तीसरे आरेके अंत में तीन वर्ष साढ़े आठ महीना बाकी रहने से माघवदी त्रयोदशी के दिन श्रीऋष भदेव स्वामीका निर्वाणकल्याणक भया । उसलिये वह दिन श्रेष्ठ है उस दिन चौविहार उपवासकरके रत्नमई पंचमेरु तीर्थकरके आगे चढ़ाना वीचमें एक बड़ामेरु चार दिशा में चार छोटा मेरु उन्होंके आगे चार दिशामें चार नंद्यावर्त करना दीप धूपादिपूर्वक बहुत प्रकारकी पूजा करना इसप्रकार से तेरह महीनोंतक अथवा तेरह वर्षतक यह तप करना तथा ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवपारंगताय नमः इसपदका दोहज़ार जाप करना ऐसे महीने महीने करते सम्पूर्ण | रोगका क्षय होवे है इसभवमें परभवमें सुख संपदा पावे ॥ जो त्रयोदशीको पौषधकरे तबपहले कहा हुआ | विधिः पारनेके दिन करके गुरूकोपड़िलाभके पारना करे इसप्रकार से गुरूका वचन सुनके अनंतवीर्य राजा पुत्र सहित मेरु त्रयोदशीका व्रत अंगीकारकरके गुरुको नमस्कारकरके अपने ठिकाने गया बाद पिंगलराजकुंमर माघवदी त्रयोदशीको पहला व्रत किया तब पगोमें अंकुर प्रगटभये ऐसे तेरह महीनों तक तपकरनेसे सुंदर पग
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मेरुत्रयो
दशीका
व्याख्यान
॥ ७४ ॥
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प्रगट भये राजा अतीवहर्षप्राप्तभया धर्मका महिमा देखके हुल्लास पायाहै चित्त जिन्होंका विशेष करकेधर्म कर-है नेमें प्रवर्तमान् हुआ बाद सोहलवें महीने में गुणसुंदरीका पाणिग्रहण किया ॥ और बहुतराजकन्याओंका पाणिग्र-17 हण किया वाद अनंतवीर्य राजा कुंमरको राज्य देके गांगिलमुनिःके पास चारित्र लेके निरतिचारचारित्रपालके|8 श्रीशनंजयतीर्थपर अनशन करके मोक्षगए वाद पिंगलराजा नीतिसे राज पालता भया और तेरहवर्षतक मेरु त्रयोदशीको आराधके अंतमें उजवणाकिया ॥ तेरह जिनमंदिर कराया तेरह सुवर्णकी प्रतिमा तेरह चांदीकी प्रतिमा तेरह रत्नकी प्रतिमा करवाई तेरह प्रकारके रत्नोंका पांच मेरुकरवाके चढाए तेरह वक्तसंघसहित तीर्थयात्रा किया तेरह साधर्मी वात्सल्य किया इसप्रकारसे बहुत ज्ञानभक्तिःकिया तेरह पुस्तक वगैरहः करवाके चढ़ाया बाद कितने पर्ववतक व्रतसहित राज्यपालके महसेन कुमरको राज्य देके श्रीसुव्रताचायके पासमें बहुत पुरुषोंके साथ दीक्षा ग्रहणकरी बारह अंग अध्ययन करके चौदह पूर्वधारी हुए क्रमसे आचार्य पद पाया बाद क्षपक श्रेणीचढनेके लिये आठवें गणस्थानको शुक्ल ध्यानका पहला भेद ध्याते भये ॥ बाद क्रमसे कर्म क्षय करतेहुए बारहवें गुणहै स्थानकके अंत समयमें सर्वघाती कर्मका शुक्लध्यानका द्वितीय भेद ध्यानेसे क्षय करके तेरहवें गुणठानेके प्रथमसमयमें केवलज्ञान पाके बहुत भव्योंको प्रतिबोधता भया पृथ्वीपर विहार करता हुआ ॥ बाद वहत्तर पूर्वलाखवर्षका सयुः पालके योगनिरोधकरके पांचहखअक्षर उच्चारणकाल प्रमाण चौदहवें गुणठानेमें रहके शेष चार कर्मका
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दीवा० व्याख्या०
।। ७५ ।।
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क्षयकरके मोक्ष गए यहां शरीरका त्याग करके पूर्वप्रयोग बंधनछेदादिकसे सिद्धशिला के ऊपर एकयोजनका चोवीसवां भागऊपरका लोकान्तसिद्धिः क्षेत्र में एक समय में जाके सादिअनंत स्थितिः से रहे । इसप्रकार से पिंगलरायसे मेरु त्रयोदशीका महिमा प्रवर्तमान हुआ । भगवान् महावीरखामीने गौतमखामीवगैरहः के आगे मेरु त्रयोदशीका महात्म्य फरमाया पहले रत्नमयी मेरु चढ़ातेथे वाद स्वर्णमयी उसके बाद रूपेमयी चढ़ते भए इस वक्त घृतमयी मेरुचढ़ाते हैं इसप्रकार से मेरु त्रयोदशीका माहात्म्यः सुनके अहो भन्यो शुद्धभावसे विधिःपूर्वक यह व्रत आराधना | जिससे इस भव में परभव में सवप्रकार के सुखकी प्राप्ति होवे | इतने कहनेकर मेरु त्रयोदशीका व्याख्यान सम्पूर्ण हुआ । अब होलिका पर्वका व्याख्यान लिखते हैं
| होलिका फाल्गुने मासे, द्विविधा द्रव्यभावतः । तत्राद्या धर्महीनानां, द्वितीया धर्मिणां मता ॥ १ ॥ अर्थः- फल्गुनमहीने में चतुर्मासकपर्व है दूसरा होलिका पर्व है वह होलिका द्रव्यभावसे दो प्रकारकी होवे है वहां द्रव्यहोली धर्महीन पुरुषकरते हैं भावहोली धर्मियोंके होते है | वहां जो अज्ञानी सत् असत् विवेकरहित सामान्यलोगों के प्रवाह में रक्त श्रीजिनधर्मसेविमुख गतानुगतिक लोक वह काष्ट छानादिकसे अग्निमयी द्रव्यहोली करतेहैं धार्मिकपर्वकी विराधना करते है और दूसरे दिन धूलिसे क्रीड़ा करना अवाच्य बोलना मलमूत्रजलादिकका
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| होलिका
पर्वका
व्याख्यान.
