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दीवा० व्याख्या०
॥ ६७ ॥
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अर्थः ॥ धर्म से सम्पूर्ण मंगलकी श्रेणी होवे है || धर्मसे सम्पूर्णसुख सम्पदा और निर्मल यश पावे है इस वास्ते धर्मकरो ॥ १ ॥ विवेक उत्कृष्ट धर्म है विवेक परम तपहै विवेक उत्कृष्ट ज्ञान है विवेक मुक्तिःका साधन है ॥ २ ॥ | भक्ष अभक्षकाविचार गम्य अगम्यका भेद और मार्ग अमार्गका ज्ञान गुण औगुणका विचार ये सब विवेकसे होवे ॥ ३ ॥ निद्रा, आहार, मैथुन, भय पशू और मनुष्यों के समान है विवेककाहीं अंतर मनुष्यों में है | विवेक के | विना मनुष्य पशुके सदृश कहेजावें हैं ॥ ४ ॥ एक उत्पन्न होता है | एक जन्मान्तरजाता है एक दुःखी है एक सुखी है एक संसारही में परिभ्रमणकरता है | एक मोक्षका सुखपाता है ॥ ५ ॥ इत्यादि देशना सुनके परपदा के लोग अपने अपने ठिकाने गए | तब शूरसेठने पूछा हे भगवान् जीवका क्या लक्षण है तब आचार्य बोले हे। श्रेष्ठिन् ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्त तप, वीर्य, उपयोगवान जो है वहजीव कहाजावे ॥ यतः
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ॥ वीरियं उवयोगो य, एयं जीवस्तलक्खणम् ॥ १ ॥ चेतनालक्षणश्चात्मा, सामान्येन बुधैः स्मृतः ॥ संसारात्मा तथा जीवः, परमात्मा द्विधा मतः ॥२॥ संसारात्मा सदादुःखी जन्ममरणशोकभाक् ॥ चतुरशीतिलक्षासु, योनिषु भ्राम्यते सदा ॥ ३ ॥ नसा जातिर्न सा योनिर्न तत् क्षेत्रं न तत् कुलम् ॥ यत्र कर्मवशादात्मानोत्पन्नोऽयमनेकधा ॥ ४ ॥
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पौष
दशमीका व्याख्यान.
॥ ६७ ॥