Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 123
________________ लोम · का अभाव कवायन ५.प्रत अहिंसादि। " इच्छा , पर में ममता, परिगृह त्याग . . ! गृहस्थ को भावना घेदन (स्त्रीपुरुप नपुंसक,! का अभाव यानी आत्म स्वरूप में प्रति शौच , पवित्रता उज्जलना संजम " +एक देश सकल देश तप " त्याग " ,, आकिंचन , " ब्रह्मचर्य , - दान चार प्रकार के है यथा आहार औषधि, शाल श्रीर अभय 1( उत्स्ट, मध्यम और जघन्य से कई भेद है) यह नियम द्रव्य द्वारा या सामग्री से पाला जा सकता है। हमारे आचायों ने शाल जी में हम को हमारी मासिक आमद में से चीथाई हिस्सा दान करने का उपदेश दिया है जो कोई ऐसा करे वह तो उत्पष्ट पुरुष है बहुत से बड़े २ धर्मात्मा अपनी आमद 'में से आधा या ज्यादा-धर्म में लगा देते हैं उनके पुण्य को केवली भगवान ही जानते हैं। जब ऐसे भाव या निमित्त न हो तो भी शक्ति को न छिपा कर महावारी मुकुर्रर करे या रुपये पीछे कुछ बांधकर दान द्रव्य एकत्र करना चाहिए। और जहां जहां उचित स्थानों में जरूरत हो लगाता रहे। इस तरह पर हम एक समय में बड़ी तादाद भी लगा सकेंगे और हमको कोई कठिनता मालुम न होगी. । पारमार्थिक लाभ के अतिरिक्त लौकिक लाम 'जैसे दानवीर, सेठ साहकार धर्मात्मा फुल भूपणादि पद भी लग जाते हैं जिसका लौकिक जीवन वास्तय में सुधरा उसका

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