।। ७५ ।।
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CROCHECRUSSACRORSCOCOCOM
परस्पर डालना स्त्री वगैरह का वस्त्र खींचना गधेपर पुरुषको चढ़ाकर विडंबनाकरना इत्यादि यह सर्व अनर्थ दंड जानके धार्मिकोंको त्याग करना जो धर्मीलोगहैं वह तप रूप जागृत अग्निःसे कमरूपकाष्ट छानोंकों भस्मीकरणरूप
भावहोली करतेहैं शोभनध्यानरूपी जलसे परस्परखेलते हैं ज्ञानरूपगुलाल उड़ाते हैं समता रूपकेसरकी पिचकारीसे भारमतेहैं ॥ स्वाध्यायरूपगीत गान करतेहैं इसप्रकारसे भावहोलीकरके अपना जन्म सफलकरते हैं प्रश्न ये लौकिक होलीपर्व किसकारण प्रवर्तमानहुआ ॥ आचार्य उत्तर कहतेहैं सम्प्रदायगम्य कथानकहै ॥ पूर्व देशमें जैपुर नामका नगरहै वहां जयवर्मा नामका राजा मदनसेना पटरानी और मतिचंद्र नामका मंत्री उसीनगरमें मनोरमनामका एक सेठ रहताथा उसके चार पुत्रोंके ऊपर अत्यन्त रूपवती होलिका नामकी पुत्री उसको बहुत उत्सबके साथ पिताने धनवान् सेठके पुत्रको परणाई ॥ परन्तु कर्मके वशसे विधवा भई सर्वदा पिताके घरमें रहे अन्यदागवाक्षमें बैठीभई होलिकाने वंगदेशका खामी भुवनपाल राजाका पुत्र कामपाल कुमरको देखके कामपीड़ितभई कुमरभी : होलिकाको देखके अत्यन्त कामव्याप्त हुआ तब सेठ पुत्रीको गुप्त पीड़ासे पीड़ित देखके दुःखी हुआ बहुत उपाय किया परन्तु होलिका तो दुर्बल होतीभई बहुत इलाज किया औषध, भेषज, मंत्र, तंत्र करनेसे कुछभी गुण भया है नहीं सेठ पुत्रीके दुःखसे दुःखी भया बाद उसनगरमें एकढुंढा नामकी परिव्राजकनी रहतीथी ब्राह्मणके कुलमें उत्पन्नभई चन्द्ररुद्र भाण्डकीपुत्री अचलभूती भरडेकीस्त्री नगरमें प्रसिद्ध कूड़ कपट करनेवाली लोगोमें झाड़ा झूड़ा
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दीवा० व्याख्या
होलिकापर्वका
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वगैरेहः करतीथी तथापि उसको भिक्षा पूरी न मिले सबदिन घर घरमें फिरतीरहे परन्तु लाभान्तरायसें कहीं भी पूर्ण भिक्षा नहीं पाये क्षुधासे पीड़ितभई दुर्बल अंग जिसका ऐसी लोगोंपर क्रोध करतीभई बाद मनोरमसेठने उस दाको वलाई सत्कार किया और कहाकि माताजी मेरीपुत्रीको अच्छीकरो तब ढुंढाने उस होलिकाको देखी
प्रकारका रोग नहींजानके एकान्तमें पूछाकि पुत्री तेरे मन में क्या चिंताहै सो कह तब होलिकाने उस ढंढाको ना अभिप्राय कहा तब ढुंढा बोली हे पुत्री रविवारके दिन पूजाके मिससे सूर्य देवके मंदिरमें आना ॥ वहां नो कमरका संग कराऊंगी इसकारणसे जान, यात्रा, जागरण उत्सवोमें दुर्लभ मनुष्योंका संगम होवेहै यथेष्ठ भिचारादिककी सिद्धिःहोवे है बाद रविवारके दिन होलिका वहां गई कुमरभी तपखिनीके संकेतसे वहां आया होलिका विधिःसे सूर्यकी मूर्ति को पूजके जितने पीछी चली उतने कुमरने उसको आलिंगनकरी तब होलिकाने कमरके पीठपर हाथका प्रहारदेके पुकारकरी मेरेपरपुरुषके स्पर्शसे पाप हुआहै उसकी शुद्धि के लिये अग्निमें प्रवेशकरूं तब मरनेको तय्यार भई गुप्त दंभहे जिसका ऐसी पुत्रीको पिता अपने घरलेआया ॥ बाद फाल्गुन पौर्णमाकी रात्रिमें तपखिनीने ओर उन्होंका सम्बन्ध कराया और आप उसके समीप घरमें सोती निश्चिन्त होनेसे जादा निन्द्राआई सिद्ध कार्य होनेसे बादमें होलिका और कुमरने विचार किया।
पटों भियते मन्त्रश्चतुष्कों न भिद्यते। द्विकर्णस्य च मत्रस्य ब्रह्माऽप्यन्तं न गच्छति ॥१॥
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| अर्थः- है कानके विचारका भेद होवे चार कानकी बातका भेद होवे या न होवे दो कानके विचारका ब्रह्माभी भेद न पावे ॥ १॥ ऐसा विचारके होलिका अपने घरमें सोती हुई तपखिनीका घर जला के शीघ्र कुमरसहित वहांसे अन्यत्र जाके रही प्रभातमें पुत्रीको जलीहुई जानके सेठने बहुतविलाप किया तब लोगोंने होलिकाको सती समझके उसकी भस्मको नमस्कार किया और मस्तक में लगाई ॥ तबसे लेके प्रतिवर्ष उसदिन होलिकापर्व प्रवर्तमान हुआ वह अभी भी परमार्थशून्य लोग करते हैं बाद कितने दिन जानेसे कुमर होलिकासे बोला अब धन नहींहै इसलिये धन | कमानेको विदेश जाऊं तब होलिका वोली हे खामिन् मेरा कहा हुआ उपाय करो | जिससे धनकी प्राप्तिः होवे | आप मेरे पिताकी दुकान जाओ मेरे वास्ते मोलसे साड़ी लेआओ तब वह वहां जाके साड़ीलेआया स्त्री बोली यह मेरे योग्य नहीं है दूसरी ले आओ वह दूसरी ले आया उसको अयोग्य कही और पीछीदिया तब सेठ बोले तुम्हारीस्त्री आपआके अपनी परीक्षासे साड़ी लेलेवे तब कुमर स्त्रीको सेठकी दुकानपर ले गया उसको देखके सेठ बोला यह तो मेरीपुत्री है तब कामपाल कुमर बोला अहो श्रेष्ठ सेठ आप अपनी पुत्रीको अग्निमें जलीभई क्या नहीं | जानते हैं | जगत् जाहिर बात है परन्तु पहले सूर्यदेव के मंदिरमें आपकी पुत्रीको देखके मेरेको अपनी स्त्रीका भ्रमहु आथा इसवक्त में मेरी स्त्रीको देखनेसे आपको अपनी पुत्रीका भ्रम भया है | इसका कारण यह है कि दोनोंका रूप परस्पर तुल्य है और कारण नहीं है तब यह वचनसुनके सेठ हर्षित हुआ और कामपाल कुमरसे बोला आजसे यह
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दीवा० व्याख्या
तुम्हारी भार्या मेरी पुत्रीके ठिकाने होवो यही मेरी पुत्रीहै उसदिनसे लेके सेठने प्रीतिसे उन्होंको भोजन अलंकारवस्त्रव
| होलिकागैरहः सब पूर्णकिया कुमरको अपना जमाईकरके रखलिया अब वह ढुंढापरिव्राजकनी मरके पिशाचनी भई पूर्वभवकों पर्वका यादकरके उसने जाना इसनगरमें रहनेवाले लोग दुष्टहैं मेरेको भिक्षाभी नहींदेतेथे बाद वह क्रोधातुर हुई लोगोंको व्याख्यान. चूरणेके वास्ते उसनगरके ऊपर बड़ी शिलाविकुर्वण करी और प्रबल भाग्ययुक्त होलिकाको मारनेको नहीं समर्थ । हुई तब नगरके लोग डरे बलिदान दिया तब पिशाचिनी किसीके शरीरमें प्रवेश करके बोली अहो लोगो में ४ पूर्वके दोनों कुलका वात्सल्य करनेवालीहूं इसलिये भांड़ और भरडाको छोड़कर और सबको मारूंगी बाद लोग मरनेसे डरे हुए और जीने का उपाय नहीं पाते हुए भांड भारडोका आश्रयकिया अपने जीवितके वास्ते सज्जनोंकी मर्यादा छोड़ी असत्यवचन बोलनेवाले दुष्ट वादित्र बजानेवाले ऐसे भांड़ सदृशभये और भस्म धूली कादा वगैरहः। शरीरमें लगाया भरडो जैसे भए तब पिशाचनी प्रसन्नभई और बोली वर्ष वर्ष में होली के दूसरे दिन यह पर्व करना ऐसा कहके चलीगई तबसे यह पर्व प्रवर्तमान हुआ ॥ अब होलिकाका पूर्व भव कहते हैं। | पाटलिपुरनगरमें ऋषभदत्तनामका सेठ रहताथा उसके चन्दना नामकी स्वीथी उन्होंके दो पुत्रों के ऊपर देवीनामकी पुत्रीभई ॥ रूप लावण्यादिगुणोंकरके अतीव शोभितथी कन्या आठ वर्षकी भई तब पिताने पढ़ाई कन्या ४ अपनी माताके साथ पौषध प्रतिक्रमण सामायकादि धर्मकृत्य करतीभई यथाशक्ति व्रत नियमभी पाले उसके घरके
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समीप में मिथ्यात्वी लोग रहते थे उन्होंकी कन्याओंके साथ बैठे उठे फिरे ब्राह्मणों के पास कथाभी सुने यद्यपि | जैनधर्मपाले तथापि संगत के बससे औरधर्मोपरभी आदर करती थी चैत्र, ज्येष्ठ श्रावणादि महीनों में गौरी, गणपति वगैरहका पूजन करनेसे सुंदरनर की प्राप्तिः धनधान्यकी प्राप्तिः ऐसी वार्ता उसको रुचे ॥ बाद एकदा कुमारीने मनमें विचार किया जैनधर्म में बीतरागदेव है वह कुछभी सुंदर असुंदर नहीं करे है सांख्यादिमतमें तो ब्रह्माभी | जगतके कर्ता देव हैं विष्णुः रक्षणकरे है शिव संहार करे है इसलिये जो ईश्वर पार्वती की पूजाकरीजावे वह संतुष्ट मान होवे तव मनोवांछितसंसारिक सुखका लाभ होवे || ऐसा विचारके गणगौर वगैरहः मिथ्यात्वियोंके पत्र में आदर करनेवाली हुई बाद उसके मातापिताने बहुत मना किया है पुत्रि मिथ्यातियोंके पत्रका आराधन मतकर | चिंतामणिः रत्नकेसमान जैनधर्मको छोड़के काचखंड तुल्य और धर्म नहीं ग्रहणकरना अमृतका खाद छोड़के विपका खाद नहीं स्वीकारना विषपान करने से दुःखी होवेगी इत्यादि बहुत कहा परन्तु मिथ्यावियों के परिचय के कारण से | उसने कुछभी नहींमाना लौकिकपर्वका आराधन करने लगी जैसे जैसे लोग प्रशंसा करे वैसा वैसा खुशी होवे बाद | माता पिताने उस कन्याको वरप्रदान किया थोड़े कालसे मरके मनोरम सेठकी पुत्री भई कथाव्यास की पुत्री जिसके | साथ वाल्य अवस्था हीसे व्रत करती थी वह मरकर ढुंढा परिव्राजकनी भई और कथाव्यास मरके कामपाल कुमर भया। पूर्व भव के सम्बन्धसे ढूंढा परिब्राजकनीने कामपालका होलिका के साथ सम्बन्ध कराया इसप्रकार से वृथाही उत्पन्न
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होलिकापर्वका व्याख्यान.
