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चातुमासिक
AISHAHANSASSARISSA
रक्खे, खजन-परजन पर भी सम भाव रक्खे ॥१॥ जो त्रस-थावर सर्वप्राणियोंपर सम परिणामवाला होय तिसको व्याख्यासामायिक होता है यह केवलीका कहा हुआ है ॥२॥ और सामायिक में रहा हुआ श्रावक गृहस्थ है तो भी नम्. साधु-तुल्य होता है। कहा भी है
"सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जह्मा ।
एएण कारणेणं बहुसो समाइयं कुज्जा ॥१॥ अर्थ-सामायिककरने से श्रावक साधुके जैसा होता है, इस कारण से बहुतवार सामायिक करना । यहाँ एक5/देशीय उपमा है, जैसे तलावसमुद्र के जैसा है, अन्यथा साधुके ५ महाव्रत होते हैं और श्रावकके पांच अणुव्रत
होते हैं साधुको २० विश्वा दया होती है और श्रावकको ११ विश्वा दया होती है इत्यादि । इसी कारण से है सामायिकमें रहे हुए श्रावकको तीर्थकर देवकी स्नात्र पूजादिकका भी अधिकार नही है, क्यों कि सामायिकरूप भावस्तवको प्राप्त होनेसे द्रव्य-स्तव करना अघटित है। और सामायिक दुर्लभ है; यथा
॥३ ॥ "सामाइयसामग्गिं, देवावि चिंतंति हिययमज्झम्मि । जइ होइ मुहुत्तमेगं, ता अह्म देवत्तणं सुलहं ॥१॥
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