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________________ ( १००) ओगुरु के प्रसाद कर अनन्तानत जीय अनन्त सुख में प्राप्त हो गए और होवेंगे। काल दोष से यदि वे हएि में पड़े तो अन्य उनकी नगह नहीं माने जा सक्ते हैं जैसे हंसो के न दीखते हुए अन्य पक्षों को हंस की पदवी नहीं हो सकती है। इस का श्राप खुद न्याय कर सक्ते हैं। जिस जीव में सिंह के गुण होंगे वही "सिंह कहा जा सक्ता है। केवल "सिंह" नाम रखने से सिंह नहीं हो सकता है। देव गुरु शान का अविनय करना .अनन्त दुस्ख का कारण है और ऐसे दोष देखि एक दूसरे को न समोधे तो प्रमाद का दोष लगता है तातें कल्याण निमित्त धों. पदेश देना आवश्यकीय है। इस जीवन को केवल धर्म हो सहाय है.धर्म न उपाा होय और बहुत काल तक जीने और सूर्य को इच्छा करे, तो कैसे बने । कमों की विचित्र गति है। क्षणं में जीव - पर्वत पर क्षण में खाड़े में क्षण में एक रस से दूसरे रस में, . कभी विरस इत्यादि में आता है। देखिए हमारी अवस्था कसो हो रही है, पं० भूदरदास जी कहते हैं:. . . ' : 'जोई छिन कटै सोई आयु में अवश्य घटै। ....: "द २ वीतै जैसे अंजुली को जल है। .. देह नित छीन होय नैन तेज हीन होयं । . . .. . . जोवन मलीन होय छीन होत वल है ॥. : . ढुकै जरा नेरी तकै अन्तक अहेरी आवे ।। परभौ नजीक जाय नरभौ निफल है॥ .:. मिलकै मिलापी जन पूंछत कुशल. मेरी। . ऐसी यों दशा में मित्र! काहे की कुशल है। यह परिग्रह. विनासीक महा दुख का कारण है । देह अपवित्र है। ज्ञान रहित अविवेकी इस तन से अति राग करता है। यह शरीर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध होता है और मनुष्यं देवादि द्वारा पूज्य होता है। जीव भोंगों से तृप्त नहीं खेळाज्यों २ मोग करता है त्यों २ लालसा बढ़ती है जैसे ... ... .- - .
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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