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..' शरीर में क्षुधा भोगादि रोग है। एक दफै वृप्त हो। म शान्ति नहीं होती है। परन्तु मनुष्य पर्याय उच्च कु, पावक कुल, साधर्मीयों की.सतासङ्गत मुश्किल है । जिनवाणी सान नय से वर्णन होती है । जैसे दूध बिलोने वाली एक हायकी एस्सी ढीली करती है मंगर छोडती नहीं फिर हमरे हाथ की रस्सी ढीली करती है इस प्रकार की क्रिया से मक्खन निकाल लेती है ।. उसी प्रकारः स्याद्वादी सम्यग्दर्शन से तत्वस्वरूप को अपनी ओर खींचता है, सम्यग्ज्ञान से पदार्थ के भाव को ग्रहण करता है. और दर्शनंज्ञानकी श्राचारण क्रियासे, सम्यगचारित्र से परमात्म पद के प्राप्ति की सिद्धि करता है। भावार्थ जिस नय के कथन का प्रयोजन द्रव्य से हो उसे द्रव्याथिक और जिसका प्रयोजन पर्यायः से ही हो उसें: पार्थिन. नय" कहते हैं इन दोनों नयों से ही उस वस्तु के यर्थाथ स्वरूप का साधन होता है। ' : नय वस्तु के एक देश को जाना वाले ज्ञानको कहते हैं मुख्य नय, दो प्रकार के हैं। निश्चय और व्यवहार अथवा उपनय वस्तु के असली अंश को ग्रहण करना उस निश्चय नय कहत । 'जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घका कहना। किसी निमित के वश से एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ कप जानने वाले ज्ञान को व्यवहार नय कहते हैं। जैसे मिट्टींक घड़े में घी के रहने से पा का घडा कहना । निश्चय नय के दो भेद द्रव्याथिक दूसरा पर्यायार्थिक। जो द्रव्य अर्थात सामान्य को ग्रहण करे उस हव्याथिक नय कहते हैं। जो विशेष कों (गुणं अथवा पर्याय को) विषय करें। उसे पर्यायायिकनय कहते हैं। व्याथिक नय के तीन भेद नैगम. संग्रह, व्यवहार । पर्यायार्थिक 'नय के चार भेद-ऋजुसूत्र, शब्द समभिरुढ, और एवंभूत । विशेष हाल जैन