Book Title: Dharm Jain Updesh
Author(s): Dwarkaprasad Jain
Publisher: Mahavir Digambar Jain Mandir Aligarh

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Page 143
________________ ( १३६ ) २-स्वाध्याय करने के नियम धारगा दरो । जेन व प्रचार करने का यही एक उपाय है। ६- अपने जीवके समान समस्त जीवों को जानी । 2- दूसरों के दुखों को दूर करने के लिये हर तरह में तय्यार रहो । ५—जैन धर्म का उपदेश सम्मार के समस्त जीवों के कल्याण के लिये है । यह किमी एक समुदाय विशेष का हो धर्म नहीं है । इसलिये इसका प्रचार जगत भरमं करदो । ६- अपने से कोई बात शास्त्र विरुद्ध भूलसे कहो नाय तो उस भूल को 'हर समय स्वीकार कालो । भुंठा पक्ष मत करो । ७- प्रत्येक नगर में जैन सभा, जैन पाठशाला और जैन पुस्तकालय की स्थापना करदो। और अपने नवयुवक जैन श्रजैन भाइयों को धर्मानुराग कराते रहो : ३४ - जैन धर्म के सिद्धान्त । (१) जैन धर्म थात्मा का निज स्वभाव है । (२) सन्सारी श्रात्माही मिय्यात्व रागडपादि भावों का नाशकर अपनी सम्पूर्ण कर्मच्यो, माया से लिप्त हो परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लोक शिखर पर अतीतकाल के शुद्धात्माओं को अवगाहना में हो एक क्षेत्रावगाह रूप स्थित हो अनन्त काल तक अनन्त सुखमें मग्न रहा करता है । (३) पूर्वोक परमात्म पद के अविनाशी सुख में प्राप्त होने का श्रहिंसामयी उपदेश जैन धर्म से ही मिलता है और वह थहिंसा, राग द्वेषादिक भावों से प्राणों का घात न करना हो है । • (४) सन्सार में अहिंसामयों वीतराग विज्ञानता हो सार भूत है अतः उसको प्राप्त करनेके लिये वीतराग, सबंध और हितोपदेशी की हो उपासना करना योग्य है । (५) जीव, पुद्गल, धर्म, श्रधर्म, श्राकाश और काल इन छः द्रव्यों मय जगत अनादि सिद्ध है। (६) जीवात्मा से नितान्त भिन्न कोई एक परमात्मा नहीं है । .

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