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कथा
अट्ठाहिका रके रत्नलेनेको राजा वहां आये राजपुरुषोंने उस द्रव्यके ठिकाने बहुत सर्प देखे देवता बोली यह द्रव्य इस कन्याका आद्रकुमार - व्या०
है वर खीकारकरनेमें मैंने दियाहै ऐसा सुनके राजा उदासहोके अपने ठिकाने गये ॥ उसके अनन्तर वह सब
धनश्रीमतीकन्याका पिता देवदत्त सेठने लिया वाद कितने कालसे श्रीमतीके पाणिग्रहणके वास्ते बहुत वर आये ॥ २३ ॥
६ वह खरूप पिताने पुत्रीसे कहा ॥ तब श्रीमती बोली हे पिताजी जो महर्षि मैंने वराथा वोही मेरा भर्तारहै उसके है वरनेमें देवताने जो द्रव्य दिया वह द्रव्य लेतेहुये आपने भी वह मानाही है इसलिये उसमुनि केवास्ते मेरी कल्पनाकरके औरको देनी योग्य नहींहै ॥ कहा भी है
सकृजल्पंति राजानः, सकृज्जल्पंति साधवः ॥
सकृत्कन्या प्रदीयंते, त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ॥१॥ है अर्थः-राजा लोग एकही जबान बोलतेहैं साधु भी एकही जवान बोलतेहैं । कन्या भी एकहीवक्त दीजातीहै ।
ये तीन एकही वक्त होतेहैं, यह सुनके सेठ बोले वह मुनि तो भ्रमरके जैसा एक ठिकाने नहीं रहेहै कैसे मिले और यहा आवेगा या नही आवेगा आयाहुआभी कैसे जानाजावे क्या उसका पहचानहै तब श्रीमतीबोली| हेतात मैंने उसदिन गाजनेके भयसे मुनि के चर्णमें लगीभई पहचान देखाहै इसलिये अब ऐसाकरो यहां जो जो है। मुनिआवे उनका निरंतर मैं दर्शनकरूं तब सेठबोले इसनगरमें जो कोई साधु आवे उन्होंकोतें अपने हाथसे
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