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________________ ( १९०) जितने यमघ नेम कीये जावे सो सव कप के भेद है आपको को १७ नियम नित्य करने चाहिए-१ भोजन २ पटरस (दुध दही तेल घी मीठा मोन) ३ पान (पीने)की घस्तु ४ फुकमादि विलेपन सुगंध तेल लेपादि ५ पुष्प-फूल ६ तांघुल-पान मपारी आदि ७ गीत-संसारी गान नाटकादि : नृत्य-संसारी नृत्य । ब्रह्मचर्य-काम संवन १० मान ११. चल १२ भूपगा १३ चाहन हाथी घोडा घेल आदि १४ शयन-शय्यादि १५ 'आसन चौकी. कुरसी फर्स आदि १६ सचित (हरो का प्रमाणा) १७ अन्य वस्तु (दिशाओं का भूमण)-यह बारहयो नियम ग्यारहवां स्थूल भोगोपभोग परिमाणवत ऊची प्रतिमा यादी भावकों को करना चाहिए । हम जैनियों को ऐसे हर समय भाव रखने योग्य है।" सत्वेषु मैत्री गुणिपु प्रमोद,क्लिष्टेषु जीवेषु रूपा परत्यम् । 'माध्यस्थ भावं विपरोत वृत्ती, सदा ममात्मा विद धातु देय । O Lord ? make myself such that I may have love for all beings, pleasure at the sight of learned men unstintcd sympathy for those in trouble, and .. tolerance towards tbose who are, perversely inclined. नोट-मधस्थ भावना उस भाव को कहते हैं जैसे एक अनजान पुरुष हो तिस से न तो मित्रता है न शत्रुता है...: . स्वाध्याय करना सो अंतरंग तप है। चिदानंद चैतन्य के गुण अनंत उर धारि-क्रोधादि को इस प्रकार जीत दश धर्म उपार्जन करै। का अभाव :क्षमा से . : भान : .... , मादव* मान कपाय रहित . . काँधका का माया ... • . असत्य :: , आर्जव + , +कपट छल रहित । :,' सत्य . " .
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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