Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 149
________________ औपधिदान ! भीमती स्वर्गीय भगवान देवी जैन पारमार्थिक श्रीपवालर , स्थापित वीर सम्वत २२५१ ) हायरस यू० पी० के । १ उद्देश्य-शुद्ध श्रौषधी श्री श्रीपधिदान का सर्वत्र प्रचार कर रोगी दुखी जनो की पीड़ा दूर करना । २ नियम- धर्म रहे श्र० धन चचे, रोग समुल नसाय। यह सुख शीघ्र उठाइये शुद्ध श्रीषधी साय ॥ शरीर को निरोगता पुरुषार्थ साधन सेतु है । कंचन सुगंधित देह का निर्माण औषधि हेतु ॥ दान श्रीपति पुरुय यश कर बचे नृप धन प्राण है। जगमें शिरोमण नर वही जो देत जीवन दान है ॥ धर्मार्थ खोला - श्रीपधालय सभ्य दृष्टी दीजिए ॥ शुभ द्रच्वदेकर आप अपना यश उपार्जन कीजिए | जो धीर दानी दानसे इसको समुन्नति देगे । ये पद व फोटो से विभूषित होगे पुनि दाँगे ॥ ३ - सर्व औषधि नुम् खे मुफ्त | वैधजी विनफीस असमर्थ रोगो की देखते हैं। 1 १ ४ - स्थापित ता० २८ मई १९२५ से ३१ जनवरी १९२६ जिनमें से २३७७ . तक २५२० रोगियों को दवाएँ दीगई को थाराम हुआ । - श्रार्थिक मासिक सहायता की छपी रसीद दी जाती है । विवरण प्रतिमास जैन समाचार पत्रों में व वार्षिक रिपोर्ट में रूपकर प्रकाशित होता है । ६--जो निम्न लिखित सहायता देंगे उन्हें नीचे लिखे पदों से त्रिभूपित कर उन के फोटो श्रीषधालय में सुशोभित किए जायेंगे। और प्राद्रव्य औषधालय के कार्य में लगाया जायेगा । मूल संथापक १ ही संस्थापक ५ ही १ हो १० हो मुख्य सहायक २५ हो मुख्य संरक्षक संरक्षक २५०००) जैन जाति एन १००००) जैन ज्ञाति योर ६००) जैन बंधु ४०००) जैन हिंदी ६१९२१ धर्मः

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