Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - संना मोतीलाल मास्टर 4. . "धर्मोपदेश - (कृपया विनय से रखिये.) लेखक व प्रकाशक : द्वारकाप्रसाद जैन C. K. सभापति भी दिगम्बर जैन धर्म प्रभावनी समा MAHE मा (हास) पोस्टमास्टर भरतपुर गहर-राजपूताना पतंक मिलने का पताः-116 चतुर्भुज द्वारकाप्रसाद जैन, २० निर्माण व प्रबंधकों PAR श्री महावीर दिगम्बर जैन मन्दिर हाथरस जिला अलीगढ़ यू पी० ... HATHRAS. :D ALIGARH: 0.P. विक्रम सं० १९८२, पीर सं० २४५२, सन् १९२६ ई० yoo प्रथमावृति } { मूल्य- धर्मप्रचार सुदर्शनलाल जैन के प्रबंध से, सुदर्शन प्रेसंहाथरस में मुद्रित छ। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद ! .: इस अमूल्य पुस्तक में धर्म सज्जनो में निम्न प्रकार सहायता दी है। उन्हें कोटिश धन्यवाद है । २१) श्रीमान सेठ सोहनलाल जो जैन ठि० सेठ कन्हैयाजाल जो भोलानाथजी जैन टकमालो जोहरों थाजार जैपुर रातानी |" ११) 99 19 १२) श्रीमान लाला रामलाल जी श्योलाल जी नं० १ बोनी पट्टी. वडाबाजार कलकत्ता | 99 १९) श्रीमान लाला मन्मनलाल जी जैन, काम ( राज्य भरतपुर ) १०) भी ० जैन पश्चानं सुलतानपुर पोस्ट चिलकाना जिला सहारनपुर मार्फत लाला दर्शनलाल जैन जमीदार | ५) श्रीमान लाला प्यारेलाल 'जो कन्हैयालाल जी जैन कुमार बिलडिङ्ग कानपुर । ५) भीमान डाक्टर भाईलाल जो कपूरचन्द जी, शाह जैन रत्नामृत श्रोफिस सु० नार जिला फेरा । ४|| ) श्रीमान जैन पञ्चान मु० गिरोडी . जिला हजारीबाग बंगाल मारफत लाला उह्याभाईजी | ५) श्रीमान वाला जुहारमल जी सहसमलजी मेवाडी बाजार व्याधर राजपताना । ३) श्रीमान बाई सांकली बाई जी पूज्यं मातुश्री शाह वलभाई जो रायचंद जैन सु० श्रीराग जिला अहमदाबाद | ४० ) श्रीमती. दिगम्बर जैन धर्म प्रभावनी सभा सांभर लेक राजपूताना मा. सभापति द्वारकाप्रसाद जैन । ५) व्याज़ खाते के जमा । ५१) श्रीमती रतनप्रभादेवी और दानेन्द्र देव, सुपुत्री व सुपुत्र द्वारकाप्रसाद जैन CK. हाथरस । १८२) ओड़ समाज संघ द्वारकाप्रसाद जैन हाथरस । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागायनमः ॥ श्री परमात्मने नमः श्री ऋषभ - महावीर देवायनमः ॥ अहिंसा परमोधर्मः यतो धर्मः ततो जयः । धर्मात्माओं के बिना धर्म अन्यत्र कहीं नहीं पाया जा सकता। भूमिका उद्देश्य | A प्रायः ऐसा देखने में आता है कि किसी २ नगर में कुछ जैन ति के बांधव व वहिने, षटकर्म व धर्म मार्ग को हम न कर सी २ बातों में अन्यथा प्रवर्तते है जिससे धर्म के श्रायतनों पर छ माक्षेप व विघ्न अक्सर हो जाता है और उसके अतिरिक्त भंडारों के दर्शन तक कठिन हो जाते हैं। स्वाध्याय का तो हना ही क्या? प्रिय सज्जनों ! रूपया सोचिए कि हमारे श्राचायों कितना परिश्रम और करुणा कर कैसे २ /महान ग्रंथ रचे हैं। और महत पुरुषों ने परिश्रम व लाखों रुपया खर्च कर, परिपाटी लाते आए हैं। अफसोस ! आज हमारे भाई व पंच कहलांकर न मंदिरों पर विश्न व उसके उन्नतिमें बाधा डालते हैं और जिन गमों के दर्शनः तर्क नहीं करते करते । लेकिन जीणं कर विनय करते हैं या यो कहिए कि सदां के लिए जलांजलि दे रहे हैं। से से महा अशुभ कर्मों का ध्थाथव होता है । क्या अमूल्य जैनधर्म, शास्त्र कम नहीं होते हैं ? इन सब बातों का कारण सोचा तोय तो यही कह सकते हैं कि शास्त्रज्ञान नहीं, या स्वाध्याय - वृति महीया यया शक्ति श्रमं श्रीर विचार नहीं, अंयंत्रा आदी वन रहे हैं ।. 7 २ - द्वितीय हमारे बहुत से जैन बांधव जैन धर्म या उसके. सुलों को न जानकर जैन धर्म या जैनियों की किसी २ बातों पर निदा करते हैं और जैन सम्प्रदाय, उनको जैन धर्म का स्वरूप बताने में प्रमादी हैं अथवा पता नहीं सकते हैं, इन्हीं कारणों से किसी में स्थान पर हमारे अजैन बांधव, जैनियों के धार्मिक कार्य च उत्सवों पर हुएं और पुण्य संचय न करते हुए, विघ्न का कारण पैदा कर देते हैं । हमारा अजैन समाज सेनम्र निवेदन है कि वे जैनियों से मित्रता कर जैन मंदिर में नित्य जावें धीर जैन धर्म से लाभ उठावें ।. A. ..... . ३ - इन्हीं अशुभः कारणों को दूर करने के लिए, यह अमूल्य पुस्तक प्रकाशित की है ताकि 'स्वाध्याय प्रचार और धूम प्रभावना रा, अन्त में मोक्ष सुख लाभ प्राप्त करें ।. द्वारकाप्रसाद जैन C. K. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. निवेदन ॥ प्रिय बंधुवा । यह अमृतधारा रूपी धर्मापदेश बडे परिश्रम से प्रकाश कर आप साहयों के कर कमलों में भेद करता हूं। पाया है कि श्राप धर्मश मुंभ मॅद युद्धी पर क्षमा भाव रखते हुए जैन अजैन समाज में धर्मोनति करेंगे। इस पुस्तक से धर्माप. देश समय प्रथम सिद्धी, विदेह क्षेत्र के विद्यमान तीर्थंकरों और तीन लोक के हतम शतम चैत्यालयों को नमस्कार :कर,.एक. सामोकार मँन की जाप और निम्न मॅन की २१ बार जाप देकर' व्याख्यान शुरू करने की पा करें। . . ' . ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कार्ति मुख मंदरे कुरु कुरु स्वाहः । ' ..२-इसको अविनय करने या रही में डालने से, पापाभव होगा। पढने व नित्य सम्र को सुनाने से, सदा मङ्गल,होगा। .. '. ३-यदि अविनय व रही का कारण हो, तो किसी जैन मंदिर या अन्य भाई को देने की छपा करें। . . . . — ४-भारत में प्रत्येक जैन मंदिर में, एक चौकी पर यह पुस्तक हर वक्त विराजमान रहे ताकि दर्शक पढ़ सकसे प्रबंध की मैं प्रार्थना करता हूं। . . . . . ५-भारत के प्रत्येक लाइब्रेरी, वाचनालय, संस्था, पाठशाला, जैन मंदिर इत्यादि में यह पुस्तक रखो जाने का में प्रस्ताव करता हूं। : .. ... . . . . . -यह प्रत्येक मनुष्य वनीको विचार रहे कि जो तीनलोकप, शिखर पर, सिद्ध भगवान, परमात्मा, ईश्वर, खुदा मौजूद हैं तथा विदेह क्षेत्र में केवली भगवान, उनके शान में, हमारे सर्व प्रवाई के कर्तव्य झलकते हैं। इस लिए हम लोगों को सोच विचार कर शुभ और न्याय पूर्वक कार्य करना उचित है तांकि बुराइयों से चचें। कहावत भी हैं कि भाई अकेले में भी यदि कोई साक्षो नहीं। है तो ईश्वर, परमात्मा, खुदा, तो शाक्षी है वह तो देखता है". .. ७-जो कोई, किसी विषय पर मुस से पत्र व्यवहार करना चाहें, . 'तो निम्न पते पर कर सकते हैं। समाज हितैषी....... द्वारकाप्रसाद जैन, C.K.. · पोस्टमास्टर भरतपुर. शहर--(राजपूताना) . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध सूचना पत्र | ( पुस्तक पढ़ने पहले ठीक कर लेवें) शुद्ध पत्र नं० पंक्ति नं० : हिंदी ७ अशुद्ध फर्मावरदार वफादार Executive'. १३ . १५ -२५ ३९ ४०. રૂ ४९ 37 ५० 33 પૂર - १४. १७ ११ २७ .-२५ १७ ११. .२८ ११ .२४ -२६ ૨૭ १० .२३ -२४ ".. Fxecutive ठ - सः हवयह संख्यात Structure Enginere कंवलज्ञान भँदिर भोलो . चदनाओ स्पश अपन प्रकृत के स्वरू नए सक गुणानवाद' नर्मल श्रर दते काम 'संसारी ह उषक क़ नय दुखने लगा पर्य ललते सोम - त्रेशठि से ...मंदिर भीलों वेदनाओ वह यह संख्यात Structural Engineer केवलं ज्ञान ६ स्पर्श अपने + प्राकृत कि. 'स्वरूप' नपुंसक 'गुणानुवाद निर्मल श्रीर 'देते कामां संसारी उनके के नग्न देखने : लगाए पूर्ण लगते सीम Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र में पंक्ति में; अशुद्ध .. : शृंद - ५४ :... २ : अथा । प्रन्यों .५४३ ... दखकर.. .. देखकर ५४. . १६ :: बडेदा घडोदा ५५. ...४. .: अपन अपने " ..६ धम धर्म - + :.-११ : धन . . धर्म । , '; १ . टोक टिक .. - ... १२. भाकराचार्य भास्कराचार्य . १४. १६ . D.PPM ६२ : १ . ६४ . ' . १५ . अनाद अनादि .. डाक्ट डापटर .. . .जोधपर जोधपुर ::: __.. ब्राह्मणा ब्राह्मणों वाले ...वोल.. : ताशंकरी . तीर्थकरो" . . कहीं .. . .का. . ' की अंतनिष्ट - अन्तनिष्ट । पुत्रा . पत्रों .. लकडी . . .-कड़ी२ कोपलें . . . अर्थ .:., २१ मसाधि . समाधि १४ भागकरन सभझका पखंडी " पिस्व . धम • भगवान की पूजा समझका 'पाखंडी . विम्य धर्म. . - देर 5. दर '::राजा राजानी : Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र नं०. पंक्ति नं०.. . अशुद्ध १५ . १ .पमाण . प्रमाण .. . .. १७.. .. . मुझ मुझे - . २६ , - मोटकी. .. कर्नाटकी १९. . . . . . . निदन निवेदन • कुल . . रस : १. . इस से. . . १ .: माता पिता । .:: माता .. माता पिता . देती . देते. . ... होता है इत्यादि देते हैं। . . चारित्र चारित्र का कथन है उन .: अनक ... अनेक ' .१०५ . . . ११८.: : .जाम ..... .. .. कथन कथन, . - अजिंक : ... अर्जिका ... हमारी हपारे ....... परुपो. ... .:पुरुषों · ... पदवा . . . . पदवी. "क, का; देखो के, को, देखो १३२... . नामिनाथ.. निमिनाथ १२ :३५:.... अहत:. . . . अहंत : १२९ : ४. .. . मरंभप : ': नरंभव ! २...१९: स्त्रिों .::.:. स्त्रियों ... R... २२ . . .प्रात्वा श्रात्मा .. . :..:शरार . . शरीर, .. विरीतं. , ... : विपरीत.. २८ . . : करनाः .:: : १३ ........ हर गंज :- ... हरगिज : १३६ . १३..:.:.:..मनासिव ... मुनासिव क्षणाश्रय क्षणोन ये' .. २८. पो . : . 'पोस्ट Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ?. नं० १ विपन अनुक्रमणिका पत्र नम्बर प्रायमा १-२' : श्रीमान महामान्य महोदय वाईसराय हिंदका पत्र ३ ४ . , ५ अखिल भारत वर्षीय दि० जैन महासभा का माननीय पत्र .. . .. . .६ जैन राज धर्म तथा उसकी प्राचीनता . ७-2 ७ . श्री ऋषभ निर्माण ७६ अङ्कप्रमाण संयंत मय .. शङ्काओं और उत्तर ... . -२५ ८. देव.स्वरूप मय दर्शन स्तोत्र . .. २६-३५ ९ ... ४ श्रासादना दोप । संसारीख दुख (मोहरस स्वरूप). ३९-४२.. ११ पूजादि अधिकार व जोनियों को ४ जातें '४२-४३ १२. 'कुछ जैन जातियों का इतिहास ४४१३ - श्री गुरु का स्वरूप. . . . . .. ४९.५२. जैन धर्म पर अजैन विद्वानों को सम्मतियाँ ५३-६४ जैन सिद्धांत . : . .. ६४-६५ जैन धर्म पर श्रीन विद्वानों को पुनः सम्मतिया ६६.-७५ १७ “धर्म स्वरूप : ७५-७६ १६ दीप मालिका (दिवाली). . ७९-८० १९ . .धर्म परीक्षा -... : २० २०. . व्रतों का स्वरूप.....:. : .:'. २१ चार आराधना (श्रीमान पद्मावति, आध्यापक श्री , संहहत पाठशाला कोमा राज भरतपुर मत) २६ २२ : राजा मधुको मुनि अवस्था अंत समय (. भी . ... - पद्मपुराण [जैन दामायण] से उधृत): 20 . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. . . विषय अनुक्रमणिन्न । पत्र नम्बर • .२३ .. सप्त ऋपि उपदेश । ९१-९४ २४ : . हमारी टीका ... . २५, स्वाध्याय . ९६-१७ - २६ जिनवाणी रक्षा ..' . ९७-९९ २७ .. क्या जैनी निगुरे हैं.? .९१-१०० ... स्वाध्याय-धर्मोपदेश १०० - १० २९ . संयम . . ३०.. तप ... . . १०९-१११ ३१. दान ... १९९-२१३ . .३२ . स्त्री समाज से प्रार्थना ૨૨૪–૨૨૯ ३३ :.. स्त्रियों के महाव्रत . १२६-११७ १४. ... श्री शिक्षा - ११७-१८ ...३५ , ' धर्म घरचाएँ ११९-१३६ . • नोर---१. स्वाध्याय शंका.). २. जैन पंचों के गुण . वात्सल्य श्रङ्ग ४ जुहार शब्द . J . ५. निरोग रहने का उपाय, ६ . हर स्थान पर बाचनाल्या ७ . जैन धर्म से उपकार ... धर्म साधम ध उपकार' । धर्म शास्त्र पुस्तकों का विषय । बाद विवाद में गुण नहीं । दिगम्बर संस्थाओं से निवेदन[ .. १२१ १२ छपे ग्रन्थ पुस्तकों का विनय १३.. तीर्थंकरोंके वर्ण और उनपर अजमोंकी कहावत १२२ १४ सांथिए का अर्थ :. .........:. . . . १२३ सिदिश्री का अर्वा .. ... ... १२३-१२४ १६ सूतक प्रभाव विचारः .. .. ..१२५ ins... Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ . १२७ १२७-१२८ . नं० विपय अनुक्रमणि का . पत्र नम्बर नोट-१७ वेसे घेर को शांति नहीं . . १२५-१२६ १८ बहु घोजे का स्वरूप : , के फल .. १२७ जैन धर्म ज्योत के उपाय विचारने योग्य प्रश्न गृहस्थ के कर्तव्य . १२-२८ जैनियों के चिन्न पढने योग्य शास्त्र उद्देश २५ "जिन" का श्रयः । नीति वाक्य सम्यक्ती को पहिवान २८ उपदेश १३०-३३१ २१ जन धर्म सिद्धांत - ... १३१ स्त्री शिक्षा पर मुनि श्री शांति सागर जी महाराज का उपदेश । ३१ अरहन्त सिद्ध भगवान के मूलगुण १३२-१३३ ३२ दीर्घ चेतावनी ३३ हमारी प्रार्थना, पार्शीवाद .. . , मेरी भावना व निवेदन . . १३४-३५ ३५ प्रात्मा ज्ञान माला " . १३५ ३६ . . भाई से भाई को प्रोति.. . ३७ अंतिम प्रार्थना मन को (ॐ) में स्थिर करों। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथना। नमः श्री वर्द्धमानाय निर्द्धस कलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकाना यद्विद्या दर्पणायते ॥१॥ सिद्ध संपूर्णभ्य व्याथ सिद्धः कारण घुत्तमं । ... प्रशस्त दर्शन ज्ञान बारित्र प्रतिपादनं ॥ १ ॥ : सुरेन्द्र मुकुटा श्लेष्ठपाद पद्म सुकेसरः ।..: प्रणमामि महावीर लोक त्रितय मंगलं ॥ २ ॥ त्रैलोक्य सकलं त्रिकाल विपर्य झालोकमालोकित . : : साक्षायेन-यथा स्वयं करतले रेखात्रय सालिः। . . . . रागद्वेश भया मयान्तक ज़रा लोलत्व लोभादयो : ... नालं. यत्पदं लङ्घनाय. स. महादेवो मया बन्यत्तेः ॥ १॥ 'अर्थ-जिस प्रकार अंगुलियों सहित हल्लतलं.की. तीन रेखा स्पष्टं देखी जाती हैं, उसी प्रकार जिसने त्रिकाश गोचर प्रलोक सहित समस्त त्रिलोक को प्रत्यक्षतया इयं देखा और राग, छप, भय, रोग, मत्यु जेरा, लोलुपत्ता लोमादिकम्जोर दोप' है, के जिंग पदको उल्लंघन करने की असमर्थ हैं, उस"महादेव" देवों का देव-अहंत वीतराग सर्वच जिनेदं परमात्मा को मैं पंदना (नमस्कार.):करता . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ २ ) प्रिय बंधुवर्ग - प्रथम हम अपने इष्टदेव परमात्मा को प्रली कर नमस्कार करते हैं जो हमारे परम मंगल के कर्ता है हो द्वितीय - हम श्रीमान महामान्य सम्राट पंचम जार्ज ( George V Emperor ) को हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि जिनके राज्य में स्वतंत्रता पूर्वक धर्म साधन करते हैं तृतीय - राजा महाराजाओं को जैसे जैपुर, जोधपुर, उदैपुर धौलपुर, ग्वालियर, अलवर, दतिया, पटयाला हैदरावाद दमन, टोंक, कोटा, बूंदी, इन्दोर, अलीराजपुर, भावनगर, बरोदा, बीकानेर बशाहर, वस्तर, भोर, वनगनापल्ले, भरतपुर, भोपाल, कोचीन, २ छोटा नागपुर स्टेट, चम्बा, कच्छ, केम्बे, कुर्ग, देवास 8. Br, देवास, JBr. दरभंगा, धार, गोडाल, हिलटिपेरा, ईडर, जावरा, जम्बू, जैसलमेर, भोंद, जंजीरा, झालरापाटन, खेतरी, कोल्हापुर, काशमीर, किशनगढ़, कूंचविहार, कपूरथला, खैरपुर, काठियावाड़, मैसौर, १७ महल उड़ीसा, मनीपुर, मुरसान, नाभा, पन्ना, पालीताना, पुडूह कोट्टाई, राजगढ़, (व्यावरा), रीबों, रतलाम, राजपीपला, रामपुर सीकर, साहपुरा, सिरोही. सीरमूर, सैलाना, २३ शिमला पहाड़ी रियासतें, सामंतवाड़ी, संदूर, ट्राभनकोर, टेहरो। जो समस्त १०८ वडे छोटे राज्य हैं अलावे इसके और बहुत से छोटे २ राज्य ठिकाने हैं उन सबको हम अन्तःकरण से धन्यवाद देते हैं । कि जिनके राज्य में न्याय पूर्वक धर्म साधन करते हैं हमारे ऐसे राजा महाराजाओं का शासन अटल रहे । प्रकट हो कि ऐसी प्रार्थना और भावना हम जैनी लोगों की है और जो धर्म हम लोग साधन करते हैं उसका छठा अंश सम्राट और राजाओ को पहुँचता है यह शास्त्र प्रमाण है । श्री दि० जैन धर्म प्रभावनी सभा के पहले अधिवेशन पर जो श्रीमान महोदय बाईसराय गवर्नर जनरल वहादुर को तार व प्रेग के समय जोपत्र सभाकी तरफसे भेजे गए उनके उत्तर हम यहां पाठकों, के जानने के वास्ते प्रकाशित करते हैं। द्वारकापरशाद जैन : सभापति श्री दि० जैन धर्म प्रभावनी सभा साँभर लेक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Seal of the Viceregal · Lodge, Private Secretary's DELHI Office . .. 7th November 1917 Dear Sir, I am desired to thank you for your loyal message of the 4th november. 1917. . :. Yours. Faithfully ....... (Sd.).B.. L: GAULD. . . _. . . Asst Private Secretary to the Viceroy To: ' THE PRESIDENT :. Digamber Jain Religion Progressive:: . . . . . : Association, SAMBHAR ... (हिन्दी अनुवाद) .. प्राइवेट सेक्रेटरी के..... याईसरंगल लोज दफ्तर को मुहर. । देहली। . प्रिय सज्जन! ७ नम्बर सन् १९१७ ...... मैं आपके राजभक्त तार तारखि ४ नोम्बर १९१७ के लिए धन्यवाद देता हूं। . . भापका फर्माबरदार (d): :बी एल, गाल्ड। " . .. ... ... .. . . बाईसराय के . . बनाम, सभापति, दि जैन धर्म प्रभावनी सभा साँभर । ... ... ....असिस्टेन्ट प्राइवेट सेक्रेटरी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JOINT WAR COMMITTEE. Of the order of S:: John's and the Red Cross Seal of SOCIETY. ... MARK Or The st. John Ambulance OUR DAY" RED CROSS | Association. I( 12th December 1917 11 PRESIDENT His Excelley. Tlc Viceroy&Governor General of India ::: Chairman of the General Committec.. His Excellency ilic Commander-1a-Chict Presideat of thc Fxecutive Committee, Her Excelleicy tuc Lady Chelmsfori, C I. Assistant Secretary Captain L C. Sterens. K. P, A. .. SIMBATEL No 263 Hon.'Treasurer Holiorary Secretary. E. J. Buck. IV J. Litster Office of OUR DAI» Nosth Bank Alliance Bank Simla & Viccroy's Camp Delbi 1. ": 'of Simla. - :: (During Cold Weather ) Dear Sir, ******.877. December29th, 1917. I am desired to thank you very 'much for your Letter of December 12th. 1917. Der Excellency: Lady Chelmsford is much grieved that your district has been visited by plague & hopes for a Speedy Telurn of healthy Conditions among Yon; and at the Same time desires me, to express to you, ler Sincere thanks to the DIGANIBER JAINS for their useful and generous Subscriptions, ......1 am, Yours truly (Sa) . C. Stevens, Captain ::: Assistant Secretary To the Presigent.Digamber Jain Religion Progressive Association. Po. Sambhar-lake Rajputana... Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . हिन्दी अनुवाद। सेंट जोस और रेडकोस सोसाइटी को जोइन्ट बार कमेटी। ., “हमारा दिन १२ दिसम्बर सन् १९१७" सभापतिः श्रीमान महोदय वाइसराय और गवरनर जनरलंहिंद, चेअरमेंन जतरल कमेटी श्रीमान महोदय : कमान्डर-इन, चीफ, समापति ऐकजेक्यूटिभ कमेटी- श्रीमती महावया लेडी चेम्सफोर्ड सो अई... ... ... ... ... असिस्टेन्ट सेक्रेटरी-केपटिन एल. सी. स्टैमिन्स.आर.एफ.ए. शिमला टेलीफोन नम्बर २६३.. . ... आनरेरो ट्रेजर-डवल्यू-जे-तिटस्टर अलाइन्स बहू शिमला आनरेरी सेक्रटरी- जे. बको दफतर हमारे दिनकाण नोर्थ; चेक शिमला.और बाइसराय कैम्प, बेहली (सर्वऋतु में .. ___# . .. दिसम्बर २८ ॥ १९१७... प्रिय सजान . . . . . . .: : में प्रापको, आपके पत्र ता० १२ दिसम्बर १८१७ .के. लिऐ . वहुत धन्यवाद देता है। श्रीमती लेंडी चैमस्फोर्ड को बहुत रंज हुआ कि तुम्हारे जिले में प्लेग : फेल गई. और. टम्मेद. करती है कि यह कट जल्द निवारण हो, और साथ ही "दिगम्बर जैनियों को उनके मुफीद और फय्याजी चन्द के बारे में हार्दिक धन्यवाद देती हैं। . .. .. .. ... . - आपका दियामतदार :: :: - iSD) एल. सी. स्टेमिसः केपटिन . - असिस्टेन्ट सेक्रेटरी : बनाम सभापति श्रादिगम्बर जैन धर्म प्रभावनी. सभा-सांभरतक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .॥ बंदे वीरम ॥ दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती. अयि माननीयाः सुहृदः द्वारिकाप्रसादजी जैन हाथरस सभापति जैन सभा सांभरलेक (राजपूताना) अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन-महासभायाः पंच विंशतितमे महोत्सबे श्रीवीर सम्बत २४४७ चैत्रमासस्य द्वितीय सताहे कानपुर ( यू० पी० ) नंगरे सम्भृतायां प्रथम जैन साहित्य प्रदर्शिन्यां यच्छ्रीमद्भिः परोपकारपरायणैः धर्म बुद्धया अनेक प्रकाराणि पुस्तका दीनि समाचार पत्राणि च बितरणाय द्रव्याणि प्रेषितानि, तत्कृते सबहुमान, पुरस्सरमेतत्सम्मान पत्र पत्र भवतां श्रीमतां सेवायां समर्प्यते ! कृतेनानेन साहाय्येन सुचिरं कृतज्ञतापाशवद्धाः स्मः। '. हस्ताक्षराणि-. (D) Champat Rai Jain (SD) दुर्गाप्रसाद 'लखनऊ महोत्सवस्य सभापतेः प्रदर्शिन्याः सभापतेः ....(SD) रामसरूप (D) कन्हैयालाल खागत समित्याः सभापतेः प्रदर्शिन्याः मंत्रिणः ता०५-२-१९२२ . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजधर्म तथा उसकी प्राचीनता - *जैन धर्मसे क्षत्रिय राजाओं का कितना अधिक सम्बन्ध है मह मैं संक्षेप से प्रगट करता है । जैन धर्म के प्रवर्तक २४ तीर्णकर १२ चक्रवर्ती, नारायण, पति नारायण और १ बल्देव ये शठि शलाका अर्थात पदवी धारक महाम पुरुष प्रत्येक कल्पकात में होते हैं और ये सव नियमसे वीर क्षत्रिय राजवंश के सर्वोच्च कुल में ही जन्म लेते हैं। • यों तो जैन धर्म को चारों वर्ण से लेकर तिर्गच तक स्वाद अनुसार धारण कर सकते हैं, किन्तु जैन धर्म ने विशेषता क्षत्रिय वर्ष को ही दी है, क्योंकि" "जो कम शूरा सो धर्म शूरा,, अर्थात् जिसमें कर्म करने की शक्ति है वही कर्म काट सकता है और यह गुण क्षत्रियों में प्रधानता से होता है, इसी से जैन शास्त्रों में यत्र तत्रयोर क्षत्रियों के हो गुणों का कथन बाहुल्यता से भरा हुआ है, जैन पुराणों को यदि वीर क्षत्रियों का इतिहास कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। भगवान अपभदेव प्रथम तीर्थकर इक्षाकवंशी ने नामिराजा माता मरुदेवी के यहां स्थान अवधपुरी में जन्म लिया था- इन भगवान को कोई २ ऋषम अवतार भी कहते हैं, कोई २ वाया आदम भी कहते हैं इन्हों ने ही प्रयम कर्मभूमि सृष्टि की रचना की है, भगवान ऋषभदेव ने तीनों वर्ण के कर्म बतलाते हुए क्षत्रियों के प्रति (शस्त्र). कर्म . को पहिले स्थान दिया है, शस्त्र कला का प्रचार सब से पहिले जैनियों के घर से हुओं है । जैन शब्द में ही वीरत्व भाव भरा हुआ है । जैन धर्म को शक्तिधारी आत्मा ही भले.प्रकार से धारण कर सकता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... जैन इतिहास से प्रगट है. कि आजसे २४५२वर्ष पूर्व २४ तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी, जिनका धर्म चक्रअभी तक चल रहा है विहार जिले के कुंडलपुर नगर के माथवंशी राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे, राजा सिद्धार्थ का विवाह सिंधु देश के महाराजा चेटक की बड़ी पत्री त्रिशल देवी (पियकारिणी) से हुभा'था, • जिन से महावीर स्वामी का जन्म हुआ ।) . ... ::, रानी. त्रिशला देवी की बहिन चेलना मगध देश की राजगृही नगरी के राजा श्रेणिक (: जिनका नाम भारतीय इतिहासों में विम्वसार लिखा है ) को व्याही गई थी. उसी . समय में कलिंग देश के यादववंशी मज़ा. जितशत्रु थे जिनको राजा सिद्धार्थ की बहिन यानी. महावीर स्वामी की वूमा ब्याही गई थी। इस तरह से उस : उस समय: भारतवर्ष के बड़े क्षत्रिय राजा महाराजा एक न एक सम्बध से जैन राजकुलों में थे। राजा चन्द्रगुप्त जैनी मौर्यवंशी क्षत्रिय था यह तंत्रिय ऊपकारिणी.महासभा ने माना है । जैन मित्र ता०९-१-२९ में राजस्थान के प्रसिद्ध राज्य कुलो में जैन धर्म" नामक लेख में मेवाड़ राज्य उदयपुर, मारवाड़ राज्य जोधपुर और जैसलमेर राज में जैन धर्म को मान्यता के ऐतिहासिक प्रमाण प्रगट किये हैं। जैन धर्म, राजाओं को ही, धर्म है उन्होंने इसे प्रगट किया है. यह समय का परिवर्तन है कि. आजकल जैन धर्म के धारो कम द ष्टिगत होते हैं. ऋषभदेव भगवानं का.सम्बत ७६ प्रह-प्रमाण है, जिससे जैन धर्म यानों जिन यां जन नाम भगवान ईश्वर के धर्म की प्राचीनता प्रगट होती है. हम अपने पाठकों के लाभार्था: मय-शङ्काप और उत्तर के यहाँ प्रकाशित करते हैं. (कुछ अंश दिः जनः अश:७:वर्ष १२: पत्र. १७ व १८ वैसाख वीर सं.२४४५ महासमादि के कोटा के अधिवेशन. प्रस्ताव . सातवें पर समर्थान:) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर नि० २४५२ । श्री श्रेषभ निर्वाण संवत् पर शंकाएं और उनका उत्तर । ..... लि श्रीमान पं० विहारीलाल जैन, सी०टी) .. .बुलन्दनहरी अमरोहा) .. (दि जैन श्रङ्क वर्ष २० वा ज्येष्ठ बीर २४४३ पत्र १८): ... विदित हो कि यह लेख गत मासं जनवरी के "जैन प्रचारक", : में. तथा गत १० जनवरी के जैन प्रदीप में और गत माघ मास: के दिगार जैन में प्रकाशित हुआ था जिम पढ़कर .बहुत से इतिहास प्रेमी हमारे भाइयों ने अपना हार्दिक हर्ष प्रकट किया. और तीन चार महाशयों ने इस सन्वत के विषय में कुछ शंकायें भी: की है जिस से ज्ञात होता है कि इस लेख को बहुत से : भाइयोंने ध्यान पूर्वक बड़ी रुचि से पढ़ा है और अपनी अपनी योग्य सम्मति. देने का कष्ट उठाकर मेरे उत्साह को बढ़ाया है और मुझे आभारी:: बनाया है, जिसका धन्यवाद देने के लिए मेरे पास ययोचित शव नहीं हैं। ... ...... .... .. कई भाइयोन जो कुछ शंकाएं प्रकट की हैं उनका सारांश निम्न लिखित दो भागों में विभक्त हो सकता है:-....... २) इतने बड़े ७६ अङ्क के महान सम्वत् को किस प्रकार पढ़ा जावे जव कि इकाई दहाई आदि दश शङ्ख तक कुल १९ ही... अङ्क प्रमाण नियत हैं..... ..... ....... : .::, ......(२) किस जैन पंथ के अाधारपर और किस प्रकार यह उपरोक्त शकाओं में से पहली शंका प्रकट करते हुए नम्न -ए , '... भार किस प्रकार यह . सम्बत, निकाला गया है ....... Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे कुछ आर्य समाजी भूताओं ने तथा कई अन्य अजेन विद्वानों ने तो अपने पूर्ण गणितश होने का यहां तक परिचय दिया: है कि देश शंख से आगे गिनती का होना ही असम्मत्र बतला बैठे है 4 इस लिए पूर्ण विद्वान सर्व विद्यानिधाम सर्वक्ष तुल्य महाशयां नम्रता पूर्वक निवेदन है कि वे गम्भीर दृष्टि से अपने हृदय में विचार, कि क्या गणना को भी कोई हद हो सकती है ? इस प्रकार विचार दृष्टि से काम लेने पर भले प्रकार ज्ञात होगा कि गणना की कोई हद या सीमा नहीं होसकती तो भी हम सँसारी मनुष्यों को अपनी “आवश्यक्तानुकूल कुछ को तक गणना नियत कट लेनी पड़ती है। अपनी २ आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर हरदेश के विद्वाना, अपनी अपनी बुद्धि वा विचारानुसार अनेक प्रकार से गणना कुछ न कुछ स्थानादि मानकर उनकी कल्पित संज्ञा नियत करली 'और ं अपने २ श्रावश्यकीय सर्व कार्य उसो से निकाल लेते उदाहरण के लिए कुछ विद्वानों की कल्पित इकाई दहाई आदि नीचे लिखी जाती है:-- १) अव फारसी की इकाई 'ददाई-इकाई, दहाई कडा, हजार, दशहजार, सौहज़ार । केवल ६ अक प्रमाण --, ( २ ) लीलावती की इकाई दहाई-एक, दश, रात, सहस् अयुत, लक्ष, प्रयुत, कोटि, अर्बुद, अब्ज, खर्व, निखर्व महा श्रायुत, शंकु, जलधि, अत्यंज, मध्य, परार्धं । १८ अक प्रमाण ___ ( ३ ) उर्दू हिन्दी भाषा को इकाई दहाई—इकाई, दहाई लक्ष, दश लक्ष, कोटि, दश-कोटि, कड़ा, दश नील, पद्म, दर्श... । ३१९ अक ममारी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) (४.) नों महात्रीँराचार्य ह गणित सार संग्रह की इकाई दुहाई-एक, देश, शन, सहस्, दश सहस्, लक्ष, दश लक्ष; कोटि, दश कोटि, शन कोटि, अबु दे, न्यवु द, खर्व, महा खर्च . पद्म, महापद्म, क्षोणी. महा क्षोणी, शङ्ख, महा शङ्ख, क्षित्य, महा क्षित्व, क्षोम, महा क्षोभ । २४ अंक प्रमाण । (५.) अंग्रेजी भाषा की इकाई दहाई – इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार, दश हजार, सौ हजार मिलियन, दश मिलियन, सी- मिलियन, हजार मिलियन, दश हजार मिलियन, सौ हजार "मिलियन, विलियन, दश विलियन, सौ विलियन, हजार विलियनः दश हजार विलियन, सौ हजार विलियन, ट्रिलियन, दश ट्रिलियन, सी ट्रिलियन, हज़ार टिलियन, दश हज़ार डिलियन, सी इंजार ट्रिलियन । २४ अंक प्रमाण । यह इकाई दहाई ऐसे ढंगले नियत की गई है कि क्वाडिलियन आदि शब्दों द्वारा छह २ म के उपरोक्त.. रीति से बढ़ा कर २४ अक प्रमाण से आगे भी. अक प्रमाण बडो सुगमता से की जा सकती है ।. 'उपरोक्त उदाहरणा के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की इकाई दहाई हैं जो अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से कल्पनो 'की हैं और जो मानने वाले जन समूह की नित्य प्रति के सब व्यवहारिक कार्यो में पड़ने वाली आवश्यकताओं को पूर्ण करने. लिए केवल पर्याप्त (उपयुक्त) ही नहीं किंतु पर्याप्त से भी "अधिक है !.. . * यह जैन आचार्य कृत गणित-यथ भास्कराचार्य कृत. लीलावती" से ३०० वर्ष पूर्व का है जो अर्थ जो अनुवाद सहित “ “मद्रास प्रांत" सरकार को श्राशानुसार वहीं के गवन पैठी (सरकारी) यंत्रालय में प्रकाशित हो चुका है । "लीलावती "में संभवतः अधिकतर इसी का अनुकरण है । श्राज कश की हिंदी उर्दू में मंचलित इकाई दहाई सो और किसी से न मिलकर अधिकांश में इसी की इकाई दहाई से मिलती जुलती है । :: : Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . .. -.