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चा. घ्या. ९
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अठारह (१८) गणराजाने अमावस के दिन उपवास करके पौषधत्रत अंगीकार किया था । उस रात्रिः में भावउद्यो |तकरनेवाले तीर्थकर मोक्षगये जानके अपने घरोंसे रत्नमंगवाके द्रव्य उद्योतकिया पौषधपारा जिस रात्रि में तीर्थंकर | मोक्षगये उसरात्रि में देवोंके जाने आनेसे वडा उद्योत हुवा | उस अवसरमें देवोंके मुखसे श्रीमहावीर स्वामीका निर्वाणगमन सुनके श्रीगौतमखामी मनमें विचार किया कि अहो भगवानने जानतेभये मेरेको दूरकिया भगवान्ने जाना मेरेपास केवलज्ञान मांगेगा | बालकके जैसा कदाग्रह करेगा || परन्तु हे स्वामिन् मैं ऐसे आपको नहीं | जानेथे ॥ केवलज्ञान देते तो आपके क्या न्यून होजाता | आपका मैं सेवक था | आपने लोक व्यवहारभी नहींपाला | अब मेरा संशय कौन दूरकरेगा | मैं किसको प्रश्न करूंगा ॥ हेगौतम हेगौतम ऐसा मुझे कौन कहेगा ॥ ऐसे वक्त अपने जो होवें उन्हों को दूरसे बुलाए जाते हैं । आपने मेरेको दूर भेज दिया । हे प्रभो मेरेको केवलज्ञानकी तृष्णा नहींथी | केवल आपके दर्शनहीकी तृष्णा थी | अब आपका दर्शनदूर होगया । ऐसा विलाप कर्ता हुआ गौतमखामीने विचार किया || हेजीव तें मोहकेवशसे गहला हुआ है | भगवान् वीतराग है तैं सरागी है ॥ वीतरागके साथ सेह क्या काम आवे || एक पक्षकी प्रीतिः कैसे बने । द्वादशाङ्गीका जाननेवाला होते भी हैं। मोहके वशपड़ा है जगतमें कोई किसीका नही है सब जीव अपनेअपने कर्मों के फलभोगवते हैं ॥ इत्यादिविचारकर्ते भये गौतमखामीने क्षपक श्रेणी करके केवलज्ञान पाया । जिस रात्रिमें प्रभु मोक्षगये उस रात्रिमें भाव उद्योत जानेसे
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