दीवा. हुआ होलिकापर्व जानके बुद्धिमान् भव्यात्मको शुभके वास्ते वह नहीं करना किंतु उसदिन व्रत उपवासादिजिन पूजादि- व्याख्या
पौषध प्रतिक्रमणादिधर्म कार्य करना होलिका सम्बन्धी लौकिक कार्य कुछभी नहींकरना जोहोलिकाकी ज्वालामें| गुलालकी एक मुट्ठीडाले उसको दश उपवासका प्रायश्चित्तहोवे हैं एक कलशप्रमाणे जल डालनेसे सौ उपवासका प्रायश्चित्त होवे है मूत्र डालनेसे पचास उपवास छाना डालनेसे पचीस उपवास एक गाली देनेसे पन्द्रहउपवास असभ्य गीत गानेसे डेढ़सौ उपवास वादित्र बजानेसे सत्तर उपवास एक छाना डालनेसे वीस उपवास छानोंका हारडालनेसे जन्मान्तर सौवक्त अपना शरीर भस्म होवे श्रीफल डालनेसे हज़ार वक्त भस्म होवे ॥ एक सुपारीका फल डालनेसे पचासवार धूली डालनेसे पञ्चीसवार होलिलाके लिये खड्डाखोदनेसे सौयार होलिकाका खड्डा काष्ठसे भरनेसे हजारों बार जन्मान्तरमें भस्म होवेहै होलिका जलानेसे हजारों चाण्डालके भवमें उत्पत्ति होवेहै होलिका व्रत करनेवाला हजारों वार म्लेच्छ कुलमें उत्पन्न होवे हैं इसप्रकारसे पाप जानके कल्याणके अर्थी आत्म
हितेच्छुः श्रद्धालुः जनोंको ए द्रव्यहोलिकाका त्याग करके भावहोलिकाहीआराधना उसीसे इसभवमें परभवमें हुवांछित अर्थकी सिद्धिः होवे इतने कहने कर होलिकाका व्याख्यान कहा ॥ अग्रेतनवर्तमानयोगः ॥
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अथ चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान लिखते हैं। तीर्थराजं नमस्कृत्य, श्रीसिद्धाचलसंज्ञकम् । चैत्रशुक्लपूर्णिमाया, व्याख्यानं क्रियते मया ॥१॥
सिद्धो विज्झायर चक्की, नमि विनमि मुणी, पुण्डरीयों मुणिन्दो । वाली पजुन्न संवो, भरह सुकमुणी सेलगो पंथगोय। रामो कोडीय पञ्च,द्रविड नरवइ नारओ पण्डुपुता,
मुता एवं अणेगे विमलगिरमहं तित्थमेयं नमामि ॥२॥ अर्थः-श्रीसिद्धाचल नामका तीर्थराजको नमस्कार करके चैत्रसुदीपौर्णमासीका व्याख्यान मैं लिखताहूं ॥१॥ 8 मैं विमलाचल नामके तीर्थको नमस्कार करूं हूं वहां अनेक भव्य प्राणी मोक्ष गए हैं सो कहते हैं जिस विमलाचFलतीर्थपर विद्याधरचक्रवर्ती श्रीयुगादिदेवके पोषक पुत्र नमि विनमि नामके मोक्ष गए उन्होंका सम्बन्ध यह है|
अयोध्या नगरीमें भगवान् ऋषभदेवखामी अपने बड़े पुत्र भरतकोअयोध्याका राज्य देके और पुत्रोंको और देशोंका
विभाग करके दीया भगवान्ने दीक्षालिया तब नमि विनमि कोई कार्यके लिये विदेश गए थे भगवान् के दीक्षा १४लियों बाद नमि, विनमि आये भरतसे पूछा ऋषभदेव हमारे पिता कहां हैं भरत बोले खामीने दीक्षा ग्रहणकिया है
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॥ ७९ ॥
दीवा०६ मेरी सेवाकरो मैं तुझे देशग्राम दूंगा तब नमि, विनमि भरतका वचन नहीं मानके राज्यके वास्ते खामीके पासमें चैत्रीपीव्याख्या० आए विहार करते हुए भगवान्के आगे मार्गमें कांटापत्थर वगैरहः दूरकरें भगवान् जब काउसग्गमें खड़ेरहें ६
णिमाका तब डांसमच्छर वगैरहः उड़ावें प्रभातमें वंदना करके कहें खामिन् राज्य देनेवाले होवो ऐसे कहतेहुए निरंतर रहें ले
व्याख्यान, एकदा भगवान्को वन्दनाकरनेके वास्ते धरणेन्द्र आया उन्होंकी वैसी भक्तिः देख प्रसन्न हुआ ॥ भगवान्का रूप द करके उन्होंको अड़तालीस हजार पठितसिद्धविद्या दिया सोलह विद्या देवीका आराधन दिया वैताब्य पवेतपर?
