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| इससे कार्तिक शुक्ल पंचमीका विधिः कृपा करके कहो ॥ आचार्य बोले कार्तिकसुदी पंचमी के दिन पुस्तक पट्टेपर स्थापके सुगन्ध पुष्पोंसे पूजके आगे धूप रक्खे ॥ पांचवर्णके धान्यका पांच या इक्कावन स्वस्तिककरे ॥ पांचरंगके पक्वान्न और पांचफल चढ़ावे ॥ ज्ञान पूजाकरे यथाशक्ति द्रव्य चढ़ावे ॥ बाद गुरुकेपास जाकर विधिपूर्वक वंदना करके पञ्चक्खानकरे | उसदिन उत्तर सन्मुखबैटके ॐ ह्रीं नमोनाणस्स इसपदका दोहजार (२०००) गुणनाकरे ॥ जो पंचमी के दिन पौषधकरे तो पुस्तकपूजा वगैरहः विधिपारनेके दिन करना ॥ तपपूर्ण होनेसे यथाशक्ति उज्जवना करना ऐसा आचार्यः का वचन सुनके गुणमंजरीने पंचमीका तप अंगीकार किया । इस अवसरमें राजाने प्रश्नकिया ॥ हे भगवन् मेरे वरदत्त पुत्रके कोढ़रोग कैसे उत्पन्न हुआ अक्षरमात्र भी पढ़नहीं सके है इसका क्या कारण है ॥ | गुरू बोले कुंवरका पूर्वभव सुनो जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र में श्री पुरनामका नगर था वहाँ वसुनामका सेठ रहता था उसके वसुसार, वसुदेवनामके दोपुत्र थे । वे एकदा क्रीड़ा करनेकेलिये वनमेंगये | उसवनमें मुनिसुन्दर नामके आचा र्य देखे और वन्दना किया | गुरूने धर्मदेशना दिया सो कहते हैं ।
यत्प्रातः संस्कृतं धान्यं मध्यान्हे तद् विनश्यति ॥ तदीयरसनिष्पन्ने काये का नाम सारता ॥ १ ॥ अर्थः- जो प्रातः काल में संस्कार कियाहुआ धान्य मध्यान्हमें बिगड़ जाता है उष्णरसवति में जो खाद है । सो ठंडा होनेपर नहीं रहता है | उस धान्यके रससे निष्पन्न हुआ शरीरमें क्या सारपना है । इत्यादिदेशना सुनके पितासे पूछके
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