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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चा. व्या. ५ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | तुम्हारा खामी हुं, इसलिये मेराही मार्गअंगीकारकरो । तब वह लोगबोले पहले आप हमारे खामीहीथे अबतो गुरुहो जिसकारणसे आपने हमको धर्मबताया अब हमारेपर दीक्षा देकर अनुग्रहकरो तब मुनिनेः दीक्षादिया | उन्होके साथ श्रीमहावीरस्वामीकों वंदनाकरनेको राजग्रह नगर के सामने चले मार्ग में जाते हुवे गोशाला सामने | मिला विवाद करने लगा भूचर खेचर हजारों इकट्ठे हुये, कौतुकदेखनेको, बाद गोशाला बोला तुम्हारा तप वगैर| हका कष्ट व्यर्थही है जिसकारण से शुभाशुभ फलका कारण नियतिही है तब मुनिः बोले पौरुषः भीकारणमानो | जो सर्वत्र नियतिही कारण माने तो वांछितसिद्धिकेलिये सर्वक्रियावृथा होवे | वही दिखाते हैं हे नियतिवादिन् | सर्वदा अपने ठिकानेही क्यों नहि रहता है भोजनादि अवसर में भोजनादिकके वास्ते कैसे उद्यम करता है ऐसे स्वार्थसिद्धिः | के अर्थः नियति जैसा पौरुषः भी ठीक है अर्थः सिद्धिः में नियतिसें भी पौरुष अधिक होता है | जैसे आकाशसे पानी वरसता है परन्तु जमीन खोदनेसे भी निकलता है इसकारणसे नियति बलवान है परन्तु नियति से पौरुष अत्यन्त बलवान है | इसप्रकारसे उसमुनिःने गोशालेको निरुत्तर किया तब जय जय शब्दकरते हुये विद्याधर वगैरहःने उसमहामुनिःकी प्रशंसा करी बाद आर्द्रकुमारः ऋषिः हस्तितापसाश्रम के समीपमें आये | उस आश्रम में रहेहुये तापस एक | बड़े हाथीको मारकर उसका मांस खातेहुये बहुतदिन व्यतीत करें उन्होंका यह कहना है एकहीहाथीको मारना ठीक है जिसकारण एक जीवको मारनेसे बहुतका निर्वाहहोवे है | मृगः तित्तरः मत्स्यः वगैरहः और धान्यसे बहु ॥ | For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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