दक्षिणश्रेणीमें रथनूपुर चक्रवाल प्रमुख पचास नगर और उत्तर श्रेणीमें गगनवल्लभ प्रमुख साठ नगर वसाके दिया
वहां विद्याके बलसे लोगोंको बुलाके जितने नगर उतनेही देश स्थापके नमि विनमि अलगअलग राज्य पालते भए । टू रहे बहुतकाल राजसुखभोगवके अंतमें सर्वसंगका त्याग करके दीक्षालेके श्रीभरतचक्रवर्तीके संघके साथ श्रीसिद्धाचल तीर्थपर आके श्रीयुगादिदेवको नमस्कार करके फाल्गुनसुदीदशमीके दिन उसी तीर्थपर मोक्षगए इतने कहनेकर नमि, विनमिका सम्बन्ध कहा ॥ अथ श्रीऋषभदेवस्वामीके प्रथमगणधर श्रीपुण्डरीकनामके यहांही
x ॥ ७९ ॥ ६ मोक्ष गए हैं उन्होंका सम्बन्ध कहतेहैं। श्रीऋषभदेवखामीका पुत्र भरतचक्रवर्ती उन्होंका पुत्र पुंडरीक श्रीऋषभत देवः खामीके पासमें धर्म सुनके प्रतिवोधपाके दीक्षा लेके पहले गणधर भए पांच करोड़मुनियोंसें परवरेहुए
ग्रामानुग्राम विचरते भए ॥ गणधर सोरठ देशमें आए श्रीपुंडरीक गणधरका आगमन सुनके अनेक राजा मंड
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लीक सामंत सेठ सार्थवाह वगैरहः बहुत लोग वंदना करनेको आए श्रीगणधरदेव धर्मदेशना देतेभए उस समय एक शोकसहित सजल नेत्र जिसके चिंतातुर दीन स्त्री आई उसके साथ दुर्भगा विधवा एक कन्याभी आई श्रीपुंडरीक गणधरको नमस्कार करके अवसर पायके कन्यासहित स्त्रीने पूछा हे भगवन् इस कन्याने पूर्वभवमें क्या पाप किया जिससे विवाह समय करमोचन वक्तमेंही इसका पति मरा ऐसा प्रश्न करनेसे गणधर बोले हे भद्रे अशुभ कर्मका अशुभही फल होवे है सो दिखाते हैं जम्बूद्वीप पूर्वमहाविदेह क्षेत्रमें विश्वविख्यात मनोरम कैलाश पर्व-13 तके सदृश ऊंचे गड़से वेष्टित बहुत देशोंके लोग जिसमे रहें ऐसा विशालशालाघरोंकरके मंडित चन्द्रकान्त नामका नगर होता भया वहां लक्ष्मीका धाम सर्वकला गुणका स्थान जगत्प्रसिद्ध समरसिंह नामका राजा भया उस राजाके शील अलंकार धारणेवाली धारणी नामकी रानी होती भई उस नगरमें महा धनाढ्य परमश्रावक जिनम|क्तिमें रक्त अनेकगुणोंका सागर ऐसा धनावह नामका सेठ भया उसके कर्मयोगसे दो स्त्रियां थीं पहली कनकश्री दूसरी मित्रश्री उन स्त्रियोंके साथ सेठ सुखसे काल व्यतिक्रान्त करे एकदा कामसे परवश भई कनकधी मित्रश्रीका
वारा उलंघके भर्तारके पासमें गई तब पतिः बोला आज तेरा वारा नहीं है तैने मर्यादाका कैसे उल्लंघन किया दूतब कामविह्वल कनकधी बोली क्या यह मर्यादा है तब भार बोला सतकुलमें उत्पन्न भयेको मर्यादा उलंघना
युक्त नहीं है समुद्रभी मर्यादा नहीं छोड़ताहै ॥ सत् पुरुष अपनी मर्यादासे नहीं चलते हैं बाद वह संतोपरहित |
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दीवा० व्याख्या०
॥ ८० ॥
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| मैला मुख जिसका ऐसी मित्रश्रीके ऊपर द्वेष धारती भई अपने घर गई शौक के साथ पतिसम्बन्ध वियोगचाहती भई कनकश्री विषयप्रमाद व्याकुल भई मंत्र तंत्र यंत्र कामणादि सामग्री करके उसके शरीर में भूतप्रेत शाकिनी डाकिनीका प्रवेश करादिया मित्र श्रीभी कर्मके योगसे परवश भई बाद कनकश्री शौकको कुचेष्टा करतीभई जानके हर्षित भई और अपने भर्तारको स्वाधीन किया सेठभी छोटी स्त्रीको वैसी देखकर पूर्वकर्मका फलविचारके त्याग | किया । तब कनकश्री हर्षित भई धनावह सेठ कनकश्री के साथ विशयसुखभोगवता भया रहा कितना काल जानेसे कनकश्री मरी तेरी पुत्री भई शौकका पतिके साथ वियोगकरनेसे विषकन्या कर्मका फल पतिविरहसे पीडित होना भोग सुखरहित ऐसा कर्म उपार्जन किया उस कारण से यह तेरी पुत्री महा दुःखों से दुःखित है कर्मोंकी विचित्र गति है तब उसकी माता और बोली हे प्रभो यह कन्या पतिविरहसे पीडित फांसीखाके मरतीथी मैंने देखके छुडाई आपके पास में लाई हूं आप कृपाकरके दीक्षा देवो तब गणधर वोले हे भद्रे यह तेरी पुत्री दीक्षा के योग्य | नहीं है बहुत चंचलखभाववाली है ऐसा गुरूका वचन सुनके उसकी माता बोली इसके योग्य धर्मकृत्य फरमाओ | उससे दुष्टकर्मका विपाक दूर होवे तब गुरु ज्ञानके बलसे उसके योग्य व्रत कहते भये हे भद्रे चैत्रशुक्लपौर्णिमाका | आराधन करो उसके आराधनेसे इसके पूर्व कर्मका नाश होगा ऐसा सुनके उस कन्या की भी गुरूके प्रभाव से रुचि - भई तब सावधान होके गुरुकी वाणी सुनी तब गणधर बोले श्रीसिद्धाचलतीर्थ शाश्वता है अनंतानंतकाल में अनंते
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चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान.
॥ ८० ॥
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जीव मोक्ष गएहैं सम्पूर्ण तीर्थों में प्रधान है उसका इक्कीस नाम हैं उन्होंका ध्यान करना चैत्रीपूर्णिमाके दिन शुद्ध भावसे उपवास करके जिनमंदिरमें सात्रपूजा महोत्सवादि करना सर्वतीर्थंकरोंकी पूजा करनी सद्गुरुःके मुखसेर |चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान सुनना दीनहीन प्राणियोंको दान देना और शीलपालना जीवरक्षा करनी विधिपूर्वक सिद्धाचलजीका पट्ट ऊंचे स्थानपर स्थापके मोती, तंदुलवगैरहः उत्तमपदार्थोंसे बड़ी पूजा करके अर्थात् दश वीस तीस चालीस पचास तिलक वगैरहः करके पंचशकस्तवादिदेव वंदनाकरके शुभध्यानसे दिनरात्रिका कृत्य करके , दूसरे दिन पारनेके समयमें मुनियोंको दान देके पारना करना पन्द्रह वर्षतकप्रतिवर्ष व्रत आरधना पीछे यथा-/ शक्ति उजवना करना ऐसे करनेसे निर्धन धनवान् होताहै पुत्र, कलत्र, सौभाग्य, कीर्ति, देवसुखक्रमसे शिव सुखकीप्राप्तिः होवे तथा स्त्रियोंके पतिवियोग न होवे रोग शोक वैधव्य दौर्भाग्य मृतवत्सा परवशपना इत्यादिक न होवे इसके आराधनसे स्त्री पतिवल्लभ होवे और विषकन्या भूत प्रेत शाकिनीग्रहादिक दोष नष्ट होवे जादा कहनेसे क्या भावसे आराधीभई चैत्रीपौर्णिमा मुक्तिः सुख देवेहै । ऐसा गणधरके मुखसे सुनकर वह बाला| हर्षित भई और बोली मैं यह व्रत करूंगी तब माताके साथ वह कन्या गुरूको नमस्कार करके घरजाके अवसरमें| चैत्रीपौर्णिमाका आराधन करतीभई तब वह कन्या मातासहित सुखिनी भई ॥ विषयविकारकीभी शांतिभई और मोक्षपदमें मन भया प्रतिवर्ष व्रतकरतेहुए क्रमसे व्रतपूर्ण होनेसे शुभ भावसे उद्यापन किया श्रीपुंडरीकगणधरका 8
से करनेसे निर्धन व पारना करना पन्द्रह वर्षतयान दिनरात्रिका कृत्य करके
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॥ ८१ ॥
दीवा० ध्यान और श्रीसिद्धाचलकी यात्रा करनेकर ऋषभदेवखामीका स्मरण करके अंत में अनशनसहित कालकरके सोधर्म व्याख्या० है देवलोक में देवपने उत्पन्न भई वहां देवसम्बन्धी सुख भोगवके वहांसे च्यवके महाविदेहक्षेत्र में सुकच्छविजय वसन्तपुरनगर में नरचन्द्र राजाके राज्य में ताराचन्द्र सेठके घर में तारा नामकी भार्याके कुक्षि में पुत्रपने उत्पन्न हुआ ॥ पूर्णचन्द्रनाम दिया बहोतर कला में कुशल भया पन्द्रह करोड़ द्रव्यका खामी भया पन्द्रह स्त्रियोंके पन्द्रह पुत्र हुए | इत्यादिसंसारिक सुख भोगवेके और चैत्रीपूर्णिमाका आराधन करके अंत में श्रीजयसमुद्रगुरुके पास दीक्षा लेकर और शुक्लध्यानसे केवल ज्ञान पाके मोक्षगया इसप्रकार से चैत्रीके आराधनमें बहुत लोग परमानन्दसम्पदा पाया है तथा | श्री ऋषभदेवखामी विहार करते हुए श्रीशत्रुंजय तीर्थपर फाल्गुनसुदी अष्टमी के दिन समवसरे देवोंने समवसरन किया भगवान् समवसरन में विराजमान भए देशना में शत्रुंजयका माहत्म्य वर्णन किया तब पुंडरीकजी गणधर महाराजने सवा लाख लोक प्रमाणे शत्रुंजय माहातम ग्रंथरचा बाद श्री ऋषभदेवस्वामीने पुंडरीकजी गणधरसे कहा तेरा निर्वाण इस तीर्थ के प्रभाव से यहीं होना है ऐसा कहके भगवान् विहार करगए वाद श्रीपुंडरीकजी गणधर पांचकरोड़मुनियोंके परिवार से फाल्गुन पौर्णिमाको संलेखना करके अनशन किया और चैत्री पौर्णिमाको केवलज्ञान पायके पांच करोड मुनियोंके साथ मोक्षगए इसीकारणसे चैत्रीपूनमपर्व प्रसिद्ध हुआ है और शत्रुंजयतीर्थपर श्रीदशरथराजाके पुत्ररामचन्द्र और भरत मोक्षगए हैं और श्रीकृष्णवासुदेव के पुत्र साम्बः प्रद्युम्नः साढ़े आठ लाख मुनियोंके साथ
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चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान.