-:..." . जैनसिद्धान्त में यूकि तीनलोक का खाप तया: उमः में रहने वाले पदव्य का वर्णन इतना अधिक विस्तार पूर्वका कि जिसका शत सहसास भी इस पृथ्वी तलपर अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता इसी लिए इसी सिटौत का गणित मांग भी और भागों को समान बहुत ही उच्च कोटिका है। गणित विद्या के जो अंक गणित, बीज गणित, क्षेत्र गणित आदि अनेक भेद है उन में से एक अंकगणित के जैन गणांत में दो मुख्य विभाग हैं पहला लौकिक और दूसरा अलौ। किक या लोकोत्तर ! इन दो में से पहले के मान, उन्मान, अब मान, गणितमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमानादि भेद हैं और दूसरे लोकोत्तर के द्रव्यमान; क्षेत्रमान, कालमान, और भावमान स. प्रकार भेद हैं। इन चाये भेदों में से पहिले द्रव्य लोकोतरमान के अन्तरंगत संख्या के लोकोत्तरमान और उपमालोकोत्तरमान यह दो उप भेद है न इन दोनों में से संख्या लोकोत्तर मान के मूला तीन स्थान अर्थात् संख्यात, असल्यात, और अनंत है और विदेश २ स्थान है। तथा इसी संख्या लोकोत्तरमानको संर्वधारा, समधाराविषमधारा हतिधारा, अतिधारा बनधारा, अधनधारा, इति मात्रिक धारा, अति मांत्रिक भाग, धन मात्रिक घारा, अर्धन मात्रिक धारा, विरूप वर्गधारा, विरूप धन धारा, और द्विरूप धनाधन धाग, यह १४ धारा है। इसरे उपमा लोकोत्तर इसी प्रकार क्षेत्र कात और भाच, लोकोत्तर मान के अनेक :: ... . . ... ... . . . . . . . . . . ., ... . -.. . 11.7 - .. .. .. . ... . .. .. .: . ... .. .. . . . .. ... . . . . . २५ ... ... . .. ह. .. . .. Lin R: . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ..इन सबका सविस्तर वर्णन उदाहरण आदि सहित जानना होतो वृहत् धारा परिकमाँ" और "महावीर गणित. सार संग्रह" आदि जैन गणिन ग्रन्यो से तथा श्री त्रिलो. कसार और श्री गोमट्टसारादि जैन ग्रन्थों के गणित भाग से देखें । यहाँ केवल इतना बताना हो। अभीष्ट है कि इतना बड़ा . ७६ अंक प्रमाण संख्या, पाला सम्बत किस प्रकार पढ़ा जा सकता है। इसके पढ़ने के लिए, कौन सी इकाई दहाई हैं? .. ऊपर बताया जा चुका है कि "लौकिक गणित भाग के ई भेदों में एक चौथामेइ गणित मान, है । इसके अन्तरंगत । जो इकाई दहाई है वह उपरोक्त प्रकार २४ अंक प्रमाण है। लौकिक कार्यों में इस से अधिक तो क्या इतने अशे तक को भी आवश्यक्ता किसी को नहीं पड़ती। परन्तु, लोकोत्तर गणित भाग में अवश्य अधिक की आवश्यक्ता पड़ती है। जिसके लिंद जैनाचार्यों ने उपरोक्त प्रकार संख्या लोकोत्तर मान में जन्य संख्यातं आदि उत्कृष्ट अनन्तानन्त पर्यन्त २१ मेदों और सर्वधारां आदि १४ धाराओं में तथा उपमा लोकोत्तरमान में पल्य, सागरादि द्वारा बड़े विस्तार के साथ आवश्यक्तानुसार सब ही कुछ समझा दिया है। इनमें से संख्या लोकोत्तरमान के अन्तरगत निम्न लिखित इकाई दहाई हैं जिसकी सहायता से यदि आवश्यकता पड़े तो हम ७६ अंक तो क्या सैकड़ो सहसो अंक तक की संख्या को बडो सुगमता से पढ़ सकते हैं। : ". . . . .... .....- .. -. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. :: .एक, दश, छत, सहस, दश सहस, लन्न, दश वक्ष, कोरि दंश कोटि वुद दश अर्बुद, नई दश खर्च, नीलं, दश नीला पड़ा, दश पञ्च, शङ, दश शङ्ख, महाशत यहाँ २० अङ्ग प्रमाण गिन्तों है। इस से आगे एकही, दश एकहो, शत एकटी, सहस एकछी, दश सहसू एकही, अादि महा शङ्ख एकटा तक, २० श्रक प्रमाण ४० अंक तक एकटी के स्थान है। इसी प्रकार एकही के स्थातो की तरह पल्यः सागर और कल्पः के बोस वोस स्थान है जिस से. महाशङ्ख कल्प तक एक एक अङ्क अनुक्रम से चंढ़ कर १०० अंक प्रमाण संख्या हो जाती है। कल्य में आगे दुकट्टी, त्रिकष्टो; 'चकठों, पकट्ठी, पकटो, सकटी, अकटो, नकटी, और दकही में से प्रत्येक के सौ २ स्थान इस प्रकार हैं कि प्रथमं के १०० स्थान वाचक शब्दों के प्रांगें पकड़ी आदि . के सदृश, दुकही आदि: मोद लगा दिए जाते हैं। इस प्रकार एक .२ स्थान बड़ती हुई संख्या हजार १०००) स्थान तक पहुंच जाती है। नोट- यहाँ इतना ध्यान में रखना आवश्यक है कि संख्या लोकोत्तरमान के जो उपरोक्त मूल तीन और विशेष २१. भेद हैं। 1 . *२ को ६५. जगह रखकर परस्पर गुणा करने से जो १८६७४४४७३७०२५५१६१६ संख्या २० अङ्क प्रमाण आती है। उसे भी एकही कहते हैं । यह संख्या २० अक प्रमाण संस्था के जघन्य भेद से अधिक है इसी लिए इकाई दहाई के हिसाय में । अंक प्रमाण संख्या का नाम भी एकट्ठी" माना गया है। . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.१५. उन में सख्यात की गणना १५० अंक एमाण संख्या तक इस से आगे असख्दान को गिती है। ""," इस लिए १५० अङ्क अर्थात् इकाई दहाई के १५० स्थान स आगे इकाई दहाई स े गणना करने की छ: धावश्यकता ही नहीं. पडतो श्रीर जो कुछ पड़ती है वह अमीन आदि के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आदि' अन्य १८ भेदा से पूरी कर ली जाती है। और यदि किसी को विशेष जानकारी के लिए अनावश्यक होने पर "भी आवश्यक्ता जान पड़े तो उपरोक्त सहस (१००) श्रंक तक इकाई दहाई के स्थान लिखे दिए गए हैं। 473 नांगे भी उत्पल्योग, दुपल्यांग, त्रिपल्यांग आदि अनेक स्थान इकाई दड़ाई के हैं जो निःकारण लेख चढ़ जाने के भय अनावश्यक समझ कर नहीं लिखे गए : पण्डित द्यानतरायजीस्त चर्चा शतक का पद्य नस्वर ३३. और उसकी व्याख्या देखें । इस विषय में मुझे स्वयं बड़ी अर्थात मेरी निज सम्मति में केवल १५० अक प्रमाण तक हो सख्यात की गिनती नहीं हैं क्योंकि जघन्य परीता संख्यात स े एक कम तक सख्यात की गणना संशय है और जघन्य परीता सख्यात बहुत ही बड़ी गणना का नाम है । इस लिए विद्वान महाशय : पण्डित द्योगतरायजी के उपरोक्त पद्म के इस भाग का यथार्थ अर्थ ग्राम प्रमाण सहित प्रकट करने कपा (लेखक ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . .". . ....... P उपरोक्त इकाई यहाई से ७६ अक प्रमाण जो श्री ऋषम निर्वाण सम्बत् ४१३४५२६३०३०८२०३१, ७SSEURP KEE, LEEL Teruttinuuttijittut ULLET६०४५२. है वह इस प्रकार पढ़ा जा सकता ४पन, १३ नोल, ५.खंब, २६,प्रयं, ३० कोरि, ३०. बास, २ हजार 'और ':३१ सागर, ७३७ शंख ४८ प ५. नो खर्व ४१ अर्व, कोटिं, लाख र हजार ९९९ पल्या शख, पमनील सर्व, ८ अर्व, ४ कोड़ लाख, हा हजार और ९९९ एकटी, ९९९ शेख, ९९ पम, १९.नोल, १ खर्व, ९८ अर्ब ९९ कोड, ९९ लाख, ६० हजार, ५२ अब रहीं दूसरी शंका कि किस जैन अन्य के आधार पर और किस प्रकार यह सम्वत् निकाला गया है। इस शंका के विषय में हमारे किसी २ जैन भ्राता ने बड़े आ. श्चर्यजनक शब्दों में लिखा है कि क्या सागरों के भी वर्ष हो सकते है? जैसे सागर के जल की थाह नहीं ऐसे ही सागर के वर्षों की गिनती नहीं सागर के वर्षों की गिनती करना मानो समुद्र को चुल्ल में माप लेना और अज्ञानों को भम में डाल देना है। यदि सागर के वर्षों की गिनती हो सकती तो बडे र जैनाचार्यों ने क्यों शास्त्रों में नहीं लिखा तथा एक योजन ( यो सहस कोश:) व्यास का और एक योजन हो गहरा गदाः भोगभूमि के सात दिन तक के सेंट वालायों से खूब भरकर और सी. सौ वर्ष के अन्तर से एक टुकड़ा निकालना बताकर जो एक पल्य के वर्षों को गणना अचार्यों ने बताई है या इतने चक्कर में डालार किस लिए कथन को इतना बढ़ाया और अपने समयादि को खोगा? अवसबकी में पत्य के वर्षों की गिनती लिख देते इत्यादि. इसके उत्तर में शास्त्र प्रमाणों द्वारा शंका दूर करने से पहिले यह निवेदन ... -11 Anic.in शकाटकर भमा हरय Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि उपरोक्त धातौ को दृष्टिगोचर काले सुर हमारे भावना जोकुछ शका करें यह ठीक ही हैं वास्तवमें कालके बहुत पहे.मागको. सागर का नाम इसी लिए दिया गया है कि वह सागर अर्थात समुद्र के समान महान है। साबर के महान काल को जिस सागर (समुंद से उसका जैन ग्रन्थों में दी गई. हैं यह सागर (समुद्री भी कोई सामान्य सागर हिंद महायाग या पारिपाक महासागर श्रादि जैसा छोटा सा नहीं किंतु उसकी उपमा उसलवण सन नामक महासागर दी गई है जो एक सम हा योजन के व्यास वाने जम्बुद्धीए को गिदागिर्च दो बा. महापोरन चोड़ा और एक सहप महायोजना बलयाकार है, या इसके महत्व. को भने प्रकार समझने के लिए यो जान लीजिए कि अगरेजी विचारानुसार, आज कान को मानी हुई : सारी पृथ्वी जिसमें रशिया, यूरूप, अफरीका अमेरिका आदि सर्व देश देशांतरं श्रीर "हिंद महासागर, पारिफक महासागर, अंटलांटिक महासागर आदि सर्व छोटे बड़े समुद्रगर्मित हैं ऐसी बड़ी लाखों करोड़ों पश्यियाँ जिस एक हो लवण समुद्र में समा सकती हैं । ऐसे वडे सागर (समु) ले सागर के कांत को उपना दी गई। ऐसी अवस्था में हमारे सातगा की यह शंका कि सागर के. काल को वषों में गिन लेना और वह भी एक सागर को "नहीं, किंतु कोड़ा 'कोडि सांगर.. महान' काल को केवल ७६ ही-अंकों में गिन ना मानो लागर को दुल्लू सेनाप लेने को समान सर्वथा असम्भव है, आदिर यास्तव में यथाथ है। परन्तु जिस समयः ऐसे शंका करने वाले साधुगण को यह ज्ञात होगा कि इतने अधिक बड़े "लवण समुर के सम्पूर्ण जल के यदि बहुत से छोटे छोटे विंदु सरसों के दाने को *एक महायोजन दो, सहरू कोस या लगभग सहन मौला का होता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरावर कर लिए जायें तो उन सर्व बिन्दुओं को संस्था ७ तो दूर रहे.४७ अंक से भी अधिक न बढ़ेगी, तब तो उनको शंका मासे सी बाहर निकल कर न जाने कहाँ से कहाँ तक गहुंच जायगी। और फिर जिस समय उन्हें यह ज्ञात होगा कि गणित के लिए गणितज्ञ भी कोई पूर्ण गणितज्ञ नहीं किंतु सामान्य ही के दिए लवण समुद्र तो क्या, उस से लाखों करोड़ों गुणे. बड़े महासमा के.सरसों से भी शतांश सहस्रांश छोटे छोटे विधुओं को गिनती बता देना एक वैसी ही साधारण सी बात है जैसे कि किमी दीवार की ईट की गिनती बता देना..है, तब तो नहीं कहा जा सकता कि उनके चित्त को उधेड़ वुनः उनके विचारों को ट्रेन को कहाँ से कहां पहुंचा दे। ...... . अब रही यह बात कि यदि सागर के काल की गिनती वर्षों में निकाल लेना सम्भव होता तो बड़े प्राचार्यों ने भी निकाल कर शास्त्रों में क्यों न बता दो अथवा पल्य को संख्या को बताने के लिए महान गढ़ा खोदने और वालाग्र भरने भादि का आडम्पर क्यों रचा। इसके उत्तर में निम्न लिखित.निवेदन है:- ..... आचार्यों ने तो सव कुछ निकाल कर शास्त्रों में रख दिया (जैसा कि आगे चलकर इसी लेख से आपको शांत होगा। पर जब हम ऐसे ग्रन्थों को देख पढ़े और ध्यान पूर्वक समझने का प्रयत्न करें तव हो तो जानेंगे । हमारे पवित्र और सम्पूर्ण विद्यामा के भंडार रूपं जैन ग्रन्थों में कोई बात कल्पित व मन गढन्त नहीं किंतु जो कुछ है वह सर्व बास्तविक और यथार्य: है और हर विषय को ऐसी उत्तम से उत्तम रीति से समझा दिया गया है। कि योग्य रीति से ध्यान पूर्वक समझने वाले को कुछ भी कठिनाई नहीं पड़ती। पल्यं और सागरादि का हिसाब लगा देना तो एक वात ही साधारण और छोटी सो:वांतः है. पर जैन. अन्यों में तो गणित-विद्या के अन्य विद्याओं या विषयों के समान.) बङ हो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम साधनादि बताकर विपमं से.विपम और कठिन से कठिन प्रश्नों और सूक्ष्मसे सक्ष्म वातों को इस उत्तम और सुगम रीतिसे साध कर सिद्ध कर दिया है कि देखकर आज कल के स्कूलों के पड़े बड़े २ गणितज्ञ तथा विद्वान महाशय दांतों तले उगली दबाकर अचम्भेके समुद्र में मग्न हो जाते हैं।.” . : .. ....(२) एक महायोजन अर्थात दो हजार कोस या लगभग चार -हजार मील व्यासं का और इतना ही गहरा गोल गर्ग खोदकर जो पल्यका हिसाव समझाया गया है। उसका एक कारण तो यह है कि पल्यं शब्दका अर्थ ही खत्ती खलियान, गढ़ा या गारं है। दूसरी मुख्य कारण यह है कि पल्यके बड़े भारी काल का महत्व भले प्रकार चित्तपर प्रकित हो सके । यदि उसके वर्षोकी महान्, संख्या को केवल प्रों में लिख : दिया जाता ( जो ४७ अंक प्रमाण ही है तो उसके घर को महान संख्या : का पूर्ण और वास्तविक महत्व कदापि चित्तपर अंकित न होता। जैसा किमी ऋषभ निर्वाण सम्वत्को वास्तविक और पण महत्व को करनेवालों के चित्तपर अंकित नहीं हुआ जो पल्यके वर्षों की संख्या. से केवल सँजो गुणा बड़ा नहीं किन्तु संखों गुणों से भी करोड़ों गुणा बड़ा ७६ अंकों में है। . . :: ..... उदाहरण के लिये श्री जिनवाणी के पुनरुक अक्षरों को संख्या ही को ले लीजिये, जो एक. कम एकही अर्यात् १८४८६७ ४४०७३७०८५११६१५ केवल २० अंक प्रमाण है । इन अकोमें बता देने से इसका पूर्ण महत्त्व हृदय पर अंकित नहीं होता। परन्तु इन. अक्षरोकी संख्याक विषयमें यदि इस प्रकार कहा. बाय कि वह इतनी अधिक बड़ी है कि अगर उन सम्पूर्ण अधुनरुक्त अक्षरों को कांगज पर लिखा जावे तो उनके लिखने में करोड़ो हाथियों को तोलके यरीवर स्याही खर्च हो जायगी और अर्को खडा, हाथियोंके बजन वराबर कागज खर्च होगा और उसकी केवल एक प्रति लिखनेमें जल्दी से जल्दी लिखनेवाले सैकड़ों मनुष्यों .... : Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को भी: करोड़ो वर्ष लगे । ( यह भी ध्यान रखें कि अक्षर भी कोई विभिन्न प्रज्ञार का अनोचे हों किन्तु नै हो, जैसे एक लोक को गिन्ती में ३२. सातकर हमारे सुप्रसिद्ध अथ. पम्पराण: साढ़े छह लामा (६५००००) के करीब है। तब तो श्री जिनवाणीके अक्षरों की सशं शिवने बड़े अाश्चर्यजनक रूपको धारण करके हमाही पांखों के सामने या उपस्थित होता है । यहालक कि हमारे पहुभातागरस कहेंगे कि शी जिनमाणक अक्षर संख्या से बाहर हैं। उनकी गिनकर, अंकों में बताना मन्यों की शक्षिले बाहर हैं। इस उदाइरसे इन लेखक.. पाठक महोदय मह, प्रकार क गए होगे कि दिलो बन्तुको महान गणमासी श्रको द्वारा पता नेले.. उसका पूरा असलो महत्व चित्तपरति नहीं होती. इसी लिये पल्य के बों को महान संख्यांकी. इस रुपमे हारी एष्टिको सामने रखा गया है। ...... इस प्रकार उप- शंकाओं का थोडासा उत्तर दे चुकने गर पत्र मूल बाजा रानोले लिना जाता है जिससे मान होगा कि श्री सपना लिाग संजाल किले 'जैन प्रस्थ प्राचार और किस प्रकार निकाला गया है और कैसे यह पूर्णनयां शुद्ध मोर ठीक है। (१) एक व्यवहार पल्पके रोमो को संख्या ४१३४५.२६ ३०३.०८३:३९७७३१९९२१,२२००००१२०१:१४:०००००० अर्थात २ शाक और १८ शस्य हुँख ४। प्रक मोरण है। शाच प्रमाण मोमसारजीको श्रीमान् प० टोडर मजंजी व टीका कोड प्राधिकार के प्रारम्स में अलौकिक रासित (२) श्री गोमसार कर्मकाईको श्रीमान पक्ष मनोहरलालजो. त छोटी टीकाकी भूमिका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) यो तत्वार्थ सूत्रत्रीको अर्थ प्रकाशिका टोका अध्याय ३.. सूत्र ३२ को प्यालया:. . .. (४) नो तत्वार्थ सूचजीको सर्वार्थसिद्धि भापाटोंका, अध्याय . ३, सूत्र २७ को व्याख्या . .... ... . . (५७.श्रीमान पं० धानवरायजोहंत चर्चाशतकका प ३३. और उसकी व्याख्या :: :: : :. . ६)यीहरिवंश पुसणं मापा टीका का सर्ग:: .. (७) मी त्रिलोसारंजीकी:मापा टीका श्रीमान पं टोडरमल जो हवका गणित भाग इत्यादि देखें। . ... ... ... .. (२) व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या. को १०० में गुणा करने से जो सख्यामाप्त होगी वह एक पल्यापम काल 'क वर्षों की संख्या है. जिसमें उपरोक्त २७ अङ्क और २० शून्य सर्व ४७ अंक है। ...... ...... . . . :...:. ..... .. .. . .. . . शास्त्र प्रमाण- उपरोक्त ग्रन्थ । ... : नोट-जिसे पल्य अर्थात खत्ती या गड़े से उपमा दो जाय उस.. "पल्योपम" कहते हैं । इस लिए जिसे हिंदी भाषा प्रथो में बहुधा. पल्यकाल बोला जाता है वह वास्तव में पल्योरम काल है : पल्य तो केवल गढ़ ही का नाम है. जिस कालादि की गणना.. करने के लिए तीन मैदा अर्थात व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, और श्रद्धा पल्या में विभाजित किया गया है और जिन से यया. घोग्य स्थलों पर कालादि.की बड़ी गयानानों में काम लिया जाता है।.. (३) इस कोड़ा कोड़ों ( १० करोड़ का करोड़ गुणा : मर्यात एक पापल्योपमः का एक सागरोपम(जिसे संघण सागर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... . ... . से उगमा दी गई है) होता.है | पल्योपम के उपरोक्त वर्षों को संख्या को दश कोडाकोड़ी में गुंणा करने से उपरोक्त २७.३ अङ्क और ३५ शून्यः सर्व ६२ अंक हो जाते हैं जो एक सापरोपम. काल के वर्षों की संख्या है। ..... शास्त्र प्रमाण-उपरोक्त गस्य । नोट- जहाँ जहाँ वड़ी बड़ी आयु पाले मनुष्य या देव देवी आदि की केवल एक जन्म सम्वन्धी आयु की स्थिति बताई, गई.. वह सब इसी पल्यापम और सागरोपम से है न कि किसी प्रकार के पल्य या सागर से जो कि वास्तव में कालादि के परिस माणे सूचक नहीं है.. किंतु कालादि को महान गणंनो जानने के "लिए उपमा मात्र सहायक : 1. शास्त्र प्रमाण भी तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ३, मूलसूत्र ६, २९, ३८ अध्याय ४ मूलसूत्र २८, २९, ३३ .३९,४२, अन्याय म मूलसूत्र १४, १७ : इत्यादि । ..... इन सूत्रों के टीकाकारों ने पल्य और पल्पोपम तया सागर और सागरोपम के वास्तविक अन्तर पर विशेष ध्यान न देकर पल्योपम के स्थान में पल्य और सागरोपम के स्थान में सोगर लिखा है जो एक प्रकार की अशुद्धि हैं । (४) एक कल्पकाल २० कोड़ा कोड़ी सागरोपम का होता, है जिस के एक भाग अवसर्पणो का चतुर्थकाल ( जिस में वर्तमान चौबीसी हुई.).४२. सहन वर्ष कम एक कोडाकोंडी सागरोपमका है। इसी लिए एक सागरोपम के वर्षों की उपरोक्त संख्या को एक कोड़ा कोड़ो में गुणा करने से उपरोक्त २७ अङ्क और ४९ शून्य कुल ७६ अंक प्रमाण संख्या एक कोखा कोडी सागरोपम :"SEE Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वनों को प्राप्ति हो जाती हैं । इस संख्या में से ४२ सान्न वर्ष: घटा देने से जो संख्या प्राप्त होगी वह पूर्ण चतुर्थ काल के वर्षों को संख्या है जो ७६ प्रमाण हो है। . . . ......... - . . (५) श्री अपम देव. जी माराज़ के निर्वाण चतुर्य कालं के प्रारम्भ में ३ वर्ष साढ़े आठ मान पूर्व हुमा और श्री. महायोर जोका निर्वाण पञ्चम काल के प्रारम्भसे इतने ही काल अर्यावर्ष • सा माह पूर्व हुआ। इस लिए प्रथम तीर्य कर के निर्वाण शल से अतिम तीकर के निर्वाण काल तक का अंतर ठोक उतना ही है जितना पूर्ण चौथा काल ।.......: ...शान प्रमाण-श्री पन्न पुराण-पर्व २० जहां चौथे काल का 'वर्षन करते हुए २४ तो करों के अंतराल कालका कथन पूर्ण किया है। तथा हरिवंशपराण सर्ग ६० श्लोक ४-६, ४, जहां,२४ तीर्थकरों के अंतराल कालादि के कथन को पर्ण कर के श्री महावीर, स्वामी के गणधरों की आयु का कथन है उस से भागे।.. . . (६) अब यदि प्रथम तीयीकर के निर्वाण से अंतिम के निर्वाण तक के अंतराल काल अर्थात पूर्ण चतुर्थ काल के वर्षों की. संख्या में श्री वीर नि० सम्वत् जोड़ दें तो हमारा अभीष्ट श्री ऋषभ निर्वाण सम्वत् प्राप्त हो जायगा जिस के वर्षों को संखा वही है जो कई जैन समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चुकी है। ....... ...नोट-जिन महाशयों को यह भी जानना अभीष्ट हो कि 'इतने.अधिक बड़े पल्य में भरे गए भोग भूमि के ७. दिन तक की वयवाले में के.बालक के बहुत ही छोटे छोटे रोमों या वालापों को उपरोक्त संख्या ४५ अंक प्रमाण किस प्रकार निकाली गई है वह पूर्वोक्त अधों के इसी विषय सम्बंधी कथन को ध्यान पूर्वक पढ़ें। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.) श्री अर्थप्रकाशिका तया श्री गोमट्टसारादि में संव.सुछ मौजूद है। यदि तब भी समझ में न आये तो मुझ से. पत्र व्यवहार को। तथा किसी प्रकार को शुग उपरोक्त लग्न में हो तो वह भी प्रस्ट करें। किसी जैन समाचार पत्र द्वारा मले. प्रकार समझा. देन का प्रयत्न किया जायेगा। किमविकिम्। . . : . .... नोट- इस लेख में यह बताया गया है कि महाबोराचार्य स्त गणितसार संग्रह में २४ प्रमाण को गिती है और इस से अधिक की गिनती नहीं देखने में आती। परंतु हमने 'दिगम्बर जैन वर्ष म अक १ वार सन्धत २४४९ में "कायसी": नामक लेख में ७ अंक प्रमाण की गिनती और नाम यताये हैं जो इस प्रकार है:.:..: . . . . . .:: यह, दयं, संयं, सहन, दहसहन्न, ललं, पहलखे, कोई, : दहकोड, अंडव, दहश्रहवं, खडबं, बहजहर, निजरयं, दहनिखरत सोराजं, दहसोरज, पदम, दहपदम, पारध, दहपारधं, संख, दह संखे, रतन, . बहरतन, 'नखङ, दहनखडं; सुघट, दहसुघर, राम, .दहंगम, प्रसट, दहप्रसट, हार, दहहार, मन, दहमन, बजर, वद. वंजरु, सम, इइसकं, स.के, दहलेक, असंखी, दहभसंख, नोली. दहनील, पारदहपार, का, दहकंगा, खीर, दहखीर, पांच, दही परखा, घल, दुहवल । ........ ....... यह गिनतों के नाम हमने एक हस्तलिखित प्राचीन पुस्तक से प्रकट किए थे। इस प्रकार इस से ज्यादे को गिनती के नाम भी शायद किसी और प्राचीन गंध में मिल जाना सम्भव है जिसमें कि यह ऋषभनिर्वाण सम्वत् के ७६ अंक उंगमता से गिने जासकें। 45.... संपादक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. यह रिपम संवत अंग्रेजी में इस प्रकार पढ़ा जाता है। armentarer til g 1:(:By Khaani Tal fain). 03177749512) 263030820372 29999999960452] : * B:Sc. (ENG) F. C.I: (BIR) : Mechanical Llectrical Structure Enginee 19 HATHRAS: Dt. · ALIGARH. U. P. Shri Rishabh Jain Year. ". Fourtihúsand one hundred, and thirtyfotti dodecallinn, Tive hundréa twentysix thousand, three Fundrei and three monodecallion, eightytwo thousàrl and thirtyone'decallion, seven bnndred sevent. yseven thousand four hundred ani ninetyfive nonelliani; one hundred twentyone thousand, mine hundred. Audniüeteen nstallion,' nine hundred ninetynine :: thousand,: nine hundred.". and ninetynine neptallion, niñe hundred ninetynine thousand, nine hundred and ninetynine hexallion, nire hundred ninetynine thousand, nine hundred and 'nịnetypiqe jeptaļlion,", nine Hundred ninety nine-thousand, nine; hundred and ninetynine guadtillien, wine hundred ninėtynine thousand nine hüüdred and unètýnipe trillion, mitte hundred Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ niñetyvina jhousand nipe hundred and ninetybine : . billion; nine Hundred ninetynine thousand, nine; hundred and : Minetynine 'million, nine - hundred. sixty thousand; four hundred and fifty two. ... .. :> Shri Mahavir. Jain Vear, Two thousand four : hundred and fiftytwo)... देव स्वरूप ॥ मंगलाचरणम् ॥... वेदो बानी भगवती, विमल जोत. जग महि । प्रम ताप जासौं मिटे, मवि सरोज पिकसाहिः॥ गौतम गुरु के पद कमल, हृदय सरोवर आन । नमो नमों नित भावसों, करि अष्ट्रांग विधान ।।. मिय सज्जनोच.बहिनो! आज इस बात के जानने की अति. आवश्यकता है कि हमारे देव गुरु कौन हैं और उनका धर्मोपदेश क्या है। इस हेतु जो बचन जैसे महान पर्वत में राई समान जिन आगमा कविद्वानों द्वारा मैंने श्रवण किया है उसका अति संक्षेप कुछ यहाँ प्रगट करता आया है कि मेरी त्रुटियों पर मारपी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव रखो.हुए गुण ग्रहण करेंगे जैस हँस मिश्रित दूध-जल में से दूध को पीलेता है और जल को छोड़ देता है। हम को नित्य पद कर्म करने चाहिए ।यानी (१)व पूजा (२) गुरु स्तवन (३) खाध्याय (४) शयम (५) चप और (६) दान । इन का पूरा २वर्णन जिनं आग से मालूम करना चाहिए। कुछ संक्षेप से भागे लिखता हूं। ' यह जीव अनादि काल से संसार के दुःखों से कष्ट उठा रहा है। और इसके साथ क्रोध मान माया लोभादि कषायों का इस तरह सम्बन्ध हो रहा है जिस तरह कि "तिल में तेल इस मात्मा के गुण का प्रकाश करना, निजंग और सम्बर द्वारा, यही मुख्य कर्तव्य है । जीप रास एक है जैसे आम शब्द एक है। परंतु इस की किस्में कई कई प्रकार को हैं जैसे बम्बई, मालदई, तोतापरी इत्यादि इसी प्रकार हर जीव की आत्मा भिन्न २ है और शक्ति घरावर है मगर वह शक्ति कर्म अक्षा दब कर प्रयक प्रयक है । इस लिए पुदगल ग्रहण मित्र २ है । जैसे-मनुष्य, देव, तिचंच नारकी इत्यादि। . . "सम्बर का अर्थ आश्रव का रोकना यानी कर्मों को न माने देना और "निर्जरा" का अर्थ लगे हुए कर्मों को दूर करना जैसे एक रत्नमई पटियाँ कूड़े से दवी हुई है । उस पर कूड़ा न गिरने देना नाम सम्बर है और जो कूड़ा पड़ा हुआ उसको साफ कर देना नाम निर्जया है। . इसी तरह इस जीव का गुण स्वभाविक केवल ज्ञान है सो सुनिमित्त द्वारा प्रगट हो सकता है। इस जीव का गृह मोक्ष है कर्मों बैस सार में भमण कर रहा है। इस आत्मा को तीन अवस्था होती हैं, यानी वहिरात्म, अन्तरात्म और परमात्म । ., जिसकी मारमा पर द्रव्य में ममत्व करती है जैसे यह मेरा यह तेरा इत्यादि, यांनी अज्ञान अवस्था उस्को बहिरात्म कहते हैं। जब जीव इस अवस्या को छोड़ शानरस पीता हुआ निजानंद रस में भाता है तब इस की हालत संसारियों के निकट आश्चर्य जनक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.२८' ) . हो जाती है और संसारी विभून प्रियं नहीं लगती है । यहाँका कि संहस्थ अवस्था..को त्याग देता है और अपनी प्रान्मा में लीन हो जाता है । गोनी---.. ... ... ... ... . -: "ऐका की निस्पृह शांतः पाणिपात्रों दिगम्बरः। .. कदाई “ संभविष्यामि कनिमलनक्षमः . . • . इस पवित्र इच्छा को अपने शुद्धान्त:-करण में रखते हुए सांसारिक सुखोत्पादक सार्वभौमिक सम्पत्ति को लात मार कर निर्जन वन में पर्वत की कन्दराओं का आश्रयं लिया करते हैं और संसार महीरुहको निमूल कर स्वशुद्धात्मस्वरूप मोक्ष नगर का मार्ग सरल किया करते हैं। . . . ...सो ऐसी अवस्था को. अंतरात्म या महात्मा कहते हैं। __ घोर तपों और शाम द्वारा जब जीवयागे बढ़ता है तो घातिगमोह नीय; दर्शनावर्णीय, ज्ञानावर्णीय और अंतराय ) कमी का क्षय कर कवलशान उपार्जन कर "परमातम अवस्था में पहुंच जाता है। यानी ईश्वर परमात्मा, सर्वज्ञ हितोपदेशक वीतराग हो जाता है। जिनको खमेव निक्षरीय वाणी दिव्य ध्यानि चांदनी सी वो. ..करती है, जैसे खमेव जल बरसता है । उनके तीन लोक दर्पण बत ज्ञान में झलकता है । आयू कम ( अंघातोय कर्म ) के पूर्ण होने पर सिद्ध हो जाते हैं यानी तीन लोक के शिखर पर जा विराजते हैं। इस जीव का स्वभाव उर्द्ध .गमन है कमी से रुक कर संसार में भटकता है जब कर्मों को क्षय कर देता है. तब इस को रोकने वाला कोई नहीं । आवागमन मिट गयो इस लिए, पुद्गल रहित हो गए । 'निरजन निराकार पदग्रहण हो : गया। सारी जीव इन को सही नाम से पुकार. कर अपना कम ..रूपी मैल धोते हैं । जैले खटाई द्वारा वर्ण धोया जाता है। उन नामों को मँन भी कहते हैं । उस में अचित्य शक्ति है यानी God- (गोड) खुद्रा, परमात्मा, ईश्वर, सर्वन केवल ज्ञानी, बृह्मा, अहंत, सिद्ध, जिनेंद्र, जिम भगवान, जिन गंज, बोतराग, तीर्थका • स्यादि इस तरह वह हमारा हितकारी है। उनकी धर्मोपदेश हम Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) को मोले मौर्ग का दर्माने याला है। उनका मार्ग. हम भी प्राप्त करें सकते हैं। यह मार्ग तीन रस्ता द्वारा यानो सम्यगदर्शन, सम्यगवान और सम्यगचारित्र अङ्गोमो में "Right Belief, Right Knowledge aid Right Conducty और उर्द में यकीन माक्षिक, . इस्म सादिक और अमल सादिक कहने " प्राप्त हो सकता है। ऐसा ईश्वर.देव, देवी का देव- महादेव; परमात्मा खुना गोड १६ दोष रहित होना चाहिए ।घे दोष वह है. जन्म Birth, जरा Oldage; . रोग . Disease, : मरण . . Death क्षुधा Hunger; तृष्णा Thirst, मिदा Sleep, स्वेद Sweal, अरति.Pain, खेद Restlessness; चिंता Anxiety, मोह 'Delusion, विस्मय Wonder,.मद Pride, भये Fear, शोक, 'Sorrow,- राग -Attachment, ..@घ Repulsions : भावार्थ; सच्चा: ईश्वर: वही है, जोम द्वेषी, हो न रागी हो, सदानन्द वीतरागी - हो । वह सब विषयों का त्यागी हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो।टेका। नं खद-घट घट में जाता हो, मगर घट.घट का ज्ञाता हो । वह संतु' उपदेशं दाता हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा.हो... ज करता हो. न .रता. हो, नहीं अवतार. ..परता. हो:। मारता हो : न भरता हो, जो ईश्वर. हो तो ऐसा हो । झान के. नूर से पुरनूर हो, . जिसका नहीं सानी । सरासर नूर नूरानी, जो. ईन्चर हो तो ऐसा हो ॥ नक्रोधी हो न कामी हो, न दुश्मन हो न हामी हो ॥ वह सारे जगका स्वामी हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो ॥ वह जाते ,पाक हो; दुनियां के झगड़ों से मुबर्रा हो। आलिमुलगैत्र हो. ऐव, ईश्वर हो तो - ऐसा हो । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) ... ".दयामय हो शांतिरस हो; परम · · वैराग्यमुद्रा हो। न.. जाविर हो: न काहिर हो, जो ईश्वर हो वो ऐसा हो । 'निरञ्जन . निधिकारी हो, :, निजानन्दरसविहारी हो । संदा "कल्याणकारी हरें, जो ईश्वरं हो तो ऐसा हो । '. न जगजंजाल रचता हो, करम फल का न दाता हो । वह सब बातों का ज्ञाता हो, जो ईश्वर हों तो ऐसा हो । वह सच्चिदानन्दरूपी हो, · ज्ञानमय. शिव सरूपी हो । आप कल्याणरूपी हो, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो ।।. जिस ईश्वर के ध्यान सेती बने. ईश्वर कहै न्यामत । वहीं ईश्वर हमारा है, जो ईश्वर हो तो ऐसा हो ॥ - .. २१ प्रकाश । २ वरावर का।३ सहायक! ४ रहित । ५ सय आगे पीछे की छिपी हुई बातों को जानने वाला । ६ जुल्म करने चाला, अन्यायो ।