________________
जैनराजधर्म तथा उसकी प्राचीनता
- *जैन धर्मसे क्षत्रिय राजाओं का कितना अधिक सम्बन्ध है मह मैं संक्षेप से प्रगट करता है ।
जैन धर्म के प्रवर्तक २४ तीर्णकर १२ चक्रवर्ती, नारायण, पति नारायण और १ बल्देव ये शठि शलाका अर्थात पदवी धारक महाम पुरुष प्रत्येक कल्पकात में होते हैं और ये सव नियमसे वीर क्षत्रिय राजवंश के सर्वोच्च कुल में ही जन्म लेते हैं। • यों तो जैन धर्म को चारों वर्ण से लेकर तिर्गच तक स्वाद अनुसार धारण कर सकते हैं, किन्तु जैन धर्म ने विशेषता क्षत्रिय वर्ष को ही दी है, क्योंकि" "जो कम शूरा सो धर्म शूरा,, अर्थात् जिसमें कर्म करने की शक्ति है वही कर्म काट सकता है और यह गुण क्षत्रियों में प्रधानता से होता है, इसी से जैन शास्त्रों में यत्र तत्रयोर क्षत्रियों के हो गुणों का कथन बाहुल्यता से भरा हुआ है, जैन पुराणों को यदि वीर क्षत्रियों का इतिहास कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
भगवान अपभदेव प्रथम तीर्थकर इक्षाकवंशी ने नामिराजा माता मरुदेवी के यहां स्थान अवधपुरी में जन्म लिया था- इन भगवान को कोई २ ऋषम अवतार भी कहते हैं, कोई २ वाया आदम भी कहते हैं इन्हों ने ही प्रयम कर्मभूमि सृष्टि की रचना की है, भगवान ऋषभदेव ने तीनों वर्ण के कर्म बतलाते हुए क्षत्रियों के प्रति (शस्त्र). कर्म . को पहिले स्थान दिया है, शस्त्र कला का प्रचार सब से पहिले जैनियों के घर से हुओं है । जैन शब्द में ही वीरत्व भाव भरा हुआ है । जैन धर्म को शक्तिधारी आत्मा ही भले.प्रकार से धारण कर सकता है।