॥ ८१ ॥
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मोक्षगए तथा शुकदेवमुनि थावचापुत्र शैलकाचार्य पंथकमुनिः बालिराजर्षिः द्रावड वारिखिल्ल नारदऋषिः ६ वगैरहः और पांचपांडव प्रमुख सत्पुरुष बहुतसे इस श्रीसिद्धाचलपरमुक्तिः प्राप्तभए हैं चैत्रीपौर्णिमाके दिन उप-18 है। वासकरके श्रीसिद्धाचलतीर्थकी यात्राकरे और पूजाध्यानदानादि करे वह नरकतिर्यंचगतिःका छेदकरे तथा चैत्री-16
पौर्णिमाकेदिन श्रीशत्रुजयकी यात्राका विशेष फल कहाहै यतः | चारित्रं चन्द्रप्रभोर्हन् चैत्रीशत्रुजयोऽचलः। विना पुण्यैः न लभ्यन्ते, सरित् शत्रुजयाभिधा ॥१॥ । अर्थः-चारित्र, चन्द्रप्रभुखामीकी सेवा और चैत्रीके दिन शत्रुजयकी यात्रा और शत्रुजयानदी यह चार पुण्य बिना नहीं पाते हैं ॥१॥ इतने कहनेकर चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान सम्पूर्ण भया । चैत्रीके दिन श्रीगुरूके पास मंत्राक्षरोंसे पवित्र स्नात्रका जललेके अपने घरमें छाटना इससे मारी वगैरहाका उपद्रव शांतहोवे सदा आनंद | होवे ऋद्धिः वृद्धिः सुख प्राप्त होवे इति शम् चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान समास हुआ।
अब अक्षयतृतीयाका व्याख्यान लिखतेहैं प्रणिपत्य प्रभु पार्श्व, श्रीचिंतामणिसंज्ञकम् । अक्षयादितृतीयाया, व्याख्यानं लिख्यते मया ॥१॥ उसभस्सय पारणए, इक्खुरसोआसि लोगनाहस्स।सेसाणं परमन्नं, अमियरससरिसोवमं आसी ॥२॥
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दीवा० व्याख्या
॥८२॥
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अर्थः-श्रीचिंतामणिः पार्श्वनाथखामीको नमस्कार करके अक्षयतृतीयाका व्याख्यान लिखता हूं ॥१॥श्रीऋ-12 अक्षयतृषभदेवखामीका पारणा इक्षरससे भया जगत्के स्वामी ऐसे बाकी तेईस तीर्थकरका पहला पारणा अमृतरससदृश तीयाका उपमावाला परमानसे भया ॥२॥
दव्याख्यान. यहां प्रथम श्रीऋषभदेवस्वामीका सम्बन्ध कहतेहैं श्रीऋषभदेवखामी सर्वार्थसिद्ध विमानसे च्यवके आसाढ़वदी चतुर्थीको श्रीमरुदेवाकी कुक्षि में उत्पन्न हुए नवमहीना ४ दिन अधिक गर्भ में रहके चैत्रवदी अष्टमीको आधी रात्रि के समय जन्म भया वीसपूर्वलाखवर्ष कुमरपनमें रहके वेसटपूर्वलाख वर्ष राज्यपालके चैत्रवदी अष्टमीको दीक्षाग्रहणकरी उसवक्त हस्तना (हथना) पुरनगरमें श्रीबाहुबलि के पुत्र सोमयशा राजा उन्होंका पुत्र श्रेयांस कुमर था अथ भगवान् पूर्वकर्मके उदयसे | एक वर्षतक अहारके नहीं मिलनेसे निराहार विहार करते हस्तनापुर आए उस रात्रिमें श्रेयांसादिक तीन जनोंने खाना देखा सो कहते हैं श्याम भया मेरुपर्वत अमृतके भरेहुए घड़ोंसे धोके मैंने उज्वल किया ऐसा खप्ना श्रेयां- ॥८२॥ सने देखा १ तथा सूर्यके बिंबसे हजार किरणें गिरतीथी श्रेयांस कुमरने सूर्यके विंवमें स्थापित करी यह खाना सुबुद्धिः नगरसेठको आया २ एक शूर बहुत शत्रुओंसे रोकागया श्रेयांस कुमरके सहायसे जय पाया यह खन्ना
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SACRECCASCALEARN
सोमयशा राजाने देखा प्रभातमें सभामें सब मिले और अपना अपना स्वप्न कहा स्वप्नोंका विचारकरके राजादिक सब बोले आज श्रेयांस कुमरको कोई अपूर्व महान् लाभ होगा तब भगवान् भिक्षाके वास्ते फिरते भए श्रेयांसके घरमें आए श्रेयांसस्वामीको देखके हर्पित भया लोग पहले साधुकी मुद्राको नहीं देखनेसे अन्नदानविधिको नहीं जाननेसे भगवान्को मणि, रत्न, सोना, हाथी, घोड़ा, कन्या वगैरहसे निमन्त्रणा करतेभए भगवान् तो उन्हों
का दिया हुआ वस्तु कुछभी नहीं लेते भए तब वे लोग मिलके परस्पर कहें भगवान् अपनेपर नाराज भएहैं हमारा ६ दिया हुआ कुछभी नहीं लेते हैं भगवान्ने अपनेको पढ़ाया व्यवहार सिखाया कार्यमें लगाया और पहले बहुत
खुशीसे बोलतेथे पुत्रवत् पालन करतेथे अब तो घरआए कुछ लिया नहीं लेना दूर रहा मुखसे बोलेभी नहीं जरूर अपनेपर नाराज भएहैं अब न मालूम क्या होगा इस तरहसे बारह महीनातक लोग कोलाहल करतेरहे एकवर्ष
जब गया उसवक्तमें श्रेयांस भगवान्की मुद्रादेखके विचारने लगा अहो ऐसा रूप तो मैंने कोई वक्तमें देखाहै परन्तु है याद नहींआता है ऐसा विचार करते हुएको जातिस्मरणज्ञान उत्पन्नहुआ भगवान्के साथ आठभवका समन्ध
जानके आपने पूर्वभवमें साधुपना पाला है यह जानके विचारने लगा अहो कैसा यह अज्ञानहै संसारीजीवोंके, जिससे लोग कोलाहल करते हैं यह भगवान् तीनलोकका राज्य तृणके जैसा मानता हुआ विषयतृष्णाका त्याग करके संसारिक सुखको जहरके फल तुल्यमानते भए साधुपना अंगीकार करके मोक्षःसुखके वास्ते यत्न करते भए
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/ मेरे घरमे भेटनेके वासागरतकविच्छेदहुआ प्राशुकशानको वन्दना करके बोला पासमें आके अधिक हर्ष हाथी,
दीवा. दि अनेक अनर्थका मूल कारण परमाणु मात्रभी परिग्रहकी नहीं इच्छा करतेहैं तो फिर मणिः सोना, कन्या हाथी, अक्षयतृव्याख्या० घोड़ा मोती वगैरह कैसे लेवें ऐसे विचारते गोखड़ेसे नीचे उतरकर भगवान्के पासमें आके अधिक हर्षहोनेसे है। तीयाका ॥ ३॥
रोमोद्गमयुक्त भगवान्को तीन प्रदक्षिणा देके भगवानको वन्दना करके बोला हे भगवन् मेरेपर प्रसन्नहोवो व्याख्यान, अठारह करोड़ाकरोड़सागरतकविच्छेदहुआ प्राशुकअहारदानविधिः अच्छीतरह दिखानेसे भव्यजीवोंका निस्तारकरो 3 मेरे घरमे भेटनेके वास्ते आए इक्षुरसके सौ घड़े, सो लेवो और मेरेको तारो बाद भगवान् चार ज्ञानसहित द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री सम्यक जानके इक्षुरस ग्रहणके लिये दोनो हाथ पसारे तब श्रेयांस रत्नपात्र तुल्य श्रीभगवान्को इक्षुरसरूप शुद्ध अहार देता हुआ जादा हर्षके होनेसे अपने शरीरमें हर्ष नहीं माया तब हर्प आंसूद्वारा
बाहिर निकला आत्माको धन्य मानता हुआ तीन जगतके पूज्य भगवान्ने आहार लेने कर मेरे ऊपर अनुग्रह हैं किया ऐसा विचारता हुआ इक्षुरस देरहाहै उससमय देवोने हर्षके भरसे आकाशमें पांच दिव्य प्रकट किए यही है श्रुतकेबली भगवान् भद्रबाहुखामी कहतेहैं
उसभस्सय पारणए इत्यादि गाथा पहले दिखाई है ऋषभदेवखामी लोकनाथ प्रथम तीर्थकरका प्रथम पारणा इक्षुरससे हुआ भग
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वान्ने श्रेयांसके घरमें वैशाख सुदी तृतीयाके दिन पारणा किया उस दानसे श्रेयांसने अक्षय सुख पाया इससे द्रवह दिन अक्षय तृतीया करके प्रसिद्ध हुआ वाकी अजितनाथस्वामी वगैरह तेईस तीर्थंकरोंका खीरखांघृतरूप परमान्नसे पहला पारणा भया ॥
अब पांच दिव्य कहते हैं। Pाघुटुं च अहो दाणं, दिवाणि य आहयाणि तूराणि । देवावि सन्निवाइया, वसुहाराचेववुद्राय ॥१॥
| अर्थ:-जब श्रेयांसके घरमें भगवान्ने पारणा किया तब देवोने आकाशनें अहो दानं अहो दानं ऐसी उद्घो६षणा करी और देवोंने दिव्यवादित्र बजाए दुंदुभी बजाई तिर्यगजृम्भकादि बहुतदेव आए साढाबारह करोड़ 81
