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दीवा०वाली दया है ॥ २॥ जीव हिंसामें दया नहीं है ॥ स्त्रीके संगसे ब्रह्मचर्यःका नाश होवेहै शंका करनेसे सम्यक्त्वका मेरुत्रयोव्याख्या०६
18नाश होयेहै और धनग्रहणसे चारित्रका नाश होवेहै ॥३॥ जे ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट ब्रह्मचारीके पास नमस्कार करावे 8| दशीका
है वह टूटा मूंगा होवे है और बोधी जिनधर्मकी प्राप्तिः जन्मान्तरत दुर्लभ होवेहे ॥४॥ तथा धर्मका मूल दया व्याख्यान, ॥७२॥18
है पापका मूल हिंसाहै ॥ एक हिंसा करे और करावे और करमेको भला जाने ये तीनों सदृश पापका भजनेवाला होवेहै और जो हिंसा करता हुआ मनमें त्रास नहीं पाये उसके हृदयमें दया नहींहै जो जीव निर्दयभया बहुत एकेन्द्रिय जीवोंका विनाश करे वह परभवमें वातपित्तादिरोगी होवे जो वेइन्द्रियजीवोंकी हिंसाकरे वह परभवमें मुखरोगी, मूक दुर्गन्धनिश्वासवाला होवे जो तेइन्द्रियोंकी हिंसा करनेवाला होवै उसके नासिकामें रोग होवे ॥ जो चौरिन्द्रिय जीवोंकी हिंसा करनेवाला हो वह आंधा काणा नेत्ररोगी होवे ॥ जो पंचेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा करनेवाला होवे वह परभवमें बहरा होवे और जो एकइन्द्रियसे लेके पंचेन्द्रियजीवोंकी हिंसा करे उसकी जन्मान्तरमें पांचों इन्द्रियां रोगसहित होवे तिस कारणसे अहो भव्यो हिंसा असत्य चौरी मैथुन परिग्रहादिकका सर्वथा त्याग करना इत्यादि धर्मोपदेश सुनके राजा गुरूसे पूछताभया हेखामिन् मेरा पुत्र किस ॥ ७२ ॥ कर्मसे पांगुला भया तब गांगिलमुनिः बोले इसका पूर्वभव सुन इस जम्बूद्वीपके ऐरवतक्षेत्रमें अचलपुरनामका नगरमें महेन्द्रध्वज नामका राजा उमया नामकी पटरानी उन्होंके सामंतसिंहनामका पुत्रभया वह कुमर
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