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जीताहै ॥ १॥ आचार्यने ऐसा कुविकल्पसे विचारा कि किसीको पदमात्रभी नहीं कहूंगा नहींपढ़ाउंगा पढाहुआनहीं यादकरूंगा ॥ बाद आचार्यःका शरीर जादा रोगाकान्तहुआ बारह दिनका मौन करके उस पापको नहीं आलोयके आर्त ध्यानसे मरके हे राजन् यह तुम्हारापुत्र हुआ। पूर्वोपार्जित कर्मसे अत्यन्तमूर्ख और कोढ वगैरहः । रोगोंसे पीड़ित शरीर हुआ । ऐसा गुरूका वचनसुनके वरदत्तकुमरको जातिःस्मरणजनित मू भई अपना पूर्वभवदेखके क्षणान्तरमें सावचेतभया ॥ और गुरूसे बोला हेभगवन् आपके वचन सत्य हैं तव राजाने आचार्य से कहा हेभगवन् यह रोग किसप्रकारसे मिटेगा ॥ गुरू बोले हेमहाराज कार्तिकसुदीपंचमी आराधनी पूर्वोक्त सबविधि कहा ॥ कुमरने पंचमीका तप अंगीकार किया ॥ और लोकोनेभी पंचमीका तपखीकार किया ॥ बाद गुरूको नमस्कार करके सबलोग अपनेठिकाने गये ॥ अनन्तर सम्यक् तपकरते हुए वरदत्तकुमरके सवरोग शान्त होगये ॥ खयंवर आईहुई राजालोगोंकी १हजारकन्यापाणिग्रहणकरी सब कलासीखी अजितसेनराजा वरदत्तकुमरको राज्यदेके गुरूके पासमें चारित्रग्रहणकिया ॥ वरदत्तराजा राजपालताहुआ वर्षवर्षमेंबड़ीशक्तिभक्तिःसे पंचमीका आराधनकरताहुआ ॥ अखंडआज्ञा जिसकी ऐसा राज्यपालके भुक्तभोगीहोके अपने पुत्रको राज्य देके दीक्षालिया। इधरसे गुणमंजरीके तपके प्रभावसे रोग सवगया ॥ अद्भुत्रूपहुआ जिनचन्द्रव्यवहारीको पर्णाई ॥ हतलेवा 8 छुड़ानेके वक्त पिताने बहुतधनदिया ॥ बहुत कालतक सांसारिकसुख भोगवके यावज्जीव पंचमीका तपकरके अंतमें
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