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| बाद लग्नलेके सेवक मलयदेश गए । अनंतवीर्य राजा चिंतातुर होके बोले अब यहां क्या उपाय करना सोलह महीना तो जल्दी चला जायगा तब राजारानी मंत्रीने बहुत विचार किया परंतु कोई उपाय नहीं मिला इस | अवसर में नगरी के उद्यानमें पांचसे साधूसहित चारग्यानधारी गांगिल नामके साधू आए वनपालकने भक्तिः किया नगरमें जाके अनंतवीर्यराजासे बधाई दिया || राजा वनपालकके मुखसे साधुओं का आगमन सुनके वनपालकको संतोषके हाथी घोड़ा वगैरहः ऋद्धिःसहित वंदना करनेको आए । क्रमसे मुनियों के पास जाके विधिः से वंदना करके आगे बैठे परषदा मिली गुरु उपदेश देते भए वह इसप्रकार से |
जीव दायाइ रमिजइ, इन्दियवग्गो दमिज्जइ सयावि । सच्चं चैव वदिजइ, धम्मस्स रहस्तं इणं चैव ॥ १ ॥ | जयणाउ धम्म जणणी जवणा धम्मस्स पालणी चेव । तह बुड्डिकरी जयणा, एगंत सुहा यहा जयणा ॥२॥ आरंभे नत्थि दया, महिला संगेण नासए बंभं । संकाए सम्मतं, पवज्जा अत्थ गहणेण ॥ ३ ॥ जेवम्भचरे भट्टा, पाए पाडंति बम्भयारीणं । ते हुंति टुंटमुंटा, वोही पुण दुलहा तेसिं ॥ ४ ॥
अर्थः- जीवदायामें रमण करना निरंतर इन्द्रियवर्गको दमना सत्यही बोलना यह धर्मका रहस्य है ॥ १ ॥ जीवकी दया धर्मकी माता है दया धर्मकी पालनेवाली है तैसे धर्मकी वृद्धिः करनेवाली दया है एकान्तसुख प्राप्तकरने
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