७ क्रोधी, पुष्ट, भन्यायो । पुरमात्मा को रहित मिर्दोष है हम संसारी,कर्मा सहित दोपी है. हम को ईश्वर की श्रेष्ठ भक्ति और गुणानुवाद करना चाहिए। जिस भवन में उनकी यथावत प्रतिमा विराजमान की जाती है उसको "चैत्यालय" कहते हैं आज कलं अधिकतर जिन मंदिर या जैन मंदिर भी कहते हैं । जो भगवान परमात्मा के मार्ग पर चलते हैं उनको जैनी यो भावक कहते हैं । ऐने सर्वत्र परमात्मा के धर्मोपदेश वाणी को जिन . वाणो, जिनवाणी माता, सरखतो, शारदा और पुतं कहते हैं । क्यों कि जैसे माता बुदहीन बालक को ... संसारी मार्ग में मिष्ट बचनो द्वारा प्रबल युवा कर देती है उसी. तरहं यह जिन बाणो संसारी जीवों को धर्म मार्ग में निपुण कर अक्षय पद पिला देती है। हम बारम्यार ऐसे निर्दोष देव और जिन वाणी. को नमस्कार करते हैं। हम को नित्यं ऐसे मंदिर में जाकर ... जिनेंद्र दर्शन भक्ति व पूजा करना चाहिए। पूजा कई प्रकार से की जाती है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानामर, दर्शन पाशदि सें ईश्वर भकिा का एक नमूना माजुम हो सका है भक्तिवस हृदय भोज कर रोमांच खड़े हो जातं है । जैनियों को यह म समभाना चाहिए कि जैन धर्म हमारे कुल को दोचत है यह शिने धर्म जीव मात्र का धर्म है। जिन या जैन से भगवान का असे है. कि जिन्होंने कर्म शत्रो को जीत लिया है इस लिए उस धर्म को जैन धर्म करते हैं । यह जैन धर्म "दिगम्बर से मंगा हुआ है यांनी जिस गुरु के दिशाएँ ही बन हो यानी निन्याने धर्म पक्ष रहित बीतगगता लिए हुए हैं। हमको चार रनों की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए क्यों कि अमकों हमारे भदान मुताबिक फल मिशेगा। यथावत प्रदान करने वाले कोसम्यगदृष्टी ( True believer) कहते हैं । . ... . . . . . . . . .... . . . . सांचों देच. सोई जामें दोष को न लेश कोई। वहीं गुरु नाके उर काहू की न चाह है। सही . धर्म बद्दी. जहां करना प्रधान कही । ग्रन्थ जहां आदि अन्त .एक. सौ निवाह है ॥ .. यही जग रत्न चार इन को परख यार । : सांचे लेहु झूठे डार नर भी को लाई है । ' मानुप विवेक विना पशु की समान गिना। . बातें यह ठीक पात पारनी सलाह है ॥ ....... और सुनियेपंडित भूदरदास जी का पट कमोपदेश । अध अंधेर आदित्य नित्य स्वाध्याय कारज्जै। . सोमोपम संसार सापहर तप करलिज्जै ॥.. .. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..( ३२ ). : जिनघर पूजा नेम करो नित मंगल दायन । .. .. धुंध संजम आदरहु धरह चित्र.श्री गुरु पायन । .. निज वित संमान अभिमान विन सुकर सुपत्तहि दान कर ...... यो मुनि सुधर्म घट कर्म भज नरभो लाहो लेहुँ नर ।। . . . . ' अर्थाथ पाप रूपी अन्धेरे के दूर करने को. सूर्य के प्रकाश समान जो स्वाध्याय सो नित्य कर । संसार के दुखों को दूर करने को.. चन्द्र समान शीतल करने वाला जो सप सो कर मंगल की देने वाली: जो भगवान की पूजा उसको नित्य. 'करने : का नियम कर । हे बुद्धिमान ! श्रीगुरु के चरणों में चित देकर संयम का ग्रहण कर । अपनी वित्त समान अभिमान छोड़कर. मुख का करने वाला सुपात्र को दान दे। यह जो पट कर्म श्रेष्ट धर्म कहिये जिन शासन में कहे हैं समको गहण कर के मनुष्य जन्म मुंफल कर ॥ तुम लोगों को परमात्मा ईश्वर. जिनेंद्र के नित्य दर्शन करना चाहिए। दर्शन कैसा है सो “दर्शन स्तोत्र से यहां प्रगट करते हैं। अथ दर्शन स्तोत्रम । दर्शन देवः देवस्य दर्शन पापनाशनम् । दर्शन स्वर्ग सोपानं दर्शन मोक्षसाधनम् ॥ १॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां. बन्दनेन च । .... न चिरं विष्टात प्रापं. छिद्रहस्ते. यथोदकम् ॥ २॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • चीतराग मुखं दृष्टवा पद्म रांग सम प्रभम् ॥ . नैक जन्म कृतं पापं. दर्शनेन विनश्यति ॥ ३ ॥ दर्शनं जिन सूर्यस्य संसार ध्यान्तनाशनम्। . वोधनं चित्तपास्य समस्तार्थ प्रकाशनम् ॥ ४ ॥ दर्शनं जिनचन्द्रस्य सद्धर्मामृतवर्पणम् । जन्म दाह विनाशाय वर्द्धनं सुख. वारिधेः ॥ ५ ॥ जीवादितत्त्व प्रति पाद काय सम्यक्त मुख्याष्ट गुणाश्रयाय । मशांत रुपाय दिगम्बराय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥६॥ चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्म प्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥ ७॥ अन्यथा शरणं नास्ति • त्वमेव शरणं मम। . '. तस्मात्कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ ८॥ नहि त्राता नहि त्राता.नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥ ९ ॥ जिने भक्तिजिने भक्तिाजने भक्तिर्दिन दिने । . सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ।। १ ।। . . जिन धर्मविनिर्मुक्तों मा भवेच्चक्रवयपि । ... : शांत चित्तो दरिद्रोपि जिन धानुवासितः ॥ ११ ॥ : जन्म जन्म कृतं पापं जन्म कोटि भिराजितम् । . . जन्म मृत्यु जरातङ्क हन्यत जिनवन्दनात् ।। १२ ।। अद्याभवसफलता नयनदयस्य देव त्वदीयचरणाम्बूज वीक्षणेन । अद्यत्रिलोक तिलक मति भासते मे संसार वारिधिरयंचुलुक मधाणमा · · अद्य मे क्षालितं गानं नेत्रे च विमलीकृते । स्नोताहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ १४ ॥ ने भक्तिीतु सदा वत्यपि । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जब चिन्तू तब सहस्र फल : कोड़ा कोड़ि श्रनन्त फल ३४. ) लक्खा ग़मन करे । जिनंवर दिठ्ठे ॥ १५ ॥ तब ॥ इति दर्शनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ . जिन दर्शन से श्रचित्य लाभ और फल है जिनेंद्र भगधान की मुद्रा शांत रूप पद्मासन व खडगासन श्रात्मलीन होती है। श्री मूलाचार जी ग्रंथ गाथा ५०२ पत्र २०७ में वर्णन है । • वीतराग जिनराज का दर्शन कठिन नवीन | तिनका निःफल जन्म है ले दर्शन हीन ॥ दर्शन से कई प्रकार के लाभ के, यथावत भगवत स्वरूप मालुम हो जाता है | देखिए प्राचीन समय में या अव भी कहीं. कहीं या तीर्थ क्षेत्रों में आपने देखा या सुना होगा कि जिन मुद्रा " जैन मंदिर के शिखर के चारों तरफ श्रालय में स्थापित की जायां करती थी या मौजूद है। यह अब भी नियम है कि जैन मंदिर के चारों तरफ आलंय बनाये जाते हैं। वह सत्र इसी वास्ते कि जैन : धर्म जीव मात्र का धर्म है ताकि चांडालादि भी अपना करयाय कर सके परंतु आज कल यह प्रचार बंद सा होता जाता हैं।. ऐसे महा पवित्र (चैत्यालय ) जिन या जैन मंदिर में स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन प्रमाद अभिमान रहित विनय सहित जाना: चाहिए। रोगी हाथ पैर धो वस्त्र बदल कर जा सकता है परंतु शराब पीकर, वैश्या' तथा जो प्रशंगादि श्रभिमान सहित बिनय रहित वाला डीन मंदिर में प्रवेश न करें क्यों कि ऐसी हालतों से पाप बज्र मई हो जाता है और योग्य हालत से जाने में पाप कर्म छूट जाता है आपने सुना भी होगा कि बहुत से हमारे भीन भाई + भी. यों कहते हैं कि "जैन मंदिर में नहीं जामां, चाहे हस्ती के नौवें : दब जाना" सो हे भाइयों यह कहावत तो ठोक है मगर किस हालत में नहीं जाना सो इसका विचार उपयुक्त वाक्यों से कर लेना । बूस टांत यह है कि जब तक हम धर्म का स्वरूप कहते चले जायेंगे, उस वक्त तक सब मानने को तय्यार होंगे परंतु '' · जहाँ "जैन धर्म" शब्द कह दिया जावे, बस बहुत से एक दम • - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ . ) यक्ष पक्षण कर जाते हैं। इसलिए यह कथन यहाँ पर इतना खुलासा लिखा गया है। हम आशा करते हैं कि परिहत बुद्धिमान चतुर सज्जन निपक्ष न्याय सहित विचार करेंगे। जैन मंदिर में अयोग्य हालतों और कुभात्रों से जाना मने इस वास्ते किया गया है कि जिस धर्म में सर्वोत्तर पद देने की शक्ति है उसके अविनय से उलटो हालत होने की सम्भावना है । देखिए श्रीमान वीरचन्द पार गांधी B. A. M. R, A.S.The Jain delegate to the Parliament of Religions;.chicago. U. S. A. (1893 ) जैन फिलोस्पी में लिखते है(Page 77) There is a verse. of two lines, the meaning of i the second being connected with the first & these two lines must be interpreted together. So is the Case with this expression. the real fact is that the Brahmins who had been at certain epochs in the history of india inimical to the Jains got hold of the second line only which they interpreted to mean "Even if a persou is goiug to be killed by an elephant he ought not to go into the Jain temple" while if the meaning is taken with the first line, it is this: "when a person has killed an animal, or any living thing or has returned from an immoral house or a visious place, or if he has drank vine, : then be ought not to pollute the Jaia temple even if he is followed by an elephant." जैन मंदिर में हम को निम्न लिखित ४ आसादना दोष नहीं लगाना चाहिपहर जैनी भाइयोंको यह कण्ठस्य करलेनाचाहिए चैत्यालय (जैन मंदिर) की स्थापना विपयं तथा उसका कितनाबड़ा, भारी महत्व है सो श्री पद्मपुराण (जैन गमायण ) पर्व २२ सप्त ऋपियों का उपदेश को श्री गुरु के खरूप कथन के आगे लिया है,मातुम करना। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ आसादना दोप श्री जिन मंदिर में नहीं लगाना। निम्न लिखित ८४ श्रासादना टालकर सर्वत्र सर्व ही जैन समाजको जिन मंदिर तथा जिम मंडपमें वर्ताप करना योग्य है; विरुद्ध वर्ताव करना पाप बस्यका कारण :१ मन्दिरमें खांसी कफ सखारना नहीं । २ मल मूत्र वायु उसारना नहीं ! . ३ वमन करना तथा कुरला करना नहीं ! ४ अांख, नाक, कानका मैल निकालना मह! ५ पसीना तथा शरीर का मैल डालना हों। ६ हाथ पांव के नख तोड़ना काटना नहीं। ७ फस्त खुलाना नहीं चाव पट्टी करना नहीं। ८ हाथ पांव शरीर द्रवाना नहीं। ९ तेल मर्दन तथा सुगन्ध अतर लगाना नहीं। १० पांव पसारना तथा गुा. अङ्गादि दिखाना नहीं। ११ पांव पर पांव धरना तथा ऊटके पासन बैठना नहीं । १२ उगली चटकाना तथा फोड़की खाल चौटना नहीं। . १३ आलस्य तोड़ना, भाई, छींक लेना नहीं। . . १४ भीतके सहारे वैठना तया खम सहारे वैउना नहीं। १५ शयन करना तथा बैठे हुये घना नही। १६ स्नान उबटन तेल कंधा करना नहीं। १७ गमासे पंखा तथा रूमालसे हवा लेना नहीं । १८ लाड़ोंमें आगसे तापना नहीं। १९ कपड़ा धोती आदि धोना मुखाना नहीं। २० अधों अगमें खाज खुजाना नहीं। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३७.) २१. दात मंजन तथा दांतोंमें सींक करना नहीं। २२ पटा कुर्सी खाट पलंग पर बैठना नहीं। २३ गद्दी तकिया लगाके बैठना नहीं । २४ ऊंच श्रासन बैठके शास्त्र वाचना नहीं । २५ चमर, क्षत्रं अपने ऊपर करांना नहीं । २६ शस्त्र वांधके कमर बांधके आना नहीं। २७ घरसे कोई सवारी पै वैठक आना नहीं। २८ जूता, खडाऊं मोजा तथा उनके वस्त्र पहनके आना नहीं । . २९ नङ्गे सिर मंदिरमें बैठना नहीं। ३० शृगार विलेपन तिलकादि करना नहीं। ३१ दर्पण मुख देखना केश तिलक संवारना नहीं। ३२ डाढी मूॉपर ताव देना नहीं। ३३ हजामत.तथा केशलोच करना नहीं। . ३४ पान, तमाखू, बीडी वगैरह खाना नहीं। . .३५ खाध इलायची; लोंग सुपारी आदि.खानां नहीं। । ३६ भांग माजूमका तशा कर मंदिरमें आना नहीं ... ३७ फूलोकी मालाः कलंगी हार पहरके आना नहीं। ३८ पगडी साफा मंदिरसे बैठके वांधना नहीं.। . . . . ३९: भोजन पान मंदिर में करना कराना नहीं। ४. औषधः चूर्ण गोली आदि मंदिरमें खाना नहीं। . ११: रात्रिको पूजन तथा फलादि चढाना नहीं । .. ४२ जलकेल होली' मंदिर में खेलना नहीं। . .४३ व्याह सगाई : नेग. कारजकी चर्चा करना नहीं । ४४.सगे सम्बधी मिंत्रादिक सूं मिलनी भेट लेनी देनी नहीं । ४५ कुटुम्ब मुश्रूपा आव आदर- करना नहीं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जहार . मुजरा, वंदगी, राम राम, करना नहीं। . .४७ राजा तथा सेठ किसीका :सन्मान करना कराना नहीं। ४८ विरादरी सम्बंधी पंचायत मंदिरमें करना नहीं । ४९ लड़ाई झगड़ा. सिम्बाद क्लेश' करना नहीं। ५० गाली भंड वचन कटुक वचन कहना नहीं । . . . ५१ झूठ हित सावध अप्रिय वचन कहना नहीं। .. ५२ लाठी मुष्ठि शस्त्र प्रहार करना नहीं। ५३ हांसी ठठा मसकरी छेडछाड करना नहीं। ५४ रोना विसूरना हिचकी लेना करना नहीं। . ५५ स्त्री कथा तथा कामभोगकी वार्ता करना नहीं। ५६ चौपड शतरंज गंजफ़ा मंदिरमें खेलना नहीं। . . ५७ राजादिकके भयंसू मंदि में छुपना नहीं । ५८ ग्रहकार्य लौकिक कार्यकी वार्ता करनी नहीं। . ५९ धन उपार्जनके व्यापारकी वार्ता करनी नहीं। ६० बैद्यक ज्योतिष नाही आदि मंदिर में देखना नहीं। ६१ दुष्ट सङ्कलप विकल्प मंदिरमें करना नहीं। ६२ पच्चास प्रकारको विकथा करनी नहीं। . ६३ देन लेन आदि कार्यकी सौगंध खाना नहीं । ६४.चमडा हाड दांत सीर सङ्ख कौडी नख लाना नहीं सथा. सीप हंडीके बटन लगाकर तथा मखमल सर्ज के वस्त्र पहन या दुशालालोई प्रोडकर व फेल्टकेप(टोपी पहन पाना नहीं । ६५ हरित फलफूल संचित वस्तु मंदिरमें लाना नहीं । . १६ उधारका. लेन देन किसीसे करना नहीं। . . . ६७ रिसवंत घूस. बैगरह लेना देना नहीं . ३८ रत्न रूपया बस्त्रादि कोई चीज मंदिर में परखना नहीं । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : (३६) .६९ घरका द्रव्य तथा कोई वस्तु मंदिर में रखना नहीं ७० चढ़ा द्रव्य मंदिर के मैंडार में रखना नहीं। ७१ निर्माल्य द्रव्यं मंदिर का मोल लेना नहीं । '७२ कोई चीज़ का भाग हिस्सा करना नहीं। ७३ जूवा होड वगैरह मैंदिर में करना नहीं । ७४ वैश्या नाच मॅडई रास मंदिर में करना नहीं । ७५ कसरत तथा नटकला मँदिर में करना नहीं । ७६ अनवोलते वालक को मैंदिर में लाना खिलाना नहीं। • ७७ शुक, मैना, बुलवुल आदि पक्षी पालना नहीं । ७८ दरजी का व कतरवाते का काम करना नहीं । ७९ गहना-आमरण, सुनार से मँदिर में गढाना नहीं । ८० सिवाय दिगम्बर जैन ग्रंथों के और ग्रंथ लिखना लिखाना : नहीं। . . . . ८१ विकार उपजाने चाले. चित्राम लिखना नहीं। घर पशु, गाय, भैंस, पक्षी, सुवादि वांधना नहीं। .८३ पापड मगौडी दाल धोना मुखाना नहीं। . .८४ अभिमान सहित, विनय रहित भैदिर में प्रवेश करना ....... नहीं। - . इस संसार में मोह वस पाप किया करते हुए अनादि से भूमण कर रहे है। संसार में कितना मुख दुख है सो निम्न . प्रकार जानना। संसार रूपी वृक्ष (मोहरस स्वरूप) .. .इस. 'मोहरस स्वरूप' का परिचय भी अमितगति त धर्म परीक्षा प्रन्थ में इस प्रकार बताया है:. एक भव्य पुरुष ने अवधिद्वानी जिनमति नामक मुनिमहायज्ञ को नमस्कार कर के विनय सहित पूछा कि हे भगवन् ! इस प्रसार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __( ४० ' संसार में फिरते हुए जीवों को मुख तो कितना है और दुःख कितना है सो. वृपा करके मुझे कहिए । यह प्रश्न सुनकर मुनिराजने कहा कि हे भद्र ! संसार के सुख दुम्न को विभाग कर कहना बड़ा कठिन है, तथापि एक दृष्टांत के द्वाप किंचिमात्र कहा जाता है, क्योंकि टांत विना अल्प जीवों की समझ में नहिं आता सो ध्यान देकर सुन । . अनेक जीवों कर भरे हुए इस संसार रूपी वन के समान एक महावन में दैवयोग से कोई पथिक (रस्तागीर) प्रवेश करता हुचा। सो उस वन में यमराज की समान सूड.को ऊंची किए हुए क्रोधायमान बहुत बड़े भयङ्कर हाथी को अपने सन्मुखं आता हुआ देखा। उस हाथी ने उस पथिक को सोलो के मार्ग से अपने आगे कर लिया और उसके आगे आगे भागता हुआ यह पथिक पहिलें नहीं देखा ऐसे एक शान्धकूप में गिर पड़ा। जिस मकार नरक में नारकी धर्म का अवलम्बन करके रहता है, उसी प्रकार.वह भयभीत पथिक उस कूप में गिरता गिरता सरस्व कहिए सेर की जड़ को अथवा बड़ की जड़ को पकड़ कर लटकता हुआ तिष्ठा । सो हाथी के भय से भयभीत हो नीचे को देखता है तो उस कूप में यमराज के दण्ड के समान पड़ा हुआ बहुत बड़ा एक अजगर देखा । फिर क्या देखा कि उस सरस्व को जड़ को एक खत और काला दो मूसे निरन्तर काट रहे हैं जैसे शुक्लपक्ष और मष्ण पक्ष मनुष्य की आयु को काटते हैं। इस के सिवाय उस कूप में चार कयाय के समान चत लम्चे २ अति भयानक चलते फिरते चारों दिशाओं में चार सर्प देखे। उसी समय उस हाथी ने क्रोधित होकर संयम को असंयम की तरह कूप के तरपर खड़े हुए वृत को पकड़कर ज़ोर से हिलाया सो उसके हिलने से उस पर जो मधुमक्खियों का छत्ता था उसमेसे · समस्त मक्खिये निशल कर दुःसह बेदनाओं के समान उस पथिक के शरीर पर चिपट गई । तब वह पथिक चारों तरफ मर्मभेदी पीड़ा देने वाली उन मंधु भक्खियों से घिरा हुआ अतिशय दु:खित हो ऊपरि को देखने लगा । सो क्ष की तरफ सुख को उठाकर देखते ही उस के होटों पर बहुत छोटा एक मधुका विंदु पापड़ा । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . Che.. '. . . . . . ..' . . . कोबाधा से भी अधिक वापीको कुर भी दुःख न समझ उस मधुयिदु के स्वाद को लेता हुआ भयो को महा मुखी मानने लगा । : : - इस कारण वह अधम पथिक उन समस्त दुःखो को भूलकर उस मधु करण के स्वाद में ही आशक्त हो फिर मधुविद्य में पड़ने की प्रमिलाया करता हुआ सटकता रहा। सो है भाई ! उस समय पथिक के जितना सुखं दुःख है उतना ही सुख दुःख महाकष्टों की खानि रूप इस संसार रूपी घर में इस जीव के है।... सो जिनेंद्र भगवान ने कहा है कि वह वन तो पाप है, वह पथिक है सो जीव है। हस्ती हैं सो मृत्युः (यमराज) की समान है। वह सरतम्य है सो जीव की आयु (उमर) है और मन्ना है. सो संसार है । अजगर है सो नरक है स्वेत. स्याम दो. सूपक है. सौ.शुक्ला और कृष्णा दो पक्ष हैं, जो उमर को घटा रहे हैं । और चार सर्प है सो काध मान माया लोभ ये चार कंपाय हैं । तयां मधुमक्षिका है सो शरीर के रोग हैं। मधू के बिंदु का जो खाद हैं. सो इद्रिय जनित सुख (-सुखाभास मात्र) हैं। इस प्रकार संसार में सुख दुःख का विभाग है। वास्त में इस संसार में भूमण करते. हुए जीवों के सुप्त कुःख का बिभाग किया जाय तो मेरुपर्वत की बराबर तो दुःख है और सरसों की वरावर सुख है। इस कारण योग करने में ही निरन्तर उझम झरना चाहिए। . :::.'.. ... .... . ... . ... . .. Fr. .: :.C Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( : ४२ : ) पूजादि अधिकार हम को नित्य भगवान की पूजादि करनी चाहिए। किसी २ स्थान पर किसी निजी कारण से कोई २ भाई या बहिन द्वेष या अज्ञानता के कारण, किसी किसी भाई या जाति को प्रक्षाल पूजा से मने करते हैं जिस से जादा द्वेष बुढो फेल कर धर्मः आयतनों पर आक्षेप होने लगता है सो ऐसे भाइयों से हमारा नमः निवेदन है कि ऐसी बुद्धि से निरन्तर पाप बंध होता है। और किसी शास्त्र में किसी को निषेध नहीं लिखा है सिवाय अङ्गहीन: इत्यादि । परन्तु सब को जिनेंद्र को पूजा प्रक्षाल का उत्साह दियाहै लेकिन शात्रोक्त रीति से होना उचित है पुरुष तो सर्वथा कर सकते हैं यहां यह और प्रकाश करते हैं कि "खी समाज भी पूजा { कर सकती है | देखिए पण्डित भूदरदास जी हृत "चरचा समा धान प्रथ" चरचा ८१ पृष्ठ: ९० पंक्ति ६ . ( १ ) सुलोचना पुत्री राजा अकम्पन ने अष्टान्हिक पूजाकरी महापुराण मैना सुन्दरी ने भोपाल के गंदोदक लगाया । अगर, "अभिषेक पूजा नही की तो शरीर के लिए इतना गंदोदक कहाँ. से लाई। म -(१) अजना देवी के भवांतर में कनकोदरी पट्टराणी श्री कण्ठ राजा अरुणनगर में प्रतिमा की स्थापना कर पजा करी । एक दिन कनकोदरी ने दूसरी रानी लक्ष्मीमती की प्रतिमा मंदिर से बाहर रक्खी सो संयम श्रीनाम अर्जिका के उपदेश स मंदिर में वापिस लें जाकर पूजा की । उस अभिनय से अजना: का इस जग्म में पवन जय पति से वियोग हुआ (देखो. पद्मपुराणा यानी जैन रामायण में ) - (४) वर्तमान में श्रविकाभ्रम बम्बई के चैत्यालय में वहाँ की स्त्रियां पूजादि करती हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... पूजा विना श्रमिषेक होता नहीं यह नियम है-सी के स्पर्श से दोष होता तो साधु महामुनि स्त्री के हाथ का भोजन ज्यों लेने तिस से उत्तम पतिव्रता गुणवती लोयों को पूजा का निध नहीं। और शान में कही निपेय भी नहीं किया है। गट हो कि शालों में जैनियों को "महाजन यामी बर्ड पुरुष यांनी क्षत्रीय तथा धृह्म के जानने वालों को ब्राह्मण बतलाया. है। श्री अषमदेव. जो इक्षाकवंशी थे और उन्होंने ही कर्म भूमि की रचना को । पाठकों के जानार्थ जैनियों को चौरासी बात प्रकाश .. . करते हैं। यह सर्व जिनेंद्र पूजा प्रक्षाल कर सकते हैं। . ... जैनियों की चौरासी जाते। ... .१ खंडेलवाल : २२ मेरतवाल : ४३ कंठनेर. ६४ माडाहाड़ २ौसशल : २२.संहलबाल: .४४ लवंचू,.: . ६५ चतुर्थ . . . . ३दसोग २४ सरहिया ..."४५ धारक . ६६वायडी : ४ वघेलवाल '.२४ पद्मावती पोग्वाल४६ वाजम ६७ सनेपाल · .. :५पुशकरवाल २६सोरठीया पोरवाल गोलारार . ६८. पंचम । ....... ............... (गोतालार) . . .:. जैसवाल...२७ भटनागिर गारी. कुरवात. सिरोंवाल २८ जम्बूसंगर ३९ श्रीगोह ७ कोलापुरी करैया : २९ डेढ.(डेड) . . खडायत जोधापुर : .. .. :: ... .... ... . . . . . (प्रजोध्यापुरव) . : ९अपवाल::....३० ग्रहपतीया ...५१ लाइहरोदर ७२ गोढ .. १० पल्लोवाल नारायन(नारायना)पर गोलसिंहार ७३ भठेरा' . १९ गुनावाल . ३२ शडवर्ड: ५३.नरसिंहपुरा,७४,जीयादामा २२. रायकवाल:३३:हरसोरा. . . .५४नागूदह(नाग ७५ वाचन :. द्रह या नागदा), . ११ भचीतवाल ३४ दूसर.(हूसरे) ५५ हूमड हुँवंड) ७६ गरैया . १४ करवाल... ३५.अढसप्त : . ५६ वधनोरा: ७ घायडा . ":१५ कानसीया ३६ अरुपरवालं . . पूड कापड ... सांवोड़ा ...१६ वरैया ३७ गोलाएरव... · गुरुवाल . ७९-श्रीमाल १७ दोसावाल ३ मीट , . ५९ अनोदरा: ८०-वैस . १८.मँगलवाल :३९ शंठेरा : ६० नागरीया . १ . जलहरा ११९.पोरवाल ४० श्रीमाली . ३१-नीवा . ....रमभूकरा “२० सूरीवाल :४१ जागर पोरवाल ६२ गागरणा : ३ गोलापुरी (गंगराणी).. इटतरवाल ४२ सिंहोरा' ... ६३ ससरापुरपाल ८४ कपात Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे बहुत से भाई वहुधा यह कहते हैं कि हंध वैश्य केनिगम है। धर्म का अवलोकन करे । न्याय पूर्वक मार्ग ग्रहण करें .. पदमशुमारी में “जैनियों को जाति अलग रक्खी गई हैं इसलि हर जैन व्यक्ति को "जैन जाति कहना या लिखना या लिखवाना .... ...' कुछ जातियों का संक्षेप इतिहास प्रकट करते हैं। नोट १ - सवाल जैन अङ्कः-११. भाग१ पौष माघ शुक्ला सम्बत १७५:वीर सम्बत २४४५. में प्रकाशित हुआ है जैसंधान (जैसनेर वाल) में कोई भेद नहीं इसके तीन. मेद हुए उपरोचियां तरोचिया और वरैया। अलीगढ़ में संजाजोगसिंहः थे वहाँ पर जो भंडारी के काम पर रहे वे कौल भजारी कहाये। अलीगढ़ को कौल भी कहते हैं। जिले बुलन्दशहर में कुछ टाकुर लोग है उहाके "जैसवालो से गोत्र मिलते हैं। जैसवाल समल भारत में है परन्तु झालरापाटन आग बलीगढ़, धोलपुर, वालियर, उज्जैनादि के पास पास ज्यादा है। वे प्राय राज्य व जमीदारी कार्य में हैं । पूर्वजों से बैं"दीवानजी तथा पटवारी के पदों से माय: पुकारे जाते हैं जैसनेर दक्षिण देश के राज्य पर यापति याने से वे : भागकर इधर आये थे. वैश्यों के साथ रह कर और वैसा कार्य: करने से प्रायविश्य कहाने लगे। जैसनेर घोल लें जैसवाल, समय परिवर्तन द्वारा होगया जैसनेर का राजा इक्ष्वाकुशंका क्षत्री जैनी था उनके कुटुम्बी जैसनर वाले कहलाते थे और कईएक प्रमाणों से जैसवाल, नत्री सिद्ध होते हैं। सवाल जाति प्रतादि से . .. . . ... " प्राचीन जैसवाल आचार्य । नोट २-आज हम अपने प्रिय पाठकों को कुछ प्राचीन जैसवाल प्राचार्यों का संक्षिप्त परिचय देते हैं । यह वर्णन प्राचीन पहाव Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... . ९ विगम्बर जैन के नाक में पट्टा लिया पर एक लेखं : निकला है। जिस पण्डित मदनलाल जी ने लिखा है। अापने चार पट्टीयलियां अपने पास बताई हैं। जिन में पकली यही है जो कि कानपुर को प्रदर्शनी में रखी गई: यो और जिस के आधार पर हमने प्रथम' अर में सवाल आचार्यों के नाम दिए थे। * संवत् तिथि आचार्य : . जाति ३६ आसोज मुदी १४, मारनन्दि : जैसवाल २११ फागुन वदी १.० यशानन्दि... . १५८ ६४२. श्रावण मुर्दी ५. मेरुकीति - दूसरी पट्टीवली आपको भट्टारक मुनीन्द्र कीर्ति से प्राप्त हुई है। उसमें उक्त आचार्यों का कुछ अधिक विवरण है; उसे हम नीचे उद्धृत करते हैं। मिती प्रांसोज सुदी १४ सम्बत ३६ स्वामी माघनन्दि आपने जैसवाल कुल. को पवित्र किया था आप गृहस्य अवस्था में २० वर्ष पर्यस्त रहे ! आप परम योगी थे। आपने ४४ वर्ष पर्यन्त मुनिपद मुशोभित किया था। आपको शक्ति , अगाध, पोशान भी अलौकिक था.। आप आचार्य पद पर वर्ष ४ महीने २६ दिनं विराजमान रहे। अत समय आप साधुपद को ग्रहण कर समाधिस्थ हो स्वर्गस्य हुए। आपकी सर्व श्रायुधः वर्ष ५ महीने की थी। माघनंदि नाम के कई आचार्य हो गए हैं। क्या ये माधनंदि मुनि बहे जो कुम्भकार घरपर रहेथे ? आपको बनाईष्टुई पूजा अत्यंत ललित मिलती हैं। .. ... मिती फागुन वदी ११.०२११ के. दिन श्री भगवान् । यशोनदि पद पर विराजे नापने भी जैसवाल जाति को अपन: जन्म से पवित्र किया था। यथा नाम तथा गुण रूप सर्वत्र प्रसिद्ध थे। आपकी बनाई दुई पञ्चः परमेष्ठी पूजा हृदय हारिणी और मनोहर है। आप गृहस्थ अवस्था में मात्र १६ वर्ष रहे। आपके भाव अत्यन्त विशुद्ध और संसार से अतिशय विरक्त थे। नित्य ... 11 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ () पद (मुनि):१७ वर्ष पर्यन्त घोर तपश्चरण द्वारा व्यतीत किया श्राचार्य पद पर आप ४६ वर्ष ४ मास और १ दिन विराजमान रहे। पूर्ण श्रायुः ९षमास और १३ दिन को थो। चार दिन । अनशन नामक स यास को धारण कर समाधिस्थ एं। आपके शिप्य प्रतिध्य मुनि और ब्रह्मचारी अगणित थे। आपने बिहार - (देशाटन ) खूब किया था। राजा महाराजा आप परम भक्त थे। .. २६-गवण वदी ५ सम्बत ६४२ भी मेरुकीनि महाराज ने आचार्य पंद को भूपित किया। पाठवें वर्ष मुन्याभम में विद्याभ्यः ययन करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर गए। और. १२.बई: ३ मासं पर्यन्त समस्त शालों का पठन कर. समस्त विषयों में पूर्व प्रवीण हो गए। आपकी विद्वत्ता को समता करने वाला उस समर्थ शायद ही कोई विद्वान हो। आपने ४ वर्ष ३ मांस - तया. १३ दिन. पर्यन्त प्राचार्य पद को अलस्त किया जैसवाल कुल को प्रकाशित करने वाले श्राप थे। पूर्ण आयु ६३ वर्ग १ माह और कुछ दिनःथी। उक्त तीन प्राचार्यों के अतिरिक्त इस पहावतो में साया पर यशोकोति प्राचार्य को भी जैसवाल. लिखा है। किंतु आगे कोष्टक में 'जयलवाल भी लिखा है । और पहली पट्टावली में आपक जायलंबाल' हीलिखाहै कंछभी हो हम उनका वर्णनभो उद्घृतं करते:, -मिती जेठ सुदी १० सम्बत १५३ के दिन श्री प्राचार्य • 'यशोकीर्ति महाराज ने आचार्य पद को विभूपित किया । आप बालपन से ही विरक्त थे। आपकी उप शक्ति दिव्यं यो ग्रहस्य "अवस्था में १२वर्ष मात्र ही रहे.। आप जैसवाल (जायलवाल) * थे।२१ वर्ग. पर्यंत आप मुनि निभ्य रहें आपने ५० वर्ष मास और २१ दिन आचार्य पद में व्यतीत किए। आपको पूर्ण आयु. वर्प और १५ दिन की थी। आप के बाद.५ दिन पीत. आचार्य पद शून्य रहा । : :......... : : तीसरी पट्टावनी संस्कृत की है। वह ईडर के भंडार से प्राप्त हुई है। उसमें प्रायः प्राचार्यों का नाम मात्र है। नीचे के श्लोकों में जैसवाल आचार्यों का नाम है. जायसवाल और लेसंधान को आपने एक से लिबास पर प्रकाश डालना चाहिए। सम्पादक .. .. saiamwim . ... .. .... . . . . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्रीमूलसंघजानि नदिसंघस्वस्मिन् बलात्कार गणोतिरम्यः । सवाभवत् पूर्व-पदांश चेदी श्री मायनन्दी नर देव वैद्यः ॥ २ ॥ यशकीर्तिर्यशानंदी देवनंदी मतिः । .... पूज्यपादः पराख्येयो गुणनंदी गुणाकरः ॥ ८॥ .. माणिक्यनंदी मेघेन्दः शान्तिकोतिर्महाशयः । मेरुकीर्तिमहाकीतिविश्वनंदी विदांवरः ॥ ११ ॥ चौथी पट्टावली को आपने अभी प्रकाशित नहीं किया है। . अभी केवल ३ पट्टावलियां ही प्रकट हुई हैं। इन पर से ही यह मलीं मांति अंकट होजाता है कि प्राचीन काल में जैसवाल जाति. इतनी समाद सम्पन्न और विद्यासे युक्त थी कि इसमें स्वामी मायनंदी, यशकीत और मेरुकीर्ति जैसे मचण्ड पाण्डित्यपूर्ण . . आचार्य विद्यमान थे। जिनके कारण जैसवाल जाति आज भी .. गौरवान्वित हैं। । जैसवाल भाइयों को अपना पूर्व गौरव स्मरण कर उसी. . - उच्च स्थान को प्राप्त करने के लिए पूर्ण परिश्रम करना चाहिए। एक प्रशस्ति में जैसवाल सहयोगी जैन मित्र के ४५ अङ्क में पूज्य पं० पेनालाल . जी बाकलीवाल ने जयपुर के पाटोदी के जैन मंदिर के एक ग्रंथ मौकत उत्तरः पराण की प्रशस्ति मकट की है, जिससे विदित होला है कि यह ग्रंथ संवत् १५७५ में (चारसौं वर्ष पूर्वः) चौधरी टोडरमल्ल जी जैसवाल ने लिखा था। प्रशस्ति की प्रतिलिपि । इतिहास प्रेमियों को उपयोगी होगी अंतएवं यहां उधृत की जातीहै- "इति उत्तरपुराण टिप्पणक प्रमाचंद्राचार्य विरचितसमाप्त “अथ संवत्सरेऽस्मिन श्री भूप विक्रमादित्य मताब्दः संवत् १५७५ .: .. .. . . ...... Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष भादवा मुदौ ५ बुद्ध दिन कुरुजांगल देशे सुल्तान सिकंदर पुत्र सुलतान इब्राहीम राज्य प्रवर्तमाने श्री. काष्ठासंघ मथराचये । पुष्करगणे भट्टारक श्री गुणमदः मरिदेवाः तदाम्नाये-जैसवाल... चौक (धुरी ) टोडरमल्नु । चौ. जगसापुत्र इदं उत्तर पुराण टीका : लिखायत । शभ भवन । मांगल्य दधति लेखक पाठकयोः ।। इस प्रशस्ति से पाठक यह अजमान कर सकेंगे कि ४०० वर्ष पूर्व : जैसवाल भाई, इतने योग्य थे कि वे प्र कृतः अादि पुराण जैसे महत्वशाली ग्रन्थ को लिखाकर पढ़ सकते थे। क्या उनकी तुलना हम लोगों से हो सकती हैं। जैसवाल जैन.पत्रकार्तिक शुक्लारस ९७६वीर स०२४४८ से उधृतः) नोट-वायू प्रभुदयाल और ज्ञानचंद्र लाहोर त जैनतीर्थ यात्रा: नम्बर ३७ सन १२०१ पत्र १२३ में लिखा है कि सहारनपुर में ५०० घर सूर्यवंशी क्षत्री अंगवाल जैनियों के हैं.(यह वो जाति है.), नोट ४-४७ वा जात--प्राचारों श्रीलामचीदांस. श्री कैलाशपर्वत यात्रा जिस को भारत वर्षीय दि जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी ने सन १३ सवार २४३ में प्रकाश किया। पत्र में वन्नी लामचीदास सूर्यवंशी गोलालारे जैनी लिखा है। इन्होंने सात में निपथ मुनि अवस्था धारण की थी। नोट - इसी प्रकार सर्व जैन जाति के इतिहास से मालुस करना पुस्तकवेंदन के भय से और इतिहाच संप.नहीं किप. नोट:६. *ग़ज़ल * .. जाति की सेवा करनी, यह पहला काम अपना । सेवा के वास्ते त्यह जीवन तमाम अपनाः॥ टेकं । तुम चाहे गालियां दो भर पेट निन्दा करलो । छोंडो को सेवा करनी, जीवन हराम अपना । जीते जी मर मिटेंगे, अच्छी बुस सहेंगे । सेवा. मगर करेंगे जब तक है जाम अपना ॥ सेवा का दम भरने, जब तक कि हम लियेथे ॥ जाति की है। . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६ ) PRESEAR TREATER RELETECTRENT श्रीगुरु का स्वरूपा .. श्री गुरु महा मुनि का स्वरू। "अन्तर आत्माविषे पहिले कुछ कह चुके हैं, थोड़ासा और कछ वर्णन करता है, वे : १४ अंतरंग पारग्रह [गिथ्यास्व, वेद (स्त्री परुप, नपंसक सें . अनुराग) राग, द्वेप, हास्य. राति अराति. शोक. भय. जुगुप्सा क्रोध, मान, माया और लोम ] और १० वाह्य परिग्रह .[क्षेत्र. वास्तु, चांदी: सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कूम्य मांड] से रहित होते हैं, २८ मूलगुण (५ महाव्रत, ५ समिति; ५. इद्रियों का रोकना, ६ आवश्यक,७ अवशेष) और .८४ लाख उत्तर गुग्ण के धारक होते हैं, उनका तेरहः मकार यानी ५ महाव्रत ( अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य परिग्रहत्याग), ५ समिति (इयां, भापा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापन ) और ३ गुप्ति ( मन, वचन काय .) का चरित्र होता है, इसलिये यह दिगम्बर जैन धर्म तेरा. पंथीं कर भी पुकारा जाता है, ऐसे गुरु जिनके किसी प्रकार t, उनसे ही हमारा यथार्थ कल्याण हो सक्ता है उनकी स्तुति और गुणानुवाद से महापुण्य का आश्रव होता है, और पापों का नाश होता है हम अज्ञानता से वाजवक्त उनकी निन्दा कर बैठते हैं यह हमारी महा. मूल है. सामान्य पुरुषकी निन्दा करना पाप है तो ऐसे महात्मा की : निन्दा करना क्या वन पाप म होगा ? ऐसे महा मुनि के भाव Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) निर्मल विकार रहित होते हैं जैसे तुरन्त जन्मे वालक के • भाव निर्मल होते हैं। वे नन मे शरीर रक्षा के लिये जिससे धर्म साधन हो , आहार लेने.पाते हैं सो मी ३२ अंगराय टालकर नवधा भक्ति से भोजन लेत है वरना जंगलों में, नदियों के तटपर, पर्वतों की चोटीयों पर ध्यानाकह रहते हैं। बे महामुनि करुणा के सागर आप तिरने वाले दूसरों के तारने वाले होते हैं। उनकं भाव सर्वोत्कृष्ट उच्च होते है जैसे कूए का जल एक कांच के गिलास में भरकर देखिय तो गदलासा मालम होगा, यही अवस्था ठीक हम संसारियों की है और तप जप करके जब वह गिलास का जल विलकुल स्वच्छ यानी कुल कर्दम नीचे बैठ जाता है और जल नर्मल होजाता है सो हक वही अवस्था महा मुनियों की है । ऐसे निग्रेथ मुनि, सर्वोत्कृष्ट पूज्य हैं। नग्न अवस्या पर निम्न दृष्टान्त द्वारा विचार करिये। एक समय सरमद नाम का मुसलमान फकीर देहली के । गली कूचों में ब्रहना । नङ्गा) मादर जाद होकर घूम रहा था । श्रीरङ्गजेब बादशाह ने देखा, तन पोशिश के लिए कपड़े भेजे, फकीर मजलून ( अपनी ही आत्मा में लीन निजानंद अवस्था में) और वली था। कह कहा (खिल खिलाकर ) सा! कलम दवात कागजं पास था एक ख्वाई [ शेर (छंद)] लिखो और वादशाह के खिलप्रत को यो ही वापिस कर दिया. रुवाई यह थी ! , आंकस कि तुरा कुलाह सुल्तानी दाद । मारा हम और अस्वाव परेशानी दाद ।। पोशानीद लवास हरकारा ऐवे दीद । वे एबा रा लववास. अयानी दाद ॥ ... ... अर्य-जिंस ने तुमको 'यादशाही ताज'दीया 'उसी ने हम को परेशानी का सामान दीया। जिस किसी में कोई ऐव पाया 'उस को लिबास पहिनाया श्रीट जिन में ऐब न पाए उनको नंगेपन का लिवास दिया। कर देहली से जेब बादशहा ) मादर जाद Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२ ) यह लाख रुपये का कलाम है। हमको नंगेपन पर घृणा या निदान करना चाहिए । ज्ञान और तर से उन की यात्मा धीर ई द्रियां निर्मल और दमन हो गई हैं हम को उनके उच्च श्रादर्श भार्या पर विचार करना चाहिए। चूकि हमारी आरमो विकार सहितं और कामातुर. है .इस लिए हम अहानी, उनके शरीर की तरफ कुहटी कर लेते हैं जैसे कहावत है कि चोर सबको चोर ही समझता है इत्यादि । सुनिए छोटे वालक लड़के लड़कियां नग्न रह कर एक जगह खेलते है परंतु ज्या २ संसारी कामों का उन पर असर पड़ता जाता है और कामातुर होने को अवस्था मजर आती है फोरन उनको कपड़े पहना दिए जाते हैं। तरण अवस्या में उन्हें एक जगह खेलने भी नहीं दते । जब ससारी कामा में लगकर, शान प्राप्त होता है तो संसार को हेच समझने लगते हैं और ज्ञान द्वारा ससारी विकारों को निकालते हुए, गृहस्थ अवस्था को त्याग देते हैं यहां पूर्ण विचार करिए कि जब तक संसारो अवस्था का चक्र न पड़ा था तब तक नंगै रहे और जव चक्र पड़ गया तो 'कपड़े पहनने लगे। मगर जव सँसारी चक्र निकल गया तो फिर कपडे छोड़ दिए अव कोन सो दुराई की बात रही। यहां ज्ञान की बात है हम विकारी कपडे पहिने हुए, इन्हीं नेत्रों से माता पिता भाई बहिन, बी.पति, पुत्र-पुत्रा, इत्यादि.को देखते हैं मगर भाषा: का विचार रखते हैं। इसलिए यह स्वतः सिद्ध हो गया कि हमको ऐसे देव गुरु का दर्शन सर्वोट उच्च भावों से करना चाहिए और . उपकचों की पूजा कर मनुष्य जीवन सफल करना आवश्यक है। सिद्धांत यह है कि आत्मा को शारीरिक धन से.और तमनुकात * पोशिश में आजाद करके बिलकुल ना करदोया जाये ताकि इस का निजरूप खन में श्रावे, वे जाहिरदारी के रस्मोरिवाज से पर रहते हैं। ऐव को क्या बात है। वे ईश्वर कुटो (यानी निज प्रात्म में लोन ) रहने वाले हैं। यदि हम अपना सा समझे तो क्या हमारी • महाभूलनहीं है? जैसा हमभाव व भृकुटी करेंगे वैसा ही हमारे लिए बंध है यानी दर्पण में जैसा, मुख करो वैसा ही दीखंता है। जिस निय के किनारे ऐसे जैन मुनि पहुंच जाते हैं दुर्भिक्ष व मरी जाती रहती है उनके चर्णोदक वंचरण रज मस्तक पर चढ़ाने से शरीर निरोग और गुणों की खान हो जाता है। हमारा ,ऐसे जन जती Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) i को धारम्बार नमस्कार होवे। जहां २ पेले महान गुमश्रों में तप किया है वही स्थान.नग में तीर्थ होगए हैं। * अङ्गालो में भी गजल इस प्रकार है: “LIVES OF GREAT MEN ALL RIMIND US, WE CAN MAKE OUR LIVES SOBIJE, AND DEPARTING, LEAVIS BEIND US, Foor-PRINTS CN THE SANDS OF TIBIE. रखता . चलो देखो दिगम्बर मुनि महानामह ातम में । खडे निश्चल है वे उन में तपस्या हो तो ऐसी हो । गरीपम काल कैसा है कुरंग बन में भये कायर । शिखर पर हैं खडे निर्भय तपस्या हो तो ऐसी हो । ऋतू पावस अती गरज पडे है मेघ की धारा । वृक्ष तल पद्म आसन है तपस्या हो तो ऐसी हो ॥ यह देखो शीत की सरदी गले हैं मद भी वानर के। लगा है ध्यान सरतापर तपस्या हो तो ऐसी हो । दहाडे सिंह जिस वन में लगा ध्यान श्रातम में । चढी है वेलि जिन तन में तपस्या हो तो ऐसी हो ॥ शुद्ध उपयोग हुताशन में कर्मको जारते निशदिन । शत्रु और मित्र से समता तपस्या हो तो ऐसी हो ।। सुगुरू की है यही. पहचान वखानी जैन शासन में। झुकाकर सिर का सिजदा तपस्या हो तो ऐसी हो ।। अव कुछ अजैन विद्वानों की भी सम्मतियां यहां पर प्रकट करते है जिसकों लाला केसरीमल मोतीलाल राँका व्यावर, . वाले ने फरवरी १९२३ में सँग्रह कर ट्रेक्ट द्वारा इस प्रकार प्रकाश दिया था। .. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की प्राचीनता व उत्तमता के विषय में अजैन सुप्रसिद्ध विद्वानों की सम्मतियें । - श्रीयुत्न मझमहोपाध्याय डाक्टर साशचन्द्र विद्या भूपण एम० ए० पी० एच० डी० एफ० आई० आर० एस० सिद्धांत महोदधि प्रिंसपिल संस्कृत कालिन कलकत्ता। __.. आपने २६ दिसम्बर सन् १९१३ को काशी ( वनारस ) नगर में जैन धर्म के विषय व्याख्यान दिया उसका सार रूप कुछ वाक्य उडत करते है। .. .. .. . . म साधु-एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करने के द्वारा पूर्ण रीति से व्रत, निवम और इन्द्रय संयम का पालन करता हुमा जगत के सम्मुख धात्म संयम का एक बड़ा ही उत्तम. आदर्श पम्लुन करता है। प्राकृत भाषा अपने सम्पूर्ण मधुमय कौन्दर्य को लिए हुए मनियों को रचना में ही प्रगट की गई है। श्रीयस महा महोपाध्याय सत्य सम्पदाया चार्य सर्वान्वर पंडित स्वामी रामामिश्र जी शास्त्री भूत्र प्रोफेसर संस्कृत कालेज बनारस। . . . . - आपने मि० पाप शु० १ सं० १९६२ को काशीनगर में व्याख्यान दिया उस में के कुछ वाक्य उद्धृव करते हैं ।। ., (१) शान, बैराग्य, शांति, क्षन्ति, अदम्भ अनीW, अक्रोध अनात्सयं, अलोलुपता, शम, दम,अहिंसा, समदृष्ठि इत्यादि गुणों में एक एक गुण ऐसा है कि जहां वह पाया जाय यहां पर बुद्धिमान पूजा करने ललते हैं। तब तो जहां ये (अर्थात् जैनी में) पर्वोक्त सब गण निरतिशय सीम होकर विराजमान है उनकी पूजा न करना अथवा ऐसे गुण पूजकों की पूजा में बाधा डालना क्या इन्सानियत का कार्य है? Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( ५४ ) ( २. मैं यपको कहां तक कहे. बड़े बड़े नामो श्राचार्यो नेन यथा मं.जो जैन मन खण्डन किया है वह [ऐसा किया है जिसे सुन खर हंसी आती है । अभेद्य किला है उस गोले नहीं प्रवेश ( ३ ) स्याद्वाद का यह (जैन धर्म) के अन्दर वादी प्रतिवादियों के माया मय कर सकते । (४) सज्जनों एक दिन यह था कि जैन सम्प्रदाय के श्राचार्थे के हुंकार से दसों दिशाएं गूंज उठती थीं । (५) जैन मत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार में. सृष्टि का आरम्भ हुआ । (६) मुझे इस में किसी प्रकार का उम्र नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादि दर्शनों से पूर्व का है। [३] भारत गौरव के तिलक पुरुष शिरोमणी इतिहासज्ञ, माननीय पं० बाल गंगाधर तिलक १९०४ को बडे दा नगर में दिये के ३० नवम्बर सन् हुए व्याख्यान से उद्धृत कुछ वाक्य । (१) श्रीमान् महाराज गायकवाड ( बड़ोदरा नरेश ) ने पहले दिन कानफरेंस में जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार 'अहिंसा परमोधर्म' इस उदार सिद्धान्त में ब्राह्मण धर्म पर चिरस्मरणीय छाप मारी है। पूर्व काल में यज्ञ के लिए असंख्य पशु हिंसा होती थी इस के प्रमाण मेघदूत काव्य श्रादि श्रनेक गाथों से मिलते हैं- - परंतु इस घोर हिंसा का प्राहारा धर्म से विदाई ले जाने का श्र ेय (पुण्य) जैन धर्म के हिस्से में है । . + (२) ब्राह्मण धर्म को जैन धर्म हो ने श्रहिंसां धर्म बनाया - ( ३ ) ब्राहाणा व हिंदू धर्म में जैन धर्म के हो प्रताप से मांस भक्षण. व मदिरा पान बंद हो गया । *भूत पर्व सम्पादक केसरी । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) ब्राह्मण धर्म पर जो जैन धर्म में नुस्ण काप मारी है उस का यश जैन धर्म ही के योग्य है । जैन धर्म में अहिंसा का सिद्धांत प्रारम्भ से है, और इस तत्व को समझने की त्रुटि के कारण चौद धर्म अपने अनुय यो. चीनियों के रूप में सर्व भक्षी हो गया है। . . (५) पूर्ण कान में अनेक चौहण जैन पण्डित जैन धर्म के धुरन्धर विद्वान हो गए हैं। (६) ब्राह्मण धर्म जैन धर्ग से मिलता हुआ है इस कारण टोक रहा है। बौद्ध धर्म जैन धर्म से किोष अमिल होने के कारण हिंदुस्तान से मामशेष हो गया। · ७) जैन धर्म तथा ब्राह्मण धर्म का पीछे से इतना निकट सध. हुआ है कि.स्योतिष शास्त्री भास्कराचार्य ने अपने नन्थ में जान दर्शन और :चारित्र (जैन शास्त्र विहित रत्नत्रय धर्म) का धर्म के तस्व बतलाए हैं। . . . . .केसरी.पत्र.१३ दिसम्बर सन १९०४ में भी आप ने जैन धर्म के विषय में यह सम्मति दी है। . गायों तथा सामाजिक ग्याख्यानों से जाना जाता है कि जैन धम अनादि है. यह विषय निर्विवाद 'तथा मत भेद रहित है। मुतरा इस विषय में इतिहास के ढ़ा सबूत हैं और निदान इस्त्री सन से ५२६ वर्ष पहले का तो न धर्म सिद्ध है हो । महावीर स्वामी जैन धर्म को पुनः प्रकाश में लाए इस बात को प्राज "२४०० वर्ष व्यतीत हो चुके है बोद्ध धर्म को स्थापना के पहले जैन धर्म फैल रहा था यह बात विश्वास करने योग्य है । चौयोस तो/करों में महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर थे, इस सेमी जैन धर्म को प्राचीमंता जानी जाती है। बौद्ध धर्म पीछे से हुना • यह वात निश्चिंत है।" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५% ) [ ४ } पेरिस · ( कांस की राजधानी ) के डाक्टर ए० गिरनाट अपने पत्र ता० ३-१२-१९११ में लिखा है कि I मनुष्यों की तरक्की के लिए जैन धर्म का चारित्र बहुत लाभकारी है यह धर्म बहुत हो असती, स्वतन्त्र, सादा, बहुत मूल्य चान तथा ब्राह्मणों के मतों स े भिन्न है राया यह बौद्ध के समान नास्तिक नहीं है | [ ५ 1 जर्मनी के डाक्ट' जोहनस हर्टल ता० १७-६-१९०८ के पत्र में कहते हैं कि . मैं अपने देश वासियों को दिखाऊंगा कि कैसे उत्तम नियम और उचे विचार जैन धर्म और जैन श्राचायों में है। जैन कत साहित्य, बौद्धों से बहुत बढ़कर है और ज्यॉ २ में नम धर्म और उसके साहित्य समझता हूं त्यों २ में उनको अधिक पसन्द करता हूं । .[ ६ 1 श्रन्यमतधारी मिस्टर कन्नुलाल जोधपुर की सम्मति(देखो The Theosophist माह दिसंबर सन ११०४ च जनवरी सन १९०५ ) जैन धर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है कि जिसको उत्पत्ति तथ · इतिहास का पता लगाना एक बहुत ही दुर्लभ बात है । इत्यादि [ ७ 1 मि० आवे जे० ए० डवाई की सम्मतिः (Discription of the character manners and 'customs of the people of India and of their insti tution and ciril. ) ".. . इस नाम की पुस्तक में जो सन १८१७ में लंडन में छपी हैं श्रापने बहुत बडे व्याख्यान में जैन धर्म को बहुत प्राचीन लिखा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ हैं। इस में जैनियों के चार वेद प्रयमानुयोग चरणानुयोग, करणासुंयोग, और दैव्यानुयोग, को श्रादिश्वर भगवान ने रचा ऐसा कहा है. और आदिश्वर को जैनियों में पहुँन प्राचीन और प्रमिद पुरुष जैनियों के २४ तीर्थकर में सव से पहले हुए है ऐसा कहा है। " श्रीयुत वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० रंगला श्रीयुत नाथूराम प्रेमी द्वारा अनुवादित हिन्दी लेख से उद्धृत कुछ चाक्य । (१) जैन निरामिष भोजी (मांस त्यागो ) क्षत्रियों का धर्म है। . : . (२) नैन धर्म हिन्दु धर्म से सर्वथा खतंत्र है उसकी सांस या लैपान्तरं नहीं है मेक्समुलर का भी यह ही मत है। . ... (३) पार्श्वनाथ जी जैन धर्म के प्रादि प्रचारक नहीं थे परन्तु इसका प्रथम प्रचार रिपमदेवजी ने किया था इसकी पुष्ठी के प्रमाणों का प्रभाव नहीं है। . : . (४)वौद्ध लोग महावीर जो कोनिगंन्यो अर्थात जैनियों का नायक मात्र कहते हैं स्यापक नहीं कहते। जर्मन डाक्टर जेकोबी का भी यह ही.मत है। ... ___.(.५) जैन धर्म ज्ञान और भावको लिये हुए है और मोक्ष भी इसी पर निर्भर है। . ( १) रारा वासुदेव गोविंद आपटे वी०ए० इन्दौर निवासी के व्याख्यान से कुछ वाक्य उद्धृत । . (१) प्राचीन काल में जैनियों ने उत्हष्ट पराक्रम वा राज्य भार का परिचालन किया है। . . . (२) जैन धर्म में अहिंसा का तत्व अत्यन्त श्रेष्ठ है (३) जैनधर्म *आदिश्वर को जैनी रिपमदेवजी कहते हैं। : * प्राचीन काल में चक्रवर्ती, महामण्डलीक, मंडलीक आदि बड़े पदाधिकारी जैनधर्मों हुए हैं जैनियों के परम पूज्य २४ सों तीर्थकर भी सूर्यवंशी चन्द्रवंशी श्रादि क्षत्रिय कुलोत्पन्न चडेरराज्याधिकारी हुए जिसकी साक्षी जैम-अन्यों तथा किसी २ अजैन शास्त्रों व इतिहास प्राथों में भी मिलती है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८. ). में यति थम अत्यंत उत्कृष्ट.है इस में संदेह नहीं (४) . जैनियों में त्रियों को भी यति दिक्षा लेकर परोपकारी हत्या में जन्म व्यतीत करने की आशा है यह सवोरकष्ट है (६) हमारे हाथ से जीव हिमा न होने पावे इसके लिए जैनो जितने डरते हैं उत्तने वौद्ध नहीं डरते । बौद्ध धर्म देशों में मांसाहार अधिकता से जारी है आप स्वतः हिंसा न करके दूसरे के द्वारा मारे हुए. बकरे आदि का मांस खाने में कुछ हर्ज नहीं ऐसे सुभीते का अहिंसा तत्व जो. बौद्धों ने निकाला था यह जैनियों की खीकार नहीं है । (७) जैनियों को एक समय हिंदुस्तान में बहुत उन्नतावस्या थी । धर्म, नीति, राज कार्य धुरंधरता शानदान समाजोन्नति आदि वातों में उनका समाज इतर, जगी से बहुत आगे था। __ संसार में अब क्या हो रहा है इस ओर हमारे जैन , बंधु लक्ष देकर चलेंगे तो वह महापद पुनः प्राप्त कर सोने में उन्हें अधिक अम नहीं.पडेगा। . : सुप्रसिद्ध संस्कृतज्ञ प्रोफेसर डा० हर्मन जेकोबी एम० ए० पी० एच०डी० वोन जर्मनी। नैन धर्म सर्मथा स्वतंत्र धर्म है मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है और इसी लिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्वज्ञान का और धर्म पद्धति का अध्ययन करने वालों के लिए वह चंड़ महत्व को वस्तु है। . पूर्व खानदेश के कलक्टर साहिव श्रीयुत आटोरौंय. फिल्ड साहिव ७ दिसम्बर सन १९१४ को पाचोरा में श्रीयुत वछराज:: जी रूपचन्द जी की तरफ "एक पाठशाला खोलने के समय आपने अपने व्याख्यान में कहा कि जैन जाति दया के लिए खास प्रसिद्ध है, और दया के .. लिए हजारों रुपया खर्च करते हैं। जनी पहले क्षत्री थे, यह उनके चहरे ब नाम से भी जाना जाता है। जैनी अधिक शांति प्रिय हैं । (जैन हितेच्छु पुस्तक.१६ र ११ में से ) ..... Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ । । मुहम्मद हाफिज सय्यद बी० ए० पल. ष्टी. थियोसोफिकल हाई स्कूल कानपुर लिखते हैं। - "मैं जैन सिद्धांत के सूचम तम्या से गहरा प्रेम करता हूं। [१३ ] .. रायबहादुर पुनन्दु नारायण सिंह एम. ए. वांकीपुर लिखते है-- ":" जैन धर्म पढ़ने को मेरो हार्दिक इच्छा है, क्योंकि मैं खियाल करता हूं कि व्यवहारिक योगाभ्यास के लिए यह साहित्य 'सबसे प्राचीन ( Oldest) है यह द की रीति रिवाजों से पृथक है इस में हिंदू धर्म से पूर्व की भात्मिक स्वतंत्रा विद्यमान है, जिसको परम पुरुषों ने अनुभव व प्रकाश किया है यह समय है कि हम इसके विषय में अधिक जानें। . . : .. . . . . . [ १४ ... “महा महोपाध्याय पं० गंगानाथ झा एम० ए० डी० एल० एल. इलाहावाद.: . "जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धांत पर खंडन को पढ़ा है, तव से मुझे विश्वास टुश्रा कि इस सिद्धांत में बहुत कुछ है जिसको घेदांत के प्राचार्य ने नहीं समझा, और जो कुछ अव तक मैं जैन धर्म को जान सका हूं उस से मेरा यह विश्वास हद हुआ है कि यदि वह जैन धर्म को उसके असली प्रथों से देखने का कष्ट उठाता तो उनको जैन धर्म से विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती। : . :..: . :: .. [:.१५ ]..:...: - नैपालचन्द राय अधिष्ठाता ब्रह्मचर्याश्रम शांतिनिकेतन घोलपुर:-मुझको जैन तीर्थंकरों को शिक्षा पर अतिशय भक्ति है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एम० डी० पाण्डे थियोसोफिकल सोसायटी वनारस । - . मुझे जैन सिद्धांत का बहुत शौक है, क्योंकि कर्म सिद्धांत का इस में सूक्ष्मता से वर्णन किया गया. है।. . सम्मति नंवर १२ से १५ जन मित्र भाग १७ अङ्क १० में से संपह की गई हैं। सुप्रसिद्ध श्रीयुत महात्मा शिवव्रतलाल जी वर्मन, एम ५०, सम्पादक “साधु" "सरस्वतीभण्डारण, तत्वदर्शी मार्तण्ड "लक्ष्मीमण्डार", "सन्त सन्देश आदि उर्दू तया गगरी मासिक पत्र, रचयिता बिचार कल्पदु म, "विवेक, कल्पदुम”, “वदांत कल्पदु म," "कल्याण धर्म," कबीरजी का बीजक, आदि गंथ, तथा अनुवादक "विष्णु पुराणादि । - इन महात्मा महानुभाव द्वारा सम्पादित " साधु" नामक उर्दूमासिक पत्र के जनवरी सन १९११ के अङ्क में प्रकाशित "महावीर खामी का पवित्र जीवन" नामक लेख से उधृत कुछ वाक्य, जो न केवल श्री महावीर स्वामी के लिए किंतु ऐसे.सर्व जन तीर्थंकरों, जैनमुनियों तथा जैन महात्माओं के संबंध में कहे गए हैं:.; (१.) "गए दोनों जहान नजर से गुजर तेरे हुस्न का कोई वशर न. मिला . .. :: . : - (२) यह जीनियों के प्राचार्ग गुरु थे। पाकदिल, पाक खयाल, मुजस्सम-पाको व पाकीज़गी थे। हम इनके नाम पर. इनके काम पर और इनकी बेनजीर. नफ्सकुशी व रिाजत की मिसालपर, जिस कदर नाज (अमिभान).करें बजा (योग्य), है। (३) हिंदुओ ! अपने इन बुजुर्गों की इज्जत करना' । सीखो.......तुम इनके गुणों को देखो, उनको पवित्र सूरतों का दर्शन करो, उनको भावों को प्यार की निगाह से देखो, यह धम कम की मालकती हुई चमकती दमकती सूते हैं.........उनका . . .. . .. . .. ... .. . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( &{ ) + दिल विशाल था, वह एक वेप्रायाकनार समन्दर था जिस में मनुष्य प्रेम की लहरें जोर शोर से उठती रहती थीं और सिर्फ मनुष्य ही क्यों उन्होने संसार के प्राणीमात्र की भलाई के लिए सब का त्याग किया जानदारों का खून बहाना रोकन े के लिए अपनी जिंदगी का खून कर दिया। यह अहिंसा की परम ज्योति वाली मूर्तियां हैं। वेदों की श्रुति "श्रहिंसा परमो धर्मः" कुछ इन्हीं पवित्र महान पुरुषों के जीवन में अमली सूरत इखियार करती हुई नजर आती है। ये दुनियाँ के जबरदस्त रिफार्मर, कबरदस्त उपकारी और बड़े ऊंचे दर्जे के उपदेशक और प्रचारक गुज़रे हैं । यह हमारी कीमो तवारीख (इतिहास) के कोमती ( बहुमूल्य ) रत्न हैं । तुम कहां और किन में धर्मात्मा प्राणियों की खोज़ करते हो इन्हीं को देखो इन से बेहतर (उत्तम) साइवे कमाल तुम को और कहां मिलेंगे । इन में त्याग था, इन में वैराग्य था, इन में धर्म का कमाल था यह इन्सानी कमजोरियों से बहुत ही ऊबे थे। इनका खिताब " जिन " है जिन्हों ने मोह माया को और मन और काया को जीत लिया था । यह तीर्थंकर हैं। इन में बनावद नहीं थी, दिखावट नहीं थी, जो बात थी साफ साफ थी । ये वह लाखानी (अनौपम ) शखस्रीयतें हो गुजरी हैं जिनको जिस्मानी कमजोरियों व ऐवों के छिपाने के लिये किसी जाहिरी पोशाक की जरूरत लाइक नहीं हुई ! क्यो कि उन्होंने तप करके, जप करके योग का साधन करके अपने आपको मुकम्मिल और पूर्ण बना लिया था इत्यादि इत्यादि" " ('20) श्रीयुत तुकाराम कृष्ण शर्मा लट्टू बी० ए० पी-एच० डी० एम०आर० ए० एस० एम० ए० एस० वी०एम० जी०ओ० एस० मोफेसर संस्कृत सिलालेखादि के विषय के अध्यापक क्विन्स कालिज वनारस । ! - स्याद्वाद महा विद्यालय काशी के दशम वार्षिकोत्सव पर दिये हुए, व्याख्यान में से कुछ वाक्य उद्धृत । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) ( १ ) सबसे पहले इस भारत वर्ष में "रिषभदेव" "नाम के महर्षि उत्पन्न हुए, वे दयाशन भइपरिणामी, पहिले तीर्थंकर हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर "सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान श्रीर सम्यचारित्र रूपो मोक्ष शास्त्र का उपदेश किया. 1 बस यह ही जिन दर्शन 'इस कल्प में हुआ। इसके पश्चात अजीतनाथ से लेकर महावीर तक तेईस तीर्थंकर अपने २ समय में श्रज्ञानी जीवों का मोह अंधकार नाश करते रहे। ८. ( १८ ) साहित्य रत्न डाक्टर रवीन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि:महावीर ने डोंडींग नाद से हिंद में ऐसा संदेश फैलाया 7 कि धर्म यह मात्र सामाजिक रूढ़ि नहीं है परंतु वास्तविक सत्य है । मोक्ष यह बाहरी क्रिया कांड पालने से नहीं मिलता, परंतु I सत्य धर्म स्वरूप में श्राश्रय होने से ही मिलता है । और धर्म और मनुष्य में कोई स्थाई भेद नहीं रह सकता । कहने आश्चर्य पैदा होता है कि इस शिक्षा ने समाज के हृदय में जड़ करके बैठी हुई भावना रूपी विघ्नों को त्वरा से भेद दिये और देश को वशीभूत कर लिया इसके पश्चात् वहुत समय तक इन क्षत्रिय उपदेशको के प्रभाव बल से ब्राह्मणा की सत्ता अभिभूत होगई थी । . ( १९ ) ... टी. पी. कुप्पस्वामी शास्त्री एम. ए. असिसटेन्ट गवर्न 1 मेन्ट म्युजियम तंजौर के एक अग्रेजी लेख का अनुवाद “ जैम, हितैषी - भाग १० अंक २ में छापा है उस में आपने बतलाया है. कि: ገ 7 7 (१) तीर्थंकर जिनसे जैनियों के विख्यात सिद्धांतों का प्रचार हुआ है आर्य्यं क्षत्रिय थे ( २ ) जैनी अवैदिक भारतीय- श्राय को 'एक विभाग है। ( 30 ) ; ¦ थी स्वामी विरुपाक्ष' बार्डयर “धर्म ं भूषण'' पण्डित 'वेद तीर्थ' 'विद्यानिधी' एम. ए. प्रोफेसर संस्कृत कालेज इन्दौर P. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्टेट? श्रापका .. जैन धर्म. मीमांसा नाम का लख चित्र. मय जगत में छपा है उसे जिन पथ प्रदर्शक' श्रागरा ने दीपावली के अंक में उद्धृत किया है .उस के कुछ वाक्य उद्धवः (१) वेप के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्ति के रहते हुए जैन शासन कमी पराजित न हो कर.सर्वत्र विजयी ही होता रहा है। इस प्रकार जिस का वर्णन है वह बहनदेव साक्षात. परमेश्वर (विष्णु) स्वरूप है इसके प्रमाण भी आर्य प्रथों में पाये जाते हैं। ... .(२) उपरोक प्रान्त परमेश्वर का वर्णन वेदों में भी पाया जाता है। . . (३) एक बंगाली वैरिटर.ने' प्रकटिकल पार्थ नामक ग्रंथ बनाया है । उस में एक स्थान पर लिखा है कि रिपमदेव का नाती मरीचि प्रति वादि था, और वेद उसके तत्वानुसार होने के कारण हो ऋगवेद आदि पथों की ख्याति उसी के शानद्वारा हुई है फलतः मरीचि रिपो के स्त्रोत, वेद पुराण आदि ग्रंथों में है यदि स्थान स्थान पर जैन. तीखीकरों का उल्लेख पाया जाता है तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैन धर्म का प्रास्तित्व न मानें। ... : " . . . . . .: . ..(४) सारांश यह है कि इन सय प्रमाणों से जैन धर्म का उल्लेख. हिंदुओं के पूज्य वेद, में भों मिलता है। (५) इस प्रकार वेदों में जैन धर्म का आस्तित्व सिद्ध करने वाले बहुत से मंत्र हैं। वेद के सिवाय अन्य पंथों में भी जैन धर्म के प्रति सहानुभूति.प्रगट करने चान्ने उल्लेख पाये जाते हैं। स्वामी जी ने इस लेख में वेद, शिव पुराणादि के कई स्थानों के मूल लोक ६ कर उस पर व्याख्या भी की है। (९) पीछे से अव ब्राह्मण लोगों ने यज्ञ आदि में बलिदान कर 'मा हिंसात.सर्व भूतानि वाले वेदवाक्य . पर..हरताल. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेर दी उस समयं जैनियों ने उन हिंसामय यज्ञ यांगादि का उच्छेद करना प्रारंभ किया था वसं तभी से ब्राहाणों के चित्त में .. जनों के प्रति ष बढ़ने लगा, परंतु फिरभी भागवतादि महा पुराणों में रिपमदेव के विषय में गौरव युकं उल्लेख मिल रहा है। अम्ब जाक्ष सरकार एम० ए० वी० एल० लिखित जैन दर्शन जैन धर्म के जैन हितपी भाग-१२ अङ्क ९-१० में छपा है उस में के कुछ वाक्य। (१) यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैन धर्म चौद्ध धर्म की शाखा नहीं है ( महावीर स्वामी जैन धर्म के स्थापक नहीं है उन्होंने केवल प्राचीन धर्म का प्रचार किया है (२) जैन दर्शन में जीव तत्व को जैसी विस्तृत मालोचना है और चैसी किसी भी दर्शन में नहीं है। ... आवश्यक १० वोल । (१.) जैन धर्म आत्मा का निज़ स्वभाव है। और एक मात्र उसी के द्वारा सुख सम्पादन किया जा सका है। (२) सुख मोक्ष में ही है जिसको कि प्राप्त कर के यह अनादि कर्म मल से संसार चतुर्गति में परिभ्रमण करने वाला अंशुद्ध और दुखी अंगत्मा निज परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सदैव आनन्द में मग्न रहा करता है। (३) स्मरण रक्खो कि मोक्ष :मांगने और किसी के देने से नहीं मिलती । उसकी प्राप्ति हमारी पूर्ण वीतरागतो और 'पुरुषार्थ से कर्म मल और उनके कारण नष्ट करने पर ही अवलम्बित है। . (४) स्यावाद सत्यता का स्वरुप है और वस्तु के अनन्त धमों का यथार्थ कथन कर सकता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (५) जैन धर्म ही परमात्मा का उपदेश है क्यों कि वही पूर्वा. पर विरोध और पक्षपात रहित सब जीवों को उनके कल्याण का उपदेश देता है और उसी से परमात्मा की सिद्धि और आप इस संसार में है। . (६) एक मात्र 'ही और. 