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श्रीवीतरागायनमः ॥
श्री परमात्मने नमः श्री ऋषभ - महावीर देवायनमः ॥ अहिंसा परमोधर्मः यतो धर्मः ततो जयः ।
धर्मात्माओं के बिना धर्म अन्यत्र कहीं नहीं पाया जा सकता।
भूमिका उद्देश्य |
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प्रायः ऐसा देखने में आता है कि किसी २ नगर में कुछ जैन ति के बांधव व वहिने, षटकर्म व धर्म मार्ग को हम न कर सी २ बातों में अन्यथा प्रवर्तते है जिससे धर्म के श्रायतनों पर छ माक्षेप व विघ्न अक्सर हो जाता है और उसके अतिरिक्त भंडारों के दर्शन तक कठिन हो जाते हैं। स्वाध्याय का तो हना ही क्या? प्रिय सज्जनों ! रूपया सोचिए कि हमारे श्राचायों कितना परिश्रम और करुणा कर कैसे २ /महान ग्रंथ रचे हैं। और महत पुरुषों ने परिश्रम व लाखों रुपया खर्च कर, परिपाटी लाते आए हैं। अफसोस ! आज हमारे भाई व पंच कहलांकर न मंदिरों पर विश्न व उसके उन्नतिमें बाधा डालते हैं और जिन
गमों के दर्शनः तर्क नहीं करते करते । लेकिन जीणं कर विनय करते हैं या यो कहिए कि सदां के लिए जलांजलि दे रहे हैं। से से महा अशुभ कर्मों का ध्थाथव होता है । क्या अमूल्य जैनधर्म, शास्त्र कम नहीं होते हैं ? इन सब बातों का कारण सोचा तोय तो यही कह सकते हैं कि शास्त्रज्ञान नहीं, या स्वाध्याय - वृति महीया यया शक्ति श्रमं श्रीर विचार नहीं, अंयंत्रा आदी वन रहे हैं ।.
7 २ - द्वितीय हमारे बहुत से जैन बांधव जैन धर्म या उसके. सुलों को न जानकर जैन धर्म या जैनियों की किसी २ बातों पर निदा करते हैं और जैन सम्प्रदाय, उनको जैन धर्म का स्वरूप बताने में प्रमादी हैं अथवा पता नहीं सकते हैं, इन्हीं कारणों से किसी में स्थान पर हमारे अजैन बांधव, जैनियों के धार्मिक कार्य च उत्सवों पर हुएं और पुण्य संचय न करते हुए, विघ्न का कारण पैदा कर देते हैं । हमारा अजैन समाज सेनम्र निवेदन है कि वे जैनियों से मित्रता कर जैन मंदिर में नित्य जावें धीर जैन धर्म से लाभ उठावें ।.
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. ३ - इन्हीं अशुभः कारणों को दूर करने के लिए, यह अमूल्य पुस्तक प्रकाशित की है ताकि 'स्वाध्याय प्रचार और धूम प्रभावना रा, अन्त में मोक्ष सुख लाभ प्राप्त करें ।.
द्वारकाप्रसाद
जैन C. K.