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(७५) .: हमान नाटक" (चम्पई के लक्ष्मी बैंकटेदवर प्रेस में सम्बत १९५७ में छपा ) उसके पन्ने पर यह श्लोक है। यं शेवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदांतिनो । बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कति नैयायिका ।। अन्नित्यथ जैन शासनरताः कति मीमांसकाः । सोऽयंवो विदधातुबाञ्छित फल त्रैलोक्य नाथ प्रभुः
......... (अ० १ दलोक तीसरा ) . . नोटादिनाथ भगवान का जैन सम्बत इस. पुस्तक के आदि से जानना . . . . . . . .
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... धर्म उसे कहते हैं. जो.वस्तु के स्वभाव को प्रगट करता है यानी वस्तु. स्वभावो धम्मो जो हमारा निज स्वभाव केवलंज्ञान है उसका प्रगट होना जैसे अग्निका स्वभाव उगता इत्यादि। धर्मः जीव के चलने में सहाई होता है जैसे मछली के चलने में जलं सहायक है जोः२ धर्म के विरुद्ध कार्य है उसको..अधर्म कहते हैं, धर्म अधर्म अनादि है। धर्म हमारा निज स्वभाव है इसको सब मानेंगे यानी हमारा यह सर्वमाव है कि ..
: (१) इमको कोई न मारे पसं . हमको भी किसी जीव काः यात नहीं करना चाहिये। . . .:
(२)हम से कोई झूट नहीं बोले पस हमको भी झूठ नहीं वोलना चाहिये ।