Book Title: Dwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Author(s): Jinduttsuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अट्टाहिका चमत्कारः पाईभई मायावचनप्रपंचकरके बोली हेनाथ यह मनुष्यःभव यह रूप और यह राज्य सब तपः| सूर्ययशाव्या० क्लेशादिकःसे कैसे विडंबितकरोहो ॥ इच्छा माफक सुखभोगवते रहो। वारंवार मनुष्याभव कहां मिलताहै ॥ राज्य-राजा कथा है प्रधानभोग कहांहै ॥ उसके अनन्तर कानों में तपाया हुआ कथीरके तुल्य उसका वचन सुनके राजा बोला अरे ॥२८॥ अरे धर्मकी निंदा करनेसे मलीन खभाववाली अधमा यह तेरी वाणी थोडी भी विद्याधरके कुलाचार योग्यनहीं है। तेरी सब चातुरीको धिक्कार होवो ॥ तेरा रूप और तेरी वय उसको भी धिक्कारहोवो जिसकरके तैं जिनपूजादिशो-2 भनधर्मकृत्यकी निंदाकरेहै और मनुष्यत्व, सद्रूप निरोगता, राज्यादिकतपसे मिलेहै । वह तप कौन कृतज्ञनहीं करे जोनहीं आराधे वह कृतघ्नही होवे ॥ अरे धर्म आराधनसे शरीरकी विडंबना नहींहोवे ॥ किंतु धर्मविना केवल विषयोंकरके विडंबनाही है इस कारणसे यथेच्छ धर्म करना वारंवार मनुष्यभव कहां है व्रतकोधारनेवाले हमृगसिंहादि पशुभी अष्टमी औरपाक्षिकके दिन अहार नहीं लेवेहै तो मैं कैसेलेऊ उन्होंके जानपनेको * धिक्कार होवो जो सर्वधर्मका कारणपर्वाराधननहींकर्तेहैं ॥ श्रीऋषभदेवःखामीने कहा यह उत्तमपर्वहै । वह मैं कंठगत प्राण होऊ तथापि तपविना पर्व वृथा नहीं करूं हे स्त्रि मेराराज्य जावो प्राण नष्टहोजावो परंतु el॥२८॥ पर्वतपसे मैं भ्रष्टहोऊं नहीं ॥ ऐसा क्रोधातुर राजाका वचन सुनकर उर्वशी मोह माया कर्तीभई और बोली है हे खामिन् आपके कायक्लेश मत होवो । मैंने तो प्रेमरससे यह वचन कहा इसलिये क्रोधका अवसरनहींहै पहले For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180