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॥ श्रीजिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फण्ड ग्रन्थाङ्क २३ ॥ उपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणगणिकृतसंस्कृतोपरि हिंदीभाषाऽन्वितं
अथ श्रीचातुर्मासिकव्याख्यानं प्रारभ्यते।
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श्लोकःस्मारं स्मारं स्फुरज्ज्ञान, धामं जैनं जगन्मतम् । कारं कारं क्रमाम्भोजे गौरवे प्रणतिं पुनः ॥ १॥ निबद्धांप्राक्तनैःप्राज्ञैर्वीक्ष्य व्याख्यानपद्धतिम् । लिख्यते लेशतोव्याख्या चातुर्मासिकपर्वणः॥२॥युग्मम्॥3 | अर्थ-देदीप्यमान ज्ञानका धाम और जिससे जगत् जाना जाता है ऐसे जैनशासन-जैन-सिद्धान्तका वारंवार स्मरण कर और गुरुके चरणकमलोंमें नमस्कार कर ॥१॥प्राचीन पण्डितोंने रचीहुई व्याख्यानपद्धतिको देखकर चातुर्मासिक पर्वका लेशमात्र व्याख्यान लिखता हूं॥२॥ यहां पर्वाधिकारमें आषाढ़ १ कार्तिक २ और फाल्गुन३चौमासोंमें हरएक चातुर्मासिक पर्व आनेसे सापेक्ष-व्यवहार-निश्चय सहित श्रीजिनशासनको जानकर एका
चा. व्या."
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