Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 131
________________ (१६) ॥ धर्म-चरन्चाएँ । - ... १-यदि स्त्राच्याय में कोई शङ्का उपहें नो स्थानीय साधी माइयों से समाधान करने अथवा डाक द्वारा किमो विद्वान मे। 'जो चरचा चित में नहिं चहुँ, सो सब जैन सत्र सो कड़े । . अथवा जो श्रुत मरमी लोग, तिनं पुचि लीजै यह जोग ।। - इतने में संसे रहिजाय, सो सब केवल मांहि समाइ । याँ निसल्य कीजै निजभाव, चरचा में हर को नहि दांव ।। . २-जैन पञ्चों में स्थानीय भाइयों से ज्यादा गुण होने चाहिए । पञ्च शब्द से यह अभिप्रायः है कि ये न्याय पूर्वक संसारी व धार्मिक कार्य करेंगे तथा समाज को चलावेंगे । समाज पर उनको सदैव गंभीर और क्षमा भाव रखने योग्य हैं। परिडत भूदरदास जी कहते हैं। . . जैन धरम को मरम लहि वरतै मान. कपाय । . यह अपच अचरज सुन्यौ जल में लागी लाइ ॥ . जैन धर्म लहि मद बढे बौदि न मिल है कोई । .. अमृत पान विप परणवै ताहि न ओपध होई ॥ . नीति सिन्धासन बैठौ वार, मति श्रुतदोनु रापि उजीर। । 'जोग अंजोग इंकरी विचार, जैसे नीति नृपति व्योहार।। ३-प्रत्येक जैमी (भावक तथा भाविका) को यातसल्य .अङ्ग धारण करने का विचार रखना परमावश्यक है। यानी एक इसरे को देखकर यया उचित सन्मान करमा, प्रसन्न होना, मुशलता पूछना तथा धर्म चरवा करना गाय बछड़े जैसी प्रीति दोना इत्यादि- "गुणिषु ममोद" इस प्रेम भाघ को घातसल्य भला माइते शक्ति-माफिक एकदूसरेको संहायता श्रीसमधुपा करना। :, . हमको आपस में जुहारशय नेमाल करना चाहिए। संद का अर्थ समकार है।

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