Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

View full book text
Previous | Next

Page 147
________________ बगैर नहीं रहना, नित्य करना । यम नेम अवश्य करना । श्रावक, श्राविका वृत ग्रहण करें। यदि शक्ति और पाप टीक हो तो शास्त्रों का मनन कर द्रव्य क्षेत्र, काल भाव अनुकल हो, तो ब्रह्मचर्य त्याग, मनि वृत ग्रहण कर अपना और दूसरों का कल्याण करिये वरना ग्रहस्थावस्था में ही जो कद वने करने रहो । अपने और दूसरों को पहिचानों । सब जीवात्मा आत्मशक्ति अपेक्षा समान है, तिल मात्र मी फर्क नहीं है। कर्मपिक्षा भिन्नता है। नोट-वापार करने के पांच भेद है, पटना, सुनना, उपदेश देना, मनन काना, प्रश्न करना, सो जिस जीव की सों शक्ति हो, गृहण करें। एक र शान को खुद पढने व सुनने से यह जो पूर्ण अवस्था को प्रावदोता है। ४५-- आत्मज्ञान माला बागां में नू न जारे चेतन, घट ही में कुलवार हो ।।का। ज्ञान गुलाब चरित्र चमेली, विना वेल सुविचार हो। चरचा चम्पा महक रहो है, मरवो मोह निवार हो॥१॥ रायवेन सिर सरना साई, शील शिरोमण घाइ हो । काई कुमत जहां तहां विगतत, देखन हुमत निवारहोत्रा समकित माली विवेक वेल ज्यों, आतम रोप निहार हो । क्यारी क्षमा जहां तहां सोह, सींचत अमृत धारही।।३।। . बहु विध कर यह वृक्ष फन्नों है, दराड़ा फल लागी हारदो। धन्य पुरूप जिन वान निहारो, अव चल देख रहार हा

Loading...

Page Navigation
1 ... 145 146 147 148 149 150 151