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दीवा०
व्याख्या०
॥ ५२ ॥
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बोला अरेपापिनी हरवक्त सामने बोलती है ॥ सुंदरी बोली पापी तेरा बाप || सेठ बोले धिक्कार हो तेरेको क्रोधमुखी झूठ बोलनेवाली वाचाल || सुंदरी बोली तेरेसे जादा कौन क्रोधी है | स्त्री भर्तार के ऐसा निरंतर कलह होवे तो क्या सुखहोवे | ऐसा वचनसुनके जिनदेव सेठ नाराज होके पत्थरका प्रहार किया मर्मस्थान में लगा तब सुंदरीमरके तेरी| पुत्री भई | इसने ज्ञानकी आशासना पूर्वभव में करी इससे रोगोत्पत्ति भई ॥ कहाभी है ॥
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ॥ १ ॥
अर्थः-किएहुए कर्मोंका सैकडो करोड कल्पजाने सभी क्षय नहीं है | किया हुआ शुभ अशुभ कर्म अवश्यही भोगना होवे है | ऐसा गुरूका वचनसुनके गुणमंजरीको जातिस्मरणज्ञान हुआ || पूर्वभवजानके बोली अहो गुरुका वचन सत्य है || बाद सेठने गुरूसे पूछा हे भगवन इसकारोग कैसेजावेगा गुरु बोले हेथेष्ठिन् ज्ञानके आराधनसे सब सुख होवे है || दुःखका नाश होवैहै ॥ ज्ञानका आराधन इस प्रकार से हो वे है | विधिसे शुक्ल पंचमीको उपवास करके पट्टे पर पुस्तकस्थापके आगे स्वस्तिक करे ॥ पांचबत्तीका दीपक करे || पांचफल और पांचवर्णका धान्य चढ़ावे ॥ पांच वर्ष पांच महीनों तक यह तपकरे ॥ मन वचनकायाकी शुद्धिकरके पंचमी आराधना ॥ जो महीनेमहीने में करनेको नहीं समर्थ होवे तब कार्तिकशुक्ल पंचमी यावज्जीव आराधे अच्छीतरह आराधा हुआ पंचमीका तप सर्वसुख देवेहै ॥ | ऐसा गुरूका वचन सुनके सिंहदाससेठ बोला हे भगवन् मेरी पुत्रीकी महीने महीने में तपकरनेकी शक्ति नहीं है ॥
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ज्ञानपंचमी व्याख्यान.
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