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चातु र्मासिक
॥ १० ॥
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अर्थ- शुद्ध भावसे मन वचन काया करके त्रश जीवकी रक्षा करनेके लिये प्रभूकी प्रतिमाको प्रमार्जन करे वह सो १०० उपवास जितनी निर्जरा पावे यह भावप्रधान निर्देश है । विलेपन करता हुआ १ हजार १००० उपवासका फल पावे । शुद्ध भावसे विधिसहित पुष्पकी माला चढाता हुआ १ लाख उपवासका फल होवे है । और गीत वादित्र करता हुवा प्रभुकी स्तुति करता हुआ अनंत उपवासका फल पावे है । अर्थात् भावस्तव करता हुआ पुण्याढ्य राजा अंतकृत केवली होके मोक्ष गया। यहां नागकेतु तथा धनदत्त सेठ वगेरेका दृष्टान्त | है सो जानना ॥
अब ब्रह्मक्रिया १ दान २ तप प्रमुख ३ इन ३ पदका व्याख्यान करते हैं - ब्रह्मक्रिया ब्रह्मचर्य सुदर्शन सेठ वगेरहके सदृश पालना ब्रह्मचर्य का फल यथा—
"जो देइ कणयकोडिं - अहवा कारेइ कणयजिणभुवणं ।
तस्स न तत्तिय पुन्नं - जत्तिय बंभवएधरिए ॥ १ ॥
अर्थ- जो नित्य क्रोड सोनैया दान देवे अथवा सोनेका जिनमंदिर करावे उसका उतना पुण्य न होवे जितना कि ब्रह्मचर्य के पालने से होवे है ॥ १ ॥ तथा दान अभयदान १ सुपात्रदान २ अनुकम्पादान ३ उचितदान
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व्याख्यानमू.
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