सोनइया वगैरहका वर्षात् हुआ सुगंध जल और सुगन्ध पुष्पोंका वर्षात् हुआ ॥ भवणं धणेण भुवणं, जसेण भयवं रसेण पडिहत्थो।अप्पा निरूवमसुखं, सुपत्तदाणं महग्यवियम् ॥२॥ का अर्थः-जिसवक्त में श्रेयांस कुमरने भगवान्को पारणा कराया उसवक्त श्रेयांसका घर धनखर्णरत्नादिकसे भरागया खर्ग मृत्यु पाताल तीनलोक यशसे भरागया अहो श्रेयांस कुमरने तीनलोकके खामीको वारहमहीनों तक किसीने नहीं दिया ऐसा दान दिया ऐसी तीनलोकमें कीर्ति भई भगवान् ऋषभदेवखामी इक्षुरससे तृप्तभए
PAISAIASHARATHIR ***
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दीवा०संयमका लाभ संयममें समाधिः इक्षुरस अहारपूर्वक होनेसे श्रेयांसने निरुपम सुख पाया इस कारणसे सुपात्र अक्षयतृयाख्या०६दान महाप्रशंसनीय है ॥
तीयाका
व्याख्यानं. ॥८४॥ रिसहेससमंपत्तं, निरवज्ज इस्खुरससमंदाणं। सेयांससमोभावो, हविज जई मग्गियं हजा॥४॥
६ अर्थः-श्रीऋषभदेवखामीके जैसे पात्र निरवद्य इक्षुरसके जैसादान श्रेयांसके जैसा भाव यह तीन चित्त, वित्त, पात्र
यह जो मिले तो मुखमार्गित मिले याने इनतीनोंका सम्बन्ध पुण्यके उदयसे होवेहै यहां कोई पूछताहै कि तीनलोकके पूज्य भगवान्को बारहमहीनोंतक कैसे अहार नहीं मिला आचार्य उत्तर कहते हैं पूर्वकृत कर्मके उदयसे अन्तराय हुआ सो कहते हैं कोई पूर्वभवमें ऋषभदेवखामीका जीव मनुष्य था मार्गमे चला जाताथा धान के खलेमें वृषभ धानखातेथे तष वृपभका मालिकवृपभोंको पीटता था वह देखके वोलाअरे मूर्ख वृपभोंके मुख में छींकी क्यों नहीं बांधताहै तब टू वृषभकाखामी बोला मैं छींकी बांधनानहीं जानता हु तब उस पथिकने छींकी बनाके वृपभोंके वांधी वृषभोंने ३६० निश्वास डाला उससमय अन्तरायकर्म बन्धा वही कर्म भगवान्के भवमें उदय आया इसकारणसे बारह महीनोंतक ॥८४॥ आहार नहीं मिला उस कर्मका क्षयोपसम होनेसे श्रेयांसने भगवान्को आहारदिया श्रेयांसने उस दानके फलसे छ मुक्तिका सुख पाया उसी दिनसे साधुओंको शुद्ध अहार देनेका विधि सब लोगोंने जाना बाद भगवान् ऋषभदेव है
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स्वामी एक हजार वर्ष छद्मस्थ अवस्था में विचरके घाती कर्मका तपःसे क्षयकरके केवल ज्ञान पाया हजार वर्ष ऊणा ६ एक पूर्वलाख वर्ष तक विचरके बहुत भव्योंको प्रतिवोधके दशहजारमुनियों के साथ अष्टापदपर्वतपर तीसरे है आरेका तीनवर्ष साडेआठमहीना जब बाकी रहा तब माघकृष्ण त्रयोदशीके दिन मोक्ष गए यह सुनके अहो ।
भव्यो रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गमें यत्न करना श्रेय है इतने कहनेकर अक्षय तृतीयाका व्याख्यान सम्पूर्ण हुआ ॥ अग्रेतन वर्तमान योगः ॥
अथ रोहिणी कथा लिखते हैं। उच्छिट्टमसुन्दरयं, भत्तं तह पाणियं च जोदेइ । साहणं जाणमाणो, भुत्तंपि न जिजए तस्स ॥१॥ ही अर्थः-जो जीव उच्छिष्ट असुंदर भात पाणि जाणता हुआ साधुओंको देवे उसको जन्मान्तरमें भोजनकिया ४ हुआ पाचन न होवे उसके शरीरमें अजीर्ण रोग होवे जैसे श्रीवासुपूज्यः खामीका मघवानामका पुत्रकी पुत्री , रोहिणी नामकी उसका जीवपूर्वभवमें दुर्गन्धानामक कुष्ठरोगवाला भया साधुको कडुवे तूंबेका अहारदेनेसे, रोहिणीका कथानक लिखते हैं । श्रीवासुपूज्यमानम्य, तथा पुण्यप्रकाशकम् । रोहिण्याश्च कथायुक्तं, रोहिणीव्रतमुच्यते ॥ १॥
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चा. व्या. १५४ा
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दीवा० अर्थः-श्रीवासुपूज्यखामीको नमस्कार करके पुण्यका प्रकाशक रोहिणीकी कथायुक्तः रोहिणीव्रतः कहते हैं | रोहिणी व्याख्या० ॥ १॥ श्रीचंपानगरीमें श्रीवासुपूज्यखामीका पुत्र मघवानामका राजा राज्य करे उसके लक्ष्मीनामकी रानी * कथा. ॥८५॥
सुशीला सदाचारवती उन्होंके आठ पुत्रोंके ऊपर एक रोहिणी नामकी पुत्री भई क्रमसे चौसठ कला पढी रूपलावण्यवती सौभाग्यादिगुणवती यौवनअवस्था पाई ऐसी रोहिणी कन्याको देखके राजा चिंतातुर भया इस कन्याके योग्य वर कौन होगा बाद स्वयंवरमंडपकराके देश देशके राजा और राजकुमरोंको बुलाए बड़ेआडंबरसे
राजालोग आए खयंवर मंडप में सिंहासनोंपर बैठे उससमय रोहिणीकन्या खानविलेपन करके क्षीरोदक वस्त्रपहरके ६ मोतियोंके आभूषणोंसे अलंकृत साक्षात देवकुमारीके जैसी पालकीमें बैठीभई सखियोंके परिवारसहित स्वयंवरमें |आई ॥ उस रोहिणी कन्याको देखकर सब लोग चित्र लिखित जैसे हुए बाद एकप्रतिहारी रोहिणीके आगे चलती
भई राजा और राजकुमारोंका नाम गोत्र बल, उमर, यशवगैरहःका वर्णन करे बाद कुमरीने और राजकुमारोंको टू वर्जके नागपुर नगरका बीतशोकराजाका पुत्र अशोक (चित्रसेन) कुमारके कंठमें वरमाला डाली तब सब लोग
॥८५॥ है हर्षितभये राजाने पाणिग्रहणका उत्सव बड़े आडंबरसे किया भोजन, वस्त्र तांबूलादि लेके राजा लोग अपने अपने |ठिकानेगए अशोक (चित्रसेन) कुमरभी वहां कितने दिन रहके स्त्रीसहित हाथी घोड़ा, रथप्यादलसहित प्रस्थानकरके नागपुरके समीपमें आया तब बीतशोकराजाने महोत्सवसे नगरमें प्रवेशकराया बाद कुमर रोहिणीके साथ विषय सुख
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भोगवता हुआ सुखसे रहा एकदा प्रस्तावमें शुभमुहूर्तमें अशोक (चित्रसेन) कुमरको राज्य देके वीतशोक राजाने दीक्षा लिया वाद अशोक (चित्रसेन) राजा सुखसे राज्यपाले क्रमसे अशोकराजाके आठ पुत्र और चार पुत्रीहुई बाद एकदा 8 रोहिणीसहित राजा सातवीं मजलके गोखड़ेमें लोकपालपुत्रको खोलेमें लेके बैठाहुआ क्रीड़ाकरता था उस समय नगरमें कोई स्त्रीका पुत्र मरा वह स्त्री रोतीभई मस्तक छाती कूटतीभई उसमार्गमें आई रोहिणी रानी उसको देखके। राजासे पूछा हे महाराज ये कौनसा नाटक है नाटक तो बहुत देखे हैं परन्तु ऐसा नाटक कभी देखा नहीं तब राजा बोले तैं गर्वसे गहलीभई है रोहिणी बोली खामिन् मैं अहंकार नहीं करुं हुं किंतु मेरेको यह देखनेसे आश्चर्य होता है
है यह क्या है तब राजा बोले इस स्त्रीका पुत्र मरगयाहै इससे यह रोती है रोहिणी बोली इसको रोना किसने , है सिखाया यह सुनके राजा बोले तेरेको मैं रोना सिखाऊं रोहिणीके पाससे छोटा पुत्र लोकपालको लेके राजाने
अपने हाथसे जमीनपर गिराया तब सब अंतेबरी वगैरह कुमरको देखके हाहा रव किया राजाभी रोने लगे हू | परन्तु रोहिणीके हृदयमें बिलकुल दुःख नहीं हुआ और बोली यह दूसरा नाटक क्या प्रारंभ भया ॥ बाद उस बालकको गिरता हुआ देखके शासन देवताने बीचहीमें लेके सिंहासनपर बैठाया आगे गीतगान नाटककरने लगे
तब राजा वगेरहः लोग देखके चमत्कार पाया विचारतेभए यह रोहिणीधन्य है दुःखकी वातभी नहीं जानेहै और यह 8/पुत्रभी धन्य है कि जिसकी देवता सेवा करेंहैं। कोई इहां ज्ञानीगुरु पधारे तो इन्होंका पूर्वभव पूछे बाद उस न-d
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दीवा० व्याख्या
कथा.