'मी ही अन्य धर्म और जैन धर्म का भेद है। यदि उन सब के भाव और उपदेश की इयत्ता की 'ही' 'भी' से बदल दी जाय तो उन्हीं सवका समुदाय जैनधर्म हैं। ......(७.) मत समझो कि जैन धर्म किसी समुदाय विशेप , का ही धर्म है या हो. सक्ता हैं । मनुष्यों की तो कहै कौन जीवमात्र.इस को स्वशक्त्यानुसार धारण कर तद्रूप निज कल्याण कर सकता है। . (८) जैनधर्म के समस्त तत्व.और उपदेश वस्तु स्वरूप, प्राक्रतिक नियम, न्यायशास्त्र.शक्यानुष्ठान और विकाश सिद्धान्त के अनुसार होने के कारण सत्य हैं। .....(९) सर्वज्ञ: वीतराग और हितोपदेशक देव , निम्रन्य गुरु और अहिंसा मरूपक शास्त्र ही जीव को यथार्थ उपदेश दे सकते हैं और उन सबके रखने का सौभाग्य एक मात्र जैन धर्म को ही प्राप्त है।.. ... - (१०) समस्त दुःखों से उद्धार करने वाली जैनेन्द्रा दीक्षा ही है। यदि उसकी. शक्ति न हो तो भी वैसा लक्ष्य रख अन्याय और अभक्ष्य का त्याग करके ग्रहस्य मार्ग द्वारा क्रमशः स्वपर कल्याण करते रहना चाहिये। ..॥ समाप्त ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) श्री दिगम्बर जैन धर्म प्रकाशक मंडल देहली ने अजैन विद्वानों की सम्मति संग्रह कर "जैन धर्म का महत्व नामा ट्रेक्ट ता० २८ जनवरी १९२१ को इस प्रकार प्रकाश किया था। जनधमे का महत्व (१) सुप्रसिद्ध श्रीयुत महात्मा शिवबसलालजी वर्मन M, A, " साधू।" सरस्वती भण्डार" " तत्वदर्शी मार्तण्ड । " लक्ष्मीभण्डार" " सन्त" " सन्देश : आदि उर्दू तथा नागरी मासिक पत्रों के सम्पादक “ विचार कल्पदम , "विवेक कल्पद्रुम' 'वेदान्त कल्पद्रुम आदि के रचयिता विष्णएराणादि अनेक ग्रन्थों के अनुवादक. ... इन महात्मा महानभाव द्वारा सम्पादित " साधू" नामक उद मासिकपत्र जनवरी सन १९११ के अङ्क में प्रकाशित "महावीर स्वामी का पवित्र जीवन नामक लेख का सारांश (जो न केवल श्रीमहावीर स्वामी के संबंध में किंत ऐसे सर्व जैन तीर्थकरों, व जैन मुनियों के सम्बन्ध में समझना )। . हिंदुओं में ऐसे लोग कम नजर आयेंगे जो महावीर स्वामी के पाक और..मुकहस नाम से वाकिफ होंगे ।ये जैनियों के आचार्य गुरु धे : पाक दिल, पाक ख्याल, मुजस्सिमपाकी व पाकीलागी थे। . . . .. हिंदुओ! अपने बुजुर्गों की इज्जत करना सीखो, मजहवी इख्तलाफात की वजहूं से उनकी शान में भूलकर भी कल्में नाजेवा इस्तेमाल न करो। जैनो हम से जुदा नहीं हैं। उन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • नादानों की पाती को न सुनो, जो गलती से, गुमराहों से, नादानी और तास्तुर से कहते हैं कि "हायी के पांव के तले दब जाओ, मगर जैन मन्दिर में घुसकर अपनी हिफाजत न करो। इस शास्त्र का कहीं ठिकाना है ? इस तङ्ग दिली को कोई हद भी है ? आखिर इन से तास्सुय क्यों किया जाय ? क्या हुआ अगर इनके किसी ख्याल तुसको मुवाफकत नहीं हैं ? न सहो, कौन सब बातों में सब से मिलता हे १ तुम उन के गुणों को देखो, उनको पाकोजह सूरतों का दर्शन करो, उनके भावों को प्यार की निगाह से नज्जारह देखो 'ये धर्म कर्म को झलकती हुई नूरानो भूते हैं । किनों के कहने सुनने पर न जाओ । जो जैसा हो उसको वैसा ही देखो। यह अहिंसा को परम ज्योतिवाली मूर्तियां हैं, घेदों को श्रुति 'अहिंसा परमो धर्मः'कुछ इन्हों पाक बुजुर्गों की जिंदगी में अमली सूरत अख्तयार करती हुई नजर आती है। ये दुनियां के जबरदस्त रिफार्मर जबरदस्त मोहसिन और बडे ऊचे दर्जे के वाइज और प्रचारक गुजरे हैं, यह हमारी कौमी तवारीख के कीमती रन है। तुम कहां और किन में धर्मात्मा प्राणियों की तलाश करते हो, इन को देखो, इन से बेहतर साहव कमाल तुमको कहां मिलेगे ! इन में त्याग था, इन में पैराग्य था, इन में धर्म का कमाल था, 'ये इंसानी कमजोरी से बहुत ऊचे थे, इनका विताय 'जिना है, जिन्होंने मोह माया को श्रीर मन और काया को जीत लिया था ये तीर्थंकर हैं, ये परमहस है, इनमें तमना नहीं थी। बनावट नहीं थी, जो बात' थी साफ साफ थी। तुम कहते हो कि ये नग्न रहत्ते.थे, इस में ऐच क्या है परम अतनिष्ट, परम ज्ञानी कुदरत के सच्चे पुत्र, इनको पोशिश की जरूरत कर थी ? - मुनो एक मरतवह मुसलमानों का सरमस्त नामी फकीर देहली के गली कूचों में बहना मांदरजात होकर घूम रहा था औरङ्गजेब बादशाह ने देखा तन पोशश के लिये कपडे भेजे. फकीर मजजूब और वली था, कह कहा मारकर हंसा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलम दावात कागज पास था, एक रुवाई लिखी और बादशाह के खिलअत को यों ही वापस कर दिया । सवाई यह थी ? आकस कि तुरा कुलाह सुल्तानी दाद मारा हम ओ अस्वाव परेशानी दाद। . · पोशानीद लवास हर किरा ऐने दीद । वे ऐवेश लिववास यांनी दाद ॥ भावार्थ, जिसने तुमको वादशाही ताज दिया उसी ने हमको परेशानी का सामान दिया जिस किसी में कोई पंग पाया उस को लिदास पहनाया और जिनमें ऐव न पाए उनको नंगपन का लिबास दिया. ..ये लाख रुपये का कलाम है और वह इन जैनी महात्माओं की पाक जिंदगी के हरवहाल है । फकीरों की उरयाली देखकर सुम क्यों नाक भी सकोसो हो ! उनके भावों को क्यों नहीं देखते ! सिद्धांत यह है कि प्रात्माको शारीरिक बंधन से और तालुकात के पोशिश से आजाद करके बिलकुल लंगा कर लिया जाय ताकि इसका निज रूप देखने में आये। वे आत्मज्ञानी थे आत्मा का साक्षात्कार कर चुके थे। यह ऐवक्री नात क्या है ? तुम्हारे लिए ऐव हो, बस इतनी ही पातपर तुम नफरत करते हो और हकीकत को नहीं समझते.. तुमको . क्या कहा जाय तुम ईश्वर कुटी में रहने वालों को अपने ऐसा आदा समझते हो यह तुम्हारी गलती है या नहीं १. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (E ) : .. महावीर स्वामी जैनियों के आखरी व.चौबीसवें तीकर थे। कीम के राजपूत क्षत्रिय, इक्ष्वाकुवंश के भूपण, रघुकुल के रत्न, इनका जहर पार्श्वनाथ से ढाई सौ वर्ष बाद हुआ था.। पैदाईश की जगह क्षेत्रीघंट बताई जाती है. जिसका राजा सिद्धार्थ था। ये उसी के लड़के थे मां का नाम त्रिशला था। और मुवारिक.थे वे मा, याप, जिनके...घर में. यह गोहर वेवहा पैदा हुआ था.। ये सिद्धार्थ के राजा के पारिस होकर नहीं आए थे पलिक ऋषभदेव के धर्म देश के राजा होने के लिए जहर किया था. : इफ्तदाहो से. चिच में तीव्र वैराग्य ,या, साधुओं की सङ्गव से खुश होते थे, योग और शान के';: मसाइलं की गुत्थी खूष मुलझाते, थे.! :: : :, . . . . . . . ... महावीर स्वामी. वली मादरजात थे.। दिलके नरम दयावंत धर्म और क्षमा मिजाज में कूट.२ कर भरी थी । इत्यादि ... (२) श्रीयुत.महा.महोपाध्याय डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूपण,M. A. PE, P..F.I.R.S. सिद्धांत महोदधि मिसपिल संस्कृत कालिज कलकत्ता ने तारीख २७.दिसम्बर सन् :१९१३ को वनारस में व्याख्यान दिया था जिसका सारांश' इस . जैन साधु एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करने के द्वारा 'पूर्ण रीति से' वृत, नियम, और इंद्री संयम का पालन करते हुए जगत के सन्मुख आरम' संयम का एक बड़ा ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करते हैं. एक गृहस्थ, का जीवन भी जो जैनस्व को लिए हुए है इतना अधिक निर्दोप है कि हिंदुस्तान को संसकाभिमान होना चाहिए.... :: .. .. ....: जैन साहित्य ने न केवलं धार्मिक विभाग में किंतु अन्य पिंभागों भी श्राश्चर्य जनक उचंति प्राप्त की है। न्याय और अध्यात्म विद्या के विभाग में इस साहित्य ने बड़े ही चे वि. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) . काश और क्रम को धारण किया न्याय दर्शन जिसे ब्राहाण ऋषि गौतम ने बनाया है अध्यात्म विद्या के रूप में असम्भव हो जातो । यदि जैन और बौद्ध अनुमान चौथी शताब्दि से न्याय का यथार्थ और सत्याकृति में अध्ययन न करते, जिस समय, मैं जैनियों के न्यायावतार, परीक्षा मुख, न्यायप्रदीपिका, आदि कुछ न्याय ग्रंथों और अनुवाद करें रहा था उस समय यथार्थता, सूक्ष्मता, सुनिश्चितता, का सम्पादन जैनियों की विचार पद्धति ओर संक्षिप्तता को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था और मैंने धन्यवाद सहित इस बात को धारण (नोट) किया है कि किस प्रकार से प्राचीन न्यायपद्धति ने जैन नैयायिकों के द्वारा क्रमशः उन्नति लाभ कर वर्तमान रूप धारण किया है, इत्यादि । : (३) फादर अवे० जे० ए० इसाई साहब मैसूर देश में प्रसिद्ध पादरी थे आपने फांसीसी भाषा में भारत के लोगोंका हाल लिखा है "लार्ड बिलयम बेटिङ्क (Lord william Bentinck ) जो हिन्दुस्तान के गवर्नर जनरल (Governor General ) रह चुके हैं उन्होंने भी उस पुस्तक की बहुत प्रशंशा लिखी है इस पुस्तक की भूमिका के अन्त में सम्पादक ने इस मकार लिखा है: Fr. Abbe J. A. Dubois, Christian missionary states in the “Description of the Character, manners and customs, of the people of India. and of their institution, religions and civil” as : following:—. “I have subjoined to the whole an appendix containing a brief account of the Jains, of their doctrines the principal points of their religion and their peculiar customs. # Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) Other writers possessing more information than I do, will hereafter instruct us more fully concerning this interesting sect of Hindus and particularly respecting their religious worship, which probably at one time was that of all Asia from Sibiria to Cap. Comorin, north to south, and from the caspian to the gulf of Kamaschatka, fromwest to East, &c. - श्रर्य-मैं' में एक ( Appendix ) लगाया है, जिस में मैंने जैनियों और उन के मन्तव्य, उन के धर्म की बड़ी २ बातें और विशेष रीति रिवाजों का वर्णन किया है। मुझ से अधिक ज्ञान वाले अन्य लेखक महाशय हिंदुओं की इस लाभदायक जाति और विशेष उनकी धर्म संबंधी पूजा के हाल से हमको आई दा अधिक परिचित करेंगे। यह पूजा किसी समय में श्रवश्व सारे एशिया (Asia ) में अर्थात उत्तर में साईविरिया (Sibiria ) से दक्षिण रास कुमारी ( Cape Comorin ) तक और पश्चिम में कैस्पियन झोल (Irake Caspian ) से लेकर पूर्व में कमस्कटका की खाड़ी ( Gulf of Kamaschatka ) तक फैली हुई थी, इत्यादि । क्या इस से अधिक स्पष्ट और विश्वास योग्य अन्य कोई साक्षी हो सकती है ? . . . ( 8 ) बाबू प्यारेलाल जी साहब जिमीदार, बरोठा । जिन्होंने अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं उन्होंने "हिंदुस्तान कदीम " नाम की उर्दू की पुस्तक लिखी है जिस में आपने जैन धर्म : युरोप ( EUROPE ) में भी फैला हुआ था आदि अनेक लेख लिखे हैं पर कथन बढ़ने के भय से यहां सिर्फ 'अफ्रीका ' ( Africa) में भी जैन धर्म फैला हुआ था इस विषय में संक्षप लेख लिखा जाता है उसके पृ० ४२ पर इस मकार लिखा है: "जिस प्रकार युनान में हमने साबित किया कि, हिंदुस्तान के संमानवाचक (हमनाम) शहर और पर्वत विद्यामान हैं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) · ; इसी प्रकार मिश्र देश में जाने वाले भाई भी अपने प्यारे वतनं ( जन्म भूमि) को नहीं भूले । उन्होंने भी वहीं एक पर्वत का नाम Meroe (सुमेरू ) : रक्खा । दूसरे पर्वत का नाम: Caela (कैलाश) रक्खा 1. एक झील का नाम यहां ( Menza : Lake ) (मनसा) मौजूद है। एक शहर का नाम भी On ग्राम है । एक सुवा (Gurna) गिरनार हैं जिस में मंदिर और मूर्तियां गिरनार जैसी श्रांज तक मिलती है जो अवश्यं वहां के ही लोगों ने बसाया होगा" इत्यादि । ! ... ऊपर जिस गिरनार का वर्णन आया है वह जैनियों का प्रसिद्धः तीर्थ जूनागढ़ के पास काठीयावाड़ में है जहां से. २२ वें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथ स्वामी मोक्ष को पधारे थेः । "आगे चलकर इसी पुस्तक के पृष्ट ४३ पर इस प्रकार लिखा है- " ...."कुछ शहरों पर ही. मोकूफ नहीं क : खालिसः' नाम संस्कृत भाषा को तीर्थंकर जैनी फिरके के पुजारी । ". · :: ( 1 ५ :) पं०.: लेखराम जी आर्य समाजी ने 'रिसाला जेहाद' नामा पुस्तक में पृ० २५ पर एक नकशा उन देशों 'को दिया हुआ है। जिन में मुसलमानों का मतः फैला, उसी नकशे की कैफियत के खाने में देशों के नाम के सामने अन्य धम्मों के नाम भी लिखे हुवे हैं, जो वहां किसी समय में उन देशों में फैले थे, उस में मिश्र (Egypt) और नाटाल Natal South Africa ) देशों के सामने जैनी भी लिखे.. भावार्थ पण्डित जी के लेखानुसार मिश्रः नाटाल आदि देशों में भी जैन धर्म की ध्वजा फहरा रही थी । د ; मिश्र के बहुत से राजाओं हैं, जैसे ! ( Tirtheka ) } ހ " (६) “Oriental” October 1802, page No 23;24) “श्रोरियंटल" पत्र माह श्रोक्कूबर सन १८०२ पृ० २३ घं' २४ परं‘“भारत वर्ष में सर्व से पुरानी इमारत" नामा लेक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) 'में भाजनिया का मिश्र देश से सम्वन्ध लिखा है स्थानाभाव से उस लेख को यहां प्रकाशित नहीं किया गया सो पाठकगण 'क्षमा करें.. ... ... ... .. . इम उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट तौर पर सिद्ध होता है कि जैन धर्म किसी समय में सारे 'एशिया, युरोप, अफ्रीका आदि देशों में भी फैला हुआ था- . अब मैं आप लोगों के सामने कुंछ अजैन ग्रन्थों के प्रमाण रखता हूं सो रुपया ध्यान पूर्वक पक्षपात तजंकर- विचार करें महाभारत के आदि पर्व अध्याय ३ श्लोक २६ में लिखा साध्यामम्तावदि त्युक्त्वा प्रातिष्टतो. तङ्कुस्ते कुण्डलेगृही त्वा सोऽपश्यदथ पाथनग्नं क्षपणकमागच्छन्तमुहुर्मुहुदेश्य मानमदृश्य-मानंच ॥१२६॥ . ..भावार्थ, मैं यत्न से जाऊंगा ऐसा कह कर उत्क ने उन कुएंडलों को लेकर चल दिया उसने रास्ते में नग्न क्षपणका को प्राते हुए देखा-... . .. ... ::: .. अंधत ब्रह्म सिद्धि का. बनाने वाला क्षपणक को जन'साधु, लिखा है देखो.(कलक को छपी हुई पृ० १६७) . “क्षपणका जैन मार्ग सिद्धान्त प्रवर्त का इति । केचित, अर्थः क्षपणक जैनमत के सिद्धांत को 'चलाने वाले कोई होते हैं -'.: ... उपरोक्त कथन सिद्ध करता है कि महा भारत के समय जैन सिद्धांत को चलाने वाले क्षपणक- (जैनसाधू) मौजूद थे.... . मत्स्य पुराण के २४ वें अध्याय में लिखा है कि: गत्वाथ मोहपामास रजिपुत्र न बृहस्पतिः । जिनधर्म समास्थाय बेद वायं सवेदवित् । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 92 ) अर्थ - उनरजि. के. पुत्रा. को भी "बृहस्पति जो ने उनके : पास जाकर मोह्या. भौर श्राज्ञादी, कि तुम सब "जैन धर्म के आसरे हो जाओ" ऐसा कहकर बृहस्पति जो भी वेद के बाहर · " 1.9 मत को चालते भए । ܐܪ पाठको " | जरी " विचार कर देखो श्राप लोगों को मालुम होगा कि वेदों में "बृहस्पति जी की बहुत प्रशंसा लिखी है इस से B 9: यह मतलब निकला कि वेदों के पहिले से बृहस्पति जी है और जैन धर्म, वेद और वृहस्पति जो दोनों से भी पहिले का रहा, जैनधर्म पहिले का हो नहीं वह "बृहस्पति जी जो कि ब्राह्मणों के अति मान्य विद्यासागर गुरु समझे जाते हैं उन्होंने भी "जैन धर्म केसरे हो जाओ" कहा है--: - जैनियों के प्रथम तीर्थंकर श्रोऋषभदेव जिनको "श्रादिनाथ" स्वामी कहते हैं उनके स्मरण करने का कितना महात्म्य लिखा है शिवपुराण में लिखा है कि अष्ट षष्टितीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥ अर्थ: अड़सठ (६) तीयों की यात्रा करने से जितना फल होता है उतना ही फल- श्रीआदिनाथ जी के स्मरण करन पर होता है।.. ܐܝ यजुर्वेद संहिता 'अध्याय ९ वां श्रुति २५ में ऐसा लिखा है कि वाजस्य न प्रसव आवभूवमाच "विश्वा भुवनानि >सर्वतः सनैमिराजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टि - वर्धमानो अस्मै स्वाहाम्मा' -इस अति में श्री नेमनाथ जी की प्रशंसा करते हुए आहुति दी है। आप लोगों को' श्रच्छी तरह मालुम होगा कि जैनियों: केन तीर्थकर का नाम श्री. नेमनाथ जी है.. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) .: हमान नाटक" (चम्पई के लक्ष्मी बैंकटेदवर प्रेस में सम्बत १९५७ में छपा ) उसके पन्ने पर यह श्लोक है। यं शेवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदांतिनो । बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कति नैयायिका ।। अन्नित्यथ जैन शासनरताः कति मीमांसकाः । सोऽयंवो विदधातुबाञ्छित फल त्रैलोक्य नाथ प्रभुः ......... (अ० १ दलोक तीसरा ) . . नोटादिनाथ भगवान का जैन सम्बत इस. पुस्तक के आदि से जानना . . . . . . . . : ht EARS... ... धर्म उसे कहते हैं. जो.वस्तु के स्वभाव को प्रगट करता है यानी वस्तु. स्वभावो धम्मो जो हमारा निज स्वभाव केवलंज्ञान है उसका प्रगट होना जैसे अग्निका स्वभाव उगता इत्यादि। धर्मः जीव के चलने में सहाई होता है जैसे मछली के चलने में जलं सहायक है जोः२ धर्म के विरुद्ध कार्य है उसको..अधर्म कहते हैं, धर्म अधर्म अनादि है। धर्म हमारा निज स्वभाव है इसको सब मानेंगे यानी हमारा यह सर्वमाव है कि .. : (१) इमको कोई न मारे पसं . हमको भी किसी जीव काः यात नहीं करना चाहिये। . . .: (२)हम से कोई झूट नहीं बोले पस हमको भी झूठ नहीं वोलना चाहिये । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. ७६ ). . (३)हमारी कोई चोरी न करे पस हमको भी चोरी नहीं करनी चाहिये । इत्यादि २ ... What's ill to self do it not against others." धर्म स्वभाव आप ही जान । . . . आपस्वभावधर्म सोई जान ।। ... जब वह धर्म प्रगट तोहै.होइ.. तब परमातम पद लख सोई॥ ' अथवा इस बारमा का गुण मनात दर्शन, अनत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत मुख जो है वह घातिया कमी के क्षय करने पर आरम स्वभाव केवल ज्ञानादि प्रकट होता है अथवा उत्तम क्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, संजम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य दश लक्षणं रूप धर्म है .तथा रजत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र) स्वरूप है तथा जीवन की दया रूप धर्म है ऐसे पर्याय बुद्धी शिनि के समझाने के अर्थ थाचार्यों ने धर्म शब्द कु चार प्रकार चरनन किया तोह वस्तु जो आत्मा ताका मात्र ही दश लक्षण है। सामादि दश प्रकार मामा का ही स्वशाय है.। सन्यग्दर्शनशान चारित्र हामा तै भिन्न नहीं दिया है सो हु आत्मा का ही स्वभाव है । यानी "अहिंसा पो धर्म: यह धर्म जीवं . मात्र का धर्म है जो जिनंद्र भगवान करि कहा गया है । धर्म अगदि है. स्वर .व्यञ्जन अनादि हैं। धर्म तोर्णकरा कंघल ज्ञानियों के मुख से प्रगट होता है। जैसे कमल के उत्पन्न होने का स्थान सिर्फ जल . है ऐसा भगवान जिनेंद्र..कार कहा हुआ 'धर्म ऊसको जैन धर्म कहते हैं या सनातन धर्म भी कहते हैं। जो. इस.. धर्म को धारण करता हैं उसे बांनी या प्रावक कहते हैं यदि कोई जैन कुल में उत्पन्न हो, मिथ्यात ओर कुसंगति के प्रसङ्ग से धर्मके विरुद्ध “आचरण. करेया मन. मांनी बान गावे तो सके हटांत से जैन धर्म पर. आतप नहीं. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) हो सकता है के उसूलो बाल्य रल है . . जैन धर्म के उसूलों को पढ़िए अयत्रा उनका मनन करिए तो ज्ञात होगा कि वह अमूल्य रल है । इस बात को सत्य प्रमाणिए कि यदि जैन धर्म में जीव लग जाये तो वह अपने को धन्य समझेगा । बाजार में हम एक धेने की हांडी लेने जाते हैं उसको खूब रंशारा देकर परीक्षा करते हैं कि फूटोन हो, जो पानी भरने पर सब निकल जावे । क्या भाइयों हमको भी धर्म परीक्षा नहीं करना चाहिए ? अवश्य करना चाहिए' यह हमारे परमव का सुधार करने वाला और सार वस्तु है। हांडी जो,असार उसकी जांचकरें और सार वस्तु"धर्म"को जांच न करें। इसका न्याय करना हर स्त्री पुरुपःका परम कर्तव्य होना चाहिए । पस इन चार रत्नों (देव गुरुं धर्म ,शास्त्र) का हर एक को. परखना उचित है प्रमादी नहीं रहना, यथावर धर्म वही जव धारण कर सक्ता है जो प्रमादी (आलसी) न हो और विनयवान हों। विनय से विशेष गुण प्रहण होते हैं जैसे एक बरतन में कड़ी कड़ी सूखीकोपले भरिए.और उस. ही वन में हरी नरम नरम कोपलें उसी जाति की भरिए तो यह स्पष्ठ ज्ञात होगा कि हरी हरी कोपलों की तादाद लकड़ी से कई गुनी जादा होगी। इसी तरह विनयवान जीव के हृदय में यह जैन धर्म .प्रवेश करता है धर्म का मूल ही "विनय". है, विनय पांच प्रकार का है। दर्शन. विनय-आत्मा और पर का भेद जानना, सम्यगदर्शन के धारक.में प्रीति करना । ज्ञान विनय-ज्ञान का आदर करना बहुत आदर ते पढ़ना ज्ञानी जन और पुस्तक का बड़ा लाभ मानना। चारित्र विनय--अपनी शक्ति प्रमाण चारित्र धारण में हर्ष करना, दिन २ चारित्र की उंज्जलता के अर्थि विषय कषायनि को घटावना तथा चारित्र के धारकान के गुणनि में अनुराग स्तवन आदर करना सो.चारित्र विनय है । . . . . ... . । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप विनय-इच्छा कू रोक मिले हुए विपयन में संतोप कर . ध्यान स्वाध्याय में लगना और अनशनादि कर'.. .. : ना काम के जीतने को, सो तप विनय है। . उपचार विनय-पंच परमेष्टी का हर तरह विनय सो उपचार विनय है । इस के दो भेदं हैं प्रत्यक्ष विनय यानी पच परमेष्टी के सन्मुख विनय करना और "परोक्ष : विनया यानी पंच परमेष्टी का चितवन . . . करना । . . . . . . . - विनय वादी के ३२ भेद होते है यानी:मन वचन काय और दान । इन चार से पाठ का विनय करना । यानी-माता, पिता, देव, नृप , जाति, वाल, बृद्ध, और तपस्वी। . . । ग़ज़ल ।। . धर्म वो चीज हैं भाई कि जिसकी शक्ति न्यारी है । रोग और सोग भी टारे यह उस में. सिक्त भारी है .... अंरोगी 'हो गएं कुष्टी दरिद्री धन को धारे है। अग्नि जल डर जहां होवे धर्म वा मदद गारी है ।। शूली से सेठ को तारा, किया श्रीपाल दधिपारा । अग्नि में फूल कर दीने जहां 'सीता' विठारी है ॥ वो कपटी चोर अंजनंसा भी पहुँचाया' मुकतिपुर में। मिली., जंगल में लछमन राम को सेना जो मारी है। जंगत. के. देव गुरु देखे किसी के संग नारी है । कोई क्रोधी : कोई. लोभी नाम "ब्रह्मा मुरारी है धर्म सब जगत में माने नहीं जाने हैं गुण उसका । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७. ) धरम वो सारथी इंगाकि जिसकी मुक्त नारी है । सेवक तुम हो गए रख .जो अबतक धर्म ना जाना । 'घरम हिंसा में गहकर तैने अपनी गति विगारी है। ... .:. : .. || दाप मालिका ... प्रिय बंधु वर्गों ! २४ ३तीशंकर श्री महावीर स्वामी का धर्म चक्र चल रहा है, वे कार्तिक पण अमावस्या के सूर्य निकलने से पहले . मोन पवारे थे यानी सिद्ध होगा, उसी समय उनके गणधर श्री गौतम -श्यामों को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था चूकि केवल-शान होने पर कुछ रात्रि चाको थी, - देवों ने रत्नों के दीपक जलाए और मनुष्यों ने घी कपुरादि के। सवने कंदल शान और मोक्ष लक्ष्मी का पूजन किया इस यादगार में दीपमालिंका (दिवाली) सब दूर मनाया जाने लगा मगर कुछ काल पश्चात काल दोष से लक्ष्मी देवीको कल्पना होगई । वहुतसे तो यह विचार करते हैं कि लक्ष्मी देवी रात्रि में घर २ आती है सो उसके आगमन के लिये बड़ी तय्यारी करते हैं ताकि वह प्रसन्न होकर द्रव्य का वास गृह में कर देवे।. : :.. : :: . . . • दक्षण प्रांत, गुजरात प्रांत में तो पंचागों में भी इस दीपावली से नया वर्ष प्रारम्भ होता है । प्रायः सब जगह नई वाहियां इसी दिन से बदलते हैं । महावीर स्वामी श्री पावापुर जी सिद्ध क्षेत्र से निर्माण हुए थे । डाकनाना गिरियक जिन्ना . पटना वंगाल है । वह स्थान बड़ा सुन्दर है जो श्रानन्द यहां जाने पर प्राप्त होता है उसे केवली भगवान ही जानते हैं। हमारी वन्दना बारम्बार होवे। इस पवित्र दिन में उत्तम कार्य पूजा दान धर्मादि करने चाहिये। जूना आदि पापारम्म रोकना चाहिए । रुपयां इस पवित्र त्योहार को दिवालिया त्योहार न. धनावें। "जू समान इहलोक में, आन अनीत न पेखिये । ..: इस विसनराय के खेलको, कौतुक हु नाह देखिये ।। . -:. . . . जैनियों को अंपनी २ पहियों पर विक्रम सम्वत क .. साय महापौर सम्बत जो. अंव २४५२ कार्तिक शुक्ला १ से शुरु हुधा डालना चाहिये। उसके.साय २ श्री रिषम संवत ७ अंक का भी लिखना.चाहिये.यानी इस प्रकार: Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परमात्मने नमः | ( o ) W ॥ ॐ ॥ नमः सिद्धेभ्यः । 1 श्री वीतरागायनमः । श्री "जिमयनमः ॥ श्री ऋषभदेवाय नमः * * * श्री. महावीरायनमः । ४१३४५२६३०२०८२०३१७७७४९५१२१९१९९९९९९९९९९९९९९९९९ ९९९९९९९९९६०४५२. श्री ऋषभ निर्वाण सं० ७६ अङ्क प्रमाण श्री महाबीर निर्वाणा सं० २४५२ · यों तो धर्म थोढा बहुत सभी साधन करते हैं परन्तु यथावत धर्म क्षत्री बीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं । जिनका ममत्वं 'कनक कामिनी में जादा है. वे प्रायः कम धारण कर सकते हैं इस लिये लोभ और काम को जीतना योग्य है. 1 · . हमको मान कषाय के वस कोई धर्म विरुद्ध विपय या अनुचित कथन नहीं पोषना चाहिये । जन धर्म का उसूल आत्मा को निरमैल करना है। जिनेन्द्र भगवान की पूष का अचित्य फल हैं परंतु हमारी क्रिया वाज वक्त ठीक नहीं वनती इससे लौकिक · :: भी. उच्च प्रतिष्ठा प्रगट नहीं होती है। हम में से बहुतों ने तो मन्दिर की स्नान स्थान Bath: room समझ लिया है 'मंदिर जी में तेलादि' लगाकर गए स्नान किया दर्शन कीया या किसी पुजारी से अर्धले चढ़ा घर वापिस आगए सो ऐसे भाइयों से प्रार्थना है कि सब कार्यों का नफा नुकसान सोचना चाहिए। पुण्य का संचय जादा करना चाहिए । भावों को मंदिर में स्थिर रखना चाहिए । कई मतमतांतर के भेद स े हम जैन धर्म को तरापथ कहते हैं । जैनी पूजा करने से पहिले श्रहन्त भगवान की स्थापना कर लेते हैं क्योंकि वे निर्दोष देव को पूजते हैं। धर्म में प्रत्यक्ष और परोक्ष, कथन से दो भेद हैं. प्रत्यक्ष कथन को कसौटी पर परख लीजिये। और परोक्ष को अनुमान से। जो केवल ज्ञान द्वारा कहा हुआ है मानले । जैसेहम यह जानेकि - आप अपने निज कार्य में झूठ नहीं बोलते हैं तो यह स्वयं न्याय से सिद्ध है कि आप दूसरे के कार्य में झूठ नहीं बोलते हैं। पंस आपके बचनः सत्य प्रमाण हैं इसी तरह धर्म के शास्त्र की चरचा जाननी यानी प्रत्यक्ष ठीक है तो परोक्ष स्वयं ठीक है। · * Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . बतों का स्वरूप न .. मुनि के महाव्रत सकल व्रत होते हैं और श्रावक के १२ व्रत होते हैं यांनी:-- ५ अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, परस्त्री त्याग, चोरी त्याग परिग्रहं प्रमाण) ३ गुण व्रत (दिग व्रत, देश प्रत, अनर्थ दंड त्याग) .. ४ शिक्षा व्रत (सामायक मोषधोपवास, अतिथि संविमांग यानी वैयाव्रत, भोगोपभोग परिमाण) .. इनका पूरा २ वर्णन जैन शास्त्रों से जानना । :: श्री. गोमहसार कर्म कांड छटे अधिकार में ८०२ वें श्लोक में कहा है। ..., . अर्हत्सिद्ध चैत्यतपः श्रुतगुरु धर्म संघ प्रत्यनाकः । - बन्नाति दर्शन मोह मनंत सांसारि को येन ॥ .. अर्थ- जो जीव अरहंत सिद्ध प्रतिमा, तपश्चरण निर्दोष .शास्त्र निग्रेथ गुरु वीत राग प्रणीत धर्म और मुनि श्रादि का समूहरूप संघ-इनसे प्रतिकूल हो अर्थात इनके स्वरूप से विपरीति का ग्रहण कर वह दर्शन मोह को बांधता है कि जिसके उदय से वह अनन्त संसार में भटकता है Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ RECTRE m ail चार आराधना स्वरूप ...... | लिख्यते ॥ : . . .. ............ ॥ दोहा ॥.. :: .. · नष्ट किये रागादि जिनं. तिन पद हिरदय धार । -रूप चार आराधना; कहूं स्वपर. हितकारः ।।..१॥ . .जोगीरासा-सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप चार अराधन जैहैं। भव सागर से. भव्य जीवन कू निश्चै पार करे है।। इन संक्षेप स्वरूप, बखानूं सुनकर कर संरधाना । फिर इनके अनुसार चलों भव्य जो पाओ. शिवथाना.।।.२ ॥ सांचें देव मुश्चत सांचे गुरुकी दृढ़ श्रिद्धा धारो । ताही को जिन आगम मांही सम्यग्दर्श संचारों ॥ हित उपदेशी....बीतरागः संवा . देव. : सांचें. हैं । तत्व स्वरूप यथारथ भी सोई.श्रुत. .भाले हैं। .. विषय आश:आरंभ परिग्रह. जिनके बिलकुल नाही। ज्ञान ध्यान तप लीन रहैं सतगुरु से जानो भाई ॥ संशय विपरिय अनध्यवसायजु विन वत्वन को. जाने। साही को आगम के हावा सम्यग्ज्ञानी मानें ॥ १ ॥ जीव, अजीव करम का आश्रय बंध अरु संवर भाई । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ). निर्जर मोक्ष तत्व ये सातों सार जगत . के माई ॥ 'दर्शनं ज्ञान मई मुजीव विन जीव पंच विधि जानो । पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश काल युत मानो ॥५॥ शुभ - अरु अशुभ त्रियोग जानिये काश्रव दुख दाता। जीव साथ संबंध कर्म हो सोही बंध कहाता ॥ समदंमादि -करं कर्म रोकना संवर जानो सोई ।, क्रमवती कमाँ का झरना सोई निरजर होई ॥ ६ ॥ सकल कर्म का एक साथ कर देय नाश जो ज्ञाता । ताकू मोक्ष कहत श्रुत पारंग:मुख अनन्त को दाता ।। अब चारित 'आराधन वरतूं तेरह भेद कहाई । पांच महाव्रत पांच समिति हैं तीन गुप्ति युत भाई ॥७॥ दया कायं छहों की पाले सोय हंसा व्रत है। सत्य महा व्रत द्नो जानो सत्य बोलते नित है । बिन दीये नहिं लेवें कुछ भी सो अचोर्य व्रत जानो । माता भगनी सम तिय समझ ब्रह्मचर्य सो मानो॥