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अट्ठाहिका व्या०
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पेटीमें धरके उन्होंके आगे सम्पूर्ण धूपादिक देवपूजाका सामान रक्खा बाद पटी बंध करके तालादेके अभयकुमारने उसपर अपनीछापलगाके कितनेक दिनके बाद श्रेणिकराजाने आर्द्रकराजाके पुरुषको प्रियआलापपूर्वक बहुत भेटना देके भेजा तव अभयकुमारने भी वा पेटी देके अमृत तुल्य वचनोंसे एसा बोला यह पेटी आर्द्रकुमरको देनी और उस मेरे भाईको ऐसा वचन कहना कि तुमको यह पेटी एकांत बेठके खोलना इसकी अंदरकी वस्तु आपहिको देखनी और कीसीको नहि दिखाना बाद अभयकुमारका वचन अंगीकार करके वह पुरुष अपने नगरजाके भेटना स्वामीको और कुमरको दिया और आर्द्रकुमारकों अभयकुमारका शंदेसा कहा बाद आर्द्रकुमार एकांत में बैठके उस पेटीको उघाडके अंधेरेमें उद्योत करनेवाली श्रीरिषभदेवखामीकी प्रतिमाको देखके विचारने लगा अहो ! क्या यह उत्तमदेहिका आभरणहे तो क्या मस्तकपर पहराजाता है या कंठमें हृदयमें या और कँहि पहराजाताहे ऐसा विचारकर उसीतरहसे कीया परंतु कहिभीठहरा नहि तव विचारकरने लगाकि मेनें पहले ऐसा कँहि देखाहे ऐसा मालुम होताहे परंतु याद नहि आता है कहाँ देखाहे इसप्रकार से अत्यंत विचार करतेहुवे आर्द्रकुमारको जातीस्मरण जनित मूर्छा उत्पन्न भई तदनंतर उत्पन्नहुवा हे जातीस्मरणजिसको ऐसा कुमर चेतनापाके आपही अपने पूर्वभवकी कथा विचारने लगा - इस भवसे ( ३ ) तीजे भवमें मगधदेस में वर्शतपुरनगर में सामजीकनामका कुटुंबी था मेरे बंधुमती नामकी स्त्री थी एकदा सुस्थित आचार्य के पास में धर्म सुना स्त्रीसहित प्रतिबोध पाया गृहस्थ
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आद्रकुमार कथा
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