॥८६॥
गरके उद्यानमें श्रीवासुपूज्यःखामीके रुप्यकुंभ खर्णकुंभ नामके दोशिष्य ज्ञानी आए तब राजा परिवारसहित
रोहिणी वांदनेको गया गुरूने देशना दी देशना सुनके राजाने पूछा हे भगवन् इस रोहिणीने पूर्वभवमें ऐसा क्या तप|| |किया जिससे दुःखकी बातभी नहीं जानतीहै इसके आठ पुत्र और चारपुत्रियां है मेराभी इसपर बहुत स्नेह है। इससे आप कृपाकरके इसका पूर्वभव कहो यह सुनके गुरु बोले इसीनगरमें धर्ममित्रनामका सेठ रहताथा उसके
धनमित्रा नामकी भार्या थी उन्होंके एक कुरूपा दुर्भगा दुर्गन्धा नामकी पुत्री हुई उसको कुरूप देखके कोई पाणि-13 * ग्रहण करे नहीं। तब.पिताने एक श्रीलेन नामका चौरको मारनेके वास्ते राजपुरुष लेजातेथे उसको छुडाके
दुर्गन्धाका पतिःकिया वह चौरभी रात्रिमें दुर्गन्धाको छोड़कर चलागया तब सेठने रोती हुई पुत्रीको समझाई
हे पुत्रि पूर्वकृतकर्मके उदयसे प्राणिः सुखदुःख पाये है इससे तैं सुकृतकर दान दे धर्मकर जिससे तेरे यह पाप-15 है कर्मका दोष अंत होवे ॥ बाद दुर्गन्धा पिताका वचन अंगीकारकरके निरंतर दानदेवे । एकदा ज्ञानीगुरु
वहां आए तब धनमित्र गुरुःको बन्दना करके उस कन्याका स्वरूप पूछा। गुरू बोले गिरिनारनगरमें पृथ्वीपालनामका राजा भया उसके सिद्धिमती नामकी रानी एकदा रानीसहित राजा बनमें क्रीड़ा करनेको गया उस समय ॥८६ कोई साधुः मासक्षमणके पारणेबाला गुणसागरनामका मुनिः भिक्षाकेवास्ते आया राजाने देखा विचार किया। यह साधुः गुणोंका आकर महातीर्थपुण्यपात्र है मुनिःका दर्शन भी बहुत पुण्यसे होते है जिसकारणसे कहाहै ॥
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साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ फलति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ॥१॥ | अर्थ:-साधुओंके दर्शनसे पुण्य होवे है साधुः तीर्थभूत है तीर्थ जो है सो कालसे फले है और साधुसमागम सद्यः फले है ॥ १॥ यह निष्पृहि मुनि है इनको दान देनेसे बड़ा फल होवेहै ऐसा विचारके राजा अपनी/8 स्त्रीसे बोला हे वरानने इस मुनिःको नमस्कारकरके दान देओ ऐसा राजाका वचन सुनके क्रीड़ामें अंतराय मानके ऊपर हर्ष धारती भई अन्तःकरण दुष्ट जिसका ऐसी रानीने कड़वीतूंवीका साग मुनिःको दिया मुनिने पारना किया | उसके खानेसे मुनिः मरण पाया शुभ ध्यानसे मुनिः देवलोक में देवहुआ ॥ यह बात सुनके राजाने रानीको अपने 8 * देशसे बाहिर निकाली रानी सातवें दिन कोढ़नीभई बहुत कालतक लोगोंकरके निंद्यमान मरके छट्ठी नरक गई।
वहांसे निकलकर रानीका जीव तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न हुवा।बहुत दुःख भोगवके सातमी नरकगया ऐसे सब नरकमें क्रमसे उत्पन्न भई वाद । सर्पणी, ऊटनी, स्थालनी, कुक्करी, सूकरी, गृहकोकिला, जलौका, ऊंदरी, कन्वी, कुत्ती, बिलाडी, रासभी । गौः भई इन भवों में प्रायः अग्निः शस्त्रघातादिकसे मरण हुआ। गायके भवमें मरनेकी वक्त गुरुके मुखसे नवकार सुनके अनुमोदना करतीभई मरण पाया इससे मनुष्यनी भई । दुर्गन्धा दुर्भगा तेरी पुत्रीभई ॥ बाद दुर्गन्धा अपना पूर्वभव देखके हाथ जोड़के गुरूसे पूछे हे खामिन् मैं इस दुःखसे कैसे छूटुंगी सोआप कृपाकरके कहो तब मुनिः बोले तै दुःखको दूरकरनेवाला ऐसा रोहिणीका व्रतकर वह बोली हे भगवन् किस विधि से
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दीवा० व्याख्या० 11 20 11
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यह व्रत करूं मुनिः बोले रोहिणी नक्षत्र के दिन वासपूज्यतीर्थंकर की पूजा करके सातवर्ष सातमहीनातक उपवास करना इसप्रकार से शुभ ध्यान युक्त तपके प्रभावसे तेरे शुभ होगा । बाद तप पूर्ण होनेसे उद्यापनकरना | जिससे तेरा दुःख जावेगा सुगन्धराजके जैसा यह सुनके दुर्गन्धा मुनिः से पूछती भई हे भगवन् सुगन्ध राजका त्तान्त कृपाकरके कहो तब मुनिः बोले सिंहपुरनगर में सिंहसेन राजा उसके कनकप्रभा नामकी रानी उन्होके दुर्गन्ध नामका पुत्र था वह क्रमसे यौवन पाया परन्तु किसीके मनमें रुचे नहीं एकदा श्रीः पद्मप्रभतीर्थकर वहां पधारे तीर्थंकरको वंदना करके कुमरने अपना दुर्गन्धका कारण पूछा तब श्रीसर्वज्ञ बोले नागौरनगर से बारह कोस दूर एक नीलनामका पर्वत है । उसपर एक शिला हैं शिलापर एक मुनिः मासक्षमणादि तप करे है तपके प्रभावसे वहां कोई मृगवगैरह को नहीं मार सके है वहां लुब्धक मुनिःपर ईर्षा करेहैं एकदा मुनिः ग्राम में पारनेके वास्ते गया उससमय लुब्धकने शिलाके नीचे अग्निः जलाके शिलाकों अत्यन्त उष्ण करी मुनिः पारनाकरके शिला ऊपर आकर रहा बहुत तापसे शुद्ध ध्यानसे वह ऋषिः केवलज्ञान पाके मोक्षगया । वह लुब्धक ऋषिःघातसे कोढ़ीभया । कहा है
ऋषिहत्याकरो जीवो, दुःखं भुञ्जति भूतले । संसारसागरे घोरे, पीड्यते च पुनः पुनः ॥ १ ॥ अर्थ:- ऋषिः हत्या करनेवाला जीव पृथ्वीपर दुःख भोगवता है घोरसंसारसमुद्र में वारंवार पीडितहोता है
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रोहिणी
कथा.
