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वालाहो ॥ ऐसा सुनके संप्रतिराजा आचार्यःको वन्दना करके अपने घरगया ॥ यावजीवपर्वआराधके सद्गति गया ॥ इसीतरहभव्योंको इस पर्वका आराधन करना ॥ छठ्ठपौषधसहित करना महावीरखामीका गुण स्मरण करना ॥ दिवालीकी रात्रिमें जागरन करना ॥ दिवालीके प्रभात स्थापनाचार्यःकी पूजाकरना गौतमखामीका एकासना करना ॥ इत्यादिपर्व आराधनकरतेभये भव्य जिनाज्ञाके आराधक होवेहै ॥
इति दिवालीव्याख्यानसम्पूर्ण ॥
अथ ज्ञानपंचमी व्याख्यान लिखते हैं। श्रीमत्पार्श्वजिनाधीशं, सुराऽसुरनमस्कृतम् । प्रणम्य परया भक्त्या सर्वाभीष्टार्थसाधकम् ॥ १॥ कार्तिक शुक्लपञ्चम्या, माहात्म्यं वर्ण्यते मया ।भव्यानामुपकाराय यथोक्तं पूर्वसूरिभिः॥२॥
अर्थः-देवदानव जिन्होको नमस्कार करते हैं और सर्ववांछितके साधनेवाले ऐसे श्रीपार्श्वनाथखामीको उत्कृष्ट भक्तिःसे नमस्कार करके भव्योंके उपकारकेलिये जैसा पूर्वाचायोंने कहाहै ॥ कार्तिकसुदीपंचमीका माहात्म्य उसीतरह मैं कहताहूं ॥ जगतमें ज्ञान उत्कृष्टहै ॥ सर्वप्रयोजनोंका साधनेवाला अनिष्ट वस्तु के विस्तारका निवारक ज्ञान कहाहै ॥ ज्ञानसे मुक्तिः पावेहैं । और देवलोकका सुख तो सुलभ है । इसलिये ज्ञान कल्पवृक्षके सदृश है ।
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