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यह तो बहुत ग्रन्थ है इतना सुणनेमें बहोत काल चाहिये इनोंका सार थोड़े में कहो, तब चारो पंडितोंने सारभूत एक श्लोक बनाके राजाको कहा| जीर्णे भोजनमात्रे यः कपिलः प्राणिनां दया । वृहस्पतिरविश्वासः पञ्चालः स्त्रीषु माईवं ॥१॥
व्याख्याः -आत्रेय नामका पंडितने कहा कि पहले का भोजनपाचनहोनेसे फिर भोजन करना यह वैद्यक शास्त्रका सारहे १, कपिल नामका विद्वान बोला कि सर्व प्राणियोकी रक्षा करना यह धर्मशास्त्रका परमार्थ है २, बृहस्पति नामका पंडित कहता है कि किसीका विश्वास करना नहीं यह नीतिशास्त्रका रहस्य हैं ३, पञ्चाल नामका विद्वान बोला कि स्त्रीयोंसे मृदुता रखनी उन्होंका अन्त लेना नहीं यह कामशास्त्रका सार है ४, ऐसे थोड़े अक्षरों करके बहुत अर्थों का कहना ऐसा द्वादशांगीरूप संक्षेप सामायिक जानना ॥५॥ | अब निष्पाप आचरण पर धर्मरुचि साधुका दृष्टान्त है,। जैसे "धर्मघोष आचार्यका शिष्य धर्मरुचिसाधु चम्पा नगरीमें आहारके लिये फिरता हुआ नागश्री अर्थात् (रोहिणी) ब्राह्मणी के घरमें प्रवेश किया उसने कुटुम्बके निमित्त मीठेके भ्रमसे बनाया कड़वे तुम्बेका साग जहरके सदृश जानके दुष्टबुद्धिसे साधुको दिया साधुने सरल स्वभावसे ग्रहणकिया, अपने ठिकाने आके गुरुको दिखाया, तब गुरुने उस आहारको देखके कहा भो महानुभाव ! यह शाक विषप्राय है इसलिये निर्वद्यस्थान जाके परठावो, तब धर्मरुचिसाधु गुरुकी आज्ञासे में
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चा. दा. २
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