॥ ८७ ॥
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T॥१॥ वाद लुब्धकमरके सातमी नरक गया वहांसे निकलकर मच्छहोकर ग्वालिया भया परन्तु दरिद्रिभया किसी वानिएने नमस्कार सिखाया वाद दावानलमें जलके नमस्कारके प्रभावसे तैं राजपुत्रभया । दुर्गन्ध ऐसा टू नाम यह सुनके जातिःस्मरणपाके पूर्वभव यादकरके प्रभुःसे पूछा हे भगवन् मैं कैसे इसपापसे छद्रं ॥ और कैसे | सुगन्ध होवु इसका उपाय कृपा करके फरमायें तब श्रीतीर्थकर बोले तें सातवर्ष और सात महीना रोहिणीका तपकर तप पूर्ण होनेसे उद्यापन करना यह सुनके दुर्गन्ध कुमरने रोहिणीका तपकिया उसके प्रभावसे कुमर सुगंध भया यह कथा सुनके दुर्गन्धा रोहिणीका तप विधिपूर्वककरके सुगन्धा भई वहांसे मरके देवलोकमे है
देवी भई देवलोकसे च्यवके चंपानगरीमें श्रीवासुपूज्यखामीका मघवा नामका पुत्र उसकी रोहिणी नामकी पुत्री है भई इस वक्तमें यह तुम्हारी रानी है पूर्वतपके प्रभावसे यह रोहिणी जन्म पर्यंत दुःख नहीं जानेगी। हे अशोक
राजेन्द्र इसपर तेरे अधिक स्नेहहै इसका कारण सुन सिंहसेनराजा सुगन्ध नाम अपने पुत्रको राज देके गुरूके पास दीक्षा लिया सुगन्ध राजाभी जैनधर्मको आराधके समाधिःसे मरणपाके देवभव पाया वहांसें च्यवके इसी जम्बूदीपके पूर्वमहाविदेहक्षेत्र में पुष्कलावती विजयमें पुण्डरीकनी नगरीमें विमलकीर्तिः राजा सुभद्रा रानीकी कुक्षि में चौदह महाखानसूचित देवका जीव अवतरा क्रमसे शुभदिनमें शुभलक्षण युक्तः रानीने पुत्र जन्मा राजाने ४ अर्ककीर्तिः नाम किया क्रमसे चक्रवर्ती भया राज्यभोगवके जितशत्रु,मुनिःके पास दीक्षा लेके दुष्करतप
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कथा
दीवा० 8 करके आयुःक्षयमें समाधिःसे मरणपाके बारहवें देवलोकमें अच्युतइन्द्र भया वहांसे च्यवके ते अशोकचन्द्र रोहिणी व्याख्या 14 नामका राजा भया इस रोहिणीरानीका पतिः अत्यन्त वल्लभ भया तुमने रोहिणी तप किया इससे तुम्हारे परस्पर 81
अधिकस्नेह भया अब तैं पुत्रोंका कारण सुन मथुरा नगरीमें अग्निशर्मा नामका ब्राह्मण रहताथा उसके सात पुत्र थे ॥८८॥
परन्तु दरिद्री थे। एकदा पाटलीपुरमें सातो भाई भिक्षाके लिये जाते थे तब बगीचेमें कोई राजकुमरको सुंदर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करताहुआ देखके शिवशर्मा ब्राह्मण अपने भाइयोंसे कहने लगा कि देखो विधिःने कितना अंतर किया है यह राजकुमर मनोवांछित सुखभोगवता है अपने तो घर घर भिक्षाके लिए फिरते हैं तब एक भाईने कहा इसविषयमें किसको उपालंभ दियाजाय पूर्वभवमें अपने पुण्य नहीं किया है इस राजकुमरने सुकृत कियाहै इस
कारणसे यह सुखभोगवताहै। तब उन सातों ब्राह्मणके पुत्रोंने जीवदयायुक्तधर्मपालके अंतमें सुगुरूके पास है दीक्षा लेके चारित्रपालके समाधिःसे मरणपाके सातवें देवलोकमें देव भए वहांसे च्यवके गुणपाल वगैरहः तुम्हारे
सातपुत्र भए ॥ और आठवें पुत्रका जीव वैताढ्य पर्वतपर क्षुल्लक नामका विद्याधरथा । वह निरंतर नंदीश्वरदीपमें शाश्वती जिनप्रतिमाओंकी पूजा करताथा और भी धर्मकार्य करताथा वह विद्याधर मरके सौधर्मदेवलो-one कमें देव हुआ वहांसें च्यवके तुम्हारे यह लोकपाल नामका आठवांपुत्र हुआ अब चार पुत्रियोंका सम्बन्ध 8 सुनो वैताब्य पर्वतपर एक विद्याधर था उसके चार पुत्री थीं रूपवती, गुणवती थीं ॥ एकदा प्रस्तावमें बनमें|
कारणसे यह सूखममाधिःसे मरणपाकं
सालक नामका विद्या
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SACARSCALCOMCACCECASCCC
क्रीड़ा करती भईको गुरूने देखा और गुरू बोले हे पुत्रियो तुम धर्म करो तुम्हारा आयुः एकदिनका है तब |कन्याए बोली हे भगवन् एक दिनमें क्या धर्म होवे गुरू बोले आज शुक्लपंचमी है उपवास करो अपने घर जाके दादेवपूजा करके ज्ञानको आराधन करो शुभअध्यवसायमें रहो उन्होंने घर जाके वैसाही किया बाद उस दिनकी 3 ते रात्रिमें वीजलीपड़ी चारोकन्यामरके पहले देवलोकमें देवभई वहांसे च्यवके तुम्हारे यह चार पुत्रियां भईहैं। बाद
यह सब बात सुनके राजाको जातिःस्मरण ज्ञान भया परिवारसहित राजा रुप्यकुंभ स्वर्णकुंभ गुरूको नमस्कार करके और विनतीकरी हे प्रभो रोहिणीतपका विधिः कहो तब गुरू बोले सोमवार रोहिणीनक्षत्र जबआवे तब विधिःसे तप ग्रहण करना रोहिणी नक्षत्रके दिन उपवास करना दो वक्त प्रतिक्रमण तीनटंक देववंदन श्रीवासपूज्यखामिने नमः इस पदका दो हजार जपकरना बारह या सत्ताइस लोगसका काउसग्ग प्रदक्षिणा खमासमनवगैरहःविधिः करना त्रिकालदेव पूजा करना प्रभुःके आगे अष्टमंगलीक और अशोक वृक्ष चढाना तप पूर्ण होनेसे उज्जमना करना ज्ञान दर्शनचारित्रके उपगरन सत्ताईस सत्ताईस कराके चढ़ाना ॥ सामीवत्सलकरना संघपूजा करनी जिनशासनकी उन्नतिः करनी ऐसाविधिः गुरुमुखसे सुन राजा रानी वगैरहाने रोहिणीका तप अंगीकार किया विधिःसे रोहिणी तपकरके तप सम्पूर्णहोनेसे बहुतविस्तारसे उज्जमना किया वादमें|
*CHIRAISHIGA
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोहिणी कथा. दीवाल * श्रीवासपूज्यखामीके पास राजा रानी आठपुत्र चार पुत्रीयोंने दीक्षा लिया शुद्धचारित्र पालके केवलज्ञान व्याख्या जापाके मोक्ष गए // कहा है रोहिणीतप पञ्चमीतप, गुरुआ ए तप जाणी। दुःखित होयकरी सुखी होवे, बोले केवलनाणी // 1 // इति रोहिणी अशोकराजा कथा सम्पूर्णा // HECALCCCCRAC इति पर्वकथा संपूर्णा // OT // 89 // खर For Private and Personal Use Only