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अहिका व्या०
॥ ३० ॥
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अंगद, हार देके उर्वशी और रंभाके साथ स्वर्गगया ॥ सूर्ययशाराजाभी सत्यप्रतिज्ञावाला हर्षितभया ऐसा | नीतिसे पृथ्वी पालता भया ॥ बाद सूर्ययशा राजा भरतचक्रवर्तीके जैसा पृथ्वीको जिनमंदिरोसें शोभितकरता हुआ ॥ तीर्थयात्राकरके जन्म पवित्रकरताहुआ || श्रीयुगादिदेव के चर्णसदृश निरंतर चतुर्दशी, अष्टमी पर्वका आराधनकरता हुआ || और व्रतधारी श्रावकोंको अपनेघरमें नित्यभोजनकरताहुआ ॥ पहले भरतचक्रवर्तीने कांकिणी रत्नकी तीन रेखा करके श्रावकोंको अंकित किये थे । सूर्ययशा राजाने तो सोनेकी | उपवीत करके शोभित किये | उस राजाके प्रधान आचारवाले बहुत कुमर थे | जैसे श्री ऋषभदेवः खामीसे इक्ष्वाकु -- | वंश हुआ। वैसा सूर्यवशा राजासे सूर्य वंशकी उत्पत्ति भई । उसकी सोशाखा हैं । उसी तरह श्रीबाहुबलीका पुत्रः सोम| यशाराजासे चन्द्रवंश भया । उसकी मी सौशाखा निकलीं। सूर्ययशा राजा एकदा प्रस्ताव में पिता के जैसा आरीसा भवनमें | अपना रूप देखताभया ॥ संसारको असार विचारता भया । केवल ज्ञानपाके बहुत भव्यो को प्रति बोधके मोक्षगया इतने कहनेकर अपने नियम दृढपालने में सूर्ययशा राजाकी कथाकही ॥ भव्यप्राणियों को पर्युषणा, अट्ठाई पर्वमे इसी प्रकारसे धर्म कार्य करके पर्व आराधना जिससे इस भव में परभवमें सर्व वांछितकीसिद्धिः होवे ॥ अग्रेतनवर्तमानयोगः ॥
इति पर्यूषणा अट्ठाईका व्याख्यान सम्पूर्ण भया ॥
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सूर्ययशा
राजा कथा
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