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७/त्वका परिहार कर देवपूजा, गुरुसेवा; जैनागमका सुनना, धर्मकृत्यका अनुमोदन-तीर्थयात्राका करना, जिन
कल्याणकभूमिका स्पर्शनादिककर निरन्तर सम्यक्त्व निर्मल करना चाहिये । आवश्यकनियुक्तिमें कहा है कि|"जम्मं दिक्खानाणं, तित्थयराणं महाणुभावाणं । जत्थ य किर निव्वाणं, आगाढं दंसणं होई"॥१॥ है अर्थ-जहां तीर्थंकरों ( महानुभावों ) का जन्म हुआ है और हीक्षा हुई है और केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है,
और जहां मोक्ष हुआ है वह स्थान फरसनेसे सम्यक्त्व मजबूत होता है । यह प्रसंगसे कहा है। यहां चौमासा
चारित्र तिथी होनेसे चारित्रका विशेष आराधन करना । अब पहले समायिकका खरूप कहते है, सम, रागहै। द्वेष-रहित जीवके, आय ज्ञानादिकका लाभ-प्रशमसुखरूपको, समाय कहिये । वही सामायिक है कि मनवचन कायाकी सावद्य चेष्टाका परिहारकर मुहूर्ततक सर्व वस्तुओंमें सम परिणाम रखना । उक्तं च
__निंदपसंसासु समो, समोय माणावमाणकारीसु ।
समसयणपरियणमणो; सामाइयसंगओ जीवो ॥१॥" "जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरे सुय ।तस्स सामाइयं होइ, इमं केवलिभासियं ॥२॥ अर्थ-सामायिक-सहित जीव निन्दा-प्रशंसामें सम होय, और मान अपमान करनेवाले पर भी सम परिणाम
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