८॥ चंसुर बाँस विधि परिग्रह में से रन खिल तुप भर है। परिगृह त्याग महाव्रत पंचम अब पंच समिति उचर है। जीव रहित मथवी को लखिकर चलै समिति ईया है । . संशय रहित बचन प्रिय वोलें भापा समिति क्रिया है ॥९॥ एक बार निरदीप अशन लै समिति एपणा जानो। धरै उठामें : देख यही आदान निक्षेपण मानो । अस स्थावर जीवों को पीडा नहि - होचे जासे । पै मला मूत्रादि जहांही समिति क्षेपण खासे ॥१०॥ ।। करै निरोध मन् वचन काया भले मकार सज्ञानी । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ४ ) बाही . त्रिय गुप्ति जानिये अव तप करूं वखानी ॥ अनशन ऊनोदर 'श्रत संख्या रंस परित्याग करें हैं। विविक्त शयनं काय क्लेश तप बाह्य छै उचरें हैं।। ११ । भायश्चित्त "विनय. वैयां व्रत स्वाध्याय व्युतसगै । ध्यान सहित छै अभ्यन्तर तप दाता सुख अप वर्ग।। . इन्द्रियादि मद नाशन भोजन त्यागे अनशन होई । अथवा न्यून भरै उर अपनो ऊनोदर तप सोई ॥ १२ ॥ . भोजन करूं नियम ऐसे सें ब्रा संख्या यह जानो। . दुग्धादिक रस के त्यागन को रस परित्याग.मुमानो।। शयन बैठना करै इकन्तं विविक्त शयनं योहै । देह नेह सज करें: विकट तपकायः क्लेश कहा है।।१३।। दोष दूर कू दंड य गुरु से प्रायश्चित मानो । गुण गुणियों का आदर करना सो तप विनय वखानो। पूज्य जनों की सेवा करना सो तप वैया व्रत है। • सामाभ्यास जु करें कराऐं सो स्वाध्याय मुतपहै ॥ १४॥ . वाह्य अभ्यन्तर संग तजे व्युत सर्ग सुतप बरनाई । चित्त करै एकान्त ध्यान. यह द्वादश तप मुख दाई ।। या प्रकार व्यवहार अराधन कहीं तनक मैं ' भाई । अप स्वरूप निश्चय का भाताहिमुनो मनलाई॥१५॥ गुणं अनंत को धाम निजातम सबसे भिन्न निराला । ऐसी द्रढ श्रद्धा है जाके सो सम्यक्ती आला ॥ अजर, अमर अविनाशी निरभय मुख आदिक गुणधामी! . जानें: यों निज प्रातम कू सी सम्यग्ज्ञानी नामी॥१६॥ : निज प्रातम के गुण समूह में होवै निश्चल, लीना [ . ताही को सम्यक चारित्री कहते हैं परवीना । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - होय अनंती इच्छा मन में तिन्हें हर्ष युत रोके । सोई सम्यक तपका धारी सो शिव सुख भव लोक ॥१७॥ निश्चय आराधन का भाई स्वरूप यह तुम जानो । दोउन को.उर भीतर घर के. करिये निज कल्यानो ॥ इन दोउन के धारे विन नहिं होगा तुम निस्तारा । भव सागरमें भवि जीवन कू इनका एक सहारा॥१८॥ यह सन्सार असार .यामें सार कंछु नाहि दिर्खाई . । मात पिता मुत.तिय वैभव संब देखत देख नसाई ॥ रक्षा करै: मरन से तुमरी ऐसो नाहिं दिखावै । विना बात निज रक्षा कारन क्यों पर कू अपनाये। १९ ।। अनंत काल से या जगमाही दुख ही दुख तुम भोगे । • यह जग सर्वदुखही का घर है'या तज मुख पाओगे । “रें मले जो कर्म किये हैं : नुमने या जग माही । तिनके फल तुम इकले भोगोऔर मोगता नाहीं ॥२०॥ देहं जीवं जब जुदं २ हैं तुमरे सुन ये मैया । फिर क्यों कर हों एक · तुम्हारे पुत्र पितादिक मैया ॥ घृणित वस्तु की देह बनी है यामें शुच कछु नाही । 'याते यासं प्रेम तजौ अव समझ सोच मनमाही॥२१ मन वच काय त्रियोग चले ते होय करम का आना । याहि तजो तुम मेरे भाई ये दुख देवै नाना ॥ जैसै वनै तिसी विधि आश्रव रोको मेरे भाई । याही के रोकन में अपनी जानो खूप भलाई ॥ २२ ॥ अपने आप करम जो कर नित सो काज न सर है। बत पूर्वक तम कर्म खिपात्रो जो पाओ शिव घर है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक तुंग चौदह राजू है या मैं फिरा अपारा । समता धारे विन सब थानकं दुखही दुक्ख निहारा ।।२३ इन्द्र नरेन्दादिक की पदवी मिलना दुरलभ नाही । सम्यग्ज्ञान पावना दुरलम कह्यो श्रुतों के माही । सोलह कारण • तुम जानो.सर्व मुक्खकी दाता । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन त्रय धर्म जानिय भ्राता ॥२४॥ दया मई है धर्म धर्म दश विधि भी किया घखाना । वस्तु स्वभाव.धर्म कहते हैं अर्थ सवन इंक जाना ना मोह भाव कू त्याग धर्म • पालो मेरे भाई । जासें शिव नगरी के राजा हो वो यहां से जाई ॥२५॥ नर भव पाय काज यह करना चूकै सोय गमारा । . रिर यह समय कठिन है मिलना श्रीगुरु येम उचारा॥ . · आराधनं पाराघोभाई जबतक दुम में दम है। 5. पद्मावतिकी मूल सुधारो हाथ जोर वह नमि है ॥२६॥ ... ॥दोहा॥ ....... दर्शन झान चरित्र तप, हैं सब सुख दातार । ये ममघट मन्दिर वसो, करके निश्चल प्यार ॥२७ ॥ इति।।... चार धाराधना स्वरूप शुभम् . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( s ), राजा मधु ने समाधि मरण व मुनि अवस्था धारण की ताका. कथन तथा सप्त ऋपियों का चैत्यालय. विषय उपदेश श्री-पद्मपुराण ( जैन रामायण) से संक्षिप्त उधृत-. श्री पद्मपुराण पर्व (८३) नवासी ......... प्रारम्भ-सक्षेप से। . - जय श्रीरामचंद्र जो लक्षमण जी का तथा उनको रानियाँ सोता और विसल्या का अजोध्या में राज्याभिषेक हो चुका। तब महाप्रीति से भाई शत्रुधन से कहते भएं कि जो देश तुम्हें ६. सोलेबो। तव शंघन ने मथुप मांगी। तव राम बोले कि वहां राजा मधु का राज्य है और यह रावण को जमाई है अनेक युद्धों का जीतन हारा -उसको चमरेन्द्र ने. त्रिशूल रंल दिया है वह हरवंशियों में सूर्य संमान है उसका पुत्र लवणार्णव नाम का है दोनों महाशुरवीर हैं इस लिए मथुरा टार और राज्य लेवों । तव शत्रुघन ने न मानी और कहा कि मैं दशरय का पुत्र नहीं जो मधु राजा को न जीत् । इत्यादिः. और मयुरा को रवाना हुआ। तय राम बोले कि जर राजा मधु के हाथ प्रशूल. रल न होवे उस समय युद्धकरियो। मथुन नगरी के यमुना तट पर ढेरे जा लगाए 'और मालुम हुआ 'कि राजा मधु रानियों सहित वन क्रीड़ा करे है आज छटा दिन है संघ राज काज तुज प्रमाद के घश भया है विषयों के बंधन में पड़ा है। मंत्रियों ने विद्युत समझाया सो काहू की बात धारे नहीं । जैसे मृढ़ रोंगी वैद्य की औषधि न धारे । सो राजा शत्रुधन बलवान योदामों के सहित अर्ध रात्रि के समय सर्व लोकं प्रमादों थे और नगरी राना रहित थो। सो मथुरा में प्रवेश करता भया और वंदो जनों के शब्द होते भए कि पिना गरथ का पुत्र शत्रुधन जयवंत होवे । यह इन लोगों को Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा दुख हुआ । तब उनको धीर बंधाया कि यह राम राज्य है किसी को दुख नहीं होगा। शंघन नगर में जाय घेठा जैसे योगी कर्म नाश कर सिद्ध पुरी में प्रवेश करे। तब राजा मधु.धन से महा कोप कर, आया. परन्तु शत्रुधन के भटों की रक्षा द्वारा .नगर में प्रवेश न कर सका जैसे मुनि के हृदय में मोह प्रवेश न कर सके और त्रिशूल से भी रहित होगया तथापि महा अभिमानी मधु ने संधि न करी और बुद्ध की को, उधमो दुमा । तब दोनों तरफ की सैनामों में युर होने लगा। .शत्रुधन के सैंना पति प्रतियक ने मा के पुत्र लवणार्णव को बायों से पक्षस्थत को लेदा सो, पृथ्वी पर माय पड़ा. और प्राणांत भयो तप पुत्र को देख राजा मधु तांतवक पर दौडा. सो शत्रुधन में ऐसे रोका जैसे नदी का प्रभाव पर्वत से रुके है । तब शत्रुधन के सामने कोई न ठहर सका नैसे जिन शासन के परिडतं स्यादवादी तिन के सन्मुल एकांतवादी न ठहर. सके। तैसे राजी शत्रुधनने मधु का धमतर भेदी जैसे अपने घर कोई पाहुना आवे और उसको भले मनुष्य भली भांति पाहुनगति करें तैसे शत्रधन ने शो कर उसकी पाहुणगति करता,भया अयानंतर राजा मधु, महा विवेकी शत्रुधन को दुर्जयजाम आपको त्रिशूल मायुध से रहित जान पुत्र की मृत्यु देश मौरभपनी माय भी अल्प जान, मुनियों के बचन चितारता भवा महो लगत, का, समस्त ही आरम्म महा हिंसा रूप दुमका देन हारा सर्वया स्याल्य है। यह:चण भंगुर संसार का चारित्र उस में मूढ जन राचे इस विषे धर्म ही प्रशंसा योग्य है और अंधर्म का कारण अशुभ कर्म प्रशंसा.योग्य नहीं महा निय यह पाप कर्म नरक निगोद का कारण है जो दुर्लभ मनुष्य देह को पाय धर्म विष बुद्धि नहीं धरे. हैं सो प्राणी मोर कर्म कर ठगाया अनन्त भव भमण करें है मैं पापों में संसार असार-को- सार जाना, क्षण भंगुर शरीर . 'को भ्र-व जाना, आत्म हित.न. किवा, प्रमाद बिषे मवरता, रोग . १. समान ये.द्रियों के भोग भले जान भोगे, जब मैं स्वाधीन था तवमुके घधि न आई, भयं अन्त काल माया अब क्या करू, घर को आग लगी उस समय तलाब खुदवाना कोन अर्थऔर सर्प ने डसा उसं समय देशांतर से.मन्याधीमतुलषांना और ... . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर देश से मणि औषको गवाना कौन भर्य इस लिए अब चिंता ता निराकुल होय अपना मन समाधान में लाई यह विचार वह धीर वीर राजा मधु घाव कर पूर्ण .. हाथी चढ़ा ही, भाव मुनि होता भया, अरहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधुओं को मन बधन काय कर बारम्बार नमस्कार कर और भरहन्त सि साधु तथा केयली प्रणीत धर्म यही पङ्गल है यही उत्तम है इनहीं का मेरे शरण है अढाई द्वीप विप पन्द्रह फर्म भूमि तिन विये भगवान अरहन्त देष होय हैं वे लोक्य नाथ मेरे हृदय में. तिष्टो में बारम्बार नमस्कार का हूँ अब मैं पावजीष सर्व पाए योग तजे, चारों माहार तजे, जे पूर्व पाए उपा घे तिन को निंदा करूं हूं और सकल वास्तु का प्रत्याख्यान. कर, मनादि काल से इस संसार वन में जो, कर्म उपार्जे घे मेरे दुसहत मिथ्या होवो। भावार्य मुझे फल मत देवें । भर में तत्वज्ञान में तिष्ठा तमवे योग्य जो रागादिक तिम को तो और लेयवे योग्य जो निज भाव तिनको लेऊ । छान दर्शन मेरे स्वाभाव हो है सो मोसे भमेय है और में रोगदिक समस्त पर पदार्थ कर्म के संयोग कर उपजे के मोसे न्यारे है देह त्याग के समय, संसारो लोक भूमिका तया तण का सायरा करे हैं सो सायरा नहीं यह जीव हो पापं युधि रहित. होय, तव अपना आप हो साथत है ऐसा विचार कर राजा मधु ने दोनों प्रकार के परिग्रह भावों से तजे और हाथी की पीठ पर बैठा है। सिर के केशलोंच करता मया, शरीर धावों कर Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) . अति व्याप्त है तथापि महा दुर्धरवीर्य को धर कर अध्यात्म योग में आरुढ होय काया का ममत्व तजता भया, विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, तव शत्रुघन मधु की परमः शान्त दशा देख नमस्कार करता. भैया और कहता भया हे साधों ! मो अपराधी का अपराध क्षमा करो, देवों की अप्सरा. मधू का सं-: ग्राम देखने को आई थीं आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा करती भई, मधू का वीर रस और शांत रस देख देव भी आशचर्य को प्राप्त भए फिर मधू महा धीर एक क्षण मात्र में मसाधि" मरण कर महा सुख के सागर में तीजे सन्तकुमार स्वर्ग में उत्कृष्ट देव भया और शत्रुघन मधु की स्तुति करता महा विवेकी ( मधुपुरी ) मथुरा में प्रवेश करता भया । गौतम स्वामी राजा भ ेशिक से कहे हैं कि प्राणियों के इस संसार में कर्मों के प्रसङ्ग कर नाना अवस्था होय है इस लिए उत्तमजम सदा शुभ. 'कर्म तज कर शुभ कर्म करो जिस के प्रभाव कर सूर्य समान कांत - को प्राप्त क्षेत्रे धर्म द्वारा शत्रु भी क्षण में नर सुख द्वारा पूज्य होवे है सोई सार जो धर्म ताहि: पहण करों।. . r · ॥ इतिः नृवासीव पर्व पूर्ण भया । ह Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) *MEEEEEEEEEKERMERCE RECH सप्त ऋषि उपदेश REPE NEEEEEEEEEEEEEEN . 'भागें पर्व ९० में चमरेन्द्र जिसने- राजा मधू को त्रिशूल रत्न दिया था पाताल से आकर मथुरा नगरी पर कोप किया और मरी फैली। ... .. . . .. पर्व ९१ - राजा 'शत्रुधन अयोध्या गया और जिनेन्द्र मांगन के बूता रचाई. इत्यादि । . पर्व ९२ में आकाश में गमन करण हारे सप्त चारण ऋषि . निग्रंथ मनीन्द्र मथुरापुरी आऐ जिनके नाम मुरमन्यु, श्रीमन्यु श्री: निश्चय, सर्व सुन्दर, जयवान, विनयलाल सनयमिन, सो यह चातुर्मासिक में मथुरा के वन में वट के वृक्ष तले आयः विराजे सो मथुरा में चमरेन्द्र द्वारा जो मंग फैजी थी। इन संसपियों के प्रभाव कर नष्ट होगई थे चारण मुनि श्रुति केवली आकाश मार्ग होय कभी पौदनापुर कभी विजयपुर कमी अजोध्या पारणा को आवें । अहंदत सेठ अजोध्या ने विचारों कि चातुर्मास में मुनि गमेन न करें यह ऋपि पहले देखे नहीं कहां से आये ये . जिन मार्ग विरुद्ध गमन करते हैं सो आहार न दिया उठ गया । तब उसकी पुत्र वधू ने आहार दिया । वे मुनि श्राद्दार लय भगवान के चैत्यालय में Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... ( ) भाये, जहाँ यति भट्टारक (प्राचार्य ) विराजते थे ये सप्तऋषिः ऋद्धि के प्रभाव कर धरती से चार अंगुल अलिप्त. चले आये .. और चैत्यालय में धरती पर पगं.धरते .श्राए--आचार्य उठ. . खडें भयें उन्होंने और उनके शिष्यों ने नमस्कार किया . किर वे वंदना कर आकाश मार्गसे मथुरा गये । इनके पीछे अहंदस सेठ चैत्यालय में आया और ऋषियों का सर्व वृतान्त जान महा खेद खिन्न . भया । और कहने लगा । जौं लग उनका दर्शन न करूं तौं लग मेरे मन का दाह. न . ". . . कार्तिक की पूनौ नजीक: जान सेठ अहंदत. महा सम्यकः दृष्टि नृप सुल्य विभूत अजोध्या से मथुरा को सर्व कुटुम्ब संहितं , सप्त ऋषि · के पूजन · निमित्त चला । जाना है मुनों का महात्म जिसने-कार्तिक सुदी सप्तमी के दिन मुनों के चरणों में जाय पहुंचा। वह उत्तम समझ का. धारक विधि पूर्वक मनि वन्दना कर मथुरा में अति शोना कावसा भया यह सुन राजा शत्रुधन मय अपनी माता सुममा के शीघ्र प्रामुनियों को नमस्कार कर इस प्रकार कहता भया ... हे . देव आपके आये इस नगर से. मरी गई. रोग गए दुषित गया सर्व विघ्न · गएं सुमित भया सब. साता भई मज़ा के दुख गए सर्व समृद्धि भई जैसे सूर्य के उदय से कमलनी फूले। कोई दिन आप यहां ही तिष्ठो। तब मुनि कहते भर, हे शत्रुबन जिनं आज्ञा सिाय अधिक रहना उचित नहीं श्रह चनुर्य काल धर्म के उद्योग का कारण है इस में अनिन्द्र का धर्म भा जीव धारे हैं जिन :आज्ञा. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( . ) मुनियों के केवल ज्ञान प्रकट होयं है। मुनि सुव्रतनाथको मुक्त भए । अब नाम, नेमि, पार्श्व, महावीर, चार तीर्थकर और होवेंमे । फिर पंचमकाल जिसे दुखमा काल कहिये सो धर्म श्री न्यूनता रूप मवरतेगा । उस समय पाखंडी जीवों कर . जिन शासन अति ऊंचा है तो भी आबादित होयगा । जैसे रजकर सूर्य का भिम् श्रादित होय । पाखंडी निरदई दया धर्म को लोपकर हिंसा का मार्ग प्रवर्तन करेंगे उस - समय मसान समान ग्राम और मेत संमान लोक कुचेष्टा के करण हारे होवेंगे महा कुधर्म में प्रवीण कर चोर पाखंडी दृष्ट जीव तिनकर पृथ्वी पीडित होयगी किसान दुखी होषेंगे मजा निरधन होयगी महा हिंसक जीव परजीवों के घातक होवेंगे निरन्तर हिंसाकी वैदवारी होयगी पुत्र, मात्रा पिता की श्राज्ञा से विमुख होवेंगे और माता पिता भी स्नेह रहित होयेंगे इत्यादि: · . • - हे शत्रुघन कलिकाल में कपास की बहुलता होवेगी और अतिशय समस्त विलय जायेंगें चारणमुनि देव विद्याध का आवना न होयता अशांनी लोक नग्न मुद्रा के धारक मुनियों को 'देख निंदा करेंगे मलिन चित्तं मूढं जन अयोग्य को योग्य जानेंगे जैसे पतनं दीपक की शिक्षा में पड़े तैसे अज्ञानी पाग . पंथ में पड़ दुर्गति के दुख भोगेंगे और अ महाशांत स्वभाव, तिन को दुष्ट निंदा करेंगे, विषयी जीवों को भक्ति कर पूजेंगे दोन अनाथ जीवों को दया भाव कर कोई न देखेगा | इत्यादि * कोई मुनियों की अवज्ञा करें है सो मलयागिरि चंदन को तंज कर कंटक वृक्ष को अङ्गीकार करे है ऐसा जानकर हे वत्स तूं दान पूजा कर जन्म कृतार्थ कर । गृहस्थी को दान पूजा ही कल्वाणकारी है और समस्त में तत्पर होवो | दया पालो सामनों से मथुरा के लोक धर्म वासल्य धारो | , · Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) • - - . जिन शासन की प्रभावना करो घर घर जिन विच यांत्री, पक्ष अभिषेक की प्रवृत्ति करो जिस करि सब शांति हो. जो जिन धर्म का आराधन न करेगा और जिसके घर में जिन पूजन होगी दान न होगा उसे आपदा पोडेंगी जैसे भृंग को व्यांची भखे तैसे धर्म रहित को मरी भखेगी। अंगुठ प्रमागा भी जिनेंद्र की प्रतिमा जिसके विराजेगी उस के घर में से मरा भांजेगा जैसे गरुड़ के भय ग नागिनी भागे ये वचन मुनियों सुन शत्रुघन ने कही हे प्रभो जो थाप यांशा करी त्योही लोक धर्म में पवतेंगे। अथवर मुनि आकाश मार्ग विहार कर अनेक निर्वाण भूमि बंद कर - सीताजी के घर शाहार को थाए सो विधि - पूर्वक पारणा करावती भई, मुनि श्राहार नेय आकाश के मार्ग - बिहार कर गए और शत्रुधन में नगरी के बाहिर और भीतर अनेक जिन मन्दिर कराए घर घर जिन प्रतिमा पधराई नगदी सर्व उपद्रव रहित भई वन उपवन फल पुष्पादिक कर शोभित भए, वापिका सरोवरी कमलो करि मंडित सोहती भई पक्षी श करते भएकैलाश के त 'समान उज्वल मंदिर नेत्रों को श्रानन्दकारी विमान तुल्य सोहने भए और सर्व किसागा लोक संपदा कर भर सुख सो निवास करते भए गिरि के शिनर समान उ चै अनाजों के ढेर गावों में सोहने भए स्वर्ण रत्नादिक को पृथ्वी में विस्तीर्णता होती भई सकल लोक सुखी राम के राज्य में दे . समान अतुलं विभूति के धारक धर्म अर्थ काम विषे तत्पर होते भए - शत्रुघन मथुरा में राज्य करें राम के प्रताप से श्रनेक राजाओं पर श्राशा करता सोहे । इस भांति मधुरापुरी का ऋद्धि के धारी मुनियों के प्रताप कर उपद्रव दूर होता भया । जो यह अध्याय यांचे सुने सो पुरुष शुभ नाम शुभ गोत्र शुभ साता बेदनी का बंध करे जो साधुओं की भक्ति विषे अनुरागी होय और : साधुओं का समागम 'चाहे वह मन चांछित फल को प्राप्त होय इन साधुओं के सङ्ग पायकरं धर्म को भागध कर प्राणी सूर्य से भी अधिक दीति को प्राप्त 4 होवें हैं ।.. d :h · ॥ इति वानवेंवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिय: सज्जनो, पंडितों ! इस प्रकार शाजा धर्म की चरचा मुन यथावत श्रृद्धान करेंगे । इस कथन में जिन पिम्म घर२ थापने का प्रसंग पाय मैं अल्प वद्धिवाला दृष्टांत देता हूं कि नगर जैपुर में करीब इस प्रकार ३०० चैत्यालय हैं । मंदिर और चैत्यालय में कुछ फर्क नहीं है । चैत्यालय अनादि कल्याणकारी शब्द है यानी चैत्य-पातमा, आलय-जगह, भावार्थ, आत्म प्रदर्शन-प्राचीन समय में मन्दिर गृह को कहा थे:-जिन "मन्दिर। आज कल. चैत्यालय का सूचक : श्रीयुत पद्यनन्द आचार्य कृत पद्मनन्द पंच विंशत शास्त्र अध्यायं ७ श्लोक २२ में लिखा है कि "किंदुरी के पत्र बरोबर ऊंचा चैत्यालय और जौ वरावर ऊंची जिन मतिमा जे करावें हैं तिनके पुन्य की महिमा कोन वर्णन कर सके और . तीर्थकर पद का वन्ध करे : हैं। इत्यादिः इसी दृष्टांत पर हमारे पिताजी श्रीमान वावू चतुर्भुजजी गवरमेन्ट पेन्शनर हाथरस, ने श्री महावीर दिगम्बर जैन मंन्दिर सरे बाजार निजी दो दुकानें तोड़कर निर्माण सम्बत २४४६ में किया है ! Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ स्वाध्याय ॥ प्रिय सज्जनो ! अब उन महंतो भगवान परमात्मा की. वाणी ही मुरुम . चाय के बारे में एकापचित हो सुनिए . कर धर्म मार्ग दिखाने वाली है । a? :: जिनेंद्र भगवान परमात्मा का जो धर्मोपदेश है उसको सरस्वती, सूनृत आशा, भगवत वाक्य, देव, अङ्ग, ग्रामनाथ, सूत्र प्रवचन श्रुत, जिनवाणी या जिनवाणी माता शारदादि कहते हैं। 'उम्र वाणी की araरों ने जो चार ज्ञान (मति, मति, अवधि और मनपर्यय) के धारक होते हैं लकर रचना की है। जिन पत्रों पर वह वाणी "लिखी गई है उसको शास्त्र भी आगमादि कहते हैं। उसके पढ़ने, सुनने उपदेश करने, चितवन करने तथा प्रश्न करने को स्वाध्याय कहते हैं । यह वांगी अमृत हो है । इसके पाठी हो जाने से "अमर" हो जाता है यामी जन्म मरण रहित हो है। समर होने का तीन लोक में और कोई दूसरा पाय नहीं है, जब तक इसका पठन होता है कर्मों को निर्जरा भौर पुण्य संचय होता है । उस स्थान पर सम्यगष्ठी देव देवांगना भी सुनने को जाते हैं यह शास्त्र प्रमाया है और मुझ मंदबुद्धि को भी इसका कुछ परिचय हो चुका है। तीन लोक का हात घर बैठे मालुम होता है। लौकिक और पारमार्थिक मार्ग अच्छी तरह दृश्य पड़ता है। श्री मूलाचार जी पथ में लिखा है कि जो जीव स्वाध्याय करता है वह संसार अंध कूप में नहीं पड़ता है जैसे डोरा सहित सूई नहीं खोती है। प्राचार्य उपाध्याय साधु भी मित्य स्वाभ्यां करते हैं । भी आदि पुराणजी पर्व २०श्लोक ३५ पत्र २१८ में लिखा है "बिन सूत्र सो तत्व ग्रामिन करि धाराधिये योग्य है। जिन शासन जनादि निधन कहिए भादि र अन्तं नाहीं और सूक्ष्म कहिय अंति सूक्ष्म है चरचा जा. विवे और सत्य स्वरूप का प्रकाशक है और पुरुषार्थ कहिप मोक्ष ताके उपदेश से जीधन मत हिदू है शिव कल्पि अनि प्रयक्ष है। .. S Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ . ( १७ ) अमान्य कहिए का करि.जोत्या न जाय । अमित कहिए अपार जाका पार प्रभु हो पावै । इस ज़िनवायी के कई अधिकार्य को पानी.धवल, जवथवल, महाधवलादि को रचना जेष्ट सुरी ५ के दिन की गई है . वह दिन भुत पंचमी नाम से विख्यात है। इन-प्रन्यों के दर्शन मृडचिद्री. में . होते हैं। भाज कल इनके पाठ करने की योग्यता किसी में नहीं है । और उन पयों को भूतवलि और पुप्पांदत सुनियों ने धरसेन मुनि जो गिरिनार के शिखर चंद्रगुफा के पासी के. उपदेश से रचे लेष्ट पुदी ५ के दिन रच कर प्रतिष्ठा की। ऐसे महान पंथों की यह श्री नेमचंद्र सिद्धांत च. वती.स्वाध्याय कर रहे.थे.उस वक्त मंत्री चामुंडराय के आने पर उन महान पयों को बंद कर दिया और. भी गोमहसार इत्यादि पंथ रचे । इन के दर्शन से जोव शान को प्राप्त करेंगा और प्राचीन रत्न मई प्रतिमाओं के दर्शन हैं मानों तीन लोक को विभूत वहीं पर इकट्ठी है। इस . लिए हर एक को वहाँ जाकर दर्शन करना ‘चाहिए । यात्रा पुस्तक हमारे यहां से कुछ नियमां पर पिना मूल्य मिलती हैं। . . . उस दिन शालों को बाहर मेज के उपर विराजमान कर धूप.पूजादि करनी चाहिए ।..हम प्रगट किए बिना नहीं रह 'सो कि शहर हाथरस में जिनवाणों ..की सजावट और पूजा श्रत पंचमी को एक महान आदर्श रूप में होती है जिस के लिए जैन समाजं तया लामिश्रीलालजी सोगानी मंत्री सरस्वती भंडारको मोटिः धन्यःगद है। जो जोव उस दिन वृतं करते हैं महापुण्य उपार्जन करते हैं । परंपराय स्वाध्याय के प्रसाद से मोक्ष के पात्र अनते हैं। जिनवाणी की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। . जिनवाणी रक्षा। ....... ....श्रीयुत अमोलकचंद जी मंत्री सरखतो भंडार विभाग भीमती दिगम्बर जैन मालवा प्रांतिक समा ने इस विषन में को Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख विवरण १२-१३ वर्ष में दीया है उसका संक्षेप यहां प्रगट करती हूं त्रिी जी लिखते हैं। ....माज़ मुझे बडा हपं है मेरे हृदय में प्रानंद को लहरें उठ रही है मेरा भाग्योदय है कि सरस्वती सेवा का कार्य प्राप्त हुश्री है । जीव अनादि से भमण कर रहा है और चतुगति रूप संसार में जन्म मरण के दुःख उठो रहा है। इस को शीतलता देने वाली एक जिनवाणी सरस्वती ही हैं। हिनादिन मागं दिना कर स्व, पर, भेद विज्ञान, पैदा करती है । वस्तुं म्घहप को यथार्थ कहती है जैन धर्स का मूल ,जिमवाणी है । इस को रक्षा में जैन धर्म की रक्षा है जिनवाणों की उन्ननि से जैन धर्म की उन्नति है। यदि आज यह जिनवाणी न होती तो कोई नहीं जान सस्ता था कि जैन धर्म क्या है. संसार और मोक्ष क्या है ? श्राचार्यों ने कठिन परिश्रम से जिनगाणी के अथ निर्माण कीये और उन्हीं कहमको दर्शन और उपदेश नाज मिल रहा है लेकिन दुख की . वति हैं कि इस में से भी हमारी अंशानता और नापसीट के कारण अनेक स्थानों के सरस्वती भंडारों के बहु संध्या प्रथे जीर्ण शीर्ण होकर चूहों दीमकों के ग्रास बन कर नष्ट हो रहे । ..है। कितने ही ईसी भापात्रों में होने से हम से छूट रहे हैं । पया . यह सुनकर आप को दुख न होगा ? अवश्य होगा । भाइयो! "राध्याम दो, यदि जैन धर्म की रक्षा और उत्तति के मूल ये पथ हो, न रहेगे। तब यह: आप का धर्म कहां सुनाई पड़ेगा ? कहाँ "आप की अस्निाय और सहा श्रापमा पंथ रहेगा। इस लिए यदि आप सच्चे धमनिति के इच्छुक है.तो जहां..जहों अथ चालमारियों में बंद रहकर जीर्ण शीर्ण हो रहे हैं, उन गूथों को निकल चाइए, बाहर धूपं. दिलाइए, 'यदि जीर्ण होगए हो तो उनकी प्रसि दूसरी कराइए । कर्नाटको आदि दूसरी भापामों में हो तो. . हिंदी लिपि कराहए । इत्यादि बातों का प्रबंध करना आपका हमारा . पूर्ण कर्तव्य है"; समाप्त।... C. प्रिय.सजनो। मंत्री जी के बहुमूल्य बाक्ष्यों को सुन कर 'पि चहुत प्रसंशा हुए होगे । भोमान दानवीर राय वहादुर रमाईरस एचद जी सलापतितधाश्री लाभंगवानदास - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . (.22 ) ज़ी जैन जाति भूपला महामंत्री भी दिगम्बर जैन मालया प्रांतिक सभा पहनगर. (मालया ) राजपूताना को.. फोटिशः धन्यवाद है कि.तभा और औषधालय द्वारा भारत वर्ष में अचित्य लाभ पहुंचा रहे हैं। .... आशा...है कि जहां तहां ऐसे गथा को दशा को वहां के रज्जन व पंच खुद रक्षा करेंगे । मानवां की सभा के निोदन पर भी संदेव अवश्य ध्यान देने को सपा कोंगे। " : : जिनवाणों की रक्षा और स्वाध्याय करना कराना हम जैनियों का परम कर्तव्य होना चाहिए । इन कायों में मन वचन काय और धन लंगाना महा पुण्य और यश का कारण है हम कार्यों में धन लगाना मानो साथ में लेजाना है। कोठरियों में, आलंय में, संदूकों में जिनवाणी को रक्षा टोंक २ नहीं होती है इस लिए हमको बड़े सज-धन से घडी राजमारियों में विराजमान रखना चाहिए जहां हवा लगती रहें और दर्शकों को दर्शन "मिलते रहे तथा पूजादि भी होती रहे। जीर्ण शीर्ण कर सदा के लिए जलांजलि न दोजिए । हृदय फटा जाता है इस महा अधिनय को रूपयासिंक कर प्रबंध करिए ज्ञान के विनय में केवल शान का घध है । ऐले अंगमाहीया..की.चापीपक स्यानोग अपमादी पिनय वान भाई के पास रहना चाहिए ताकि यह सरस्वती का सर्व कार्य करें. और खाध्याय करने बालों का मम्बर पढ़ावे । सूची रजिस्टर वगैरहः संव रखने चाहिए शास्त्रजी हमारे गुरुओं की जगह पर हैं पियो कि गुमंत्री के दर्शना कठिन हो गए हैं। Sita॥ शंका का समाः :यदि कोई शंका करे क्या जैनी धान इस प्रकार है- निगुरा: उसको कहते हैं,जो गुरु को नहीं मानता हो । जैनो लोगों के गुरुत्रों का स्वरूप पहले वर्णन कर . के हैं जिन के गुण सर्वोत्कष्ट होते हैं और उनका प्रभाव नहीं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १००) ओगुरु के प्रसाद कर अनन्तानत जीय अनन्त सुख में प्राप्त हो गए और होवेंगे। काल दोष से यदि वे हएि में पड़े तो अन्य उनकी नगह नहीं माने जा सक्ते हैं जैसे हंसो के न दीखते हुए अन्य पक्षों को हंस की पदवी नहीं हो सकती है। इस का श्राप खुद न्याय कर सक्ते हैं। जिस जीव में सिंह के गुण होंगे वही "सिंह कहा जा सक्ता है। केवल "सिंह" नाम रखने से सिंह नहीं हो सकता है। देव गुरु शान का अविनय करना .अनन्त दुस्ख का कारण है और ऐसे दोष देखि एक दूसरे को न समोधे तो प्रमाद का दोष लगता है तातें कल्याण निमित्त धों. पदेश देना आवश्यकीय है। इस जीवन को केवल धर्म हो सहाय है.धर्म न उपाा होय और बहुत काल तक जीने और सूर्य को इच्छा करे, तो कैसे बने । कमों की विचित्र गति है। क्षणं में जीव - पर्वत पर क्षण में खाड़े में क्षण में एक रस से दूसरे रस में, . कभी विरस इत्यादि में आता है। देखिए हमारी अवस्था कसो हो रही है, पं० भूदरदास जी कहते हैं:. . . ' : 'जोई छिन कटै सोई आयु में अवश्य घटै। ....: "द २ वीतै जैसे अंजुली को जल है। .. देह नित छीन होय नैन तेज हीन होयं । . . .. . . जोवन मलीन होय छीन होत वल है ॥. : . ढुकै जरा नेरी तकै अन्तक अहेरी आवे ।। परभौ नजीक जाय नरभौ निफल है॥ .:. मिलकै मिलापी जन पूंछत कुशल. मेरी। . ऐसी यों दशा में मित्र! काहे की कुशल है। यह परिग्रह. विनासीक महा दुख का कारण है । देह अपवित्र है। ज्ञान रहित अविवेकी इस तन से अति राग करता है। यह शरीर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध होता है और मनुष्यं देवादि द्वारा पूज्य होता है। जीव भोंगों से तृप्त नहीं खेळाज्यों २ मोग करता है त्यों २ लालसा बढ़ती है जैसे ... ... .- - . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) 'अग्नि में ज्यों , २ लकडी डालोगे त्यो २ वाला बढ़ेगी। यह नीवरुपी राजा कुवद्धि रूपी स्त्री सहित रम है अर मृत्यू या अचानक ग्रेस्या चाहे है। मनरूपी इस्सी, सूप वन विप क्रीडा करै है। ज्ञानरूप अंकुश तें याहि वस कर, वैराग्यरूपी गज थम " विवेकी वांध है.। चिच के मेरे चंचलता धरे हैं। वासें वित्त वास करना योग्य है । चित्त कू वासि करना स्वाध्याय से होता है ? : . . .: विचारनीय बात है कि मनुष्य पीय अति दुर्लभ है इसी से भात्मकल्याण होसकता है: आज हमारे पास सर्व प्रकार की सामग्री मौजूद है धर्म अच्छी तरह साधना चाहिये वरना एक 'दिन ऐसा होगा. किन हमारे पास वह सामग्री रहेगी और सब कटम्बी व मित्रज़न न्यारे. २ होजावेंगे । इस्से संसार से विरक्त हो.