SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३० ) श्ररध्व संवेग समाधान ग्रन्थ चर्चा नं० १७ में इस प्रकार किया तिलक नाम काव्य विषै पुरुष के चार बाह्य लक्षण चार ही. सम्यक्त के कहे हैं- यानी स्त्रीजन के संभोग बेटी के उपनाचने करि * विपती विषै धीर्य भाव सों कार्य के निरवाह से इन चार चिन्ह करि पुरुपकी यतीन्द्रय पुरुष शक्ति जानी जाने है तैसे ही शान्त भाव भाव * दया भाव * आस्तिक्य भाव * चारों श्रव्यभिचारी भावनसों सम्यक्त रत्न जाना जावैहै १ --- क्रोधादि रहित सम भाव को शान्त भाव कहिये । २ - कोमलता युक्त परिणाम को दया माय कहिये | ३ - धर्म, धर्म के फल विषे मीति होय तथा देह भोगस उदासीनता होय तिसे संवेगं भाव कहिये । इन यानी 8 – आप्तागम पदार्थ विषै नास्ति बुद्धि न होय जिसे श्रास्तिक भाव कहिये । यह चारों भाव कभी विभचरें नहीं । विकार रूप न 'होवें यह सम्यकदृष्टी का बाह्य लक्षण है । नोट --- जिसने सम्यक्त ग्रहण कर लिया उसके हाथ में चिन्तामणि है । धनमें कामधेनु जिसके घरमें कल्पवृक्ष है उसके अन्य क्या प्रार्थना की श्रावश्यकता है। कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामणि तो कहने मात्र है । सम्यक्त ही कल्पवृक्ष कामधेनुं चिंतामणि है - यह जानना (. परमात्म प्रकाश श्लोक १४१ से उद्धृत ) है " यश कहे हैं । करि ! वेटा ३३ – उपदेश ! १ - सन्सार में अनादि से प्रचलित मिथ्यासतों के जाल में बचने के लिये पहले अपने जेन शास्त्रों को पढ़ो और उनका मनन करो।..
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy