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दूर देश से मणि औषको गवाना कौन भर्य इस लिए अब चिंता ता निराकुल होय अपना मन समाधान में लाई
यह विचार वह धीर वीर राजा मधु घाव कर पूर्ण .. हाथी चढ़ा ही, भाव मुनि होता भया,
अरहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधुओं को मन बधन काय कर बारम्बार नमस्कार कर और भरहन्त सि साधु तथा केयली प्रणीत धर्म यही पङ्गल है यही उत्तम है इनहीं का मेरे शरण है अढाई द्वीप विप पन्द्रह फर्म भूमि तिन विये भगवान अरहन्त देष होय हैं वे लोक्य नाथ मेरे हृदय में. तिष्टो में बारम्बार नमस्कार का हूँ अब मैं पावजीष सर्व पाए योग तजे, चारों माहार तजे, जे पूर्व पाए उपा घे तिन को निंदा करूं हूं और सकल वास्तु का प्रत्याख्यान. कर, मनादि काल से इस संसार वन में जो, कर्म उपार्जे घे मेरे दुसहत मिथ्या होवो। भावार्य मुझे फल मत देवें । भर में तत्वज्ञान में तिष्ठा तमवे योग्य जो रागादिक तिम को तो
और लेयवे योग्य जो निज भाव तिनको लेऊ । छान दर्शन मेरे स्वाभाव हो है सो मोसे भमेय है और में
रोगदिक समस्त पर पदार्थ कर्म के संयोग कर उपजे के मोसे न्यारे है देह त्याग के समय, संसारो लोक भूमिका तया तण का सायरा करे हैं सो सायरा नहीं यह जीव हो पापं युधि रहित. होय, तव अपना आप हो साथत है ऐसा विचार कर राजा मधु ने दोनों प्रकार के परिग्रह भावों से तजे और हाथी की पीठ पर बैठा है। सिर के केशलोंच करता मया, शरीर धावों कर