धर्म साधन करना चाहिये । यह मनुष्य पर्याय रूपी रत्ल को संसार रूपी समुद्र में मत फेंको । हमको स्वाध्याय करना चाहिये । श्री भादि पुराणजी में लिखा है। (श्लोक १९८ से २०० तक पर्व १९) ए बाह्यमांतर वारह प्रकार के तप तिन विष स्वाध्याय समान तप न पूर्व मयां न अव है न आगे होयगा । स्वाध्याय वि राति निश्चल सज़मी जिनेन्द्री होय है। स्वाध्याय करि दिमान विनय, करि मंडित समाधान रूप होय है । न स्वाध्यायात्पर तपः । ___अर्थात स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है । जबतक · स्वाध्याय होती रहती है पुण्य का संचय और पाप का प्रय .. होता रहता है। अस्पर देस माना है कि हमारे बहुत से Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) भाई कुंछ थोड़ासा जानकर. स्वाध्याय छोड़ देते हैं और कहत हैं जो कुछ जानना था'ज़ान लिया अन्न स्वाध्याय : की जरूरत नहीं । हम पंडित मूदरदासजी की निम्न लिखित चौपाई का स्मर्गः उन्हें दिलाते हैं:-. : .. :.. . • जाननं जोग लियौ हम जान । तहां हमारे दिढ़ सरंधान ॥ यही सही. समकित को अङ्ग | काहे करें और श्रुत सङ्ग । जो तुम नीकें लीनों जान । तामें भी है बहुत विनान || तातैः सदा , उद्यमी रहो । ज्ञान गुमान भूलिजिन गहीं। • प्रिय पाठको ! यदि आप नित्य दिन रात्रि यानी. २१ घंटे के अन्दर आधा पत्र भी पढलेंगे तों साल भर में २०० पत्र यानी एक छोटे ग्रंथ की स्वाध्याय हो सक्ती है जैसे एक २ बूंद कर तालाव भरंजाता है । स्वाध्याय से अचिंत्य लाभ है . नुकसान किसी प्रकार का नहीं है। हम आपके खाने पीने में कोई वाधा नहीं डालते । :. . . . . . . : भगवत प्रार्थना। .. .. ' (आगम अभ्यास होहू सेवा सर्वज्ञ तेरी । । सङ्गति सदी मिलौ साधरमी जनकी ॥ सन्तन के गुन को बखान यह बान परों । मैटो टेव देव १. पर.औगुन कथन की. ॥ . सवहीं सौं ऐन मुखदैन मुख वैन भाखों । । भावना त्रिकालः राखो भातमीक धनकी ।। जौलों कर्म काट खोलो मोक्षके कपाटलाला। । ये हो बात हनौ प्रभु पूजौ आस मनी ॥. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..' शरीर में क्षुधा भोगादि रोग है। एक दफै वृप्त हो। म शान्ति नहीं होती है। परन्तु मनुष्य पर्याय उच्च कु, पावक कुल, साधर्मीयों की.सतासङ्गत मुश्किल है । जिनवाणी सान नय से वर्णन होती है । जैसे दूध बिलोने वाली एक हायकी एस्सी ढीली करती है मंगर छोडती नहीं फिर हमरे हाथ की रस्सी ढीली करती है इस प्रकार की क्रिया से मक्खन निकाल लेती है ।. उसी प्रकारः स्याद्वादी सम्यग्दर्शन से तत्वस्वरूप को अपनी ओर खींचता है, सम्यग्ज्ञान से पदार्थ के भाव को ग्रहण करता है. और दर्शनंज्ञानकी श्राचारण क्रियासे, सम्यगचारित्र से परमात्म पद के प्राप्ति की सिद्धि करता है। भावार्थ जिस नय के कथन का प्रयोजन द्रव्य से हो उसे द्रव्याथिक और जिसका प्रयोजन पर्यायः से ही हो उसें: पार्थिन. नय" कहते हैं इन दोनों नयों से ही उस वस्तु के यर्थाथ स्वरूप का साधन होता है। ' : नय वस्तु के एक देश को जाना वाले ज्ञानको कहते हैं मुख्य नय, दो प्रकार के हैं। निश्चय और व्यवहार अथवा उपनय वस्तु के असली अंश को ग्रहण करना उस निश्चय नय कहत । 'जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घका कहना। किसी निमित के वश से एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ कप जानने वाले ज्ञान को व्यवहार नय कहते हैं। जैसे मिट्टींक घड़े में घी के रहने से पा का घडा कहना । निश्चय नय के दो भेद द्रव्याथिक दूसरा पर्यायार्थिक। जो द्रव्य अर्थात सामान्य को ग्रहण करे उस हव्याथिक नय कहते हैं। जो विशेष कों (गुणं अथवा पर्याय को) विषय करें। उसे पर्यायायिकनय कहते हैं। व्याथिक नय के तीन भेद नैगम. संग्रह, व्यवहार । पर्यायार्थिक 'नय के चार भेद-ऋजुसूत्र, शब्द समभिरुढ, और एवंभूत । विशेष हाल जैन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रों से जानना । एक नय से ग्रहण करना वहां मिनाला भसंग होता है । जिनवाणी स्याद्वाद वाणी सप्तं नय कर वर्णनः होती है। हम जानते हैं कि हमारा शरीर जिसका नाना भकार पोषा अन्त में कामजदेगा और अन्त में यह हमको छोड़ेगा। तो इस्स यात्म कार्य लना चाहिये । अगर हम आत्म कल्याण न करें तो हम आत्मघाती हैं। आत्म कल्याण करने को नाना प्रकार से उपदेश.शास्त्र में दिया, है. और संकड़ों हजारों ग्रंथ रचे हैं। ::...:. . . . . . .. ... उपदेश नाना प्रकार का, जीवों की अवस्था माफिक होता है । एक उपदेश सर्वथा सब जीवों को नहीं हो सकता है। जैसे माता छोटे बालक को खेलने का उपदेश दती है और ज्यों.२ वड़ा होता है त्यों २ नाना प्रकार उपदेश जसं पढ़ना रोजगार मन्दिरजी में जाना ज्ञान गृहण करना होता है। अन्त में श्री गुरु उपदेश करा हैं कि सन्सार सं विरक्त हो । यदि बड़ी अवस्था का उपदेश छोटे बालक को या मोटे वालक का उपदेश.बड़े को दिया जावे तो दोनों.का जीवन विमान हो जाबै इसी तरह जैन धर्म के शाखजी चार अनुयोगों में विभक्त हैं यानी,प्रथमानयोग (६३ शालाका पुरुप कथन ) करुणानयोग ::तीन लोक कथन ) चरणानुयोग (चारित्र कथन ) और ट्रव्यानुयोग:(तत्व कथन ) शुरू २ में.प्रथमानुयोग जैसे पचपुराणजी. (जैन रामायण) मधुमन चरित्र (सुपुत्र राजा श्री कृष्णजी के.).हरिवंश पुराण (राजा श्रीकृष्णजीका वृतान्त .) श्रीपाल.चरित्र इत्यादि ग्रन्थों के जिनमें वेशठ . शलाका पुरुषों के. चारित्र की स्वाध्याय करनी चाहिये । और फिर दूसरे ग्रन्थों की। हम लोगों को सर्वथा. एक -नय से काम नहीं लेना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) जाहिये. क्योंकि एक वस्तु में अनक. धर्म होते हैं जैसे एक पुरुप अनेक संघसे, किसी का पिता, पुत्र,भ्राता, मामा, भानजा बहनोई शालो, वावा, नाती, पन्ती, इत्यादि होता है इसी तरह करुणा और धर्मान्नति के विचार से ज्ञानावर्णी कर्म का श्राश्रव नहीं हो सका । एक नय से सर्वथा.कार्य नहीं करना चाहिये। . . . . . . ...द्रव्य क्षेत्र कास भाव को समझकर हम लोगों, को धर्म साधन ६. धर्मोन्नति करना चाहिये । पुरुपार्थ सिद्धयुपाय में लिखा है कि वारों संध्याओं को अन्तिम दो २ घड़ियों में 'दिगाह, उल्कापात, धज्रपात, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र ग्रहण, तूफान, भूकम्प, आदि उत्पातों के समय में सिद्धान्त ग्रन्थों का पटन वर्जित है। हां स्तोत्र, थाराधना, धर्म कयादिक के ग्रन्थ पांव सके है । शुद्ध जल से हस्तपादादि प्रक्षालन कर शुद्ध स्थान में पर्यासन 'बैठकर नमस्कार पूर्वक शास्त्राध्ययन करना विनयाचार कहा जाता है। हमको उपगार करना जरूर.चाहिये जैसा जीव हो जैसी उसकी पृति हो सब बातों को समझ सोचकर करंणा भीर. धर्मवुद्धि के साथ उसके धागामी का जैसा भंती होता मालूम होवे वैसा करना चाहिये । (मगर साथ में अपने पिंगार सुधार का मुख्य ख्याल रखना आवश्यक है) देखिये व्यवहार में भी कहते हैं कि सवको एक लकड़ी से मतं हांको" जव लौकिक में भी एक नय नहीं है तो धर्म में एक नय कदापि नहीं हो सकी है. हमारा, और दूसरों का भला होय सो करना विपय कपायों को दूर रखना योग्य है.। सन्सार में नाना प्रकार जीव हैं 'जवतक दस घोस. गून्यों का पठन पाठन खूब न करलेंगी तबतक उन्नति का विचार स्वमेव ठीक २ नहीं होने की सम्भाधना. हो सकती है । इसलिये जितना पढेंगे 'शनगे उतना रहस्य बढ़ेगा पस स्वाध्याय जीवन पर्यंत तक करना चाहिये । ::. पाठको ? भीमान पंडत प्यारेलालजी अलीगढ़ निवासी महासमा स्वाध्याय प्रचार विभाग के मंत्री लिखते हैं - कुसङ्गति Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६ ) के कारण मनुष्य जन्म व्यर्थ व्यतीत हो रहा है" "गया चयन हाथ आता नहीं"श्रात्माके हित करने के लिये जिनवाणी गहगा करने को कुछ प्रतिज्ञा (यम- यावज्जोवन, नेम कुछ काल पर्यंत) करो-.सदैव ज्ञानोपयोग रहने से नार्थ कर पति का चौंध होता है। प्रमादी रहनेसे बड़ी हानि होती है प्रमाद से छः प्रतियों का अर्यात अस्थिर, अशुभ, आसाता घेदनीय, अयशः कोति, श्रति और शोक का वध होता है पस प्रमाद और कुलंगति तत्काल दूर कर विनयी हो धर्म धारण करना योग्य है यालको स्त्रीयों को विद्या अभ्यास करना जरूरी है। ( समाप्त ) श्री जिनसेनाचार्य ने श्री पद्मपुराण में कहा है कि जो कुछ नेम या यम जीव प्राप्त कर लेता है वही उसका सच्चा . रत्नहै। स्वाध्याय के प्रसाद से असंख्य जीच कुगति से बच गये हैं यह बात शास्त्रों से भली भांति जानी जा संक्ती है:...नेम या यम करने से जीव स्वाध्याय से नहीं छूटता है क्यों .कि नेम या यम भङ्ग करने का बड़ा पाप है इस पाप को चांडा. लादि ने भी बहुत बुरा समझा है इस लिए कोई भी यम व नेम करते समय सब बातों का विचार करने और “सूतक पातक हारी बीमारी सफर इत्यदि (स्त्रियों को इसके अतिरिक्त स्त्रीधर्म जापा वगैरहः ) में छूट रखलेना उचित है । विपति व कठिनसमय में सावधान रहना यही पुरुषार्थ है और जांच. का भी वही समय है! ... ... सत्य जानिए मेण लेन ऐसे है. जैसे बालकः चंद्रमा . : को पकड़ा. चाहे परंतु में भक्ति वस जिनवाणी की स्तुति वगुणानुवाद करूं हूं । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७) हम को नेत्रों से दर्शन, मुख से जिद्र गुणानुवाद स्वाध्याय करना, कानों से धर्मध्वनि सुनना हाथों से धर्न कार्य दान • करना, मन से धर्म भावनाः करना चाहिए । मेरे अंतरङ्ग यह मङ्गलोक भावना दृढ़ रहे और जीवमात्र दुख से छूटें और बुख प्राप्त करें। महिमा जिनवर वचन की, नहीं वचन वल होय । भुजवल सों सागर अगम, तिरे न तीरहिं कोय । इस असार संसार में, और न · सरन उपाय । जन्म जन्म हूजो हमें. जिनवर धर्म सहाय ॥ . . . . . . ॥ भजन ।। ( १.). करो कल्याण आतम का भरोसा है नहीं दम का । ए काया कांच की शीशी, फूल मत देख कर इसको, छिनक में फूट जावेगी चवूला जैसे शयनम का करो॥ ए धन दौलत मकां मंदिर जो त अपने बताता है, नहीं हरगिज कभी तेरे छोड़, जंजाल सब गम का करो० ॥ सुजन सुत नार पितु मादर सभी परिवार अरु बिरादर, __ खड़े सव देखते रहेंगे कूच होगा जभी दमका । करो०॥ वड़ी. अरबी ए: जंग रूपी फंसे मत मान कर इन में, - कहें चुन्नी समझ मन में सिताय ग्यान का चमका करो॥ . . * सम्पूर्ण पद ॥ परदा पड़ा है मोह का. आता नजर नहीं। चेतन नेरासरूप है तुझ को खबर नहीं ॥१॥ परदा० चारी गतिमें मारा फिर स्वार रातदिन, आपमैयाप आपको लखता मगर नहीं ॥२॥ परदा पड़ा है मोह का० तंज मन विकार, धारले. अनुभव, सुचंत हो। निज पर विचार, देख जगत राघरनहीं ॥ परदा पढा० ॥ तू व स्वरूप शिव वहां ब्रह्मरूप है। विपियों के . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) सङ्ग में होती कदर नहीं। परदा 'पड़ा है मोह का०॥ चाहे तो कर्म काट, तू परमात्मा बनें, अंशंसोस है कि इस पर भी करता नजर नहीं ॥ परंदी पंडा है मोह का ॥ निज सक्ति को पहिचान समझ तूच्यामत आलस में . पडे रहने से होता गुजर नहीं। परदा पडा है मोह का०॥ जिन सेवकः । संयम । తల లలల లల पांचों इन्द्रीयों, और छटे मन का दमन करना, वैराग्य भावना, बारह भावनाओं का चितवन करना, सँसारो कार्यों में विरक्तका उपजावना सो संयम है । बारह भावना ( भैयालालं कृत): . ... * चौपाई * पञ्च परम गुरु बदन करू मन वच भाव सहित उर घर ॥ बारह भावनं पावन जान । भाऊ श्रात्म गुण पहिचान ॥१॥ '. 'किर नहीं दोखे नयनों घस्त । देहादिक अरं रूप समस्त ।। थिर विन नेह कौन से कर। अथिर देख ममता परि हर ॥२॥ • अशरण तोहि शरण नहीं कोय । तीन लोक में दंग धर जोय ॥ कोई न तेरा राखन हार । कर्मन बस चेतनं निरधारं ॥३॥ अरु सँसार भावना येह । पर द्रव्यन सो सो नेह ॥ तु चेतन, वे जड़ सर्वङ्ग । 'ताते तजो परायों सङ्गः ॥४॥ जीब अकेला फिरे त्रिकाल ऊरधं मध्य भवन पाताल ॥ . दूजा कोई न तेरे साथ। सदा अकेला भने अनाथ ॥५॥ मिन सदा पुद्गल से रहें । भर्म बुद्धि से जड़ता गहे। थे रूपी पुद्गल के खंद । चिनमूरति सदा अबंध ६ ... अशुचि देख. देहादिक अंङ्ग कौन कुंवस्तु लगी तो सङ्ग। अस्थि चाम मुधिरादिक गेह । मल मूत्रनि लेख तजो स्नेह ७ ॥ श्राशय पर से कोले प्रीति । ताते बंध पड़े विपरीत ॥ पुदगल तोहि अपन यो नाहिं । चेतन, ये जड़ सव माहि ॥ ॥ . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सम्बर पर.को.रोशन भाष । मुग्न होवे को यही उपाय 4. श्रावें नहीं नए जहां कर्म। पिछले एक प्रगटे निज धर्म ner. थिति पूर्ण है खिरखिर नाय। निर्जर भाव अधिकं अधिकाया निर्मल होय चिदानन्द श्राप । मिटे 'सहज पर सङ्ग मिलाप ti लोक, माहि तेरो कुछ नाहिं। लोक अन्य वू अन्व लसाहि ॥ यह सब पट व्यन को धाम ॥ चिन्मूरति, आत्मराम ॥११॥ दुर्लभ पर को रोकन भाव । सो तो दुलभ है सुम' रांच जी तेरे शान अनंत । सो नहीं दुर्लभ सुनो महंत २. धर्म खभांव यांप ही जान श्राप स्वभाव धर्म सोईमान। . जब वह धर्म प्रगट तोहे होइ.। तब परमात्म पद लख सोइ ॥१३॥.. यही: वारह. भावन सार । तीर्थंकर. भावें. निर्धार ... होय विरागं महानत लेय । तव भव भूमण जलांजलि देय ॥१क्षा भैया भावो. भाव अनूप । भावत होय तुरत शिव भूप ॥ सुख अनंत विलसों निशि दोश् । इम भापो स्वामी जगदीशा१५॥ ..प्रथम अथिर प्रशरण जगत, 'एक' अन्य अशुचान ॥ : श्राश्रय सम्बर . निर्जरा,, लोक वोध दुलमान ॥१६॥ @ ॥ तप॥ BOAD. . NROR 15 निश्चय से देखिए तो सर्व गति में दुख है । तपनि के भेद बहुत हैं तो शास्त्रजी स. मालुम करना तप दो प्रकार के होते हैं एक अंतरङ्ग दूसरा बहिरङ्ग । सर्व देश मुनि के और एक देश भावक के होते हैं । कुछ संक्षेप से मुनि के तपनि का वर्णन श्री गुर, फे स्वरूप में पाया है । तप और नेम में कुछ भेद नहीं है। जैसे किसान खेत को चाड से, होजवान डाट में होज़ के पानी की, रक्षा करता है । इसी तरह मुनि श्रावक अपने धर्म की यम नेम रूपी वाढ डाट लगाकर, रक्षा करते हैं और तप कर का को निर्जरा करते हैं यही उनका रत्न है । लोकिक कार्य भी नियम से होते देखिए तो धर्म कार्य को अवश्य यम नेम चाहिए । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) जितने यमघ नेम कीये जावे सो सव कप के भेद है आपको को १७ नियम नित्य करने चाहिए-१ भोजन २ पटरस (दुध दही तेल घी मीठा मोन) ३ पान (पीने)की घस्तु ४ फुकमादि विलेपन सुगंध तेल लेपादि ५ पुष्प-फूल ६ तांघुल-पान मपारी आदि ७ गीत-संसारी गान नाटकादि : नृत्य-संसारी नृत्य । ब्रह्मचर्य-काम संवन १० मान ११. चल १२ भूपगा १३ चाहन हाथी घोडा घेल आदि १४ शयन-शय्यादि १५ 'आसन चौकी. कुरसी फर्स आदि १६ सचित (हरो का प्रमाणा) १७ अन्य वस्तु (दिशाओं का भूमण)-यह बारहयो नियम ग्यारहवां स्थूल भोगोपभोग परिमाणवत ऊची प्रतिमा यादी भावकों को करना चाहिए । हम जैनियों को ऐसे हर समय भाव रखने योग्य है।" सत्वेषु मैत्री गुणिपु प्रमोद,क्लिष्टेषु जीवेषु रूपा परत्यम् । 'माध्यस्थ भावं विपरोत वृत्ती, सदा ममात्मा विद धातु देय । O Lord ? make myself such that I may have love for all beings, pleasure at the sight of learned men unstintcd sympathy for those in trouble, and .. tolerance towards tbose who are, perversely inclined. नोट-मधस्थ भावना उस भाव को कहते हैं जैसे एक अनजान पुरुष हो तिस से न तो मित्रता है न शत्रुता है...: . स्वाध्याय करना सो अंतरंग तप है। चिदानंद चैतन्य के गुण अनंत उर धारि-क्रोधादि को इस प्रकार जीत दश धर्म उपार्जन करै। का अभाव :क्षमा से . : भान : .... , मादव* मान कपाय रहित . . काँधका का माया ... • . असत्य :: , आर्जव + , +कपट छल रहित । :,' सत्य . " . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोम · का अभाव कवायन ५.प्रत अहिंसादि। " इच्छा , पर में ममता, परिगृह त्याग . . ! गृहस्थ को भावना घेदन (स्त्रीपुरुप नपुंसक,! का अभाव यानी आत्म स्वरूप में प्रति शौच , पवित्रता उज्जलना संजम " +एक देश सकल देश तप " त्याग " ,, आकिंचन , " ब्रह्मचर्य , - दान चार प्रकार के है यथा आहार औषधि, शाल श्रीर अभय 1( उत्स्ट, मध्यम और जघन्य से कई भेद है) यह नियम द्रव्य द्वारा या सामग्री से पाला जा सकता है। हमारे आचायों ने शाल जी में हम को हमारी मासिक आमद में से चीथाई हिस्सा दान करने का उपदेश दिया है जो कोई ऐसा करे वह तो उत्पष्ट पुरुष है बहुत से बड़े २ धर्मात्मा अपनी आमद 'में से आधा या ज्यादा-धर्म में लगा देते हैं उनके पुण्य को केवली भगवान ही जानते हैं। जब ऐसे भाव या निमित्त न हो तो भी शक्ति को न छिपा कर महावारी मुकुर्रर करे या रुपये पीछे कुछ बांधकर दान द्रव्य एकत्र करना चाहिए। और जहां जहां उचित स्थानों में जरूरत हो लगाता रहे। इस तरह पर हम एक समय में बड़ी तादाद भी लगा सकेंगे और हमको कोई कठिनता मालुम न होगी. । पारमार्थिक लाभ के अतिरिक्त लौकिक लाम 'जैसे दानवीर, सेठ साहकार धर्मात्मा फुल भूपणादि पद भी लग जाते हैं जिसका लौकिक जीवन वास्तय में सुधरा उसका Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( • १९२ ) पारमार्थिक भी जरूर सुधरेगा उन्हीं का जन्म धीर द्रव्य सफल है । परभव में द्रव्य तेजाने का एक यह 'दान' सुगम उपाय है । हमको न्याय पूर्वक द्रव्य कमाना और खर्च करना चाहिए । लक्ष्मी रूपी द्रव्ये में वीराग होने से तिर्गच गति का बंध पड़ना संभव है । आपने उदाहरण भी बहुत से सुने होंगे कि " फलाने के पास बहुत द्रव्य था मरकर सर्प हुआ" । यदि आप द्रव्य ही साथ में रखना चाहते हैं तो धर्म में लगाइए। : निदान नहीं करना यानी मेरा फलाना कार्य सिद्ध होतो यह करें ऐसी कल्पना नहीं करनी । **** हर शहर में भाइयों को अभयदान का निर्मित बनाना चाहिए । यदपि साधारण तौर पर उपर्युक्त चार दान हैं परंतु श्री आदि पुराणजी पर्व ३७ में और रूप में चार दान इस प्रकार कहे हैं सोई कोई विरोध न करना करुणादान, सीताजी के किमिच्छादान का कथन समाधि मरण पाठ से भली भांति जाना जा सक्ता: है ! - दयादान, पात्रदान, समदान, अन्वयदान | दयादान - दया संहित जीवनि के समूह विषे अनुग्रह करना, 'मन वचन काय की शुद्धता करि सकल का उपकार करना, काहु के भय न उपजावना, दुर्पित भूषितं जोवनि कूं पोषना इसे दयादत्ति भी कहते हैं। (कंवा दान भी यही है) पात्रदान --- महा तपोधन महामुनि की अरचा करनी पडगाहनांदि नवधाभक्तिं करि विनि क्रू आहारादिक देने अर्जिक " Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) तथा उन्मठ धाक दपमो ग्याएमी प्रतिमा का धारक : “तिन कृ यिनय भक्ति करि अन्न धन्न दैने सो पाप्रति . है। ( पमपुराण में भी यही कहा है) समदान-क्रीड़ा मैत्रत्रतादि करि जे आप समान थानतो संसार सागर के तारक धात्रक तिनि कृ श्राहारदान, श्रीयधदान, - . . . शास्त्रदान, अमैदान तया भूमिदान, सुवर्णदान, रसादिक .... ना सो समदान-यह समदान मध्यन पात्र ने प्रती आवक तिन क श्रदा पूर्वक विनय से देना । अन्वयदान-अपने वंश को रक्षा के अयि धर्मात्मा विवेकी जो पत्र ... . ताकघर का सशल द्रव्य देना और धर्म का उपदेश . . .देना। श्रर सकल कुटम्ब का योग देना पर आप सकल : सू निरवति होय मुनिवृत लेने अथवा उत्साट धावक . . के व्रत धारने । (सर्वदान भी यही है) नोट १-मुभियों के घास्त शहर के पाहर सालों में मठ मण्डप यानी वस्तिका वनवा देना सो वस्तिका दान चौथे शिक्षापत में कहा है। . . - नोट-जेच कहीं गुफा, वसलिका इत्यादि में मुनि ठहरें तय ये इस प्रकार कहते हैं "मा स्थान के निवासी हो, तुम्हारी .:. इच्छा करि है यहां हम तिट है" जाते समय इस प्रकार कहे हैं-भी स्थान के स्वामी हो, हम तुम्हारे स्थान में इतने कात विष्ठे अब गमन करे है। नोट ३-जैन घाल गुटका दूसरे भाग में दान के चार भेद करणादान, पात्रदान, समदान, और सर्वदानमौर दिल हैं। जिसका तात्पर्य ऊपर चार दान है सोई पाठसगण.कोई · शंका न करें। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ की स्त्री समाज से प्रार्थना मिय माताओं व वाहनों ?.. मैं अपने इष्टदेव का स्मरण कर आपके सनमुख कुछ लेखं द्वारा प्रकाशं करती हूं कि यद्यपि हर स्थान पर · स्त्रियां धर्मः साधन करती हैं तथापि जैसा करना उचित है वैसा..कम नजर आता है इसलिये मेरा विचार यह है कि आप वाहनों की सेवा करूं। मुझमें ज्यादा ज्ञान नहीं है परन्तु जिन शासन: भक्ति वस कार्य करने को उद्यमी हुई हूं। सन्सार में उपकार और अपकार दो ही हैं। उपकार नाम भलाई और अपकार. नाम बुराई में देखने में अक्षरों का थोडासा ही अन्तर है जो अपना और दूसरों का भला करते हैं उन्हीं का जीवन सफल है.। इस मनुष्य पर्यायको देवभी तरसते हैं। . .. ... जैन समाज के आचार सुधार का एक स्त्री समाज ही “निमित्रं है जैसे गाडी दो पहियों के विना नहीं चल. सक्ती है......... हम आचौदसको सूत्रजी भक्तामरजी . सुना करती है यह इंद्रता जगत प्रसिद्ध है। मंगर हम बहुतसी वहिनें यहभी-नहीं: जानती हैं कि इनमें क्या लिखा है और यदि नियम से शाल स्वाध्याय करें तथा सुनें तो हमारे आचार विचार श्रेष्ठ होसक्त हैं। शीलबन्ती सीता अंजनाकी सी. पदवी धारण हम कर संती हैं। वे भी स्त्रियां हम सरीखी थी। मगर शाखज्ञान ना इस सवव से धर्म में हर प्रकार से दृढ़ थीं और यही कारण है कले मोक्ष मास करेंगी और सन्सारमें उनका नाम विख्यात है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिये हमको . धर्भ साधन करना हमारा परम कर्तव्य है। :: इस पुस्तक में हर पुरुष व स्त्री को जो नित्य पट कम करने. चाहिये उसका कुछ संक्षेप से हाल लिखा है। आशा है कि एक चिन हो पढें व श्रवण करें। . . . ___ स्वाध्याय? समान कोई राय और कल्याणकारी वस्तु नहीं ..है। सदा उसमें लीन रहना योग्य है। . किसी से बाद विवाद नहीं करना । इस्म गुण नहीं बढ़ना है। शांतिपूर्वक धर्म माधन करो निमित्त पाकर उपदेश व समाधान मिष्ट. वचनों से करना श्रेष्ठ है। .. : माला तो करम फिर, जीभ फिर मुखं मायं । मना फिरे बजारमें, वो तो मुमरन नाय ॥॥ माला चैतनसों कहै, कहा फिराये मोय । मनुवा क्यों नहिं फेरगा, मक्त मिलावै सोय ॥२॥ आयु गले मन ना गले. इच्छाशा न गलंग :। . तृप्णा मोह सदा वढे, यासे भत्र भटकन्त ॥३॥ . ज्यों मन विपयों से रमें, त्यो हो आतम लीन । . क्षणमें सो शिव तियबरें क्यों भव भ्रमैनधीन।।2 • एक चरन जो नित पढे. तो काटे अज्ञान । पनिहारी. की.डोरिसे, सहज कटे पापागा ॥ ५॥ ... शास्त्रों के पढने व मुनने से हमको ज्ञान होगा कि. धर्म क्या है ? स्त्रियों की कैसी पर्याय है ! पतिवना शीलता कैसे चन सक्ती है । सम्यक्त क्या है स्त्री पर्याय से छुटकारा होकर किस विधि मोक्ष माप्त हो सकता है ? यह सब धर्म के स्वरूप Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) अवश्य जानने योग्य है । सूत्रजी भक्तामरजी का मैं निषेध नहीं करती हूं मैं भी पाठ करती हूं मगर उसके अर्थ समझने की भी अति आवश्यकता है क्योंकि समझने से फल श्रेष्ठ और पूर्ण मिलता है । हमारी भाइयों व पिताओं से प्रार्थना है. कित्रियों को भी अवश्य धर्म लाभ पहुंचावें । विद्याभ्यास करावें । ज्ञान से लोकिक व पार्थिक सुखमाप्त होता है । गृह में अज्ञानता के कारण जो कुछ भी त्रुटियां हों वह शास्त्रज्ञांन द्वारा दूर हो सकती है। धर्म नाम आशा छोड़ना शङ्का तजना । यह जीव कर्मों से ऐसे लिप्त हैं जैसे सोना - पत्थर या. तिल - तेल । इस जीव का केवल ज्ञान, क्रोधादि जो कपाय उनकर आछादित है, इन दोषों को यथोक्त रीति से दूर करने पर वह निर्मल चिदानन्द ज्ञानमई शिवरूपी आत्मा सूर्य समान प्रगट होजाता है । . २- स्त्रीयां गृह में अथवा वसतिका में रहकर धर्म साधनं कर सकती है । श्राज कल इस पंचम काल में श्रार्जिका कम ि घडती हैं, इस लिए अपने गृह में ही बहुत कुछ धर्म साधन हो. · सकता है । इस पुस्तक के पढ़ने से भी बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होगा । 'भगवती श्राराधना श्लोक ८३ में लिखा है कि स्त्रीयों के महावृत मी हो सकते हैं। ३- स्त्रियों का महाव्रत । . १६ हस्त प्रमाण ९ सफेद वस्त्र अल्प मोल, पग की पड़ी सू लेय मस्तक पर्यन्त सर्व अङ्ग कूं आछादन करि और मयूरपिच्छ की धारण करतो ईय पथ करती, लज्जा है प्रधान जा, सो पुरुष मात्र में दष्टि नहीं धारती, पुरुषन ते यचनालाप नहीं करती, ' ग्रांम नगर के अति नजीक हू नहीं अति दूर हू नहीं, ऐसी वसतिको में अन्य आर्यिकानि के संघ में वसतो, एक बार बैठ मौन सहित Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाजापती (२२ माम त एक पा १०० चाचा के गर) एक यात्र बिना नियतुप गावह परिचा नहीं पागा करती. टुम्बादि से ममत्व रहित रहनो-स्त्री पर्याय में प्रमिन की यही पूर्ण ना . है - उपचार में महाया कहिण, निश्वर में अणुव्रत हो है। पांच गुण स्थान हा है। यदुरि जो गृह में यमि करि, अणुन धारण कपि, शील संया मंगोल नमादि का रहने पाखानि के अपुरन है, सो मंत्तर में दोऊ ही होय।। ४-जो देशली में "त्री शिक्षा पर प्रस्ताव प्रा या मो प्रकाश करती हूं--- स्त्री-शिक्षा। . देहली में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासमा के २७ - सन १९२३ बीर सं०२४४५ के अधिवेशन में सभापति, भीमान सेट गवजी सखाराम दोशी (सोलापूर) के न्यारागन से उद्धनः। : . स्त्री शिक्षा के बावत सब किमी का मतभेद नहीं है परंतु 'त्रियोंको शिक्षा किस तरह की देनी चाहिए उसमें मतभेद रहना है। मेरी समझ में स्त्री को धर्मशास्त्र का अवश्य ज्ञान होना चाहिए। . पण्डिन आशाधरजो अपने सागार धर्मामृन में लिखते हैं कि घ्युत्पादयेत नराम् धर्म पनी प्रेम पर नगन् । ... साहि मुग्धा विगुदा या धर्मात भ्रशयेत तराम ॥ . अर्थ-अपनी पत्नी को धर्म में अच्छी तरह से व्यसन्न करना चाहिये । क्योंकि यदि यह धर्म से अनभित्र हो या प्रतिकूल होजाय तो अपने पति यादि को धर्म से भर कर इस लिए स्त्रियों को धार्मिक शिक्षा अवश्य देनी चाहिए और उसके साथ लौकिक शिक्षा धर्मसे आवरूद्ध हो,बद पदानी · देती है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) .. चाहिएं। बाहार शुद्धि का ज्ञान स्त्रियों को अवश्य चाहिए, सीने पिरोतका ज्ञान, गृहं व्यवस्थाका ज्ञान, यह अवश्य चाहिए। कई विदाः नाका मंत ऐसा है कि पुरुष और स्त्रीको शिक्षा एकसो होनी चाहिए। स्त्री पुरुष के हक्क समान हैं यह बात धर्म से विरुद्र जाती है। देखो श्री आदिनाथ भगवान ने अपनी पुत्री ब्रह्मी और सुंदरी को जब पढ़ाने का प्रारम्भ कर दिया उस वक्त उन्होंने जो उपदेश दिया उसका महत्व ९डा है। ... इदं वपुर्वयश्चेद . मिदं शीलमनोदशम : ... विजया चेद विभूप्येत सफल जन्मवामिदम ॥ . विधायान परपो लोके सम्मति याति कोविदः। : : . नारी, च तद्वती धरो स्त्रों सृष्टमित पदम् ॥ . . .:: ... अर्य-यह प्रापका शरीर चय और शील यदि शिक्षासे भूषि . वहोजायगा तो आपका जन्म सफल होगा जैसाकि विधामपुरुष लोगों में विद्वानों से श्रेष्ठताको प्राप्त कर लेता है, उसी मुजय विदुषी. ली ऋष्टि में श्रेष्ठ पदवो धारण करती हैं। प्यारे भाइयो! श्रीआदि नाथ भगवान के उपदेश को अच्छी तरह दखा, और उसो श्रादेश: माफिक अपनी पुत्रियों को विद्या पढाना चाहिए, पुरुष सृष्टि और स्त्री सृष्टि जुदो मानी गई है, दोनों को पढाई का मन्तव्य भी जुदार. चाहिए अपने को स्त्रियों के लायक पाठ्य पुस्तके भी. अच्छी वनबानी चाहिये जिसमें स्त्रियों का धर्म : अच्छी तरह बताया हो । . ': ५-हे वहिनो ! जो कुछ मुझ से मशुदि या अनुचित कहा .गाया हो उसे आपः परिंडता क्षमा करें। .. . :: ....... जिन सेविका-. .. ... ... अनारदेवी, धर्मपत्नी श्रीमान लाला द्वारकामसाद जैन, C. K हाथरस निवासी व. इस पुस्तक के प्रकाशका Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥ धर्म-चरन्चाएँ । - ... १-यदि स्त्राच्याय में कोई शङ्का उपहें नो स्थानीय साधी माइयों से समाधान करने अथवा डाक द्वारा किमो विद्वान मे। 'जो चरचा चित में नहिं चहुँ, सो सब जैन सत्र सो कड़े । . अथवा जो श्रुत मरमी लोग, तिनं पुचि लीजै यह जोग ।। - इतने में संसे रहिजाय, सो सब केवल मांहि समाइ । याँ निसल्य कीजै निजभाव, चरचा में हर को नहि दांव ।। . २-जैन पञ्चों में स्थानीय भाइयों से ज्यादा गुण होने चाहिए । पञ्च शब्द से यह अभिप्रायः है कि ये न्याय पूर्वक संसारी व धार्मिक कार्य करेंगे तथा समाज को चलावेंगे । समाज पर उनको सदैव गंभीर और क्षमा भाव रखने योग्य हैं। परिडत भूदरदास जी कहते हैं। . . जैन धरम को मरम लहि वरतै मान. कपाय । . यह अपच अचरज सुन्यौ जल में लागी लाइ ॥ . जैन धर्म लहि मद बढे बौदि न मिल है कोई । .. अमृत पान विप परणवै ताहि न ओपध होई ॥ . नीति सिन्धासन बैठौ वार, मति श्रुतदोनु रापि उजीर। । 'जोग अंजोग इंकरी विचार, जैसे नीति नृपति व्योहार।। ३-प्रत्येक जैमी (भावक तथा भाविका) को यातसल्य .अङ्ग धारण करने का विचार रखना परमावश्यक है। यानी एक इसरे को देखकर यया उचित सन्मान करमा, प्रसन्न होना, मुशलता पूछना तथा धर्म चरवा करना गाय बछड़े जैसी प्रीति दोना इत्यादि- "गुणिषु ममोद" इस प्रेम भाघ को घातसल्य भला माइते शक्ति-माफिक एकदूसरेको संहायता श्रीसमधुपा करना। :, . हमको आपस में जुहारशय नेमाल करना चाहिए। संद का अर्थ समकार है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२. . ) * श्लोक * " • जुगादि वृषभेदेवः हारकः सर्व संकटान | रक्षकः सर्व प्राणाणां, तस्मात जुहार उच्चते ॥ अर्थ- जुहार शब्द में तीन अक्षर हैं १ ज २ हा ३ र । सो जु से अर्थ है कि जग के आदि में भऐ जो श्री देवाधिदेव ऋषभदेव भगवान और है. से हरने वाले 'सर्व' सकटों के, गैर रं, से रक्षा करने वाले कुल प्राणीयों के उनको हमारी तुम्हारा दोनों का नमस्कार हो और वह कल्याण करता परमपूज्य हमागं दोनों का कल्याण करें । - प्ण पक्ष को पडवा का सुबह हो सोता हुआ दाहने स्वर में जागे और शुन पक्ष की पडवा को सुबह वा खर में जागे तो शरीर निरोग्य रहे । यदि स्वर विपरीत हो तो करवट से बदले । भोजन के पीछे परमात्मा को नमस्कारकर दोनों हथेलियाँ . को रगड़ मैत्रों से मलं ले तो नेत्र रोग न होगा | यह धर्म साधन हेतु लिखा है । . ६- प्रत्येक नगर में दि० जैन वाचनालय होना जरूरी है । जहां पर सब जैन जैन भाई श्राकर बैठें यांचे चरचा करें इत्यादिफीस वगैरह किसी प्रकार की नहीं होना चाहिए | और हर स्थान पर मालवा औषधालय वड़नगर को शाखा भी रखनी लाभ दायक है । • " - ७- यदि आप किसी को जैन धर्म का अमूल्य रस अमृत पाम करा देवेंगे तो यकीन रखिए कि वह आप का बड़ा श्रभारी और उत्कृष्ट मित्र जन्म २ में होगा ! अज्ञान तिमिर व्याप्तिमयाकृत्य यथायथम् । जिन शासनं महात्म्य प्रकाशः स्यात्मभावना ॥ : खामी समन्त भद्राचार्य ने कहा है कि अज्ञान के अँध कार को नष्ट करके जैन धर्म के वड़प्पन का प्रकाश करना ही सच्ची प्रभावना है। इस लिए प्रत्येक स्त्री पुरुष को चाहिए कि जैन प्रथों को कायं पढ़, दूसरों से पढ़ने के लिए कहें। और निर्धनों Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) को शास्त्रदान करके उनको शानी बनाएँ । इस काल में इस से चढ़कर और कोई पुण्य कार्य नहीं । घनी धर्मात्माओं को पथ . . सुफ्त में बाँटकर अपने धन को सफल करना चाहिए । · ✓ : ९ -- किसी भी धर्म शास्त्रों व पुस्तकों के पत्र, धूक को नमी से, नहीं पलटने चाहिए। और विनय से रखना चाहिए । १०- धर्म साधनं व स्वाध्याय समय श्रवोथन नहीं खुजाना चाहिए | ११- किसी से वाद विवाद करने का उद्देश्य जेनियाँ, को कदापि न करना चाहिए। प्रश्न पर मृदु वचन से समाधान कराना च कर देना योग्य है। १२ -- भारतवर्षीय दिगम्बर संस्थाओं से निवेदन है कि जो १ भो पुस्तकें उनके यहां से विना मूल्य वितरण हेतु रूपों हो वो एक २ प्रति सुझे अवश्य भेजने की कृपा करें। १३- बहुतों का ख्याल है कि रूपं गंध पुस्तकादि से अवि"नय होती हैं इस लिए हम उनको ग्रहण नहीं करते सो ऐसे भाइयों से मंत्र प्रार्थना है कि-विनय करना, न करना, हमारा ही कर्तव्य है | लाभ दुकान सर्वत्र विचारा जाता है और विचार : गीय है। हमको पेन्थों की विनय हस्त लिखित ग्रंथों के माफिक करनी चाहिए। क्योंकि ज्ञानावर्णी कर्माको आभव श्रविनय स े होता है । हस्त लिखित शानों में - ग्रंथा "निषेध हमारे देखने में याया नहीं । का w १४- प्रगट हो कि २४ तीर्थंकर भगवान धर्म चलाने वाले होते हैं। उनके परी इस प्रकार हैं Baby Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदनाय, सुमितमाथ ): . शीतलनाथ अयांसनाय विमलनाथ अनतमाय धर्मनाथ । शांतनाथ. कुपथनाथ , अरहनाथ, मखनाथ · नामिनाथ - - "महावीर . पद्मप्रभू वासपज्य , सुपाश्र्वनाथ पानाथ . ७ : २२ . . 'चन्द्रप्रभू पुष्पदन्त - .. " हरित मुनिसुव्रतनाथ. नेमनाथ : . . ." " श्याम ....... यह कथन ध्यानोग्य है कि अहत भगवान के शरीर का वर्ण सुवर्ण, लाल, हरित, श्वेत और श्याम है तभी हमारे अजैन भाइयों को आपने कहते हुए सुना होगा, काले राम, पोले राम, हरे राम :(गोरे)सफेद.राम,लाल राम-विचारनीय बात है कि गम शहद यहाँ श्री रामचन्द्रजी. से मतलव नहीं है परंतु भगवान से। और भी रामचंद्रजों से मतलब लिया जावे तो एक शरीरं इतने रङ्ग नहीं हो सकने इस लिए यह स्वयं सिदना कि ."पमं भगवान से मतलव है श्री रामचंद्र जी का श्वेत-वर्ण था. वे भी अन्ति भगवान होकर थी मांगी तुङ्गो से सिद्ध हो गऐ है देखो भी ‘पनपण: ( जैनारामायण जैनी लोग उनकी भी पूजा . वंदना करते हैं। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) आज श्री रामचन्द्रजी आर रावण की लड़ाई को, ११ लाख ८७ हजार वर्ष व्यतीत हुए हैं। . रतत्रय(सम्यग्दर्शन जान चारित्र) देव गति . : . मनुष्य गति- itamsannog तिर्यगति . .. नरक गति इस सांतिये से यह मतलब है कि धर्म साधन करते हुए रत्नत्रय द्वारा मोन ग्रहण होता है उसी को नित्य यादगारी में पजन के समय सातिया काढ़ा जाता है-चार गतियों में यह जीव किस तरह भूमण करता है सो जैन शालों से जानना। १६-सम्पूर्ण तत्वों को जानने वाली तया तीनों लोक के ति. लक के समान अनंत श्री को प्राप्त होने वाले श्री सन्मति (महावीर या वर्द्धमान ) जिनेंद्र को मैं यंदना करता है। जो कि उज्ज्वल उपदेश के देने वाले हैं, और. मोह रूप तन्द्रः - के नए करने वाले हैं। भावार्थ श्री दो प्रकार की होती है। पर अंतरङ्ग दूसरो वाह्य । अनंतवान अनंतदर्शन अनंतन मन वीर्य इस अनंत चतुष्टय रूप श्री को मतरतश्री कहते हैं और समवसरण :प्रष्ट *, प्रांविहार्य आदि वाह्य विभूति को पार श्री कहते हैं। यह श्री वोन लोक को वितक के समान हैं, क्यों Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -1 ( १२४ ) कि सर्वोत्कृष्ट है. दोनों श्री.में अंतरंग श्री प्रधान है । अंतरंग श्री. में केवल ज्ञान प्रधान है । इसी लिम कहा है. कि वह समस्त तत्वों को, सम्पूर्ण तत्व और उसकी भूत भविष्य वर्तमान समस्त पर्यायों को जानने वाली है। इस श्री को श्री सन्मति. (अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी) ने प्राप्त कर लिया था, वे सर्वज्ञ थे, इसलिए उनको चंदना की. है। वे वीर भगवान केवल, सर्वश ही नहीं है, हितोपदेशो भी हैं। उन्होंने जो जगजीवों को हितक्षा-मोक्ष का मार्ग बताया है, वह (हितोपदेश ) उज्ज्वल है। उस में प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती ! त्या वीर भगवान मोहरूप तद्रा नष्ट करने वाले हैं। अर्थात वीतराग हैं। अतः सर्व ज्ञाता हितोपदेशकता वीतरागता इन तीन असाधारण गुणों को दिखाकर देवतिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी को जिनका कि वर्तमान में तीर्थ प्रवृत्त हो रहा है नमस्कार कर मङ्गलाचरण करते हैं। : " इसी हेतु हम "विचार करते हैं कि जहां तहां जो श्री इस्तेमाल की जाती है उसका उपर्युक्त अर्थ है-पत्रों में "सिद्धिश्री' का भावार्थ सिद्धों और श्री महावीर स्वामी से है। : । नोट: *८-मातिहार्य ...... दोहा-तरू अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार । चीन क्षत्र शिरपर लसै, भामंडल पिछवार ।।... दिव्यध्वनि मुखत खिर, पुष्पं वृष्टि सुर होय ।. हारे चौंसाठे चमर यक्ष वाजें दुमि जोयः ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७-सूतक प्रमाण विचार । पोढ़ी दिन एक साल के बालक का तीन दिन । ............ साधु का सूतक महीं लगता। पीढ़ी ३ तक .. १२ । अंपघातसें मरे उसके घर ६ महिना चीयो .. पीढ़ी, १० : गाय घोड़ा आदि घरमें जन्मे, मरे' पांचवीं .. . . छटवी :::: :::! तो स्तफ १ दिन। .. .. .. . सातवी , ३ थालक जन्मे उसके गृह १० दिन, आठवीं,. ..... नवमी, ४ पहर: प्रसूति स्थान को १ माह और दशवों: ;, नान मात्र. :: ... ": :: : :: .. .. गोत्रके मनुयो को ५ दिनकां। - १८-र से बैर को शांति नहीं। खम्मामि सब जीवाणे सब्वे जीवा खमंतु म। .. . मित्ती में सव्वभूदेसु वैरं मझ ण केण वि.॥ . प्रत्येक जीव व मनुष्यको किसी दूसरे से वैर भाव नहीं । करना चाहिए इस से संसार दीर्घ होता है और यह पैर परस्पर चढ़ता जाता है यहां तक कि अनंत भवा. में नहीं छूटता, पस ऐसा करने से मोक्ष मार्ग पर जीव नहीं लगता इस लिए धुद्धिमान चतुर मनुष्य व स्त्रीयां किसी से घर नहीं करते तथा वर का निमित्त प्राजाने पर,सौ सूरत से उसको टाल देते हैं। इस शरीर में ५६८९९५८४ रोग भरे है जिस में नेत्र रोग सिफ ९६ हैं। इसलिए शक्ति प्रमाण . हमेशा धर्म साधन करते रहो। तीर्थ यात्रादि धर्म संय तरुण अवस्था में अच्छे साधन होते हैं। न मालुम यह शरीर, हम से कब टूर जावे श्राज Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १२६ ) कल नाना प्रकार के रोग व प्लंगादि का अक्सर चक पिरा" करता है। पौरुष इंन्द्रियां थकने पर यथावत नहीं हो सकता। "शुरु में धर्म साधन करते हुए नाना प्रकार के भावों का.यह जीव ज्ञायक हो जाता है। तो अंत समय समाधि मरणं भले प्रकार कर सकता है। समाधि मरण :इस जीव ने कभी नहीं किया। इस लिए भूमण कर रहा है। एक दफे भी समाधि मरण हो जावे. तो.मोक्ष पथ पर लग जावे हमारे ऊपर किसी प्रकार का कष्ट दुख, बैर, इत्यादि से उपसर्ग हो, सब धैर्यता से सहो, प्रभू को स्म करो ईश्वर के सहस्त्र नाम है। शिव, विष्णु ब्रह्मा सिद्ध इत्यादि जो तीन लोक के शिखर पर विराजते है। लोक मांगे लगा देने से शिवलोक विष्णु. लोक, ब्रह्म लोक, सिद्ध लोक यह मोक्ष के नाम हो जाते हैं। अन्य स्थान व जीव कोई नहीं जब धैर्यता से कष्ठ, दुख और इत्यादि.सहोगे; दो :अंत में कोई ऐसी बात पैदा होगी जो हमारे अमूल्य होगी, मेरा यह कई बार का सजावा किया हुआ है। कोई चुगली करे या गालियां भी देखें तो धर्म मधान पूर्वक सहो शांत रहो। उस हो की आत्मा, जिन्या खराब होवेगी उसःही के सर पर पाप (गुनाह) सवार होवेगा। प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जो कोई अपना मुह दूसरे की तरफ टेढ़ा करेगा, वो दर्पण ले, उस ही का टेढ़ा दीखेगा। और तोकापवाद होगा और उसका दुःख फल वही भोगेगा। शांत धैर्य पूर्वक, सुनने घाले को कम मिजरा होगी ।:शांतता और गुण बढ़ेगे, लोक प्रशंसनीय होगा यदि शांतता नं धारण करोगे तो दोनों समान : हो जावोगे। किसी कवि ने कहा है. कि ... दुख शोक- जब जो आपड़े, सो धैर्य पर्वकं सर्व सहो। . . होगी सफलता क्यों नहीं, कर्तव्य "पथ पर इद रखो। वरूप.1.::. :: . . . गदे को. अपेक्षा...बीज ज्यादा.. और एकदम गिरपड़े और बीज के बीच में पुट (छिलका) म होवै और एक घमें रहते हो सो वहवीजा जान लेना--(सूखे फलों में दोष नहीं): :: :: Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (..१२७ ) ". बहुवाजे के फल । अफीम का डोड़ा, गीलो लाल मिरच, तिजारा, पोस्त, धरा सत्यानासी, एरंडखरबूजा, पपीतो, इलायची हरी:२०-जैन धर्म उद्यात करने के मुख्य उपाय । दान चार प्रकार में, शास्त्र दान प्रधान । . ___ श्रष्ट कर्म को नष्ट कर. पावे मोक्ष निदान । . : धर्म करत संसारं सुख, धर्म करत निर्वान । . . "धर्म पंथ साधे 'विना, नर तिर्यंच समान ।। : . .: (अ) स्थानीय और भारतीय जैन अजैन समाजों में जैन धर्म की प्राचीनता प्रगट कर आत्म सुख का सच्चा । उपाय बताना । " . .. ... (ब) सर्व प्रकार के ग्रन्थों का संग्रह कर स्थानीय व ग्रामादि समाज में स्वाध्याय प्रचार करना। तथा भारतीय जैन समाज में षटकर्म रूसी नियमावली प्रकाशित कर स्वाध्याय व धर्म प्रचारार्थ विनामूल्य वितरण करना। - (स ) जैन समाजकी अशिक्षित स्त्रियों में विद्या प्रचारार्य हिंदी पुस्तकें विना मूल्य वॉट कर आत्म हित पर लाना। (उ) अमूल्य जैन ग्रन्य व पुस्तकें प्रकाश कर विना मूल्य 'चांटना और मासिक पत्र को भारत वर्षीय जैन समाज को बिना मूल्य भेजना। . . . . . . (ई) वालकों के धर्म शिक्षार्थ पाठशालायें खुलवाना। २२-दो घडी ( ४८ मिनट ) में ३७७३ स्वांस होने हैं। २३-विचारने योग्य प्रश्न -। . . (अ) इस प्रश्न मर रोज-विचार करो कि मैं कौन हूं ? A . . . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) (व ) नर देह बड़ी कठिनता से प्राप्त होती है । इसे विषय भोगों में व्यर्थ मत खोयो। परोपकार एवं आत्म कल्याण में लगाओ। ... ... ., : .:. . . . . . . .:: (स ) सर्व जीवों से मैत्री भाव रक्खो। (उ.) मैं ज्ञानमयी चैतन्य हूं। (ई ) देह मेरी नहीं, जड़ है। (क) पर वस्तु (मात पिता स्त्री भ्राता. पुत्र पुनी इत्यादि कुटुम्बी जन, द्रव्य, महल, मकान, जमीन, शरीर जिसमें अपना चैतन्य रम रह्या है, इत्यादि में प्रापा मत मानों । मानना दुखदाई है...... . : ..:. . . . ( ज शुद्ध खान पान करना । सादा आहार, वस्त्र, चाल चलन ठीक रखना. व कुसङ्गतियों से बचना मनुष्य का कर्तव्य है.. ...................... ... (इ) जीव मात्रको रक्षा करो ............. ... २४प्रत्येक ग्राम नगर में यह .. अमृत रूपी धर्मोपदेश जैन अजैन माइयों की सभा कर प्रति मास सुनाना चाहिये । २५-यह पुस्तक प्रत्येक जैन मंदिर, : उपदेशक, सभाओं धर्म:प्रेमी, सरस्वती ( जिनवाणी.) भंडार में रखना चाहिये । २६. अहिंसा : पर्मो धर्मः । यतो धर्मः ततो जयः ।। धर्मात्माओं के बिना, धर्मः, अन्यत्र कहीं नहीं : पाया.. जा. सकता है .........: : - २७ गृहस्थ के कर्तव्य ।। ...." १-सर्वक्ष वीतराग देव की पूजा निग्रंथ गुरुं की उपासना स्वाध्यायः समय । तप और दान नित्य प्रति करना। . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) मधु मांस और मद्य के सर्वथा त्याग और हिंसा झंट चोरी कुशील और परिग्रह का एक देश त्याग करना । ३-मिथ्यात्द, सप्तव्यसम, अन्याय, अभक्ष्यका साया' त्याग कर पंच अणुव्रतोंके पालनमें जैनियोंको तत्पर रहकर सफल करना चाहिय नियों के चिन्ह । . १-जिन दर्शन करना, जल छानकर पीना और राति भोजन त्याग करना। __ . २६-पढने योग्य शास्त्र।। वीतराग सर्वज्ञ कथित जो । तत्व अतत्व प्रकाशक हो।, रहित विरोध पूर्वापर हो । मिय्यामत का नाशक हो ॥१॥ नहीं उलंध सके परवादी धर्म अहिंता भासक हो । आत्मोन्नति का मार्ग विशयकशान हमारा शासन हो॥२॥ ३०. उद्देश। हर एक के साथ भाईयाना वाव करते हुए मनुष्य मात्रकी सेवा कर जैन धर्म का प्रसार करना । ___ नोट--"जिना सन्सत में जीतने वाले को कहते हैं यानी जिसने क्रोधादि १८ दोप जीत लिये वह जिनेन्द्र सरज्ञ हितोपदेशक, का कथित धमापदेश, उसको "जैन धर्म कहते है। ३१-नीति वाक्य । . Be-just & fear not. "मुनसिफ हो डरो मत। Be good & do good. "नकी करो मेकरहो। Plain liring & high thinking. "सरल प्राचार उच्च विचार" • Love your King & do rour duty: • अपने राजा बादशाह से महोब्बत करो और अपना फर्ज अदा करो"। ३२--कोई प्रश्न करे कि सम्यग्दृष्टी श्रयवा सम्यक्ती की क्या पहिचान ! उसका समाधान पं० सुदरदासजी ने चर्क Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) श्ररध्व संवेग समाधान ग्रन्थ चर्चा नं० १७ में इस प्रकार किया तिलक नाम काव्य विषै पुरुष के चार बाह्य लक्षण चार ही. सम्यक्त के कहे हैं- यानी स्त्रीजन के संभोग बेटी के उपनाचने करि * विपती विषै धीर्य भाव सों कार्य के निरवाह से इन चार चिन्ह करि पुरुपकी यतीन्द्रय पुरुष शक्ति जानी जाने है तैसे ही शान्त भाव भाव * दया भाव * आस्तिक्य भाव * चारों श्रव्यभिचारी भावनसों सम्यक्त रत्न जाना जावैहै १ --- क्रोधादि रहित सम भाव को शान्त भाव कहिये । २ - कोमलता युक्त परिणाम को दया माय कहिये | ३ - धर्म, धर्म के फल विषे मीति होय तथा देह भोगस उदासीनता होय तिसे संवेगं भाव कहिये । इन यानी 8 – आप्तागम पदार्थ विषै नास्ति बुद्धि न होय जिसे श्रास्तिक भाव कहिये । यह चारों भाव कभी विभचरें नहीं । विकार रूप न 'होवें यह सम्यकदृष्टी का बाह्य लक्षण है । नोट --- जिसने सम्यक्त ग्रहण कर लिया उसके हाथ में चिन्तामणि है । धनमें कामधेनु जिसके घरमें कल्पवृक्ष है उसके अन्य क्या प्रार्थना की श्रावश्यकता है। कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामणि तो कहने मात्र है । सम्यक्त ही कल्पवृक्ष कामधेनुं चिंतामणि है - यह जानना (. परमात्म प्रकाश श्लोक १४१ से उद्धृत ) है " यश कहे हैं । करि ! वेटा ३३ – उपदेश ! १ - सन्सार में अनादि से प्रचलित मिथ्यासतों के जाल में बचने के लिये पहले अपने जेन शास्त्रों को पढ़ो और उनका मनन करो।.. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) २-स्वाध्याय करने के नियम धारगा दरो । जेन व प्रचार करने का यही एक उपाय है। ६- अपने जीवके समान समस्त जीवों को जानी । 2- दूसरों के दुखों को दूर करने के लिये हर तरह में तय्यार रहो । ५—जैन धर्म का उपदेश सम्मार के समस्त जीवों के कल्याण के लिये है । यह किमी एक समुदाय विशेष का हो धर्म नहीं है । इसलिये इसका प्रचार जगत भरमं करदो । ६- अपने से कोई बात शास्त्र विरुद्ध भूलसे कहो नाय तो उस भूल को 'हर समय स्वीकार कालो । भुंठा पक्ष मत करो । ७- प्रत्येक नगर में जैन सभा, जैन पाठशाला और जैन पुस्तकालय की स्थापना करदो। और अपने नवयुवक जैन श्रजैन भाइयों को धर्मानुराग कराते रहो : ३४ - जैन धर्म के सिद्धान्त । (१) जैन धर्म थात्मा का निज स्वभाव है । (२) सन्सारी श्रात्माही मिय्यात्व रागडपादि भावों का नाशकर अपनी सम्पूर्ण कर्मच्यो, माया से लिप्त हो परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लोक शिखर पर अतीतकाल के शुद्धात्माओं को अवगाहना में हो एक क्षेत्रावगाह रूप स्थित हो अनन्त काल तक अनन्त सुखमें मग्न रहा करता है । (३) पूर्वोक परमात्म पद के अविनाशी सुख में प्राप्त होने का श्रहिंसामयी उपदेश जैन धर्म से ही मिलता है और वह थहिंसा, राग द्वेषादिक भावों से प्राणों का घात न करना हो है । • (४) सन्सार में अहिंसामयों वीतराग विज्ञानता हो सार भूत है अतः उसको प्राप्त करनेके लिये वीतराग, सबंध और हितोपदेशी की हो उपासना करना योग्य है । (५) जीव, पुद्गल, धर्म, श्रधर्म, श्राकाश और काल इन छः द्रव्यों मय जगत अनादि सिद्ध है। (६) जीवात्मा से नितान्त भिन्न कोई एक परमात्मा नहीं है । . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ? ३५-स्त्री शिक्षा ! . ता०-१७-११-२५-को जैन महिलाश्रम संगली में मनि श्री शान्तिसागरजी महाराज ने धर्मोपदेश इस प्रकार दिया था । "स्त्रियों को शिक्षा अवश्य देनी चाहिये" क्योंकि उन्हीं की शिक्षापर समाज की भवितव्यता का आधार है। प्राचीन काल में जैन समाजकी कितनी महिलाओंन विदुषीपने को धारण कर अपनी विद्वत्ता के जोर से जैन धर्म का डसा वजा दिव्य ध्वजायें फहराई थीं। देखिये ? जैन कन्या "चेलना देवी ने जैन धर्म के तत्वों का रहस्य समझाकर अपने पति वौद्ध धर्मी "राजा श्रेणिका को जैन धर्म का दासानुदास बना भविष्य काल में प्रथम तीर्थकर के बंध होने का महत् कार्य करवाया था । पुनः देखिये तीर्थकरों को जन्म देने वाली "वानादेवी और त्रिसलादेवी आदि स्त्रियों की देवों ने भाकर सेवा की है। स्त्रियों का पद श्रेष्ठ है । समस्त सन्सारकी जन्म दात्री "महिलाओ" को लौतिक और धार्मिक दोनों प्रकारकी शिक्षा देना अत्यन्त आवश्यक है । इत्यादिः २.................... (जैन महिलादर्श अङ्क १० माघ सुदी ३ धार २४५२ से उद्धृत) ____ नोट-यह वर्तमान समय में निग्रंय दिगम्बर गुरु हैं समाज को ध्यान पूर्वक इनके उपदेश पर कन्या को और निषों को विद्याम्यास धर्म शास्त्र अवश्य पढाना चाहिये । ताकि उनकी प्रास्ता का भी पूर्ण रूप से कल्याण हो और कन्या पाठशालाएँ भी जगह २ खुलने की आवश्यकता है । . .... . . मार्थीद्वारकाप्रसाद जैन हाथरस । ३६-अरहंत भगवान के ४६ मूल गुण । ३४ अतिशय, प्रतिहार्य, ४ अनन्त चतुष्टय%४६. यानी। जन्म के (१०)--१ अत्यन्त दर शरीर, २ भति सुगंधमय Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) शरीर, ३ पमेयरहित शरीर, ४ मसम्न रदिन शरीर, ५ हिनामिन प्रिय पत्रन पोलना, ६ . अतुल्य बल, ७ हुन्नबनू श्येत पिर.. शरीर में १००८ लक्षण, ९ समचतुरन्न संस्थान, १० यत्र यभनाराच संहनन-यह अतिशय जन्म से ही उत्पन्न होते है। - केवल शान के १०-१ एक सी योजन में भिनता, यानी चारों तरफ सी २ कोश में सुकाल, २ श्राकाश में गमन, ३ चारनुलों का दोसना, ४ घदया का अमाव,५ उपसर्ग रहित, ६ कवल (पास) वर्जित आहार, ७ समस्त विद्याओं का स्वामीपना, - नान केशों का महीं पढना, ए नेत्रों की पलकें नहीं झपकना, १० शया रहित शरीर। . • देव सन १४ प्रतिगर-१ भगवान की ब्रद मागयो भाषा का होना, २ समस्त जीवों में परस्पर मित्रता का होना ३ दिशाओं का निर्मल होना, ४ श्राकारा का निर्मल होना, ५. सब ऋतु के फल पुप धान्यादिक का एक ही समय फलना, ६ एक योजन तक की पृथिवी का दर्पणवत निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान के चरण कमल के तले सुवर्ण कमल का होना, आकाश में जय जय ध्वनि का होना, ९ मंद सुगंधित पवन का चलना, १२ सुगंध मय जल की वृष्टि होना, ११ पवनकुमार देवी द्वारा भूमिका करटक रहित होना, १२ समस्त जीवों का आनंदमय होना, १३ भयान के आगे धर्मचक्र का चलना, १४ छत्र, चमर, ध्वजा, घंटा, संत्रा, दर्पण, कलश, झारो श्रष्ट मङ्गल द्रव्यों का साय रहना, इस प्रकार ३४ अतिशय अरहंत के होने हैं। प्रातिधार्य-अशोकवृक्ष का होना; २ रत्न भय सिंहासन, ३ भगवान के सिरपर तीन छत्र का फिरना, ४ भगवान के पोछ भामण्डल का होना, ५ भगयान के मुख से दिव्य पनि का होना, ६देवों के द्वारा पुप्प वृष्टि का होना, यक्ष देवों द्वारा ३४ चवर्ग का दुरना, दुंदुभि वानों का यजना । ४ अनंत चतुष्टय-१ अनंत दर्शन, २ अनंत ज्ञान ३ अनंतसुन्न ४ अनंत वीर्य । - सिद्वो के मलगुणः-१ सम्यकत्व सर्शन, ३ शान, ४ अगुरु लघुत्व,५अवगाहनत्व, ६ सूक्ष्मत्वं, ७ अनंतवोये, अव्यावायत्व पर्ण विरोय हाल जैन शालों से जानना। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७-दीर्घ चेतावनी । युद्धी वैभय यदागे के लिए राग द्वेष कोधादि द्वारा श्रयाय विगत पाचरण हमें न करना चाहिए । इम मिन जिन आधीन है उनका न्याय पूर्वक फर्मावरदारी में रहे । अयथा जो जो हमारे . आधीन है उनपर दयाभाव रखना उचित है। ३८अ हमारा जीस प्रार्थना व पाशीरवादई श्रिीमान महोदय महामान्य सम्राट पंचम जान, गृटिश सरकारका समस्त पढ्यो परं अटल राज्य दो, कि जिन कराड़ा में दम पूर्ण स्वतंत्रता पूर्वक धर्म साधन व धर्मोन्नति करते हैं । यशोमान महोदय मान्यवर, हिज पलमो गवर्नर जनरल हिंद, दिपलेसी गवरनर, संयुक्त मान United Province और भीमान महोदय कलक्टर साहब बहादुर जिले *अलीगढ़, न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट साहव व तहसीलदारजी साहब *हायरस को अनेक कोटिशः हार्दिक धन्यवाद है कि वे हम दिगम्बर जैनियों को हर तरह से हिफाजत देख रेख करते है। तथा धर्म साधन में इयं पर्वक मदद देते हैं। नोट-जो पता जिस स्थान का हो, यह वहां के स्थानों को पढ़ें। स-श्रय में निम कुछ मङ्गल भजन करके अपने स्थान पर प्रस्थान होता है। जो कुछ भी प्रमाद व अशानता बस, मुझ गलतियां व अशुद्धी दुई ही, उनके लिए जिनवाणी से क्षमा प्रार्थी हूं । तया जो २ पण्डित चतुर विद्वजन हो, मुभ मंदबुद्धि पर. क्षमा भाव कर, सुधार करेंगे। मैंने तो, कंवल, भक्ति व धर्म साधन बस यह धर्मोपदेश लिखा है यधिप में असमर्थ है जैसे चालक, चंद्रमा को पकडना चाहे। ३९-मेरी भावना व निवेदन (नमः सिद्धेभ्य) . सब प्राणी मात्र, शक्ति प्रमाण, यथा धर्म शास्त्रोक्त रीति पर धारण करो। ज्ञानी वनो ज्ञान वान होने का निमित करना. मनुष्य पर्याय को ही है इसलिये कोई परुप व स्त्री स्वाध्याय Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगैर नहीं रहना, नित्य करना । यम नेम अवश्य करना । श्रावक, श्राविका वृत ग्रहण करें। यदि शक्ति और पाप टीक हो तो शास्त्रों का मनन कर द्रव्य क्षेत्र, काल भाव अनुकल हो, तो ब्रह्मचर्य त्याग, मनि वृत ग्रहण कर अपना और दूसरों का कल्याण करिये वरना ग्रहस्थावस्था में ही जो कद वने करने रहो । अपने और दूसरों को पहिचानों । सब जीवात्मा आत्मशक्ति अपेक्षा समान है, तिल मात्र मी फर्क नहीं है। कर्मपिक्षा भिन्नता है। नोट-वापार करने के पांच भेद है, पटना, सुनना, उपदेश देना, मनन काना, प्रश्न करना, सो जिस जीव की सों शक्ति हो, गृहण करें। एक र शान को खुद पढने व सुनने से यह जो पूर्ण अवस्था को प्रावदोता है। ४५-- आत्मज्ञान माला बागां में नू न जारे चेतन, घट ही में कुलवार हो ।।का। ज्ञान गुलाब चरित्र चमेली, विना वेल सुविचार हो। चरचा चम्पा महक रहो है, मरवो मोह निवार हो॥१॥ रायवेन सिर सरना साई, शील शिरोमण घाइ हो । काई कुमत जहां तहां विगतत, देखन हुमत निवारहोत्रा समकित माली विवेक वेल ज्यों, आतम रोप निहार हो । क्यारी क्षमा जहां तहां सोह, सींचत अमृत धारही।।३।। . बहु विध कर यह वृक्ष फन्नों है, दराड़ा फल लागी हारदो। धन्य पुरूप जिन वान निहारो, अव चल देख रहार हा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १३६ ) ४१-भाई से भाई की प्रीति । भजन ! हफ्म हमको पिताजो का बजाना ही मनासिव है। . अवय को छोडकर जगल में जाना ही मनासिबी का नहीं है रोश को मौका सनी लझमम मरे भाई । मात केकई के आगे सर झुकाना हो मुनासिय ६ ॥६॥ अवध के तख्त पर अयतो नहीं चैटूगा में हरगत। ताज मेरा, . मरत के सर मजाना हो मुनासिर ॥ चतुप तुमने जो चिल्लो पर चढ़ाया है बिना समझे । धनुष को चाप से उल्टा हटाना हो मुगासिय ॥६॥ राज के वास्ते, भाई न भाई से, लटेंगे म । वचन राजा का अब हमको निभाना दो मुनासिब nu हुश्रा भारत सभी गारत पडो जो फुट आपरत में। कहे न्यामत फूट को श्रव मिटाना ही मनासिव है॥॥ श्री जिनेंद्र पद नमनते, कोई सत्र नगर मंत्र । करम भरम सबंध का, कारन पोनरंका ४२-श्लोक (अतिम प्रार्थना) धन्येयं पृथिवी तथैव जनता धन्याश्च नेशोशन्ययं . धन्या वत्सर मास पक्षदिवसा धन्यः क्षणोअयं च नः । यज्ञाम्माभिासी परस्परमभिप्रीया च सोदर्पयत । संहत्या स्थिनिमारचय्य परमो धर्मा निमः प्रस्तुतः॥ अर्थ-धन्य है यह पथ्वी, धन्य है यह मंडल, धन्य है यह देश, धन्य है यह वर्ष, धन्य है माल, पत्य है यह पत, धन्य है यह नि, धन्य है यह क्षण, जिंस में अपने सम भाई प्रशत्रित होकर परस्पर प्रेम पूर्वक मामिल प्रस्ताव करते हैं । बोलो-जन धर्म को जयःजिन संवक-द्वारकाप्रसाद जैन C. K. (गोत्र कोलभंडारी) . जैसवाल-क्षत्रीय-इक्ष्याकुवंश हायरस निवासी, सभापति श्री दि० जैनधर्म प्रभावनों सभा व पो० मास्तरसाभर लेक (बैड पौषिस ) साताना (मई १९२५६०) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपधिदान ! भीमती स्वर्गीय भगवान देवी जैन पारमार्थिक श्रीपवालर , स्थापित वीर सम्वत २२५१ ) हायरस यू० पी० के । १ उद्देश्य-शुद्ध श्रौषधी श्री श्रीपधिदान का सर्वत्र प्रचार कर रोगी दुखी जनो की पीड़ा दूर करना । २ नियम- धर्म रहे श्र० धन चचे, रोग समुल नसाय। यह सुख शीघ्र उठाइये शुद्ध श्रीषधी साय ॥ शरीर को निरोगता पुरुषार्थ साधन सेतु है । कंचन सुगंधित देह का निर्माण औषधि हेतु ॥ दान श्रीपति पुरुय यश कर बचे नृप धन प्राण है। जगमें शिरोमण नर वही जो देत जीवन दान है ॥ धर्मार्थ खोला - श्रीपधालय सभ्य दृष्टी दीजिए ॥ शुभ द्रच्वदेकर आप अपना यश उपार्जन कीजिए | जो धीर दानी दानसे इसको समुन्नति देगे । ये पद व फोटो से विभूषित होगे पुनि दाँगे ॥ ३ - सर्व औषधि नुम् खे मुफ्त | वैधजी विनफीस असमर्थ रोगो की देखते हैं। 1 १ ४ - स्थापित ता० २८ मई १९२५ से ३१ जनवरी १९२६ जिनमें से २३७७ . तक २५२० रोगियों को दवाएँ दीगई को थाराम हुआ । - श्रार्थिक मासिक सहायता की छपी रसीद दी जाती है । विवरण प्रतिमास जैन समाचार पत्रों में व वार्षिक रिपोर्ट में रूपकर प्रकाशित होता है । ६--जो निम्न लिखित सहायता देंगे उन्हें नीचे लिखे पदों से त्रिभूपित कर उन के फोटो श्रीषधालय में सुशोभित किए जायेंगे। और प्राद्रव्य औषधालय के कार्य में लगाया जायेगा । मूल संथापक १ ही संस्थापक ५ ही १ हो १० हो मुख्य सहायक २५ हो मुख्य संरक्षक संरक्षक २५०००) जैन जाति एन १००००) जैन ज्ञाति योर ६००) जैन बंधु ४०००) जैन हिंदी ६१९२१ धर्मः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " . . .१ से १००) तक : : सहायक ... हो.... ५००) उदार चिर . मुख्य पोषक २५.हीं . . १०१). श्रीमान : पोषक :.:::.स्त्री समाज ! - : म स्या हो .००) बी.एन . संस्थापिका . ५ हो. . .. ५०००) सी भूपय :: मुख्य संरक्षिका ३ हा ३०००) जनहिन रक्षिका .. ७ हो .. :: .२०००) जन हितषिका मुख्य सहायका १० ही... १७००) धर्मज्ञ सहायका : १५ ही . . . . ५००). उदार चित्त - मुख्य पोषिका... २५ हो . ९००). श्रीमती · : पोषिका .. .से ९९) तक ७- अजन समाज भी योग्य पदों से विभूषितं किंर जायगे!.. म-इस औषधालय को १२५) रुपये को मासिक जरूरत है श्रीमती भगवान देवी ने ३०००) का धोव्य फण्ड में दान किया है जिस - की आमदनी व्यांज में सिर्फ १५) मासिक है इस लिए. द्रल ...के प्रभाव से पूर्व रूप में कार्य चालू होना सम्भव है । देखि .. श्रीमती प्रीपधिदान कर परभव में चली गई. और यहाँ पुएवं यश संगई। .. . ...... .......... हमें अपने जीवन का एक पल का भी भरोसा करना योग्य नहीं और धर्म साधन में तत्पर रहना चाहिए। .. .... .१-इस औरंधालर के संरक्षक ट्रस्टीज,श्रीमनी: लंदनीकुमार जैन रईसों और श्रीमान वर महाराजसिंहजी जिनराजसिंहजी ...जम रईस जमदार कासगंज है। .... "१०-प्रबंधक श्रीमान या चतुभुज जी जैन गवर्नमेंट पेंशनर :: द्वारकाप्रसाद, होवीलाल जैन पोस्टमास्टर, खुन्नीलाल - B.SC (ENG) F.CI (BiR) इनजोनिअर तथा निर्माण ... प्रबंधक श्री महावीर दि. जैन मंदिर हाथरस है। .. समाज हितेपी.-. नगद जैन, मैनेजर व कोपाध्यक्ष ::-::... :..द्वारका श्रीमती भगवानदेवी जैन पारमार्थिक भाषघालय, मुकाम हाथरस ( जिला अलीग HATHRAS, U.P. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- _