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__( ४० ' संसार में फिरते हुए जीवों को मुख तो कितना है और दुःख कितना है सो. वृपा करके मुझे कहिए । यह प्रश्न सुनकर मुनिराजने कहा कि हे भद्र ! संसार के सुख दुम्न को विभाग कर कहना बड़ा कठिन है, तथापि एक दृष्टांत के द्वाप किंचिमात्र कहा जाता है, क्योंकि टांत विना अल्प जीवों की समझ में नहिं आता सो ध्यान देकर सुन । .
अनेक जीवों कर भरे हुए इस संसार रूपी वन के समान एक महावन में दैवयोग से कोई पथिक (रस्तागीर) प्रवेश करता हुचा। सो उस वन में यमराज की समान सूड.को ऊंची किए हुए क्रोधायमान बहुत बड़े भयङ्कर हाथी को अपने सन्मुखं आता हुआ देखा। उस हाथी ने उस पथिक को सोलो के मार्ग से अपने आगे कर लिया और उसके आगे आगे भागता हुआ यह पथिक पहिलें नहीं देखा ऐसे एक शान्धकूप में गिर पड़ा। जिस मकार नरक में नारकी धर्म का अवलम्बन करके रहता है, उसी प्रकार.वह भयभीत पथिक उस कूप में गिरता गिरता सरस्व कहिए सेर की जड़ को अथवा बड़ की जड़ को पकड़ कर लटकता हुआ तिष्ठा । सो हाथी के भय से भयभीत हो नीचे को देखता है तो उस कूप में यमराज के दण्ड के समान पड़ा हुआ बहुत बड़ा एक अजगर देखा । फिर क्या देखा कि उस सरस्व को जड़ को एक खत और काला दो मूसे निरन्तर काट रहे हैं जैसे शुक्लपक्ष और मष्ण पक्ष मनुष्य की आयु को काटते हैं।
इस के सिवाय उस कूप में चार कयाय के समान चत लम्चे २ अति भयानक चलते फिरते चारों दिशाओं में चार सर्प देखे। उसी समय उस हाथी ने क्रोधित होकर संयम को असंयम की तरह कूप के तरपर खड़े हुए वृत को पकड़कर ज़ोर से हिलाया
सो उसके हिलने से उस पर जो मधुमक्खियों का छत्ता था उसमेसे · समस्त मक्खिये निशल कर दुःसह बेदनाओं के समान उस पथिक
के शरीर पर चिपट गई । तब वह पथिक चारों तरफ मर्मभेदी पीड़ा देने वाली उन मंधु भक्खियों से घिरा हुआ अतिशय दु:खित हो ऊपरि को देखने लगा । सो क्ष की तरफ सुख को उठाकर देखते ही उस के होटों पर बहुत छोटा एक मधुका विंदु पापड़ा ।